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रविवार, नवंबर 29, 2009

मिसफिट जीवन के छियालीस साल

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सच किसी पासंग सही तरीके न जम सका जीवन क्या मिसफिट होने का आइकान है आप देखना चाहतें हैं तो आइये कुछ दिन साथ गुजारें अथवा जो लिख रहा हूँ उसे बांचिये
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29-11-09  को 46 वर्ष की उम्र पूरी हो जाएगी पूरी रात कष्ट प्रद प्रसव पीड़ा में गुज़री सुबह नौ बजाकर पैंतालीस मिनिट पर जन्मा मैं अपने परिवार की चौथी संतान हूँ उस दौर में सामन्यत: 6 से 12 बच्चों की फौजें हुआ करतीं थीं, पिताजीयों  माताजीयों  के सर अपने बच्चों के अलावा कुटुंब के कई बच्चों के निर्माण की ज़िम्मेदारी भी हुआ करती थी जैसे ताऊ जी बेटी की शादी छोटे भाई बहनों की जिम्मेदारियां रोग-बीमारियों में तन-मन-धन से  भागीदारी करनी लगभग तय शुदा थी गाँव के खेत न तो आज जैसे सोना उगलते थे और ना हीं गाँव  का शहरों और सुविधाओं से कोई सुगम वास्ता था . सो दादा जी ने अपने सात बेटों को खेतों से दूर ही रखा जितना संभव हुआ पढाया लिखाया . गांवों से शहर की ओर खूब पलायन हुआ करते थे तब पहली कक्षा से भाई-भावजों के साथ शहर भेज दिए जाते थे बच्चे किन्तु पिता जी तो दसवें दर्जे में ही शहर आए हिन्दी मीडियम से सीधे क्रिश्चियन हाई स्कूल में दाखिल हुए चाय सात माह तक तो अग्रेज़ी से  भाषाई दंगल करते कराते मेट्रिक पास होते ही नौकरी  कर ली कुछ दिन तहसीलदार के दफ्तर में फिर रेलवे में सहायक स्टेशन मास्टर जाने कहाँ कहाँ घूमते रहे. मेरा जन्म तब हुआ जब वे गाडरवारा आशुतोष राणा की जन्म भूमि के पास की स्टेशन पर तैनात थे. यहीं  से  कुछ  दूर रजनीश का ठौर ठिकाना भी मिलता है . कुल मिला के नरमदा के नज़दीक ही रहा हमारा परिवार माँ की कृपा का एहसास उस समय पिताजी जुड़ चुके थे ....स्वानी शुद्धानंद नाथ से जो जो गृहस्थ  जीवन में  आध्यात्म योग के प्रणेता है सैकड़ों परिवारों को मुदिता के आध्यात्मिक   स्वरुप से वाकिफ करा चुके हैं .
मेलोडी ऑफ़ लाइफमेलोडी ऑफ़ लाइफ
इस किताब में उन पत्रों का संकलन है जो गुरुवर ने अपने शिष्यों को  लिखे थे . यही आधार बना हमारी जीवन का अत: इसका ज़िक्र ज़रूरी था.
_____उन दिनों पोलियो का शिकार आसानी से हो जाते थे बच्चे मध्य-वर्ग, निम्न-वर्ग, के बीच ज़रा सा फासला होता था ज्ञान सूचनाओं के मामले में मुझे भी तेज़ बुखार आया जन्म के एक वर्ष के बाद और पूरा दायाँ अंग क्षति ग्रस्त कर गया पोलियो का वायरस . यानी  सव्यसाची के लिए कठोर तपस्या का समय आ चुका था. माँ कहती थी मेरे दूध का माँ बढाना बेटे तुमको पोलियो हो  जाना कुछ इस तरह परिभाषित किया जाता रहा है:-"ये तुम्हारे कर्मों का फल है...?"
मेरे  ताऊ जी कहते थे -"पूर्वजन्म के पापों का परिणाम है "..............कितनी आहत होती होगी माँ   किन्तु किसी के मान-सम्मान में कमीं नहीं आने दिया. सदा सद कार्यों में लगी रहने वाली सव्यसाची ने मुझे सदैव लक्ष्य उसकी पूर्ती के लिए साधन और साधनों के प्रबंधन का पाठ पढाया .योग्य बनाने के लिए माचिस की तीलियों से अक्षर लिख के अक्षर ज्ञान करने वाली तीसरी हिंदी पास माँ  ने कब मन में कविता को पहचाना याद तो नहीं है... किन्तु इतना ज़रूर याद है कि माँ ने कहा था साहित्य कविता से रोटी मत कमाना. उसके लिए नौकरी करो साहित्य का सृजन आत्म कल्याण के लिए करना.
