कुंठा क्रोध मिश्रित हीन भावना है। जो अभिव्यक्त की जाती है कुंठा के दो भाग होते हैं एक अभिव्यक्त और दूसरी अनाभिव्यक्त..! कुंठित मस्तिष्क हताशा का शिकार होता है। कुंठित लोग जब भी बात करते हैं तो भी आरोप-प्रत्यारोप शिकायत और आत्म प्रदर्शन पर केंद्रित चर्चा करते हैं। कुंठित लोगों में सकारात्मकता की बिल्कुल भी मौजूदगी नहीं होती। जो भी कुंठित होता है उसके चेहरे में आप ओजस्विता कभी भी महसूस नहीं कर सकते। अगर कोई कुंठित व्यक्ति आपके सामने आता भी है तो आपको उसे पहचानने में विलंब नहीं करना चाहिए। वैसे विलंब होता भी नहीं है। क्योंकि जब कोई कुंठित व्यक्ति आपके सामने आएगा तो आप भौतिक रूप से उसके औरे से ही पहचान जाएंगे कि व्यक्ति नकारात्मक ऊर्जा का उत्सर्जन कर रहा है। इसके प्रतिकूल यदि आप एक संतृप्त एवं सकारात्मक व्यक्तित्व से मिलेंगे तो आपको उसे बार-बार मिलने का जी चाहेगा। किसी भी व्यक्ति का जीवन उसके व्यक्तित्व को पूरी तरह से प्रदर्शित करता है। सामान्यतः मेरी तरह कई लोग कई लोगों से घृणा नहीं करते परंतु कुछ व्यक्तित्व दिन भर में जब मिलते हैं तो उनमें से आजकल 50% व्यक्ति नकारात्मक ऊर्जा से भरे नजर आते हैं। कुंठित व्यक्ति अक्सर जिन वाक्य प्रयोग करते करते हुए सुनाई दे जाएंगे- "मुझे पहले बताया होता तो यह स्थिति नहीं होती..!" अथवा यह है कि आपने गलत व्यक्ति को चुना था, इसके अलावा कुंठित व्यक्ति किसी भी व्यक्ति के प्रति सकारात्मक अभिव्यक्ति करता ही नहीं है। एक राजनेता है जो अक्सर कहते हैं -"सब मिले हुए हैं..!"
कुंठित व्यक्ति को हमेशा दूसरों में दोष दिखाई देते हैं। जबकि सकारात्मक व्यक्तित्व का धनी व्यक्ति हमेशा दूसरों के प्रति सहृदयता सद्भावना और उत्सवी व्यवहार से परिपूर्ण करता है।
कल किसी से मेरी दूरभाष पर चर्चा हो रही थी। चर्चा के दौरान ज्ञात हुआ कि वे बहुत विद्वान हैं । उन्होंने ही बताया कि उनके द्वारा ढेरों पुस्तकें लिखीं हैं। उनकी बातों से लगा मानों कि-" वे दुनिया से नाराज़ हैं..!'
उनकी कुंठा का आधार यह था कि उन्हें किसी भी प्रकार की पहचान नहीं मिल पाई है।
हर उस व्यक्ति को आप कुंठित पाएंगे जो यह महसूस करता है कि उसकी उपब्धियों को अथवा उसके कार्यों को कोई पहचान नहीं मिल रही है। ऐसा व्यक्ति सदा
-" आप हर दूसरे तीसरे व्यक्ति के समक्ष शिकायत लेकर खड़े हो जाएं।" कुंठा एक तरह से मानसिक बीमारी है। इस तरह की बीमारी का रोगी वही होता है जो अपेक्षा करता है। अत्यधिक अपेक्षाएं कुंठा को जन्म देती है। जबकि गीता में यह कहा गया है- "कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन...!"
वर्तमान जीवन क्रम लगातार परिवर्तनशील है। आप एक महान लेखक हैं आप एक महान दार्शनिक हैं आप एक महान कवि हैं चित्रकार है गायक हैं तो यह जरूरी नहीं कि आपको तानसेन या सर्वोत्तम ही माना जाए। तानसेन के गुरु स्वयं नेपथ्य में रहना पसंद करते थे। गुरु के सापेक्ष उनके शिष्य तानसेन की प्रसिद्धि सर चढ़कर बोलती थी। परंतु गुरु कुंठित नहीं थे। ऐसे हजारों उदाहरण हैं। प्रेमचंद ने उपन्यास कहानियां लिखे हैं तब जाकर उन्हें प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। इसी के सापेक्ष चंद्रधर शर्मा गुलेरी की कहानी.. "उसने कहा था..!" न केवल शर्मा जी को अमर कर दिया वरन कहानी ने भी हजारों हजार मस्तिष्क पर गहरी छाप छोड़ी है। तुलनात्मक रूप से देखा जाए तो मुंशी प्रेमचंद कुंठित नहीं हुए होंगे अपनी समकालीन सुप्रसिद्ध लेखकों के सापेक्ष वे अपना कर्म करते रहे और परिणाम की भी अपेक्षा उन्होंने नहीं की। प्रोफेसर चंद्रमोहन जैन जिन्हें भगवान रजनीश ओशो रजनीश आदि आदि नाम से जानते हैं उनके यूनाइटेड स्टेट से वापसी के बाद के वक्तव्य कुंठित व्यक्तित्व का उदाहरण है जो आज के इस आलेख के लिए समीचीन है। यह तो रही महान लोगों की महान बातें। अगर हम देखें तो श्रेष्ठता