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बुधवार, फ़रवरी 15, 2012

भोपाल वाली बुआ

भोपाल वाली बुआ..

कला बुआ वाला भोपाल
मामाजी वाला भोपाल
मेरा नहीं हम सबका भोपाल
जी हां.. गैस रिसी थी तबका भोपाल
जिसे निगला था
मिथाइल आइसो सायानाईट के
धुंएँ ने जो
समा गया गई थी
हवा के साथ
देहों में
जो  देहें
 निष्प्राण हो गयीं
जो बचीं वे ज़र्ज़र
आज भी कांपते हुए जी रहीं हैं
उनमें से एक हैं मेरी भोपाल वाली बुआ
जिसने देह में बैठे प्राण को आत्म-साहस के साथ
सम्हाले रखा हैं ,
बुआ रोज जन्मती  हैं
रोजिन्ना मारती है 

भोपाल वाली बुआ 
रो देती है.......
उन को याद  कर
शाह्ज़हानाबाद की आम वाली मस्जिद
के आसपास रहने वाली
सहेली आशा बुआ को,
अब्दुल चाचा,
जोजफ सतबीर को
यानी वो सब जिनकी
हैं अलग अलग इबादतगाहें
बुआ अब खिल खिला के हंसती नहीं है
उसके बिना शादियों में ढोलकी बज़ती नहीं है
बुआ तुम फ़िर बनना मेरी बुआ जनम जनम तक
अब बुआ जरजर शरीर को लेकर सबसे बातें करती है 
बहुत धीमे धीमें सुर निकलते हैं 
सच उस हादसे ने छीनी 
उनकी ओजस्विनी मूरत हम सबसे 
पर वो हमारे साथ हैं हादसे  के 
तीस बरस बाद तक
आत्मशक्ति को परिभाषित  करती
   

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