11.12.22

टाइम मशीन से समय यात्रा की परिकल्पना केवल एक फेंटेसी है

*टाइम ट्रैवल : संभव नहीं है..!
यूट्यूब पर सुनिए यह पॉडकास्ट
 -किसी यंत्र के सहारे टाइम ट्रेवल एक अविश्वसनीय और असंभव परिकल्पना है।"

आईए देखते हैं उनके आर्टिकल में क्या लिखा गया है

"आज जिस बिंदु पर चर्चा करना चाहता हूँ वो सनातन शब्द –नेति नेति या  नयाति नयाति ... अर्थात ये भी नहीं अरे भाई ये नहीं  और ये भी नहीं ! 

  कई  दिनों से एक बात कहनी थी परन्तु सोचता था कि – संभव है कि आगे आने वाले और बीते समय की यात्रा की जा सकती हो. 

  फिर चिंतन करके पाया वास्तव में यह एक असत्य थ्योरी ही है. जिसे मानवीय मनोरंजन के लिए गढ़ा गया है .  

    ये अलहदा तथ्य है कि “आर्टीशियल इंटेलिजेंस में असीमित संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता कि AI की मदद से हम प्राचीन समय यानी बीते पल या समय का रिक्रिएशन कर सकते हैं। 

   इतना ही नहीं हम आने वाले समय को प्री-क्रिएट भी कर सकते हैं... 

पर यह सत्य है कि ऐसे रिक्रिएशन और प्री क्रिएशन  आभासी ही होंगे इनका भौतिक अस्तित्व नहीं होगा ।

  इन दृश्यों में  वास्तविकता कतई नहीं होगी।

  पराशक्तियाँ भी  ऐसा कुछ करा सकतीं हैं. फिर भी  पराशक्तियां कुछ कर या करा  सकतीं हैं तो ... केवल इतना कि आपको बीता समय हूबहू दिखा दे।  इससे अधिक भविष्य की झलक किसी स्वप्न  के रूप में दिखा देंगी ।

   भविष्य से भी आपको पर शक्तियां रूबरू कर सकती हैं। ध्यान रहे फिर भी यह सब  केवल आभासी होगा .    

    *किशोरावस्था में  अनेकों  बार मैंने महसूस किया था कि- "मैं सायकल और बाइक चला रहा हूँ. ऐसा अनुभव जागते हुए तो कदापि नहीं केवल स्वप्न में यह संभव था ।*

   *जबकि मुझे जानने वाले सभी जानते हैं कि ऐसा संभव कदापि नहीं है. क्योंकि मेरे दाएं अंग में पोलियो से ग्रसित है,  मसल्स हैं ही नहीं ।

   शरीर यंत्र का संचलन असामान्य एवं अतिरिक्त गैजेट्स अर्थात सहायक-उपकरण पर निर्भर  है ।  

   सुधि जन जानें कि फिर भी यदि मैं दावा करूँ कि मैंने सायकल चलाई है तो केवल केवल आभासी  विवरण मात्रा होगा।.

  इसी प्रकार मेरा एक और  मत यह भी है कि  जो घटना भविष्य में आकार लेगी उसका अनुमान मात्र लगाया जा सकता है तथा उसे वर्चुअल रूप से महसूस किया जा सकता है या उसका रीक्रिएशन किया जा सकता है न कि उस तक भौतिक रूप से ।

    एक मित्र ने दावा किया कि - "समय यात्रा  संभव है ..!" 

   बिना विरोध किये मैंने पूछा कि- अगर मेरा जन्म 1963 में हुआ है  2050 में मेरी उम्र क्या होगी ...?

   मित्र ने सटीक गणना करते हुए बताया कि जिस माह एवं तारीख में तुम्हारा जन्म हुआ है 2050 के उस माह और तारीख पर तुम 87 वर्ष के हो जाओगे. 

   मेरा अगला सवाल था कि तुम मुझसे दूर कहीं रहकर 2050 में टाइम मशीन के ज़रिये समय यात्रा  {  time-tour } कर  मिल सकते हो ?

मित्र जो टाइम मशीन के ज़रिये समय  की यात्रा को मानता था ने उत्साहित होकर कहा  – अवश्य . मेरा उत्तर था कि टाइम-मशीन के ज़रिये तुम अकेले 2050 में गए हो न कि मैं..! अर्थात टाइम मशीन या कोई एडवांस तकनीकी से केवल आभासी दृश्य को आप देख सकते हैं न कि उसे तोवास्तविकता के साथ महसूस कर सकते हैं।

  किसी भी व्यक्ति ने कॉविड-19 के कालखंड की कल्पना नहीं की होगी। हां इस घटना के आधार पर भविष्य की परिकल्पना अवश्य की जा सकती है। इल्यूजन हो सकते हैं परंतु यथार्थ नहीं।

  इस बात से सहमत अवश्य हूँ कि मेरी आवाज़ जो तरंगें बन कर खुले आकाश में अन्य तरंगों से मिल जातीं हैं । उनको विशेष यांत्रिक सहायता से री – क्रियेट किया जा सकता है. 

घटनाएं घटित हो जाने के बाद भौतिक रूप से न तो शेष रहतीं हैं जिन तक किसी मशीन के सहारे जाया ही जा सकता है  न ही वे घटित होने के पूर्व किसी को नजर नहीं आ सकतीं .

मित्र ने कहा कि- "फिर तुम नेति-नेति पर भरोसा क्यों करते हो ..?"

   ब्रह्मांड बहुत विशाल है, ब्रह्मांड में कई गैलक्सी है, गैलेक्सी में हजारों लाखों तारामंडल है, आज तारीख का एक सिस्टम है एक परिवार है, जैसे हमारे सूर्य का सोलर सिस्टम  . 

अब आप ब्रह्मांड में कितनी गैलेक्सियां खोजेंगे , कितने सितारे देखेंगे, कितने सौरमंडल से परिचित होंगे। यहाँ नेति नेति अर्थात नयाति नयाति का अर्थ यही है .

   टाइम-ट्रेवल की अवधारणा को प्रचारित करने का कारण  केवल हबर्ट जार्ज वेल्स के  उपन्यास द टाइम मशीन  और उस पर आधारित बनी   फिल्मों  के लिए दर्शक जुटाना मात्र था.       


         टाइम-ट्रेवल को या टाइम टूर को लेकर  तार्किक आधार पर पूरी ज़िम्मेदारी के साथ इस अवधारणा को खारिज करता हूँ. 

    यात्रा का अर्थ समझने के पूर्व सभी समझते ही हैं कि यात्रा एक भौतिक क्रिया है . जिसकी दिशा, गति, उद्देश्य, माध्यम, और यात्री सब कुछ तय शुदा है. ये तय करने वाला शरीरी होता है जिसे यात्री कहा जाता कि उसे किस दिशा, गति, उद्देश्य, माध्यम, से यात्रा करनी है. आइये आगे टाइम-ट्रेवल की थ्यौरी की विवशाताओं को  दिशा, गति, उद्देश्य, माध्यम, आदि के साथ-साथ  कर लेते हैं 

दिशा :- हर यात्रा की दिशा तय है अर्थात किसी भी डायरेक्शन में  कोई कहीं भी जा सकता है.

