17.12.19

सुभाष घई जी बदलाव चाहते हैं शिक्षा प्रणाली में

Renowned film maker director and producer Subhash Ghai expressed his thought in Jabalpur on the occasion of Osho Mahotsav held in Jabalpur 11 to 13th of December 2019 , Mr Ghai supported the idea of Prashant kouraw who is the owner of Vivekanand wisdom School . Video received from Dr Prashant kouraw

सुभाष घई ने अपने जबलपुर प्रवास के दौरान कहा कि क्रिएटिविटी और स्पिरिचुअलिटी बुनियादी शिक्षा में शामिल की जानी चाहिए . उनका मानना है कि 200 साल पुरानी शिक्षा प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत है इसे अभी तक कुछ हासिल नहीं हुआ और अगर कुछ हासिल किया जाना है तो पाठ्यक्रम में बेचारे बिंदु सम्मिलित किए जाने चाहिए जो आध्यात्मिकता और रचनात्मकता के नजदीक हैं । यह तो सच है कि इतनी श्री घई ने उन तमाम मुद्दों को शामिल कर लिया है जो हमारी शिक्षा प्रणाली में नकारात्मक रिजल्ट दे रहे हैं । एकांगी सा हो गया है पाठ्यक्रम अभिभावक इसे रिलाइज करते ही होंगे । पर अधिकांश अभिभावक शिक्षाविद विचारक चिंतक यहां तक कि लेखक और कवि भी इसको लेकर बहुत गंभीर नजर नहीं आते । डॉ प्रशांत कौरव के के स्कूल पर चर्चा करते हुए श्री घई पाठ्यक्रम में आमूलचूल परिवर्तन की उम्मीद रखते हैं । बेसिक शिक्षा प्रणाली में आध्यात्मिकता और सृजनात्मकता का सम्मिश्रण किया जाना जरूरी है इसे हम सब मानते हैं भारत के नव निर्माण के लिए फिल्मों की महत्वपूर्ण भूमिका होनी चाहिए । इस पोस्ट में मैं यह पूछना चाहूंगा सुभाष घई जी से कि वे इस दिशा में अपनी फिल्मों के जरिए क्या दिखा सकते हैं ? अगर यह सिर्फ बातें हैं तो इन बातों का क्या ?
सुभाष घई जी को जाना हमने अमिताभ बच्चन के जरिए अमिताभ जो जंजीर के बाद एक यूथ इंकलाब का आईकॉनिक चेहरा बन गए थे... सुभाष जी ने एंग्री यंग मैन को जन्म दिया पर उसके बाद के निर्माताओं ने 3इडियट माउंटेन मैन आदि आदि कई सारी फिल्में देकर समाज को बहुत से रास्ते बताएं । आज का युवा किसी भी नाम के पीछे नहीं भाग रहा चेतन भगत से संवाद करता है तो इतिहास जानना चाहता है । वह अमीश त्रिपाठी के जरिए भारत की सांस्कृतिक सामाजिक सभ्यता को समझने की कोशिश करता है । वह डेमोक्रेटिक सिस्टम का प्रबल समर्थक इस बात से शायद श्री घई साहब अनभिज्ञ हैं । मध्यमवर्ग भारत के परिदृश्य को एकदम बदल दिया है । विदेशों में जाकर भारत के लिए फॉरेन करेंसी भेजने वाला एक बड़ा तबका मध्य वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है । भारत का 70% मध्यमवर्ग आध्यात्मिक एवं सृजनात्मक नहीं है ऐसा हो ही नहीं सकता यह मेरे अपने विचार हैं सुभाष जी ने जो देखा होगा जो सुना होगा और जो समझा होगा उससे अलग सोच रहा हूं । गौरव की बात है कि वे जबलपुर आए ओशो महोत्सव में चार चांद लगाए और शिक्षा प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन की बात की बधाई देना चाहूंगा इस आह्वान के साथ कि वे भी अपनी फिल्मों में तब्दीलियां जाए शायद यह बात उन तक पहुंच पाती है पता नहीं परंतु मैं कुछ ऐसी शख्सियत को यह तय करना चाहता हूं जिन्होंने इनसे संपर्क किया है या अभी इनके संपर्क में हैं


16.12.19

इश्क और जंग में सब कुछ जायज कैसे...?



