13.12.09

"भिलाई में लिए निर्णयों की घोषणा से मध्य-प्रदेश में हर्ष


सहोदर प्रदेशों यानी मध्य-प्रदेश एवं छत्तीसगढ़ के ब्लॉगर इन दिनों निरंतर नवाचारों में व्यस्त हैं . इन नवाचारों का सीधा संकेत यह भी है कि ब्लागिंग को किस तरकीब से स्तरीय और पठनीय बनाया जावे. ब्लॉग बनाम पांचवे खम्बे की ज़रुरत और उसकी उपादेयता अब किसी से छिपी नहीं है. हिंदी-ब्लागिंग यानि चिट्ठाकारिता के विकास की इस पहल से जो भी कुछ बेहतर होगा आज से पांच बरस बाद सबके सामने होगा. तभी तो भिलाई में जिस महत्वपूर्ण बात का खुलासा किया गया वो भारतीय भाषाओं के अंतर्जालीयकरण का मेल-स्टोन ही कहा जावेगा. पांचवे स्तम्भ को प्रोत्साहित करने भिलाई चिंतन बैठक में चिट्ठाचर्चा को डोमिन पर पंजीकृत करा लिया है ऋतु परिवर्तन-पर्व यानी संक्रांति के दिन से आरम्भ हो ही जावेगा. सूचना प्रौद्योगिकी के इस युग में खबर-रटाऊ सबसे आगे वाले फार्मूले से मुक्ति दिलाती हिंदी चिट्ठाकारिता ने वैचारिक-आदानप्रदान को भी बढावा दिया है.इस बात को नकारना असंभव है. अब तो भिलाई और जबलपुर इतने करीब हैं जितने कभी न थे. . छत्तीसगढ़ के ब्लागर्स का यह अनूठा प्रयास सफल होगा सभी आश्वस्त हैं पूत के पाँव पालने में ही नज़र आ जातें हैं.... ? इनके चेहरे तथा आत्म विश्वास को अनदेखा करना अथवा  नकारना हमारी भूल होगी. साधू वाद दीजिये इनको  

12.12.09

जिस दिन से देश आज़ाद हुआ है हम हमारे हक़ से ज़्यादा शायद ही कुछ सोच पा रहे हैं.....?

                                          जीवन भर प्रिवलेज़ के आदी हम लोग किस मार्गदर्शक मशाल की तलाश में हैं समझ में नहीं आ रहा हम किस दिशा में सोच रहे हैं और किस दिशा में जा रहें हैं. जिस दिन से देश आज़ाद हुआ है हम हमारे हक़ से ज़्यादा शायद ही कुछ सोच पा रहे हैं.....? क्यों आखिर क्यों हमें आने वाले समय का ख्याल नहीं होता बस आत्म-केन्द्रित सोच कुंठित वृत्ति इसके आगे भी कुछ सोचा-समझा है हमने तो आत्म-प्रसंशा के लिए .
                            आज का दौर वो दौर है जिस दौर में राजनैतिक दबाव में आकर मशीनरी को काम करना होता है नियमों को बलाए-ताक रखवाने में अग्रणी राज-नीतिज्ञों को अपने "शक्तिवान होने का दुरुपयोग न तो करना चाहिए और न हीं अपने इर्द-गिर्द स्वपन-दिखाने वाला आभा मंडल ही बनाना चाहिए " नियमों के अनुसार कार्य कराने और शास्त्री जी की तरह सादगी पूर्ण विचार वान  देश का सच्चा सेवक होता है  बाकी जो भी देश सेवक होने का दावा करतें हैं नाटकबाज़ नज़र आतें हैं दुनिया को.................................!
                                                         