 तय जाने वाले को करना है कि वह किस डायरेक्शन में जावेगा।. 

समय  की कोई दिशा तय नहीं होती . दूसरे शब्दों में कहें तो समय हर दिशा  में विस्तारित है।

 आज 3 जुलाई 2018 है कल 2 जुलाई 2018 थी. मुझे बीते कल के 12:45 बजे में जाना है तो कौन सी दिशा तय करूंगा ? समय-यात्रा का सिद्धांत यहाँ विवश है .    

[  ] गति :- मेरी गति क्या होनी चाहिए ? समय यात्रा का सिद्धांत यहाँ भी मौन ही होगा .

[  ] उद्देश्य :- सामान्य यात्राओं  एवं समय यात्रा दौनों  के  उद्देश्य निर्धारित हो सकते हैं परंतु  क्या समय यात्रा में पिछले दिन की घटना की छवि वास्तविक अच्छा भौतिक रूप में रनज़र आ सकती है..? यकीनन आपका उत्तर न में ही होगा ..... 

सामान्य यात्रा के लिए माध्यम होता है अर्थात  यात्रा किसी साधन से की जाती है जैसे- रेल, बस, कार, वायुयान, आदि आदि . जिनके उपयोग से एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाया जा सकता है। परंतु समय की यात्रा के मामले में ऐसा कैसे संभव है। 

आभासी यात्रा का साधन आभासी ही होगा जैसे स्वप्न, यह काल्पनिक दृश्य। अर्थात  रात्रि अथवा दिवस में किसी बीते समय  से पीछे या आगे जाने के लिए किसी मशीन की कल्पना ही आधारहीन सोच है. 

  अगर मशीन बन भी गई तो वह आपको बेहोश करने की मशीन होगी जिसकी वज़ह से आप अन्य मुद्दों के लिए बेहोश हो जाएंगे और केवल भूत और भविष्य की काल्पनिक घटनाओं में खोते चले जाएंगें जैसे आप सपने देख रहे हो

भौतिक रूप से आप मशीन में समाधि अवस्था में  होते हैं। 

मष्तिष्क के साथ साथ केवल आपकी  देखने एवम महसूस करने की प्रणाली ठीक ई काम करेगी

 यह प्रणाली स्वप्न देखने की प्रणाली है। अब बताओ भला स्वप्न देखने के लिए भी कोई मशीन आवश्यक होती है। सपने देखने के लिए केवल  किसी मशीन की ज़रूरत  होती है तो वह है आपका सूक्ष्म और स्थूल  शरीर ।

4.12.22

बलिदानी टंट्या भील की कहानी आनंद राणा की जुबानी

 
( अमर बलिदानी टंट्या भील की बलिदान स्थली जबलपुर से बलिदान दिवस पर शोध आलेख सादर समर्पित ) 
  