एक दौर था हां वही जब युद्ध करते थे राजा अपनी ताकत को बढ़ाने के लिए युद्ध जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था । युद्ध के बिना विस्तार की कल्पना मुश्किल थी ।
     रामायण और महाभारत के बाद शायद ही कोई ऐसी स्थिति बनी हो जबकि युद्ध के नियमों का पालन किया गया । इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । डेमोक्रेटिक सिस्टम में युद्ध का स्वरूप बदल रहा है तो बदली हुई परिस्थिति में इश्क भी परिवर्तित हो ही गया है स्थाई तो दोनों नहीं हैं आजकल...
   हालिया दौर में लोगों के मस्तिष्क से विचारशीलता गुमशुदा हो गई है । और उसके पीछे लोगों के अपने तर्क हैं बदलते दौर में क्या कुछ होने जा रहा है वैसे मुझे घबराहट नहीं है आप भी ना घबराए क्योंकि वैचारिक व्यवस्था जब अत्यधिक कमजोर हो जाती है बेशक महान किलों की तरह गिर जाती हैं ।
     क्रांति सर्वकालिक साधन अब शेष नहीं है । खास कर ऐसी क्रांति जो जनता की संपत्ति की राख से बदलाव चाहती हो या खून की बूंदों से । कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए अगर आप सच्चे भारतीय हैं तो कम से कम हिंसक तरीके न अपनाएं । राष्ट्र की संपत्ति इन थे उनके मेरे तुम्हारे यानी हम सबके रक्त से पसीने से बनी हुई है । वांछित बदलाव के लिए आगजनी पत्थरबाजी का तरीका एकदम आदिम सभ्यता का पता देता है । बौद्धिक विलासिता के कारण समाज मैं युवा बेहद विचलन की स्थिति में है..... इसके पीछे आयोजन प्रयोजन सब कुछ हो सकता है बिना इस बात की परवाह किए हम चाहते हैं कि- डेमोक्रेसी आपको अपनी बात कहने का हक देती है यह हक अगर कोई छीने तो बेशक हम सब व्यवस्था के विरुद्ध हो जाएंगे पर अभी वह वक्त नहीं आया । हम चाहते हैं कि ना बसें चलाई जाएं किसी के माथे से खून बहाया जाए और तो और किसी से गुमराह होने की जरूरत नहीं है अपनी बात नहीं बेफिक्री से कहें बेखौफ कहीं । युद्ध के अपने नियम होते हैं मोहब्बत के भी अपने नियम होते हैं इन नियमों का बकायदा ध्यान रखें आप जानवर नहीं और आपको इस कहावत को झूठा साबित करना है । राष्ट्रीय संपदा के साथ इस तरह का बर्ताव करना कहां तक जायज है चाहे वह कोई करें राष्ट्र द्रोही है

14.12.19

ओशो महोत्सव के बाद ....!


