भारत में आरक्षण : सामाजिक इंजीनियरिंग का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण


हाल के दिनों में सुप्रीम कोर्ट ने आर्थिक आधार पर सवर्णों को आरक्षण देने के संबंध में जो परदेस पारित किए हैं उससे स्पष्ट है कि हमारी न्याय व्यवस्था भी वंचित वर्ग के लिए पूरी तरह से सहानुभूति पूर्वक दृष्टिकोण अपना रही है। सामाजिक इंजीनियरिंग का जीता जागता उदाहरण आरक्षण माना जा सकता है। यद्यपि बहुत से विचारक जातिगत आरक्षण के विरुद्ध हैं। क्योंकि जब योग्यता का प्रश्न उठता है तो आरक्षित संवर्ग एक फॉर्मेट के तहत कम योग्यता धारित करने के बावजूद किसी अधिक योग्य व्यक्ति के समकक्ष होता है। यह अकाट्य सत्य है। परंतु सत्य यह भी है कि आरक्षण का कारण अपलिफ्टमेंट ऑफ द वीकर सेक्शन Upliftment of the Weaker Section  ही है। सुप्रीम कोर्ट का यह कहना कि आरक्षण वैयक्तिक हितों को साधने का कारण नहीं होना चाहिए। यह सामाजिक इंजीनियरिंग के लिए एक महत्वपूर्ण संदेश भी है। जहां तक शासकीय सेवाओं में आरक्षण का प्रश्न है मेरे हिसाब से आरक्षण का अवश्य केवल एक बार दिया जाना ठीक होता है। जबकि पदोन्नति में आरक्षण को लेकर सबकी अपनी अपनी राय हो सकती है। लेकिन सामाजिक इंजीनियर के परिपेक्ष में यह एक तरह से अनुचित ही है। वैसे व्यक्तिगत राय पर सभी सहमत होंगे ऐसा कदापि मेरी अपेक्षा नहीं है।
    संक्षेप में हम सवर्ण आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट की सहमति के संबंध में देखें तो... सुप्रीम कोर्ट ने केवल जाति के आधार पर आरक्षण के विरुद्ध न होते हुए आर्थिक आधार पर आरक्षण की समीक्षा की गई है।
केंद्र सरकार द्वारा आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (ईडब्ल्यूएस) को दिए गए आरक्षण को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने ईडब्ल्यूएस आरक्षण को वैध बताते हुए, इससे संविधान के उल्‍लंघन के सवाल को नकार दिया। हालांकि, चीफ जस्टिस यूयू ललित की अध्यक्षता वाली पांच संदस्यीय बेंच ने 3-2 से ये फैसला सुनाया है। इससे यह साफ हो गया कि केंद्र सरकार ने 2019 में 103वें संविधान संशोधन विधेयक के जरिए जो आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को शिक्षा और नौकरी में 10 प्रतिशत आरक्षण देने की व्यवस्था की थी, संविधान का उल्‍लंघन नहीं है। 
   याचिकाकर्ता द्वारा सवर्ण आरक्षण को असंवैधानिक करार देने की याचना की थी। परंतु सामाजिक इंजीनियरिंग के परिपेक्ष्य में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी बेहद प्रासंगिक और अनुकूल है। आप गंभीरता से विचार कीजिए तो आप पाएंगे कि सामाजिक समरसता और एकात्मता के लिए सामाजिक न्याय सर्वोच्च प्राथमिकता वाला कंपोनेंट है। वर्तमान संदर्भ में देखा जाए तो विगत 10 वर्षों में सामाजिक जातिगत व्यवस्था  समाप्त होती नजर आ रही है। पहले तो वैवाहिक संदर्भों में केवल अपनी बिरादरी में ही विवाह को मान्यता प्राप्त होती थी परंतु अब अधिसंख्यक वैवाहिक अनुष्ठान अंतर्जातीय विस्तार ले चुके हैं। और आने वाले समय में जातिगत व्यवस्था लगभग समाप्त हो जाएगी।
   आरक्षण समतामूलक समाज की अवधारणा पर आधारित व्यवस्था है। भारतीय व्यवस्था में socio-economic पहलुओं पर विचार करना आगामी समय के लिए सुव्यवस्थित करने की योजना बनाना हम सबका सामाजिक दायित्व है। दीर्घकाल में जातिगत सामाजिक व्यवस्था पूर्णत: समाप्त हो सकती है। वर्तमान में एक नए तरह के भारत ने आकार लिया है। सामाजिक संरचना के प्रतिमानों में बदलाव आ रहा है, परंपराएं भी बदली जा रही हैं या कुछ परंपराएं स्वयं ही बदल गई हैं। बदलते परिवेश में सामाजिक परिस्थितियों में बदलाव ठीक वैसा ही है जैसे- ईसा पूर्व गौतम बुद्ध का अभ्युदय होना। गौतम बुद्ध ने समतामूलक समाज की स्थापना की बुनियाद रखी थी। उनके संदेश आर्थिक समानता के लिए जितने प्रभावी रहे हैं उससे कहीं अधिक सामाजिक समानता और एकात्मता के पक्षधर थे। महात्मा बुद्ध के अधिकांश उपदेशों में एकात्मता समरसता एवं शांति के उन समस्त बिंदुओं को समावेशित किया गया है जिन बिंदुओं पर भारतीय दर्शन में उपनिषदों में मार्ग स्थापित किया था। भारतीय सनातनी व्यवस्था समतामूलक समाज की व्यवस्था के प्रति सतर्क और सजग रही है। भारत में जैनमत, बुद्धिज़्म,शैव,शाक्त, वैष्णव, चार्वाक, सूफी, यहां तक कि विदेशों से आए इस्लाम और क्रिश्चियनिटी को भी मान्यता मिली। जातिवादी व्यवस्था को समाप्त करने की दिशा में अगर जातिगत आरक्षण एक उत्प्रेरक है तत्व है तो दूसरी ओर माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश सामाजिक इंजीनियरिंग के लिए महत्वपूर्ण घटक सिद्ध होगा। कुल मिलाकर कल्याणकारी राज्य की कल्पना को आकार देने के लिए माननीय न्यायालय का नजरिया प्रत्येक नागरिक के बीच सामाजिक आर्थिक राजनीतिक परिपेक्ष्य में बेहद प्रभावशाली फैसला है। यह भारत संदर्भ में टर्निंग प्वाइंट सिद्ध होगा।

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