भारत के गौरवशाली इतिहास की परंपरा में भील जनजाति का अद्भुत और अद्वितीय माहात्म्य रहा है। ऐतिहासिक और पौराणिक संदर्भों के आलोक में सतयुग में महादेव - बड़ा देव के पुत्र निषाद, जो तीर कमान विद्या में निपुण थे, भील जनजाति के आदि पुरुष के रूप में शिरोधार्य हैं। त्रेता में भगवान श्री राम के साथ निषादराज गुह और द्वापर युग में धनुर्धर अर्जुन की परीक्षा के लिए महादेव किरात भील के रूप में अवतरित हुए थे, वहीं वर्तमान युग के हर कालखंड में हुए स्वातंत्र्यसमर में भील जनजाति का अति विशिष्ट योगदान रहा है। प्राचीन काल में सिकंदर को शिवी जनपद के भीलों ने पराजित किया था, मध्यकाल में महाराणा प्रताप के साथ राणा पूंजा भील ने अकबर के विरुद्ध भयंकर संग्राम किया था और मेवाड़ से खदेड़ दिया था।  इसी महान् परंपरा के अनुक्रम में आधुनिक भारत में महा महारथी टंट्या भील ने अंग्रेजी शासन को ध्वस्त करने के लिए 12 वर्ष तक लगातार 24 युद्ध लड़े और अपराजेय रहे, उन्हें सुनियोजित षड्यंत्र कर ही गिरफ्तार किया गया था। महारथी टंट्या महिला सशक्तिकरण के संरक्षक थे, इसलिए उन्हें टंट्या मामा के नाम से भी जाना जाता है। महारथी टंट्या गरीबों के मसीहा थे, इसलिए उन्हें भगवान का दर्जा भी प्राप्त हुआ। कतिपय पश्चिमी लेखक और अंग्रेज अधिकारी उन्हें भारत के रॉबिनहुड के नाम से रेखांकित करते हैं। 
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अमर बलिदानी महारथी टंट्या भील की कर्मभूमि मध्य भारत मध्य प्रांत एवं मुंबई प्रेसिडेंसी के क्षेत्र थे, जहाँ उन्होंने ब्रिटानिया सरकार के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम का शंखनाद किया था। महारथी टंट्या का जन्म पूर्वी निमाड़ (खंडवा जिले) के पंधाना तहसील के बड़दा (बडाडा)गांव में 1840 में हुआ था, वनवासी संगठनों का मानना है कि तिथि 26 जनवरी थी। महारथी टंट्या के पिता का नाम श्रीयुत भाऊ सिंह था और उनकी पत्नी का नाम कागज बाई था। टंट्या शब्द का अर्थ विभिन्न इतिहासकारों ने प्रकारांतर से अलग-अलग बताया है परंतु वास्तव में टंट्या का शाब्दिक अर्थ है" संघर्ष" और इसी नाम को आगे जाकर महारथी टंट्या ने सार्थक किया। 
बाल्यकाल से ही महारथी टंट्या कुशाग्र बुद्धि के थे तीर कमान लाठी और गोफन में प्रशिक्षण प्राप्त कर महारत हासिल कर ली थी। दावा या फलिया उनका मुख्य हथियार था और उन्होंने बंदूक चलाना भी भली-भांति सीख लिया था। धनुर्विधा में महारत हासिल कर ली थी। महारथी टंट्या का संबंध सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से भी है जिसमें वे तात्या टोपे के साथ रहे और उन्हीं से उन्होंने गुरिल्ला युद्ध पद्धति में महारत हासिल की थी। 
 बाल्यकाल में ही में ही उनके पिता भाऊ सिंह ने आमजा माता के समक्ष महारथी टंट्या को शपथ दिलाई थी, कि वह बेटियों बहुओं और बहनों की सदैव रक्षा करेगा, आगे चलकर टंट्या भील ने 300 निर्धन कन्याओं का विवाह कराया और महिलाओं के उत्थान के लिए अनेक कार्य किए इसलिए उन्हें टंट्या मामा भी कहा जाता है। महारथी टंट्या के पिता की जल्दी मृत्यु हो गई। सारी जिम्मेदारी महारथी टंट्या पर आ गई फसल ठीक से आने के कारण वे 4 साल का लगान जमा नहीं कर सके, इसलिए उन्हें मालगुजार ने बेदखल कर दिया इस मामले को लेकर वह अपने पिता के मित्र शिवा पाटिल के पास गए क्योंकि वह जमीन शिवा पाटिल और भाऊ सिंह दोनों ने मिलकर खरीदी थी, परंतु शिवा पाटिल ने जमीन पर अधिकार देने से मना कर दिया। महारथी टंट्या ने अंग्रेजी अदालत में मुकदमा दायर किया परंतु अंग्रेजी न्याय व्यवस्था ने झूठे साक्ष्यों के आधार पर महारथी टंट्या का प्रकरण समाप्त कर दिया। न्याय न मिलने के कारण महारथी टंट्या के पास संग्राम के अलावा कोई अन्य मार्ग नहीं बचा था इसलिए एक दिन उन्होंने अपने साथियों के साथ शिवा के सभी आदमियों हमला बोल दिया और अपनी भूमि को कब्जे से मुक्त कराया।इसी समय अंग्रेज सरकार द्वारा उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और 1 साल की कठोर सजा मिली जहां उन्होंने कैदियों पर अंग्रेजों के अत्याचार को देखा और उनके मन में स्वतंत्रता संग्राम की इच्छा बलवती हुई ।
सन 1857 के महान स्वतंत्रता संग्राम के उपरांत ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त हुआ और सन् 1858 में भारत का शासन ब्रिटिश क्रॉउन के अधीन आ गया इसके उपरांत ब्रिटिश सरकार का अत्याचार और अनाचार बढ़ गया ब्रिटिश सरकार के साथ मिलकर मालगुजार और साहूकारों ने भी जनसाधारण का विभिन्न प्रकार से शोषण करना आरंभ किया तो महारथी टंट्या ने वनवासियों और पीड़ितों को एकत्रित कर अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम छेड़ दिया। 
सन् 1876 से  महारथी टंट्या भील का ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध विधिवत् स्वतंत्रता संग्राम का शुभारंभ हुआ 20 नवंबर 1878 को उन्हें धोखे से पकड़कर खंडवा जेल में डाल दिया गया परंतु 24 नवंबर 1878 को रात में वह अपने साथियों के साथ दीवार लांघकर कर मुक्त हो गए। इसके बाद उन्होंने संगठन को मजबूत किया जिसमें जिसमें बिजानिया भील, दौलिया, मोडिया और हिरिया जैसे साथी मिले और उसी के साथ महारथी टंट्या ने ब्रिटिश सरकार के समानांतर 1700 गांव में सरकार चलाना आरंभ कर दी। महारथी टंट्या ने एक विशेष दस्ता "टंट्या पुलिस" के नाम से गठित किया और साथ ही चलित न्यायालय बनाए जिसमें न्याय किया जाता था। महारथी टंट्या का 12 वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम रहा है जिसमें अंतिम 7 वर्ष बहुत ही महत्वपूर्ण हैं क्योंकि ब्रिटिश सरकार को स्पेशल टास्क फोर्स गठित करनी पड़ी थी इस स्पेशल टास्क फोर्स के कमांडर एस. ब्रुक की एक हमले में महारथी टंट्या ने नाक काट दी थी। इसी प्रकार टंट्या मामा ने नाई बनकर एक चुनौती देने वाले थानेदार की भी नाक काटी थी। 
