26.2.12

जो गीत तुम खुद का कह रहे हो मुकुल ने उसको जिया है पगले




कि जिसने देखा न खुद का चेहरा उसी  के  हाथों  में  आईना है,
था जिसकी तस्वीर से खौफ़ सबको,सुना है वो ही तो रहनुमां है.
हां जिनकी वज़ह से है शराफ़त,है उनकी सबको बहुत  ज़रूरत-
वो  चार लोगों से डर रहा हूं… बताईये क्या वो सब यहां हैं..?
अगरचे मैंने ग़ज़ल कहा तो गुनाह क्या है.बेचारे  दिल का...
वो बेख़बर है उसे खबर दो    कि उसके चर्चे कहां कहां हैं..?
वो लौटने का करार करके गया था, लेकिन कभी न लौटा-
करार करना सहज सरल है- निबाहने का ज़िगर कहां है .
जो गीत तुम खुद का कह रहे हो मुकुल ने उसको जिया है पगले
किसी को तुम अब ये न सुनाना सभी कहेंगे सुना- सुना है .

25.2.12

जितनी ज़ल्द हो सके मन से कुण्ठा को विदाई दिलाना ज़रूरी है.


                           उदास आंखों में सपनों ने जगह बना ही ली . अक्सर हम सोचा करतें हैं कि हम सबसे ज़्यादा दुखियारे अकिंचन हैं.हमारी आदत है ऊंचाईंयों तक निगाह करने की. और फ़िर खुद को देखने की. अब बताईये परबत देख कर आप खुद को देखेंते हैं तब  तो सामान्य सी बात है कि खुद को नन्हा महसूस करेंगे ही. बस यहीं कुंठाएं जन्म ले लेतीं हैं. हम खुद को असहज पाते हैं.    

दस बरस का था तब मुझे लगा कि मैं क्रिकेट खेल सकता हूं और फ़िर कोशिश की बैसाखियों के सहारे दो रन बनाए भी. दूसरी ही बाल पर क्लीन बोल्ड. बोल्ड होने से अधिक पीढा थी खेल न पाने की. बाल मन अवसाद से सराबोर हुआ . रोया भी ....खूब था तब
      रेल स्टेशन के क़रीब रेल्वे  क्वार्टर में  अक्सर दुख:द खबरें मिला करतीं थीं. उस दिन स्कूल से लौटते वक़्त देखता हूं कि एक इंसान जाने किस भ्रम के वशीभूत हुआ रेल पटरी पार करने के बाद वापस लौटा और यकायक रेलगाड़ी की चपेट में आ गया.. मेरी आंखों के सामने घटा ये सब ये क्या .. उफ़्फ़ दौनों टांगें .. खुद से खूब सवाल करता रहा -"बताओ, अब वो जी भी गया तो क्या सहजता से चल सकेगा..?     
  अर्र अब उस बेचारे के तो दौनों पांव..?" 
   मुझसे ज़्यादा बुरी दशा में है वो.. उसके तो दौनों पैर.. ही न होंगे.. अब 
   जी हां उसी दिन से मन का अकुलाहट से रिश्ता ही टूट गया. 
  कहानी का इशारा है कि जितनी ज़ल्द हो सके मन से कुण्ठा को विदाई दिलाना ज़रूरी है. 
       पर वयस्क होने पर कुण्ठाएं बेलगाम हो जातीं है. अक्सर बच्चों में बगावती तेवर आपने देखे होंगे.ये ही बच्चे बड़े होकर एक बेलगाम ज़िंदगी को जीते हैं. सही वक़्त है बचपन जब आप बच्चों को अभावों कमियों पराजयों से मुक़ाबला करना सिखा सकते हैं...



   ज्ञान मत बांटिये भाषण मत दीजिये दिखाइये उनको अभाव ग्रस्त जीवनों की परिस्थितियाँ . अक्सर हम ग़रीब, बेसहारा यतीमों को "अनाथ" कह कर दया भाव से देखते हैं. मेरे एक मित्र ने मित्रों का नज़रिया ही बदल दिया. जी हाँ वही दीपेंद्र बिसेन जी ने.  अनाथ नहीं मानते ऐसे बे सहारा बच्चों को .
तस्वीरें बता रहीं हैं बाल-गृह के बच्चे अब सुनहरे सपने देख रहें हैं. खेल रहें हैं पढ़ रहे हैं.. योग सीख रहे हैं.. 
 तभी तो मैंने भी तय किया है इन बच्चों  के साथ सपरिवार एक दिन अवश्य बिताउंगा ..  
मेरे बच्चे समझेंगे अभाव से साहस कैसे हासिल होता है. 
जानेंगें ये भी कि ये वो बच्चे हैं जिनको जिद्द शब्द के मायने नहीं मालूम.. 