9.12.09

कुंठा का कोई अंत नहीं है

अल्पग्य  लोगों  कुंठा का कोई अंत नहीं है अन्यथा ब्रिगेडियर-महफूज़ अली  को  विशेष-रपट  देने की क्या ज़रुरत थी .किसिम किसिम के विचार उठ रहें हैं मन में कितनी गन्दगी है....उन  लोगों के ..जो....घटिया और गलीच सोच वाले जो हिंसा के रास्ते धर्म की स्थापना करने निकल पड़े.किसी धर्म के  रास्ते चलकर  ईश्वर को पहचाना जाता है. जबकी कुंठित-लोग जिन्हें धर्म के सार-तत्व यानी अध्यात्म का ज्ञान नहीं है वे ईश्वर को परिभाषित करने की बेवज़ह कोशिशों में लिप्त हैं . जब सभी पंथों धर्मों के दिव्य साहित्यों में लिखा है कि ईश्वर से साक्षात्कार सहज नहीं है न तो चार किताबें बांच के कोई देवदूत हो जाता न ही श्लोक ऋचाएं गाकर उस दिव्य शक्ति की प्राप्ति होती है. सौरभ भाई आपकी सोच जब इतनी उम्दा है
अपने ज़ख्मों को अपनो को बता कर रखना ।
मन्दिरो में ही मिलते हो भगवान जरुरी नहीं ,
हर किसी से रिश्ता बना कर रखना .
                     तो एक बार तो सोचते तो शायद इतनी अफसोस जनक स्थिति नहीं आती गौर से देखो इस तस्वीर में तुम्हारे आराध्य नहीं तुम दौनों ही हो .=>
प्रिय भाई जो सच्चा ईश्वरवादी होगा वो अपने आप से बेखबर होगा उसे  यह तक नहीं मालूम होता कि वो कौन है.  न तो वो हिन्दू होता है न मोमिन न सिक्ख न ईसाई वो सिर्फ और सिर्फ एक इंसान होता है.जिसे कहा खुद तराशता है. अपना अंश भरता है उसमें . जो खुद के तर्कों के ज़रिये प्रभू के पथ पर चलने का अभिनय करता है उससे  परम पिता का कोई नाता वैसे भी नहीं होता. मुझे आपसे बस इतनीं गुजारिश करनी है कि प्रभू की खोज सलीम खान जैसों की बकवास से रुके न .! महफूज़ भाई जैसे भी हैं.... जो वाकई "स्वच्छ सन्देश दे रहे हैं.!"

5.12.09

जीत लें अपने अस्तित्व पर भारी अहंकार को

आज
तुम मैं हम सब जीत लें
अपने अस्तित्व पर भारी
अहंकार को
जो कर देता है
किसी भी दिन को कभी भी
घोषित "काला-दिन"
हाँ वही अहंकार
आज के दिन को
फिर कलुषित न कर दे कहीं ?
आज छोटे बड़े अपने पराये
किसी को भी
किसी के भी
दिल को तोड़ने की सख्त मनाही है
कसम बुल्ले शाह की
जिसकी आवाज़ आज भी गूंजती
हमारे दिलो दिमाग में

मन का पंछी / यू ट्यूब पर सुनिए


Man ka Panchhi मन का पंछी यू  ट्यूब पर सुनिए 

मन का पंछी खोजता ऊँचाइयाँ,
और ऊँची और ऊँची उड़ानों में व्यस्त हैं।

चेतना संवेदना, आवेश के संत्रास में,
गुमशुदा हैं- चीखों में अनुनाद में।
फ़लसफ़ों का किला भी तो ध्वस्त है।
मन का पंछी. . .

कब झुका कैसे झुका अज्ञात है,
हृदय केवल प्रीत का निष्णात है।
सुफ़ीयाना, इश्क में अल मस्त है-
मन का पंछी. . .
बाँध सकते हो तो बाँधो, रोकना चाहो तो रोको,
बँधा पंछी रुका पानी, मृत मिलेगा मीत सोचो
उसका साहस और जीवन इस तरह ही व्यक्त है।।