महारथी टंट्या ने ब्रिटिश सरकार से 24 बार संघर्ष किया और वह विजयी रहे इसके साथ ही ब्रिटिश सरकार के खजाने और जमीदारों तथा माल गुजारों से सभी निर्धन वर्गों के लिए के लिए 400 बार  धनराशि हस्तगत कर उन्हें वितरित की।अकाल के समय भी उन्होंने किसी को भूख से मरने नहीं दिया इसके उन्होंने कई बार अंग्रेजी सरकार द्वारा रेल से भेजे जा रहे अनाज को हस्तगत किया। यह बात प्रचलित हो गई थी, कि महारथी टंट्या के राज में कोई भूखा नहीं सो सकेगा । 
सन् 1880 के बाद मध्य प्रांत, मध्य भारत और मुंबई प्रेसिडेंसी के क्षेत्रों में महारथी टंट्या चमत्कारिक स्वरूप के रूप में स्थापित हो गए थे, इसलिए उन्हें को भगवान का दर्जा दिया जाने लगा था, और अब महारथी टंट्या जननायक बन गए थे। 
तांतिया भील - हिस्ट्री आॅफ आफ एम पी पुलिस के पृष्ठ क्रमांक 101 एवं 103 के हवाले से एक बार  महारथी टंट्या और बिजानिया को गिरफ्तार करके जबलपुर सेंट्रल जेल लाया गया परंतु दोनों पुनः भागने निकले परंतु दुर्भाग्य से बिजानिया, दौलिया मोडिया और हिरिया पकड़े गए और उन्हें फांसी दे दी गई जिससे महारथी टंट्या का संगठन कमजोर हो गया परंतु फिर भी ब्रिटिश सरकार उन्हें गिरफ्तार नहीं कर सकी। 
ब्रिटिश सरकार ने महारथी टंट्या को पकड़ने के लिए उनकी मुंह बोली बहन के पति गणपत सिंह का सहयोग लिया और 11 अगस्त 1889 को रक्षा बंधन के दिन सुनियोजित षड्यंत्र के चलते जब राखी बंधवाने के लिए टंट्या अपनी बहन के यहां पहुंचे तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। महारथी टंट्या को पहले खंडवा जेल में रखा गया फिर उन्हें जबलपुर सेंट्रल जेल (वर्तमान नेताजी सुभाष चंद्र बोस केन्द्रीय जेल) में स्थानांतरित कर दिया गया। 
 जबलपुर के सत्र न्यायालय में महारथी टंट्या पर विभिन्न आपराधिक मामलों के साथ देशद्रोह का मुकदमा प्रारंभ हुआ। गौरतलब है कि जब महारथी टंट्या को जबलपुर लाया गया तो हजारों की संख्या में लोग उनके दर्शन के लिए एकत्रित हुए थे,इसलिए आगे चलकर सेंट्रल जेल क्षेत्र में कर्फ्यू की घोषणा कर दी गई थी। अंततः महारथी टंट्या भील को 19 अक्टूबर 1889 में फांसी की सजा सुनाई गई। संयुक्त राज्य अमेरिका के न्यूयॉर्क टाइम्स समाचार पत्र में तो 10 नवंबर 1889 को टंट्या भील की गिरफ्तारी पर एक खबर प्रकाशित की जिसमें उन्हें भारत के रॉबिनहुड के रूप में रेखांकित किया गया था। किया गया था। फांसी की सजा के विरुद्ध  मर्सी पिटिशन दाखिल की गई परंतु 25 नवंबर 1889 को मर्सी पिटीशन खारिज कर दी गई और 4 दिसंबर 1889 को महारथी टंट्या नेताजी सुभाष चंद्र बोस केंद्रीय जेल में फांसी पर लटका दिया गया। फांसी के उपरांत उनके मृत शरीर को पातालपानी के कालाकुंड रेलवे ट्रैक पर फेंक दिया गया  ताकि  ब्रिटिश सरकार की दहशत और सर्वोच्चता बनी रहे। महारथी टंट्या का पार्थिव शरीर तो नष्ट हो गया परंतु वह अमर हो गए। टंट्या मामा का मंदिर भी बनवाया गया।यह प्रचलित है कि आज भी पातालपानी से जो भी रेल निकलती है वह थोड़ा रुकती है और टंट्या मामा(भगवान् टंट्या के रुप में) को प्रणाम (सलामी) किया जाता है।  यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि ऐसे महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी महारथी टंट्या का पूर्ववर्ती इतिहास में पश्चिमी और परजीवी इतिहासकारों ने लुटेरा और डकैत  के रूप में उल्लेख किया गया है जो बेहद शर्मनाक ही नहीं वरन दुखद है और तो और वर्तमान संदर्भ में राजनीतिक उल्लू सीधा करने एवं "फूट डालो राज्य करो नीति" की पुनर्स्थापना करने के लिए राजनीतिज्ञ  महारथी, एवं आयातित विचारधारा के प्रवर्तक लोग सार्वजनिक रूप से अनियंत्रित वक्तव्य जारी कर रहे हैं। यह आरोप लगाया जा रहा है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कारण टंट्या मामा को फांसी दी गई।
अगर आप विचार करें तो पाएंगे टंट्या मामा (4 दिसंबर सन् 1889 ) और भगवान् बिरसा मुंडा (9 जून सन् 1900) के बलिदान में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हाथ होने का आरोप लगा रहे हैं, यह घृणित है और मानसिक दिवालियापन का प्रतीक है, जबकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना सन् 1925 में हुई थी । भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास लेखन की विडंबना यही रही है कि ब्रिटानिया शासन के विरुद्ध जितने भी सशस्त्र संघर्ष हुए हैं, उन्हें विद्रोह, गदर, लूट, डकैती और आतंकवाद की संज्ञा दी गई है, जबकि वास्तविकता यह है कि सभी सशस्त्र संघर्ष - स्वतंत्रता संग्राम, पवित्र यज्ञ एवं अनुष्ठान थे,और उनके योद्धा, महान् स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे। एतदर्थ अब स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के चलते इतिहास का पुनर्लेखन हो रहा है और इन गुमनाम बलिदानियों की अमर गाथाओं को इतिहास में समुचित स्थान मिल रहा है। अमृत महोत्सव का मूल उद्देश्य भी यही है कि है पूर्व के त्रुटिपूर्ण मत प्रवाह (नैरेटिव) को सुधारा जा सके और गुमनाम बलिदानियों को इतिहास में समुचित स्थान दिया जाए ताकि वर्तमान और भावी पीढ़ी को गर्व और गौरव की अनुभूति हो और राष्ट्रवाद की भावना पल्लवित पुष्पित होती रहे और यही भावना प्रबल हो कि मैं रहूं या ना रहूं मेरा देश यह भारत रहना चाहिए।..
.(यह मौलिक शोध है, संदर्भ के लिए प्राथमिक स्रोत के रूप में जबलपुर सेंट्रल जेल की फाइलें, सन् 1930 में प्रकाशित हिन्दू पंच बलिदान अंक और जबलपुर कमिश्नरी द्वारा प्रकाशित जबलपुर अतीत दर्शन के साथ अन्य द्वितीयक स्रोतों को लिया है। आज भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अमर बलिदानी महारथी टंट्या भील के बलिदान दिवस पर शत् शत् नमन है। जय हिंद 
🙏जय भारत 🙏............
 डाॅ. आनंद सिंह राणा, 
विभागाध्यक्ष इतिहास, श्रीजानकीरमण महाविद्यालय एवं इतिहास संकलन समिति महाकोशल प्रांत, जबलपुर (म. प्र.)