इन बच्चों की आंखों  में सपने आने लगे हैं.. सपने पूरे भी होते जा रहे है, वे भी पार्क में जाते हैं..
  
                                                                                अबोले जंगल में सरसराते पत्तों  की आवाज  सुनते  ये बच्चे कितने उमंग से निकल पड़े हैं जीवन यात्रा पर ..............!! 
जाने कौन इनमें से किसी करिश्मे को आपके सामने ले आए 



जो भी हो एक दिन इनके साथ बिताने से महसूस होता है कि "जीवन के मायने क्या हैं..?"

अंत में दीपेंद्र भाई को एक बार फिर आभार तस्वीरें उपलब्ध कराने के लिए.
तो मित्रो आप आ रहें हैं मिलने..... इन बच्चों से 

24.2.12

बहुत प्रिय हैं पादुकाएं.. आपको मुझको सभी को अगर सर पर जा टिकें तो रुला देतीं हैं सभी को.

इन पे अब ताले लगा दो ताकि ये न चल सकें..
ज़ुबां की मानिंद इनको चलने की बीमारी लग गई.


वो कतरनी सी चले हैं..ये सरपट गाल पर
यक़बयक़ ये जा चिपकती चमकते से भाल पर 
रबर और चमड़े की किसी की भी बनी हो
असरकारक हो ही जातीं दोस्तों की चाल पर 
देवताओं से अधिक मन में पादुकाओं की लगन
इनके चोरी जाते ही,सुलगती मन में अगन..
बहुत प्रिय हैं पादुकाएं.. आपको मुझको सभी को 
अगर सर पर जा टिकें तो रुला देतीं हैं सभी को.
जागती जनता मशालें छोड़ जूते हाथ ले 
सरस चिंतन से अभागी बढ़ा लेती फ़ासले.




  