29.11.09

मिसफिट जीवन के छियालीस साल

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सच किसी पासंग सही तरीके न जम सका जीवन क्या मिसफिट होने का आइकान है आप देखना चाहतें हैं तो आइये कुछ दिन साथ गुजारें अथवा जो लिख रहा हूँ उसे बांचिये
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29-11-09  को 46 वर्ष की उम्र पूरी हो जाएगी पूरी रात कष्ट प्रद प्रसव पीड़ा में गुज़री सुबह नौ बजाकर पैंतालीस मिनिट पर जन्मा मैं अपने परिवार की चौथी संतान हूँ उस दौर में सामन्यत: 6 से 12 बच्चों की फौजें हुआ करतीं थीं, पिताजीयों  माताजीयों  के सर अपने बच्चों के अलावा कुटुंब के कई बच्चों के निर्माण की ज़िम्मेदारी भी हुआ करती थी जैसे ताऊ जी बेटी की शादी छोटे भाई बहनों की जिम्मेदारियां रोग-बीमारियों में तन-मन-धन से  भागीदारी करनी लगभग तय शुदा थी गाँव के खेत न तो आज जैसे सोना उगलते थे और ना हीं गाँव  का शहरों और सुविधाओं से कोई सुगम वास्ता था . सो दादा जी ने अपने सात बेटों को खेतों से दूर ही रखा जितना संभव हुआ पढाया लिखाया . गांवों से शहर की ओर खूब पलायन हुआ करते थे तब पहली कक्षा से भाई-भावजों के साथ शहर भेज दिए जाते थे बच्चे किन्तु पिता जी तो दसवें दर्जे में ही शहर आए हिन्दी मीडियम से सीधे क्रिश्चियन हाई स्कूल में दाखिल हुए चाय सात माह तक तो अग्रेज़ी से  भाषाई दंगल करते कराते मेट्रिक पास होते ही नौकरी  कर ली कुछ दिन तहसीलदार के दफ्तर में फिर रेलवे में सहायक स्टेशन मास्टर जाने कहाँ कहाँ घूमते रहे. मेरा जन्म तब हुआ जब वे गाडरवारा आशुतोष राणा की जन्म भूमि के पास की स्टेशन पर तैनात थे. यहीं  से  कुछ  दूर रजनीश का ठौर ठिकाना भी मिलता है . कुल मिला के नरमदा के नज़दीक ही रहा हमारा परिवार माँ की कृपा का एहसास उस समय पिताजी जुड़ चुके थे ....स्वानी शुद्धानंद नाथ से जो जो गृहस्थ  जीवन में  आध्यात्म योग के प्रणेता है सैकड़ों परिवारों को मुदिता के आध्यात्मिक   स्वरुप से वाकिफ करा चुके हैं .
मेलोडी ऑफ़ लाइफमेलोडी ऑफ़ लाइफ
इस किताब में उन पत्रों का संकलन है जो गुरुवर ने अपने शिष्यों को  लिखे थे . यही आधार बना हमारी जीवन का अत: इसका ज़िक्र ज़रूरी था.
_____उन दिनों पोलियो का शिकार आसानी से हो जाते थे बच्चे मध्य-वर्ग, निम्न-वर्ग, के बीच ज़रा सा फासला होता था ज्ञान सूचनाओं के मामले में मुझे भी तेज़ बुखार आया जन्म के एक वर्ष के बाद और पूरा दायाँ अंग क्षति ग्रस्त कर गया पोलियो का वायरस . यानी  सव्यसाची के लिए कठोर तपस्या का समय आ चुका था. माँ कहती थी मेरे दूध का माँ बढाना बेटे तुमको पोलियो हो  जाना कुछ इस तरह परिभाषित किया जाता रहा है:-"ये तुम्हारे कर्मों का फल है...?"
मेरे  ताऊ जी कहते थे -"पूर्वजन्म के पापों का परिणाम है "..............कितनी आहत होती होगी माँ   किन्तु किसी के मान-सम्मान में कमीं नहीं आने दिया. सदा सद कार्यों में लगी रहने वाली सव्यसाची ने मुझे सदैव लक्ष्य उसकी पूर्ती के लिए साधन और साधनों के प्रबंधन का पाठ पढाया .योग्य बनाने के लिए माचिस की तीलियों से अक्षर लिख के अक्षर ज्ञान करने वाली तीसरी हिंदी पास माँ  ने कब मन में कविता को पहचाना याद तो नहीं है... किन्तु इतना ज़रूर याद है कि माँ ने कहा था साहित्य कविता से रोटी मत कमाना. उसके लिए नौकरी करो साहित्य का सृजन आत्म कल्याण के लिए करना.