21.11.22

भारत, जैफ बेगौस की भविष्यवाणी गलत साबित करेगा


     भारत, जैफ बेगौस की भविष्यवाणी गलत साबित करेगा:गिरीश बिल्लोरे
     पिछले 4 दिन पहले विश्व के चौथे नंबर के अरबपति जैफ़ बेगौस ने यह कहकर यूरोप में हड़कंप मचा दिया कि-" वैश्विक महामंदी बहुत जल्दी प्रारंभ हो सकती है, हो सकता है दिसंबर 22 अथवा जनवरी 23 में ही यह स्पष्ट हो जाए। अपनी अरबों रुपए की संपत्ति जनता को वापस करने की घोषणा करने वाले जैफ़ ने कहा-" इस महामंदी के आने के पहले विश्व के लोगों को बड़े आइटम पर तुरंत खर्च करना बंद कर देना चाहिए। कंजूमर को इस तरह की सलाह देते हुए महामंदी के भयावह दृश्य अंदाज़ लगाने वाली इस शख्सियत ने कहा है कि-" कार रेफ्रिजरेटर अगर आप बदलना चाहते हैं तो इसके खर्च को स्थगित कर दीजिए ।
*बिलेनियर जैफ के* इस कथन को *विश्लेषित* करने मैंने अपने पूर्व अनुभव के आधार पर अनुमान लगाया कि- यह सत्य है कि, 1990-91 की महामंदी ने जो स्थिति उत्पन्न की थी उससे भारतीय अर्थव्यवस्था अप्रभावित रही है। उसके पीछे कोई न कोई कारण अवश्य होगा?
   कृषि उत्पादन एवं वाणिज्य परिस्थितियों का अवलोकन करने पर पाया कि विश्व में कितनी भी बड़ी मंदी का दौर आ जाए , अगर भारतीय व्यवस्था जो मूल रूप से कृषि उत्पादन एवम उत्पादों पर आधारित है, अप्रभावित रहेगी और यदि उस पर कोई नकारात्मक प्रभाव पढ़ना है तो भी अर्थव्यवस्था में मामूली प्रभाव पढ़ना संभव होगा। *इस संबंध में भोपाल में व्यवसाय से जुड़े श्री विमल चौरे, महामंदी से पूरी तरह सहमत हैं।*
 उसका कारण वही है जैसा मैंने पूर्व में वर्णित किया है। अर्थात भारतीय अर्थव्यवस्था ठोस अर्थव्यवस्था के रूप में समझी जा सकती है। भारतीय अर्थव्यवस्था में पॉजिटिविटी का सकारात्मक पहलू  जनसंख्या है, और यह आबादी ऐसे किसी भी तरह के उपभोक्तावादी संसार का हिस्सा नहीं है, जो अत्यधिक उपभोक्तावादी हो।
*भारत में पर्सनल सेक्टर में पूंजी का निर्माण आसानी से किया जा सकता है।*
 भारत में अभी भी प्रूडेंट शॉपिंग प्रणाली को परंपरागत रूप से स्थान दिया जाता है। *अतः यह संभावना कम ही है कि हम महामंदी से बुरी तरह प्रभावित होंगे।*
*गोल्ड फैक्टर*
भारत में वार्षिक 21 हजार टन सोने की मांग बनी रहती है.  जबकि भारत की खदानें मात्र 1.5 टन सोना उत्पादित करती हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक
विश्व स्वर्ण परिषद (डब्ल्यूजीसी) ने बृहस्पतिवार को कहा कि भारत में सोने की खदानों से उत्पादन 2020 में 1.6 टन था, लेकिन दीर्घावधि में यह 20 टन प्रतिवर्ष तक बढ़ सकती है। भारत का मध्य वर्ग एवं निम्न वर्ग भी सोने के प्रति आकर्षित होता है, क्योंकि *सोना भारत के लिए एक महत्वपूर्ण परंपरा आधारित घटक है। इसे एक बेहतरीन इन्वेस्टमेंट माना जाता है।*
वर्तमान परिस्थितियों में भारत के प्रत्येक परिवार के औसत रूप से 2 से 3 तोला यानी 20 से 30 ग्राम सोना संचित रहता है। परिवार अपनी आवश्यकता के मुताबिक इस होने का नगरीकरण करा लेता है। 
परिणाम स्वरूप अर्थ- व्यवस्था कुल मिलाकर रोकड़  के अभाव में प्रभावित नहीं होती। 
भारतीय परिवारों में ही  कोआपरेटिव व्यवस्था परंपरागत रूप से प्रभावी है । आपसी आर्थिक व्यवहार के कारण आर्थिक मंदी नियंत्रित होगी। इसके अलावा जनसंख्या भी अर्थव्यवस्था के लिए एक अच्छा विकल्प माना जा सकता है। socio-economic सिस्टम में भारतीय  परिवारिक व्यवस्था किसी भी तरह की मंदी से निपटने के लिए हमेशा तैयार रहती है इसलिए आसन्न महामंदी का असर भारत के अथवा दक्षिण एशियाई देशों के लिए बेहद खतरनाक नहीं होगी। यदि युद्ध महामारी जैसी परिस्थितियां निर्मित न हो तो!
 उपरोक्त बिंदुओं से इस बात की पुष्टि होती है कि *भारत की अर्थव्यवस्था यूरोपीय अर्थव्यवस्था की तुलना में बेहद मजबूत  है।*