23.2.12

वर्जनाओं के विरुद्ध खड़े : सोच और शरीर

लाइफ़-स्टाइल में बदलाव से ज़िंदगियों में सबसे पहले आधार-भूत परिवर्तन की आहट के साथ कुछ ऐसे बदलावों की आहट सुनाई दे रही है जिससे सामाजिक व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन अवश्यंभावी है. कभी लगता था मुझे भी  कि सामाजिक-तानेबाने के परम्परागत स्वरूप को आसानी से बदल न सकेगा . किंतु पिछले दस बरसों में जिस तेजी से सामाजिक सोच में बदलाव आ रहे हैं उससे तो लग रहा कि बदलाव बेहद निकट हैं शायद अगले पांच बरस में... कदाचित उससे भी पहले .कारण यह कि अब "जीवन को कैसे जियें ?" सवाल नहीं हैं अब तो सवाल यह है कि जीवन का प्रबंधन कैसे किया जाए. कैसे जियें के सवाल का हल सामाजिक-वर्जनाओं को ध्यान रखते हुए खोजा जाता है जबकि जीवन के प्रबंधन के लिये वर्जनाओं का ध्यान रखा जाना तार्किक नज़रिये से आवश्यक नहीं की श्रेणी में रखा जाता है.जीवन के जीने के तौर तरीके में आ रहे बदलाव का सबसे पहला असर पारिवारिक व्यवस्था पर खास कर यौन संबंधों  पड़ता नज़र आ रहा है. बेशक विवाह नर-मादा के व्यक्तिगत अधिकार का विषय है पर अब  पुरुष अथवा महिला के जीवन की व्यस्तताओं के चलते उभरतीं  दैहिक (अनाधिकृत?) आकांक्षाओं के प्रबंधन का अधिकार भी मांगा जावेगा कहना कोई बड़ी बात नहीं. वास्तव में ऐसी स्थिति को मज़बूरी का नाम दिया जा रहा है.फ़िलहाल तो लव-स्टोरी को वियोग हेट स्टोरी में बदलते देर नहीं लगती पर अब  मुझे जहां तक आने वाले कल का आभास हो रहा है वो ऐसा समय होगा जो  " दैहिक (अनाधिकृत?) आकांक्षाओं के प्रबंधन" को एक अधिकार के रूप में स्वीकारेगा. दूसरा पक्ष ऐसे अधिकार की मांग के प्रति सकारात्मक रुख अपनाएगा. उसका मूल कारण "सर्वथा दूरियां एवम व्यस्तता जो अर्थोपार्जक कारण जनित होगी"
वेब-दुनियां से साभार
  यह कोई भविष्यवक़्तव्य नहीं है न ही मैं भविष्य वक्ता हूं... वरन तेजी से आ रहे बदलाव से परिलक्षित हो रही स्थिति का अनुमान है. जिसे कोई बल-पूर्वक नहीं रोक सकता.
   सामाजिक व्यवस्था द्वारा जनित परम्परागत वर्जनाओं के विरुद्ध  सोच और शरीर का खड़ा होना भारतीय परिवेश में महानगरों, के बाद  नगरों से ग्राम्य जीवन तक असर डाल सकता है.  
     आप हम भौंचक इस विकास को देखते रह जाएंगें. सेक्स एक बायोलाजिकल ज़रूरत है उसी तरह अपने पारिवारिक "समुच्चय में रहना" सामाजिक ज़रूरत है. आर्थिक कार्य का दबाव सबसे पहले इन्ही बातों को प्रभावित करेगा. तब दम्पत्ति बायोलाजिकल ज़रूरत को पूरा करते हुए पारिवारिक समुच्चय को भी बनाए रखने के लिये एक समझौता वादी नीति अपनाएंगें. हमारा समाज संस्कृति की बलात रक्षा करते हुए भी असफ़ल हो सकता है ऐसा नहीं है कि इसके उदाहरण अभी मौज़ूद नहीं हैं.बस लोग इस से मुंह फ़ेर लेते हैं.
*ओशो का इस संबंध में एक अजीबोगरीब तर्क था कि - विवाह के पूर्व ही मानसिक शारिरिक सामंजस्य बने रहने की पुष्टि कर लेनी चाहिए तब विवाह बंधन में बंधना चाहिए । ओशो से इस मुद्दे पर मेरी पूर्णतया असहमति है । समाज ओशो का कम्यून नहीं है । उनसे न समाज शासित है न मैं ।*
                                      पाश्चात्य व्यवस्था इस क़दर हावी होती नज़र आ रही है कि किसी को भी इस आसन्न ब्लैक होल से बचा पाना सम्भव नज़र नहीं आ रहा. हो सकता है मेरा पूरा आलेख झूठा साबित हो जाए जी हां अवश्य किंतु तब जबकि जीवनों में स्थायित्व का प्रवेश हो तब ही यह सम्भव है . ट्रक ड्रायवरों सा यायावर जीवन जीते लोग (महिला-पुरुष) फ़्रायड को तभी झुठलाएंगे जबकि उनका आत्म-बल आध्यात्मिक चिंतन से परिपक्व हो पर ऐसा है ही नहीं. आध्यात्म एवम सामाजिक व्यवस्था के तहत बहुल सेक्स अवसरों के उपभोग को रोकने नैतिकता का ज्ञान कराते हुए संयम का पाठ पढ़ाया जाता है ताकि एक और सामाजिक नैतिकता बनी रहे दूसरी ओर यौन जनित बीमारियों का संकट भी जीवनों से दूर रहे, जबकि विज्ञान केवल कंडोम के प्रयोग से एस.टी.डी.(सेक्सुअली-ट्रांसमीटेड-डिसीज़) को रोकने का परामर्श देता है. 
                 सामाजिक व्यवस्था पाप-पुण्य की स्थितियों का खुलासा करतीं हैं तथा एक भय का दर्शन कराती है तथा संयम का आदेश देतीं हैं वहीं दूसरी ओर अत्यधिक अधिकाराकांक्षा तर्क के आधार पर जीवन जीने वाले इस आदेश को पिछड़ेपन का सिंबाल मानते हुए नकार रहे हैं .. देखें क्या होता है वैसे सभी चिंतक मानस मेरी अनुभूति से अंशत: ही सही सहमत होंगे..........         
      