कभी भी अंतिम नहीं होती। श्रेष्ठता सदैव निरंतरता के साथ अनंतिम होती है। श्रेष्ठता जिसे प्राप्त हो जाती है वह अगर सकारात्मक है तो प्रभावशाली होता है और अगर उसके व्यक्तित्व में नकारात्मक होती हैं तो वह कुंठित हो जाता है। जीवन में सर्वश्रेष्ठ होता है एकात्मता का भाव जो कुंठित व्यक्ति कभी नहीं ला सकते। क्योंकि जैसे ही मन में नकारात्मकता का प्रभाव बढ़ता है तो हमारा व्यक्तित्व आकर्षण हीन हो जाता है। यह की लोगों से दूर होने लगते हैं। चलिए इस क्रम में कुंठा के दोनों प्रकारों का थोड़ा सा विश्लेषण कर लेते हैं-
*अभिव्यक्त कुंठा* :- अभिव्यक्त कुंठा व्यक्तित्व को छत्तीसगढ़ करती है। जिसका विश्लेषण हमने ऊपर कर ही चुके हैं। आपकी मिलनसारिता बेहद नकारात्मक रूप से प्रभावित होती है और इसका असर डीएनए पर भी पड़ता है। समाज में अभिव्यक्त कुंठा के संवाहक लोगों के कारण राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्तर तक पर भी बेहद नकारात्मक प्रभाव देखा गया है। इसका एक ताजातरीन उदाहरण है पाकिस्तान की स्थिर सामाजिक राजनीतिक परिस्थिति। इसके अलावा चीन में भी ऐसी ही परिस्थिति निर्मित है। और तो और आप यूनाइटेड किंगडम के संदर्भ में गंभीरता से विचार करें तो वहां की socio-economic संरचना बेहद नकारात्मक रूप से कुंठित मानसिकता के कारण प्रभावित हुई है इसका विश्लेषण अलग तरह से किया जा सकता है वर्तमान में हम अभिव्यक्त कुंठा पर अपनी चर्चा सीमित रखते हैं। सामाजिक संदर्भों में देखा जाए तो अत्यधिक महत्वाकांक्षा जो कुंठा के रूप में अभिव्यक्त भी हो जाती है कि परिणिति तानाशाही वाले राष्ट्रों में नजर आती है। अत्यधिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए दबाव पैदा करना मनुष्य की प्रवृत्ति है। मौलिक रूप से कुंठा का उत्पादन वैयक्तिक होता है, और धीरे-धीरे यह सर्वजनिक एवं सामाजिक विकृति के स्वरूप में परिवर्तित हो जाता है।
अनाभिव्यक्त-कुंठा :-अनाभिव्यक्त - कुंठा, मनुष्य के मस्तिष्क मस्तिष्क में मौजूद रहती है। व्यक्ति उसे अभिव्यक्त नहीं करता परंतु वह अवसर मिलते ही नुकसान करने में पीछे नहीं होता। ऐसे गुण पॉलीटिशियन में सर्वाधिक मात्रा में पाए जाते हैं। परंतु पिछले कई दिनों से यह देखा जा रहा है बहुतेरे लोग इस तरह के मनोरोग से भी ग्रसित हैं। इसे हम 1 मुहावरे से समझ सकते हैं जिसमें यह कहा गया है मुंह में राम बगल में छुरी। सामान्यतः कुंठित लोग सीधे प्रतिरोध ना करते हुए अवसर की तलाश करते हैं। ऐसे लोग आपको सामान्य रूप से कहीं भी मिल जाते हैं। अनाभिव्यक्त-कुंठा कई बार लंबे समय तक मन में पलती है और फिर कभी अचानक भयानक स्वरूप में विस्फोट करती है। यह विस्फोट सब कुछ खत्म करने की सीमा तक बढ़ जाता है। अनाभिव्यक्त-कुंठा सामाजिक व्यवस्था को तहस-नहस भी कर सकती है। इसका सर्वोच्च उदाहरण महाभारत का प्रमुख पात्र धृतराष्ट्र है। धृतराष्ट्र के अलावा आपने रावण के चरित्र की समीक्षा की ही होगी? रावण का चरित्र कुछ ऐसा ही था। मुझे रावण में ज्ञान नैतिक बल योग्यता और क्षमता की बिल्कुल भी कमी नजर नहीं आती। परंतु स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने की कुंठा रावण के साम्राज्य का अंत की वजह बनी। ठीक उसी तरह मध्यकाल में उत्तर मध्य काल में ऐसे कई सारे उदाहरण देखने को मिल जाएंगे।
लोग कुंठित क्यों हो जाते हैं?
वर्तमान समय के परिपेक्ष में देखा जाए तो लोगों में कुंठा का कारण अत्यधिक स्पर्धा है। भौतिकवादी व्यवस्था में सर्वाधिक कुंठा का समावेश होता है। जबकि अध्यात्मिक चिंतनशील का कुंठा का दमन करती है। यहां तक कि जो आध्यात्मिक दृष्टिकोण से विचार करते हैं वह कुंठित नहीं होते। कुंठित व्यक्ति विध्वंस कर सकते हैं परंतु नव निर्माण की उनसे उम्मीद करना बेकार है। यह वैज्ञानिक तथ्य है कि कुंठा किसी भी विकास का आधार हो ही नहीं सकती।