14.11.22

भारत में आरक्षण : सामाजिक इंजीनियरिंग का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण


हाल के दिनों में सुप्रीम कोर्ट ने आर्थिक आधार पर सवर्णों को आरक्षण देने के संबंध में जो परदेस पारित किए हैं उससे स्पष्ट है कि हमारी न्याय व्यवस्था भी वंचित वर्ग के लिए पूरी तरह से सहानुभूति पूर्वक दृष्टिकोण अपना रही है। सामाजिक इंजीनियरिंग का जीता जागता उदाहरण आरक्षण माना जा सकता है। यद्यपि बहुत से विचारक जातिगत आरक्षण के विरुद्ध हैं। क्योंकि जब योग्यता का प्रश्न उठता है तो आरक्षित संवर्ग एक फॉर्मेट के तहत कम योग्यता धारित करने के बावजूद किसी अधिक योग्य व्यक्ति के समकक्ष होता है। यह अकाट्य सत्य है। परंतु सत्य यह भी है कि आरक्षण का कारण अपलिफ्टमेंट ऑफ द वीकर सेक्शन Upliftment of the Weaker Section  ही है। सुप्रीम कोर्ट का यह कहना कि आरक्षण वैयक्तिक हितों को साधने का कारण नहीं होना चाहिए। यह सामाजिक इंजीनियरिंग के लिए एक महत्वपूर्ण संदेश भी है। जहां तक शासकीय सेवाओं में आरक्षण का प्रश्न है मेरे हिसाब से आरक्षण का अवश्य केवल एक बार दिया जाना ठीक होता है। जबकि पदोन्नति में आरक्षण को लेकर सबकी अपनी अपनी राय हो सकती है। लेकिन सामाजिक इंजीनियर के परिपेक्ष में यह एक तरह से अनुचित ही है। वैसे व्यक्तिगत राय पर सभी सहमत होंगे ऐसा कदापि मेरी अपेक्षा नहीं है।
    संक्षेप में हम सवर्ण आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट की सहमति के संबंध में देखें तो... सुप्रीम कोर्ट ने केवल जाति के आधार पर आरक्षण के विरुद्ध न होते हुए आर्थिक आधार पर आरक्षण की समीक्षा की गई है।
केंद्र सरकार द्वारा आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) को दिए गए आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने ईडब्ल्यूएस आरक्षण को वैध बताते हुए, इससे संविधान के उल्‍लंघन के सवाल को नकार दिया। हालांकि, चीफ जस्टिस यूयू ललित की अध्यक्षता वाली पांच संदस्यीय बेंच ने 3-2 से ये फैसला सुनाया है। इससे यह साफ हो गया कि केंद्र सरकार ने 2019 में 103वें संविधान संशोधन विधेयक के जरिए जो आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को शिक्षा और नौकरी में 10 प्रतिशत आरक्षण देने की व्यवस्था की थी, संविधान का उल्‍लंघन नहीं है। 
   याचिकाकर्ता द्वारा सवर्ण आरक्षण को असंवैधानिक करार देने की याचना की थी। परंतु सामाजिक इंजीनियरिंग के परिपेक्ष्य में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी बेहद प्रासंगिक और अनुकूल है। आप गंभीरता से विचार कीजिए तो आप पाएंगे कि सामाजिक समरसता और एकात्मता के लिए सामाजिक न्याय सर्वोच्च प्राथमिकता वाला कंपोनेंट है। वर्तमान संदर्भ में देखा जाए तो विगत 10 वर्षों में सामाजिक जातिगत व्यवस्था  समाप्त होती नजर आ रही है। पहले तो वैवाहिक संदर्भों में केवल अपनी बिरादरी में ही विवाह को मान्यता प्राप्त होती थी परंतु अब अधिसंख्यक वैवाहिक अनुष्ठान अंतर्जातीय विस्तार ले चुके हैं। और आने वाले समय में जातिगत व्यवस्था लगभग समाप्त हो जाएगी।
   आरक्षण समतामूलक समाज की अवधारणा पर आधारित व्यवस्था है। भारतीय व्यवस्था में socio-economic पहलुओं पर विचार करना आगामी समय के लिए सुव्यवस्थित करने की योजना बनाना हम सबका सामाजिक दायित्व है। दीर्घकाल में जातिगत सामाजिक व्यवस्था पूर्णत: समाप्त हो सकती है। वर्तमान में एक नए तरह के भारत ने आकार लिया है। सामाजिक संरचना के प्रतिमानों में बदलाव आ रहा है, परंपराएं भी बदली जा रही हैं या कुछ परंपराएं स्वयं ही बदल गई हैं। बदलते परिवेश में सामाजिक परिस्थितियों में बदलाव ठीक वैसा ही है जैसे- ईसा पूर्व गौतम बुद्ध का अभ्युदय होना। गौतम बुद्ध ने समतामूलक समाज की स्थापना की बुनियाद रखी थी। उनके संदेश आर्थिक समानता के लिए जितने प्रभावी रहे हैं उससे कहीं अधिक सामाजिक समानता और एकात्मता के पक्षधर थे। महात्मा बुद्ध के अधिकांश उपदेशों में एकात्मता समरसता एवं शांति के उन समस्त बिंदुओं को समावेशित किया गया है जिन बिंदुओं पर भारतीय दर्शन में उपनिषदों में मार्ग स्थापित किया था। भारतीय सनातनी व्यवस्था समतामूलक समाज की व्यवस्था के प्रति सतर्क और सजग रही है। भारत में जैनमत, बुद्धिज़्म,शैव,शाक्त, वैष्णव, चार्वाक, सूफी, यहां तक कि विदेशों से आए इस्लाम और क्रिश्चियनिटी को भी मान्यता मिली। जातिवादी व्यवस्था को समाप्त करने की दिशा में अगर जातिगत आरक्षण एक उत्प्रेरक है तत्व है तो दूसरी ओर माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश सामाजिक इंजीनियरिंग के लिए महत्वपूर्ण घटक सिद्ध होगा। कुल मिलाकर कल्याणकारी राज्य की कल्पना को आकार देने के लिए माननीय न्यायालय का नजरिया प्रत्येक नागरिक के बीच सामाजिक आर्थिक राजनीतिक परिपेक्ष्य में बेहद प्रभावशाली फैसला है। यह भारत संदर्भ में टर्निंग प्वाइंट सिद्ध होगा।