आभास को सुनिये नाटी एट 40 में

http://player.raag.fm/player/flash/albumtrack.php?artist=3&album=33965

16.2.12

तस्वीर ही बदल दी : संवेदनशील अधिकारी दीपेंद्र सिंह के ज़ज़्बे को सलाम

संवेदनशील अधिकारी दीपेंद्र सिंह बिसेन
    बाल-गृह जबलपुर में कोई दस बरस पहले गया था मैं.... मुझे अच्छी तरह याद है इस संस्थान में प्रवेश द्वार से ही उपेक्षा एवम नैराश्य का वातावरण पहली ही नज़र में मुझे दिखाई दे गया था.बेसहारा बच्चों के लिये स्थापित आवासीय संस्था की स्थिति देख कर घोर निराशा लिये लौटा था. पिछले बरसों में मध्य-प्रदेश सरकार के निर्णय अनुसार महिला बाल विकास विभाग को बच्चों एवम किशोरों के लिये संचालित कार्यक्रमों/योजनाओं के क्रियांवयन का दायित्व गया.जबलपुर में संचालित शासकीय बाल-गृह भी इसी निर्णय के तहत महिला बाल विकास विभाग को हस्तांतरित किया गया. जिसकी बागडोर संवेदनशील अधिकारी दीपेंद्र सिंह बिसेन जो बाल विकास परियोजना अधिकारी के रूप में पदस्थ हैं को सौंपी गई. इंजिनियरिंग के विद्यार्थी होने के बावज़ूद संवेदनात्मक भाव से परिपूर्ण हैं  दीपेंद्र . तभी तो लीक से हटकर काम करने का जोखिम भी उठाकर तस्वीर बदलने के प्रयास में लग गए.बाल-गृह के बच्चों के पैर में चप्पल न देख मन में उदासी होना जायज थी.  जाड़े के पहले अपने बच्चों की तरह उन बच्चों के तन पर ऊलन कपड़ों की चिंता भी सता रही थी दीपेंद्र को जो बाल-गृह में रह रहे थे. मित्रों से परामर्श किया. कुछ क़दम खुद ने उठाए कभी साथियों से आग्रह किया. किसी को भी कोई आपत्ति क्यों होती जिसे जितना मन में आया सहयोग किया.बच्चों को शैक्षिक व्यवस्था का अभाव भी चिंता का विषय था... यानी संस्थान की समूची कमियां खत्म करते हुए बच्चों को भरपूर बचपन जीने देने की स्थिति में लाना. दीपेंद्र सफ़ल हुए यूनिसेफ़ के सौजन्य से बाल-गृह में अब एक स्कूल संचालित है. संस्थान की दीवारें अब गंदगी से नहीं खूबसूरत रंगों से रंगी हैं. बच्चे क्लास रूम में पढ़ते हैं...शुद्ध पानी पीते हैं. सुबह वेद-मंत्रों भजनों से जागते हैं बाल गृह के बच्चे. सबके पास क़िताबे कापियां हैं उनकी आंखें सपने भी देखतीं हैं... बच्चे पिकनिक भी तो जाते हैं. योगाभ्यास, संगीत, समूह चर्चा, यानी वो सब जो एक परिवार के बच्चे को हासिल होता है उनको भी हासिल हो रहा है..अब तो अखबार भी छापते हैं ऐसी खबरें...     
                                     //बालगृह में दस दिवसीय योग शिविर //
          महिला एवं बाल विकास विभाग तथा योग केन्द्र रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय के तत्वावधान में बालगृह, गोकलपुर में 10 दिवसीय योग प्रशिक्षण शुभारंभ किया गया ।  14 फरवरी तक चलने वाले इस योगप्रशिक्षण शिविर में 8 से 16 वर्ष की उम्र के लगभग 52 बच्चों को योग के प्रारंभिक अभ्यासों, सूर्य नमस्कार एवं प्राणायाम से परिचित कराया जायेगा। उक्त जानकारी देते हुए बाल गृह के अधीक्षक एवं परियोजना अधिकारी दीपेन्द्र सिंह बिसेन ने बताया किबच्चों में स्वास्थ्य संबंधी जागरूकता बढ़ाने के उद्देश्य से इस शिविर का आयोजन किया जा रहा है ।दिवसीय इस प्रशिक्षण शिविर का संचालन योग केन्द्र, रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय से सम्बद्धयोगाचार्य वर्षा अवस्थी एवं सलिल समाधिया द्वारा किया जा रहा है । योगाचार्या वर्षा अवस्थी ने बताया कि इस शिविर में बच्चों को एकाग्रता बढ़ाने एवं स्मृति प्रखर करने सेसंबंधित योगासनों का विशेष प्रशिक्षण दिया जा रहा है । इस कार्यक्रम के शुभारंभ अवसर पर परियोजना अधिकारी  मनीष शर्मा, योगाचार्य डॉ. आदित्य नारायण शुक्ल, डॉ. चिन्ताहरण बेताल, डॉ. रेखा काकोड़िया एवं किशोर गृह के शेख मुबारक, संतोष पटेल, प्रकाश परिहार एवं प्रवीण कढ़ार उपस्थित थे ।

15.2.12

भोपाल वाली बुआ

भोपाल वाली बुआ..

