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शुक्रवार, नवंबर 20, 2009

महफूज़ भाई....स्टेशन-मास्टरों के लडके कुली कबाड़ी बनतें है.



महफूज़ भाई की इस पोष्ट ने पुराने दिन याद दिला दिए भाई साहब को फर्स्ट इयर में सप्लीमेंट्री  मझले-भाई के भी अच्छे नंबर न आये मुझे नवमें दर्जे  गणित में सप्लीमेंट्री कुल मिला कर घर में कुहराम की पूरी व्यवस्था. वो भी उस इंसान के घर में जो भूमि पति के सात बेटों में पांचवां बेटा था जिसके आगे पीछे नौकरीयाँ घूमतीं थीं राज्य सरकार की इंस्पेक्टरी इस लिए छोडी की रेलवे का क्रेज़ उस दौर में ज़बरदस्त था वरना ये श्रीमान कम से कम कलेक्टर ज़रूर बनते किन्तु स्टेशन मास्टर बन के श्री काशीनाथ गंगाविशन बिल्लोरे नए नवेले मध्य-प्रदेश के नहीं भारत सरकार के नौकर हुए. सत्तर  वाले दशक में जाकर समझ पाए की की स्टेट छोड़ कर कितना गलत काम किया..... उनने......... एक बी डी ओ एक डिप्टी कलेक्टर एक तहसीलदार का रुतबा क्या होता है सो मित्रो (मित्रानियों भी ) बाबूजी हम में अधिकारी देखने लगे...थे और लगातार मेरिटोरिअस बड़े भाई और मेरा रिज़ल्ट दु:खी करता ही उनको उनने कहा था:-"स्टेशन-मास्टरों  के लडके कुली कबाड़ी बनतें है.....कितने आहत हुए थे बाबूजी
पक्का उन्हें नज़र आ रहे थे पोर्टर खलासी का काम करते स्टेशन मास्टरों के लडके  छोटी रेल स्टेशनों जिनको रोड साइड स्टेशन कहा जाता है रेलवे की भाषा में  इन स्टेशंस पर  स्कूल स्टेशन से दूर पड़ने के साधनों की कमीं शहर में रह कर कैसे अध्ययन करें अर्थ-व्यवस्था भी तो अनुमति नहीं दे रही थी . 
 सव्यसाची ने कहा था आँखों में आंसूं भर के बेटा, तुम इनकी बात को झूठा साबित करोगे तुम सबको मेरी सौगंध है.....!
    हम हताश भी थे उदास भी पर सव्यसाची के कहे को कैसे टालते हम दो तरह की परिक्षा देते थे एक तो अभावों की दूसरी किताबों की. रिश्तेदारों की नज़र में दोयम दर्जे के हम सभी भाई-बहन पिताजी का बार-बार बीमार हो जाना रेलवे-हस्पताल जबलपुर  में भर्ती रहते थे लोग सोचते थे और कुछ ने तो सुझाव स्वरुप कहा:-"तुम लोग जाब करने लगो दुकानों पर बहुत काम मिला जाता है कहो तो कहीं लगावां दें "
हाई स्कूल क्लास विद्यार्थी किसके घर मज़दूरी करते फिर सव्यसाची का कौल भी तो पूरा करना था. एक जोड़ा कपडे धो पहन कर लायब्रेरी के सहारे पड़ते  रहे कुली-कबाड़ी बनने की मज़बूरी सामने न हो कभी  वचन जो माँ को दिया था पूरा हो बस भगवान से रोज़िन्ना सुबह सवेरे यही प्रार्थना करते तुम्हारे अल्लाह मियाँ मेरे भगवान उसके प्रभू सबने गोया हम पर इतनी मेहर की कि कोई भी बाधा पेश न आयी हम कछुए जीत गए जीतता कछुआ ही है. हम तीनों भाई के पदों के साथ थ्री-फोर जुडा नहीं है सब माँ सव्यसाची का आशीर्वाद है मुझे नहीं मालूम "भगवान कौन है ? कैसा है ? क्यों है ?"
 है भी तो मेरी वन्दे-मातरम में है पिता में है .अगर ईश्वर  और माँ-बाप में से कोई चुनाव करना है तो सच महफूज़ भाई माँ-बाप को चुनुंगा !
वन्दे मातरम कहूंगा ही जोर से कहूंगा ताकि सब कहें "वन्दे मातरम"
महफूज़ भाई पुरानी  यादें ताज़ा कराने का शुक्रिया जी आप न होते तो ये ये यादें दफन हो जातीं कुली-कबाड़ी होना अच्छा बुरा हो न हो बाबूजी के नज़रिए से हमको असहमति थी. बहुत देर बाद हम जान पाए कि वे हमारी उत्थान की बात कह रहे हैं. वर्ना आज भी अपने पुराने सेवकों पर प्यार बरसाने बाबूजी क्यों कुछ कहते उनकी ताड़ना का अर्थ अब समझ रहें हम . सच ज़िंदगी में यही सब कुछ होता है. ऐसा और कई लोगों के साथ हुआ ही होगा तो बस कलम उठाइये लिखिए या ऑन लाइन हों ब्लॉग के स्वामीं हों तो टांक दीजिये एक पोष्ट अपने ब्लॉग पर ............. अल्लाह हाफ़िज़





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