6.11.22

कुंठा विध्वंसक ही होती है..?

कुंठा क्रोध मिश्रित हीन भावना है। जो अभिव्यक्त की जाती है कुंठा के दो भाग होते हैं एक अभिव्यक्त और दूसरी अनाभिव्यक्त..! कुंठित मस्तिष्क हताशा का शिकार होता है। कुंठित लोग जब भी बात करते हैं तो भी आरोप-प्रत्यारोप शिकायत और आत्म प्रदर्शन पर केंद्रित चर्चा करते हैं। कुंठित लोगों में सकारात्मकता की बिल्कुल भी मौजूदगी नहीं होती। जो भी कुंठित होता है उसके चेहरे में आप ओजस्विता कभी भी महसूस नहीं कर सकते। अगर कोई कुंठित व्यक्ति आपके सामने आता भी है तो आपको उसे पहचानने में विलंब नहीं करना चाहिए। वैसे विलंब होता भी नहीं है। क्योंकि जब कोई कुंठित व्यक्ति आपके सामने आएगा तो आप भौतिक रूप से उसके औरे से ही पहचान जाएंगे कि व्यक्ति नकारात्मक ऊर्जा का उत्सर्जन कर रहा है। इसके प्रतिकूल यदि आप एक संतृप्त एवं सकारात्मक व्यक्तित्व से मिलेंगे तो आपको उसे बार-बार मिलने का जी चाहेगा। किसी भी व्यक्ति का जीवन उसके व्यक्तित्व को पूरी तरह से प्रदर्शित करता है। सामान्यतः मेरी तरह कई लोग कई लोगों से घृणा नहीं करते परंतु कुछ व्यक्तित्व दिन भर में जब मिलते हैं तो उनमें से आजकल 50% व्यक्ति नकारात्मक ऊर्जा से भरे नजर आते हैं। कुंठित व्यक्ति अक्सर जिन वाक्य  प्रयोग करते करते हुए सुनाई दे जाएंगे- "मुझे पहले बताया होता तो यह स्थिति नहीं होती..!" अथवा यह है कि आपने गलत व्यक्ति को चुना था, इसके अलावा कुंठित व्यक्ति किसी भी व्यक्ति के प्रति सकारात्मक अभिव्यक्ति करता ही नहीं है। एक राजनेता है जो अक्सर कहते हैं -"सब मिले हुए हैं..!"
  कुंठित व्यक्ति को हमेशा दूसरों में दोष दिखाई देते हैं। जबकि सकारात्मक व्यक्तित्व का धनी व्यक्ति हमेशा दूसरों के प्रति सहृदयता सद्भावना और उत्सवी व्यवहार से परिपूर्ण करता है।
  कल किसी से मेरी दूरभाष पर चर्चा हो रही थी। चर्चा के दौरान ज्ञात हुआ कि वे बहुत विद्वान हैं । उन्होंने ही बताया कि उनके द्वारा  ढेरों पुस्तकें लिखीं हैं। उनकी बातों से लगा मानों कि-" वे दुनिया से नाराज़ हैं..!' 
   उनकी कुंठा का आधार यह था कि उन्हें किसी भी प्रकार की पहचान नहीं मिल पाई है। 
   हर उस व्यक्ति को आप कुंठित पाएंगे जो यह महसूस करता है कि उसकी उपब्धियों को अथवा उसके कार्यों को कोई पहचान नहीं मिल रही है। ऐसा व्यक्ति सदा 
      -" आप हर दूसरे तीसरे व्यक्ति के समक्ष शिकायत लेकर खड़े हो जाएं।" कुंठा एक तरह  से मानसिक बीमारी है। इस तरह की बीमारी का रोगी वही होता है जो अपेक्षा करता है। अत्यधिक अपेक्षाएं कुंठा को जन्म देती है। जबकि गीता में यह कहा गया है- "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन...!" 
   वर्तमान जीवन क्रम लगातार परिवर्तनशील है। आप एक महान लेखक हैं आप एक महान दार्शनिक हैं आप एक महान कवि हैं चित्रकार है गायक हैं तो यह जरूरी नहीं कि आपको तानसेन या सर्वोत्तम ही माना जाए। तानसेन के गुरु स्वयं नेपथ्य में रहना पसंद करते थे। गुरु के सापेक्ष उनके शिष्य तानसेन की प्रसिद्धि सर चढ़कर बोलती थी। परंतु गुरु कुंठित नहीं थे। ऐसे हजारों उदाहरण हैं। प्रेमचंद ने उपन्यास कहानियां लिखे हैं तब जाकर उन्हें प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। इसी के सापेक्ष चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी.. "उसने कहा था..!" न केवल शर्मा जी को अमर कर दिया वरन कहानी ने भी हजारों हजार मस्तिष्क पर गहरी छाप छोड़ी है। तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो मुंशी प्रेमचंद कुंठित नहीं हुए होंगे अपनी समकालीन सुप्रसिद्ध लेखकों के सापेक्ष वे अपना कर्म करते रहे और परिणाम की भी अपेक्षा उन्होंने नहीं की। प्रोफेसर चंद्रमोहन जैन जिन्हें भगवान रजनीश ओशो रजनीश आदि आदि नाम से जानते हैं उनके  यूनाइटेड स्टेट से वापसी के बाद के वक्तव्य कुंठित व्यक्तित्व का उदाहरण है जो आज के इस आलेख के लिए समीचीन है। यह तो रही महान लोगों की महान बातें।  अगर हम देखें तो श्रेष्ठता कभी भी अंतिम नहीं होती। श्रेष्ठता सदैव निरंतरता के साथ अनंतिम होती है। श्रेष्ठता जिसे प्राप्त हो जाती है वह अगर सकारात्मक है तो प्रभावशाली होता है और अगर उसके व्यक्तित्व में नकारात्मक  होती हैं तो वह कुंठित हो जाता है। जीवन में सर्वश्रेष्ठ होता है एकात्मता का भाव जो कुंठित व्यक्ति कभी नहीं ला सकते। क्योंकि जैसे ही मन में नकारात्मकता का प्रभाव बढ़ता है तो हमारा व्यक्तित्व आकर्षण हीन हो जाता है। यह की लोगों से दूर होने लगते हैं। चलिए इस क्रम में कुंठा के दोनों प्रकारों का थोड़ा सा विश्लेषण कर लेते हैं-
*अभिव्यक्त कुंठा* :- अभिव्यक्त कुंठा व्यक्तित्व को छत्तीसगढ़ करती है। जिसका विश्लेषण हमने ऊपर कर ही चुके हैं। आपकी मिलनसारिता बेहद नकारात्मक रूप से प्रभावित होती है और इसका असर डीएनए पर भी पड़ता है। समाज में अभिव्यक्त कुंठा के संवाहक लोगों के कारण राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पर भी बेहद नकारात्मक प्रभाव देखा गया है। इसका एक ताजातरीन उदाहरण है पाकिस्तान की स्थिर सामाजिक राजनीतिक परिस्थिति। इसके अलावा चीन में भी ऐसी ही परिस्थिति निर्मित है। और तो और आप यूनाइटेड किंगडम के संदर्भ में गंभीरता से विचार करें तो वहां की socio-economic संरचना बेहद नकारात्मक रूप से कुंठित मानसिकता के कारण प्रभावित हुई है इसका विश्लेषण अलग तरह से किया जा सकता है वर्तमान में हम अभिव्यक्त कुंठा पर अपनी चर्चा सीमित रखते हैं। सामाजिक संदर्भों में देखा जाए तो अत्यधिक महत्वाकांक्षा जो कुंठा के रूप में अभिव्यक्त भी हो जाती है कि परिणिति तानाशाही वाले राष्ट्रों में नजर आती है। अत्यधिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए दबाव पैदा करना मनुष्य की प्रवृत्ति है। मौलिक रूप से कुंठा का उत्पादन वैयक्तिक होता है, और धीरे-धीरे यह सर्वजनिक एवं सामाजिक विकृति के स्वरूप में परिवर्तित हो जाता है।
अनाभिव्यक्त-कुंठा :-अनाभिव्यक्त - कुंठा, मनुष्य के मस्तिष्क मस्तिष्क में मौजूद रहती है। व्यक्ति उसे अभिव्यक्त नहीं करता परंतु वह अवसर मिलते ही नुकसान करने में पीछे नहीं होता। ऐसे गुण पॉलीटिशियन में सर्वाधिक मात्रा में पाए जाते हैं। परंतु पिछले कई दिनों से यह देखा जा रहा है बहुतेरे लोग इस तरह के मनोरोग से भी ग्रसित हैं। इसे हम 1 मुहावरे से समझ सकते हैं जिसमें यह कहा गया है मुंह में राम बगल में छुरी। सामान्यतः कुंठित लोग सीधे प्रतिरोध ना करते हुए अवसर की तलाश करते हैं। ऐसे लोग आपको सामान्य रूप से कहीं भी मिल जाते हैं। अनाभिव्यक्त-कुंठा कई बार लंबे समय तक मन में पलती है और फिर कभी अचानक भयानक स्वरूप में विस्फोट करती है। यह विस्फोट सब कुछ खत्म करने की सीमा तक बढ़ जाता है। अनाभिव्यक्त-कुंठा सामाजिक व्यवस्था को तहस-नहस भी कर सकती है। इसका सर्वोच्च उदाहरण महाभारत का प्रमुख पात्र धृतराष्ट्र है। धृतराष्ट्र के अलावा आपने रावण के चरित्र की समीक्षा की ही होगी? रावण का चरित्र कुछ ऐसा ही था। मुझे रावण में ज्ञान नैतिक बल योग्यता और क्षमता की बिल्कुल भी कमी नजर नहीं आती। परंतु स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने की कुंठा रावण के साम्राज्य का अंत की वजह बनी। ठीक उसी तरह मध्यकाल में उत्तर मध्य काल में ऐसे कई सारे उदाहरण देखने को मिल जाएंगे।
  लोग कुंठित क्यों हो जाते हैं?
वर्तमान समय के परिपेक्ष में देखा जाए तो लोगों में कुंठा का कारण अत्यधिक स्पर्धा है। भौतिकवादी व्यवस्था में सर्वाधिक कुंठा का समावेश होता है। जबकि अध्यात्मिक चिंतनशील का कुंठा का दमन करती है। यहां तक कि जो आध्यात्मिक दृष्टिकोण से विचार करते हैं वह कुंठित नहीं होते। कुंठित व्यक्ति विध्वंस कर सकते हैं परंतु नव निर्माण की उनसे उम्मीद करना बेकार है। यह वैज्ञानिक तथ्य है कि कुंठा किसी भी विकास का आधार हो ही नहीं सकती। 
   

29.10.22

मेरा मालिक मुझसे कभी नाखुश नहीं होता...!


   सिर्फ पूजा इबादत प्रार्थना से खुश नहीं होता
मेरा मालिक मुझसे कभी नाखुश  नहीं होता।
              *गिरीश बिल्लोरे मुकुल*
   तुम ईश्वर वादी हो मैं भी उसकी सत्ता को अस्वीकृत नहीं करता । कोई भी व्यक्ति उसकी सत्ता के बाहर नहीं। मुझसे यह मत पूछना कि-" नास्तिक भी...?"
   मुझसे मत पूछो इन लिखे हुए अक्षरों पर विश्वास मत करो। इसका अनुभव प्राप्त करो "अप्प दीपो भव..!"
  चलो जिद्द  कर रहे हो तो बता देता हूं हां सर्वोच्च सत्ता ईश्वर की है । उसे अस्वीकार्य करने वाला नास्तिक अपनी ओर से दावा कर रहा है न ईश्वर ने कहा।
  ईश्वर न होने का दावा तो आप भी कर सकते हो? मैं भी हम सब कर सकते हैं।
नास्तिक इसी आधार पर पूछते हैं- ईश्वर तत्व के अस्तित्व ही होने के कोई प्रमाण है क्या?