कला बुआ वाला भोपाल
मामाजी वाला भोपाल
मेरा नहीं हम सबका भोपाल
जी हां.. गैस रिसी थी तबका भोपाल
जिसे निगला था
मिथाइल आइसो सायानाईट के
धुंएँ ने जो
समा गया गई थी
हवा के साथ
देहों में
जो  देहें
 निष्प्राण हो गयीं
जो बचीं वे ज़र्ज़र
आज भी कांपते हुए जी रहीं हैं
उनमें से एक हैं मेरी भोपाल वाली बुआ
जिसने देह में बैठे प्राण को आत्म-साहस के साथ
सम्हाले रखा हैं ,
बुआ रोज जन्मती  हैं
रोजिन्ना मारती है 

भोपाल वाली बुआ 
रो देती है.......
उन को याद  कर
शाह्ज़हानाबाद की आम वाली मस्जिद
के आसपास रहने वाली
सहेली आशा बुआ को,
अब्दुल चाचा,
जोजफ सतबीर को
यानी वो सब जिनकी
हैं अलग अलग इबादतगाहें
बुआ अब खिल खिला के हंसती नहीं है
उसके बिना शादियों में ढोलकी बज़ती नहीं है
बुआ तुम फ़िर बनना मेरी बुआ जनम जनम तक
अब बुआ जरजर शरीर को लेकर सबसे बातें करती है 
बहुत धीमे धीमें सुर निकलते हैं 
सच उस हादसे ने छीनी 
उनकी ओजस्विनी मूरत हम सबसे 
पर वो हमारे साथ हैं हादसे  के 
तीस बरस बाद तक
आत्मशक्ति को परिभाषित  करती
   

13.2.12

पाडकास्ट : जैसे तुम सोच रहे साथी

श्रीमति रचना बजाज के सौंजन्य से प्राप्त श्री विनोद श्रीवास्तव जी की एक रचना --
सुनिए  नकी  ही आवाज में ---



जैसे तुम सोच रहे साथी 

जैसे तुम सोच रहे साथी,वैसे आजाद नहीं हैं हम,
जैसे तुम सोच रहे साथी,वैसे आजाद नहीं हैं हम।

पिंजरे जैसी इस दुनिया में, पंछी जैसा ही रहना है,
भर पेट मिले दाना-पानी,लेकिन मन ही मन दहना है।
जैसे तुम सोच रहे साथी, वैसे संवाद नहीं हैं हम,
जैसे तुम सोच रहे साथी, वैसे आजाद नहीं हैं हम।

आगे बढ़नें की कोशिश में ,रिश्ते-नाते सब छूट गये,
तन को जितना गढ़ना चाहा,मन से उतना ही टूट गये।
जैसे तुम सोच रहे साथी,वैसे आबाद नहीं हैं हम,
जैसे तुम सोच रहे साथी,वैसे आजाद नहीं हैं हम।

पलकों ने लौटाये सपने, आंखे बोली अब मत आना,
आना ही तो सच में आना,आकर फिर लौट नहीं जाना।
जितना तुम सोच रहे साथी,उतना बरबाद नहीं हैं हम,
जैसे तुम सोच रहे साथी,वैसे आजाद नहीं हैं हम।

आओ भी साथ चलें हम-तुम,मिल-जुल कर ढूंढें राह नई,
संघर्ष भरा पथ है तो क्या, है संग हमारे चाह नई।
जैसी तुम सोच रहे साथी,वैसी फरियाद नहीं हैं हम,
जैसे तुम सोच रहे साथी,वैसे आजाद नहीं हैं हम। 
विनोद श्रीवास्तव जी की रचना की सस्वर प्रस्तुति मुझे भी कुछ कहना है ब्लाग की स्वामिनि रचना बज़ाज द्वारा

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विश्व का सबसे खतरनाक बुजुर्ग : जॉर्ज सोरोस

                जॉर्ज सोरोस (जॉर्ज सोरस पर आरोप है कि वह भारत में धार्मिक वैमनस्यता फैलाने में सबसे आगे है इसके लिए उसने कुछ फंड...