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जीवन का सबसे कठिन समय वो था जब रेलवे कालोनी से लगभग तीन किलोमीटर दूर स्कूल जाना होता था वो भी पैदल . प्रारम्भिक कक्षाओं में तो टाँगे पर जाने का अवसर था किन्तु गोसलपुर में खेतों के रास्ते पैदल कंधे दर्द देने लगते थे. समय भी खर्च होता था. कभी नौकरों के काँधे कभी किसी की सायकल कभी पैदल स्कूल जाना कुल मिला के ज़द्दो-ज़हद की भरमार आए दिन किसी न किसी नई परिस्थिति से सामना करते कराते हाई-स्कूल की दसवीं परिक्षा पास कर ही ली. ग्यारहवीं की बोर्ड परीक्षा के लिए जबलपुर में दाखिला ले लिया. पूरा परिवार जबलपुर शिफ्ट हो गया 1980 में कुछ राहत मिली. सुबह से शाम तक पड़ना और गंजीपुरा साहू  मोहल्ले के बच्चों को कोचिंग देना ताकि शहर में आने वाली आर्थिक समस्याओं का कोई संकट न झेलना पड़े.
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डी० एन० जैन कॉलेज में दाखिला इस लिए लिया क्योंकि गणित विज्ञानं में रूचि न थी दूसरे दर्जे में पास होना कोई पास होने के बराबर न था ऐसा मेरा मानना था. सो घोर विरोध के बाद सबजेक्ट बदल के कामर्स ले लिया.नया  विषय किन्तु कठनाई नहीं हुई इस बीच कॉलेज में एक मित्र जिसे मैं याद नहीं रखना  चाहता ने प्रोफ़ेसर धगट को मेरी शिकायत कर दी :- "सर, इसे यहाँ से कहीं और बैठा दीजिये इसके कारण मुझे भी पोलियो हो सकता है ?"
सारी क्लास सन्न रह गई मैं सिर्फ उसका सिर्फ मुंह ताकता रहा अवाक सा आंसू थे कि थम नहीं रहे थे !
उस मित्र की पेशी हुई कॉलेज से निष्कासन की तैयारी हुई किन्तु जब मुझे प्रिंसिपल रूम में बुलाया गया तो मेरा कहना था :- "सर,मेरी वज़ह किसी का कैरियर खराब नहीं होना चाहिए मैं ही कॉलेज छोड़ देता हूँ."
अवाक् मेरा मुंह देखते प्रोफेसर्स कुछ की आँखें गीली थीं मुझे याद आ रहे हैं कई चेहरे. इस बीच प्रोफ़ेसर धगट मुझे बाहर ले गए और मुझे दुनियाँ जहान की अच्छी बुरी घटनाओं से परिचित कराते हुए शरीर और दिमाग में चौगुना उत्साह भर दिया. सोशल-गैदरिंग-डे पर तात्कालिक भाषण के लिए ज़बरिया मंच पर बुलाया तीन मिनट में अपनी बात कही दूसरे दिन अखबारों में मेरा चित्र छपा  भौंचक था कांपती आवाज़ से दिया भाषण इतना यश दिलाएगा कि सड़क पर निकला तो लोग मुझसे मिलने बेताब थे. वास्तव में डी० एन० जैन कॉलेज के प्रोफेसर्स ने मुझमें उत्साह  भर देने के लिए ये खेल  किया था.  मेरे प्रिय प्रोफ़ेसर धगट ने  मुझे हिदायत दी इसे मेंटेन करना तुम्हारी ज़िम्मेदारी है.किसी भी डिबेटिंग भाषण कविता पाठ प्रतियोगिता में मेरा नाम भेजना तय ही था . लगातार कॉलेज को शील्ड़ें व्यक्तिक पुरूस्कार मुझे मिलने लगे . रजनीश के रिश्ते भाई साहब प्रोफ़ेसर अरविन्द  प्रोफ़ेसर हनुमान वर्मा, प्रोफ़ेसर कोष्टा ,जैन, के अलावा सारी यूनिवर्सिटी के लोग मुझे जानने लगे . और फिर कभी पीछे मुड के न देखा. रोयाँ-रोयाँ उत्साह से भरा कितने महान है प्रोफेसर्स जिनने मुझे सजा दिया संवार दिया . आज शायद ही ऐसे कोई कॉलेज हैं जहाँ ऐसे दभुत व्यक्तित्व के धनी प्रोफ़ेसर मिलें जो मिसफिट जीवन को फिट बना दें ? 
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