   हां मेरे पास प्रमाण है ईश्वर के। हो सकता है कि तुम उन्हें अपने तर्कों से भरे तरकश से तीर निकाल निकाल कर खंडित करने के प्रयास करो। मुझे इसका भय नहीं है।
किसी भी सृजन का एक सृजक होता है जिसे करता कहते हैं। जरूरी नहीं है कि वह व्यक्ति हो वह परिस्थिति भी हो सकता है? वह पावर भी हो सकता है कुछ भी हो सकता है। मैं तो उससे पावर के रूप में पहचानने की कोशिश करता हूं आप भी यही करते होंगे। सभी जानते हैं कि ईश्वर शक्तिमान सर्व शक्तिमान अनुभूति है। उसका आकार वजन विस्तार अर्थात उसका क्षेत्रफल कोई नहीं जान सकता परंतु भारतीय जीवन दर्शन और अध्यात्मिक दर्शन ईश्वर तत्व विस्तारित पाता है उसे कण-कण में व्याप्त होने के सिद्धांत को मानता है। आप किसी धर्म  संप्रदाय पंच कुछ भी कह सकते हैं कोई फर्क नहीं पड़ता। परंतु इतना तय है कि तत्व ही पूर्ण है। इसे समझने के लिए हम अपनी पूजन प्रक्रिया को देखें विशेष तौर पर पूजन प्रक्रिया के अंतर को देखें जब हम अपनी पूजन प्रक्रिया पूर्ण करते समय यही दोहराते हैं  न -
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
श्लोक का अर्थ क्या है ?
यही न कि अब पूजा पूरी हो गई है अब हमें अन्य कार्य करनी चाहिए ? यही सोच रहे हो न तो गलत हो ?
  इसका अर्थ यह है कि तुम आश्वस्त हो जाओ
सब कुछ उस पूर्ण पर छोड़ दो जो संपूर्ण विश्व का संचालन करता है। जीवन की दैहिक भौतिक जरूरतों को पूरा करो। ईश्वर ठीक ऐसे ही मेरा विश्वास है। ईश्वर की आराधना को लेकर पूजन प्रणाली या पूजन प्रणालियों का आप और हम अनुसरण करते हैं इस विषय पर फिर कभी बात करेंगे अभी तो हम यह जान लें कि ईश्वर तत्व संपूर्ण विश्व में ही नहीं बल्कि अखिल ब्रह्मांड में सर्वोच्च सत्ता स्थापित करता है
..   पूर्ण और पूर्ण की पूर्णता ब्रह्म और ब्रह्म तत्व का एहसास है ईश्वर। श्लोक का अर्थ भी यही है शाब्दिक अर्थों में तो यही हुआ ना कि पूर्ण में से पूर्ण को निकाल दो तब भी पूर्ण बचेगा...!
   इस इस लोक का एक अन्य महत्वपूर्ण अर्थ भी है,,,,जो पूर्ण बचता है वह बचता नहीं है...! वास्तव में वह  पूर्ण ही है। ध्यान से समझो मैंने पूर्ण की बात की है जो पूर्ण है वही तो ईश्वर है और तुम्हें केवल पूर्णता का अनुभव बस करना है । तुम्हारे नास्तिक होने न होने से मेरा कोई सरोकार नहीं है। मेरा सरोकार तो केवल इस बात से है कि-" बस इतना जान लो कि आधा अधूरा अर्थात अपूर्ण कुछ भी नहीं था न है और न रहेगा। वैज्ञानिक अनुसंधान और  ने सिद्ध कर दिया है कि-" चंद्रमा सदैव पूर्ण रहता है लेकिन यह बेहद परीक्षण के बाद किया। पर पूर्ण विकसित ऋषियों के मस्तिष्क विज्ञान की खोज के पहले ही यह सिद्ध कर दिया था कि केवल प्रकाश का खेल है वरना चंद्रमा पूरे महीने भर प्रकाश दे सकता था। बहुत कम उम्र में एक कविता लिखी थी मुझे उस वक्त इस कविता का अर्थ भी नहीं मालूम था , उस कविता की एक पंक्ति है -
दर्पण के लघुत्तम कण
अर्पण के उत्तम क्षण
बिखर टूट जाते हैं।
हर कण में क्षण-स्मृति..
हर क्षण की कण - स्मृति..!
अक्सर तनहाई में
बाक़ी रह जाती है...
बाक़ी रह जाती है.. !
     जो ना तुम्हें दिखाना मुझे दिखा और लाखों लोगों की जिंदगी खतरे में हो गई। जी हां मैं कोविड-19 के विषाणु की बात कर रहा हूं। चलो प्लेग की बात कर लेते हैं आपने देखा? नहीं देखा पर वह घातक था। बहुतेरे लोगों के प्राण हर लिए थे उसने। हां भई ! मैं कोविड-19 के विषाणु या 100 साल पहले फैले प्लेग के बारे में ही कह रहा हूं। चलो अनदेखा वायरस पोलियो जिस का शिकार मैं भी उसे भी तो किसी ने नहीं देखा क्यों नहीं दिखता वह अस्तित्व नहीं है ऐसा आप कैसे कह सकते हैं ?
   दुनिया में न कभी कुछ रुकेगा न ही कोई उसे रोक सकता है। बस कुछ बायोलॉजिकल   फिजिकल, कुछ मेंटल, सोशल पॉलीटिकल इकोनॉमिकल बदलाव ही होते हैं, ऐसे  हर एक बदलाव का अगले नवनिर्माण से सीधा संबंध होता है । लोग सोचते हैं कि-' हमारा स्वप्न टूट गया हम काम पूरा नहीं कर पाए।'
   कुछ लोग किसी को पराजित होता दिल उसे ही दोष देने लगते हैं। यह सब गलत बात है। सत्य तो यह है कि जिसे जो करना है जिसमें जिसे जो सफलता मिल गई है उसका मूल्यांकन करना किसी के बस की बात नहीं है। चलिए सीधे विषय पर लौटते हैं... जितना अब तक पढ़ लिया है उसे छोड़ दो भूल जाओ विराट को जानने के लिए आत्मज्ञान की जरूरत है। आपको याद है न.... बुल्ले शाह गली कूचे में गाता फिरता था..." बुल्ला की जाणा मैं कौन ?"
   विज्ञान अंतरिक्ष अंतरिक्ष खोजता है विज्ञान समंदर खोजता है पर विज्ञान एक बूंद पानी के रहस्य को नहीं जानता। जबकि योगी ध्यान मग्न होकर पृथ्वी से आकाश के पिंडो की दूरी का अनुमान लगा चुके थे। तुम कहते हो सूर्य सर्वशक्तिमान है, समझते भी होना? परंतु ऐसे अनंत सूर्य है जिनके अनंत ग्रह है उनके अनंत उपग्रह है विज्ञान कह रहा है मैं नहीं। तो ब्रह्म सकता है न इस वक्त तो है न बहुत दूर भटकने की जरूरत नहीं है। जान लो कि ब्रह्म निरंकार है ईश्वर तत्व यानी ब्रह्म महाशक्ति है। ब्रह्म का चिंतन करो बाहर नहीं मिलेगा ध्यान मग्न होकर निर्विकार देखोगे तो विश्वास के साथ कह दोगे-
सिर्फ पूजा इबादत प्रार्थना से खुश नहीं होता
मेरा मालिक मुझसे कभी नाखुश  नहीं होता।
     
     

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