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जीवन का सबसे कठिन समय वो था जब रेलवे कालोनी से लगभग तीन किलोमीटर दूर स्कूल जाना होता था वो भी पैदल . प्रारम्भिक कक्षाओं में तो टाँगे पर जाने का अवसर था किन्तु गोसलपुर में खेतों के रास्ते पैदल कंधे दर्द देने लगते थे. समय भी खर्च होता था. कभी नौकरों के काँधे कभी किसी की सायकल कभी पैदल स्कूल जाना कुल मिला के ज़द्दो-ज़हद की भरमार आए दिन किसी न किसी नई परिस्थिति से सामना करते कराते हाई-स्कूल की दसवीं परिक्षा पास कर ही ली. ग्यारहवीं की बोर्ड परीक्षा के लिए जबलपुर में दाखिला ले लिया. पूरा परिवार जबलपुर शिफ्ट हो गया 1980 में कुछ राहत मिली. सुबह से शाम तक पड़ना और गंजीपुरा साहू  मोहल्ले के बच्चों को कोचिंग देना ताकि शहर में आने वाली आर्थिक समस्याओं का कोई संकट न झेलना पड़े.
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डी० एन० जैन कॉलेज में दाखिला इस लिए लिया क्योंकि गणित विज्ञानं में रूचि न थी दूसरे दर्जे में पास होना कोई पास होने के बराबर न था ऐसा मेरा मानना था. सो घोर विरोध के बाद सबजेक्ट बदल के कामर्स ले लिया.नया  विषय किन्तु कठनाई नहीं हुई इस बीच कॉलेज में एक मित्र जिसे मैं याद नहीं रखना  चाहता ने प्रोफ़ेसर धगट को मेरी शिकायत कर दी :- "सर, इसे यहाँ से कहीं और बैठा दीजिये इसके कारण मुझे भी पोलियो हो सकता है ?"
सारी क्लास सन्न रह गई मैं सिर्फ उसका सिर्फ मुंह ताकता रहा अवाक सा आंसू थे कि थम नहीं रहे थे !
उस मित्र की पेशी हुई कॉलेज से निष्कासन की तैयारी हुई किन्तु जब मुझे प्रिंसिपल रूम में बुलाया गया तो मेरा कहना था :- "सर,मेरी वज़ह किसी का कैरियर खराब नहीं होना चाहिए मैं ही कॉलेज छोड़ देता हूँ."
अवाक् मेरा मुंह देखते प्रोफेसर्स कुछ की आँखें गीली थीं मुझे याद आ रहे हैं कई चेहरे. इस बीच प्रोफ़ेसर धगट मुझे बाहर ले गए और मुझे दुनियाँ जहान की अच्छी बुरी घटनाओं से परिचित कराते हुए शरीर और दिमाग में चौगुना उत्साह भर दिया. सोशल-गैदरिंग-डे पर तात्कालिक भाषण के लिए ज़बरिया मंच पर बुलाया तीन मिनट में अपनी बात कही दूसरे दिन अखबारों में मेरा चित्र छपा  भौंचक था कांपती आवाज़ से दिया भाषण इतना यश दिलाएगा कि सड़क पर निकला तो लोग मुझसे मिलने बेताब थे. वास्तव में डी० एन० जैन कॉलेज के प्रोफेसर्स ने मुझमें उत्साह  भर देने के लिए ये खेल  किया था.  मेरे प्रिय प्रोफ़ेसर धगट ने  मुझे हिदायत दी इसे मेंटेन करना तुम्हारी ज़िम्मेदारी है.किसी भी डिबेटिंग भाषण कविता पाठ प्रतियोगिता में मेरा नाम भेजना तय ही था . लगातार कॉलेज को शील्ड़ें व्यक्तिक पुरूस्कार मुझे मिलने लगे . रजनीश के रिश्ते भाई साहब प्रोफ़ेसर अरविन्द  प्रोफ़ेसर हनुमान वर्मा, प्रोफ़ेसर कोष्टा ,जैन, के अलावा सारी यूनिवर्सिटी के लोग मुझे जानने लगे . और फिर कभी पीछे मुड के न देखा. रोयाँ-रोयाँ उत्साह से भरा कितने महान है प्रोफेसर्स जिनने मुझे सजा दिया संवार दिया . आज शायद ही ऐसे कोई कॉलेज हैं जहाँ ऐसे दभुत व्यक्तित्व के धनी प्रोफ़ेसर मिलें जो मिसफिट जीवन को फिट बना दें ? 
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20.11.09

महफूज़ भाई....स्टेशन-मास्टरों के लडके कुली कबाड़ी बनतें है.



महफूज़ भाई की इस पोष्ट ने पुराने दिन याद दिला दिए भाई साहब को फर्स्ट इयर में सप्लीमेंट्री  मझले-भाई के भी अच्छे नंबर न आये मुझे नवमें दर्जे  गणित में सप्लीमेंट्री कुल मिला कर घर में कुहराम की पूरी व्यवस्था. वो भी उस इंसान के घर में जो भूमि पति के सात बेटों में पांचवां बेटा था जिसके आगे पीछे नौकरीयाँ घूमतीं थीं राज्य सरकार की इंस्पेक्टरी इस लिए छोडी की रेलवे का क्रेज़ उस दौर में ज़बरदस्त था वरना ये श्रीमान कम से कम कलेक्टर ज़रूर बनते किन्तु स्टेशन मास्टर बन के श्री काशीनाथ गंगाविशन बिल्लोरे नए नवेले मध्य-प्रदेश के नहीं भारत सरकार के नौकर हुए. सत्तर  वाले दशक में जाकर समझ पाए की की स्टेट छोड़ कर कितना गलत काम किया..... उनने......... एक बी डी ओ एक डिप्टी कलेक्टर एक तहसीलदार का रुतबा क्या होता है सो मित्रो (मित्रानियों भी ) बाबूजी हम में अधिकारी देखने लगे...थे और लगातार मेरिटोरिअस बड़े भाई और मेरा रिज़ल्ट दु:खी करता ही उनको उनने कहा था:-"स्टेशन-मास्टरों  के लडके कुली कबाड़ी बनतें है.....कितने आहत हुए थे बाबूजी
पक्का उन्हें नज़र आ रहे थे पोर्टर खलासी का काम करते स्टेशन मास्टरों के लडके  छोटी रेल स्टेशनों जिनको रोड साइड स्टेशन कहा जाता है रेलवे की भाषा में  इन स्टेशंस पर  स्कूल स्टेशन से दूर पड़ने के साधनों की कमीं शहर में रह कर कैसे अध्ययन करें अर्थ-व्यवस्था भी तो अनुमति नहीं दे रही थी . 
 सव्यसाची ने कहा था आँखों में आंसूं भर के बेटा, तुम इनकी बात को झूठा साबित करोगे तुम सबको मेरी सौगंध है.....!
    हम हताश भी थे उदास भी पर सव्यसाची के कहे को कैसे टालते हम दो तरह की परिक्षा देते थे एक तो अभावों की दूसरी किताबों की. रिश्तेदारों की नज़र में दोयम दर्जे के हम सभी भाई-बहन पिताजी का बार-बार बीमार हो जाना रेलवे-हस्पताल जबलपुर  में भर्ती रहते थे लोग सोचते थे और कुछ ने तो सुझाव स्वरुप कहा:-"तुम लोग जाब करने लगो दुकानों पर बहुत काम मिला जाता है कहो तो कहीं लगावां दें "
हाई स्कूल क्लास विद्यार्थी किसके घर मज़दूरी करते फिर सव्यसाची का कौल भी तो पूरा करना था. एक जोड़ा कपडे धो पहन कर लायब्रेरी के सहारे पड़ते  रहे कुली-कबाड़ी बनने की मज़बूरी सामने न हो कभी  वचन जो माँ को दिया था पूरा हो बस भगवान से रोज़िन्ना सुबह सवेरे यही प्रार्थना करते तुम्हारे अल्लाह मियाँ मेरे भगवान उसके प्रभू सबने गोया हम पर इतनी मेहर की कि कोई भी बाधा पेश न आयी हम कछुए जीत गए जीतता कछुआ ही है. हम तीनों भाई के पदों के साथ थ्री-फोर जुडा नहीं है सब माँ सव्यसाची का आशीर्वाद है मुझे नहीं मालूम "भगवान कौन है ? कैसा है ? क्यों है ?"
 है भी तो मेरी वन्दे-मातरम में है पिता में है .अगर ईश्वर  और माँ-बाप में से कोई चुनाव करना है तो सच महफूज़ भाई माँ-बाप को चुनुंगा !
वन्दे मातरम कहूंगा ही जोर से कहूंगा ताकि सब कहें "वन्दे मातरम"
महफूज़ भाई पुरानी  यादें ताज़ा कराने का शुक्रिया जी आप न होते तो ये ये यादें दफन हो जातीं कुली-कबाड़ी होना अच्छा बुरा हो न हो बाबूजी के नज़रिए से हमको असहमति थी. बहुत देर बाद हम जान पाए कि वे हमारी उत्थान की बात कह रहे हैं. वर्ना आज भी अपने पुराने सेवकों पर प्यार बरसाने बाबूजी क्यों कुछ कहते उनकी ताड़ना का अर्थ अब समझ रहें हम . सच ज़िंदगी में यही सब कुछ होता है. ऐसा और कई लोगों के साथ हुआ ही होगा तो बस कलम उठाइये लिखिए या ऑन लाइन हों ब्लॉग के स्वामीं हों तो टांक दीजिये एक पोष्ट अपने ब्लॉग पर ............. अल्लाह हाफ़िज़





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