जबलपुर वाले ओशो की सामाजिकता पर सवाल खड़ा हुआ . मेरी नज़र  में प्रथम दृष्टया ही  प्रश्न गैरज़रूरी  सा है . ऐसा मुझे इस लिए लगा क्योंकि लोग अधिकतर ऐसे सवाल तब करतें हैं जब उनके द्वारा किसी का समग्र मूल्यांकन किया जा रहा हो तब सामान्यतया लोग ये जानना चाहतें हैं की फलां  व्यक्ति ने कितने कुँए खुदवाए,  कितनी राशि दान में दी, कितनों को आवास दिया कितने मंदिर बनवाए . मुझे लगता है  कि सवालकर्ता ने उनको   व्यापारी अफसर नेता जनता समझ के ये सवाल कर  रहे हैं . जो जनता  के बीच जाकर  और किसी आम आदमी की / किसी ख़ास  की ज़रूरत पूरी  करे ?
मेरे बांये बनारसी मित्र स्वामी रवि प्रकाश,
माँ गीता जी तरंग ऑडिटोरियम परिसर
जबलपुर के आचार्य रजनीश ऐसे धनाड्य तो न थे... जैसे कि वे अमेरिका जाकर वे धनाड्य हुए । जबलपुर के सन्दर्भ में ओरेगान  प्रासंगिक नहीं है. पूना भी नहीं है प्रासंगिक.. प्रासंगिकता प्रोफेसर चंद्रमोहन जैन या आचार्य रजनीश है जबलपुर और मध्यप्रदेश के संदर्भ में
अब जबकि वे सिर्फ ओशो है और अब जबकि वे ओशो हैं ।! सर्वकालिक प्रासंगिक है . 30 वर्ष पहले जब मैं स्वतंत्र पत्रकारिता करता था तब एक बार हास्य कवि सुरेंद्र शर्मा जी का इंटरव्यू लिया था उन्होंने रजनीश को भारत का सबसे बुद्धिमान व्यक्ति करार दिया था... 30 वर्ष बाद उनका मानना था कि ओशो इस विश्व का सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ व्यक्तित्व है । ओशो के बारे में सामाजिक सीमाओं से बंधे लोग कुछ भी अर्थ लगाएं कोई फर्क नहीं पड़ता ओशो सहमति असहमति के बीच मेरे लिए महत्वपूर्ण है । इस बीच एक रहस्योद्घाटन करना जरूरी है सवाल उठते हैं ओशो सामाजिक थे और उत्तर आते हैं नहीं ओशो सामाजिक नहीं थे संत सामाजिक हो भी नहीं सकता जो बदलाव लाता है वह सामाजिक नहीं होता सामाजिकता से ऊपर होता है... वे सामाजिक ना थे तभी तो समकालीनों ने उनको टार्च बेचने वाले की उपाधि दे देख रखी थी ।
इससे बड़ा प्रमाण और क्या होगा...?
सामाजिक वो ही होता है जिससे सत्ता को भय हो जावे .. टार्च बेचने वाले की उपाधि सरकारी किताबों के ज़रिये खोपड़ियों  में ठूंस दी गई थी . स्पष्ट है कि समकालीन व्यवस्था कितनी भयभीत थी.  तब खुलेआम ओशो विसंगतियों पर प्रहार करते नजर आते थे ।
     जबलपुर के परिपेक्ष्य में कहूं तो प्रोफ़ेसर से आचार्य रजनीश में बदल जाने की प्रक्रिया ही सामाजिक तो नहीं हो सकती हां सामाजिक सरोकारी प्रक्रिया अवश्य हो सकती है ।
अब आप  विवेकानंद में सामाजिक सरोकार तलाशें तो अजीब बात नहीं लगेगी क्या ।
    कुछ उत्साही किस्म के लोग  . दूध, तेल, नापने के लिए इंचीटेप का प्रयोग करने की कोशिश करतें हैं अलग थलग दिखने के लिए जो  कभी हो ही नहीं सकता .  दूध और तेल नापने के लिए दूसरे यंत्र अब आप तोते से उम्मीद करो कि घर की समस्याओं में वह अपने विचार व्यक्त करें संभव है क्या चलिए तोते से ही उम्मीद करो कि वह आपके लिए खाना परोस दे तो क्या यह भी संभव है कदापि नहीं । अद्भुत लोग अद्भुत होते हैं उन्हें अद्भुत ही रहने दिया जाए उनसे सीखा जाए क्योंकि वह आपको देख रहे होते हैं समाज को देख रहे होते हैं प्रक्रियाओं को घटित होते देख रहे होते हैं और फिर अपनी विशेषज्ञ बुद्धि से सजेस्ट करते हैं कि क्या होना चाहिए और क्या कर रहे हो । ओशो गांधी से असहमत थे चरखे से विकास का मार्ग उन्हें समझ में नहीं आया ऐसा लोग मानते हैं । ओशो का मत था उनकी सोच थी कहीं ना कहीं यह सही भी है विकास का चरखा स्वयं अब सुपर सोनिक स्पीड में बढ़ रहा है अब दूसरा गाल दिखाने पर लोग गर्दन तक हाथ बढ़ा देते हैं । देश काल परिस्थिति के आधार पर परिवर्तन आवश्यक हैं आज ही ओशो सन्यासियों से चर्चा हुई क्योंकि मैं ओशो से संवाद करता रहता हूं आपको अजीब लग रहा होगा पर यही सही है मैंने उनसे कहा- ओशो को समझने के लिए उनसे संवाद करो और समझाने के लिए नए तरीके अपना लो ।
बनारस से आए हुए सन्यासियों मैं मुझे असहमति नजर नहीं आई वे शत प्रतिशत सहमत थे । हमने पुष्टि भी की कि प्रक्रियाएं और परंपराएं कभी भी ना तो धर्म हो सकती ना ही अध्यात्म अतः देश काल परिस्थिति के अनुसार परिवर्तित हो जाओ यह बहुत बेहतरीन मौका है कि आप ओशो महोत्सव के बहाने एक बड़ा अवसर प्राप्त कर चुके हो ओशो ने कुछ सोच समझकर ही कुछ कहा था कुछ नहीं बहुत कुछ कहा था आज के समय को जिसकी जरूरत है । दिन प्रतिदिन सूचनाओं के आधार पर विचारधाराएं बनती बिगड़ती रहती हैं पॉलिटिकली सिचुएशन पर सामाजिक व्यवस्था परिवर्तित हो रही है जबकि पहले ऐसा ना हुआ करता था समाज पॉलिटिक्स को बदलता था चिंतन पॉलिटिक्स पर गहरा प्रभाव छोड़ता था लोग सच्चाई और साफगोई पर भरोसा रखते थे परंतु ग्लोबलाइजेशन पॉलीटिकल अस्थिरता के दौर में सब कुछ बदल रहा है और तेजी से बदल रहा है तब जरूरी है कि हम अपनी सोच को मिशन मोड में ले आए और ओशो जैसे विद्वानों को समीचीन बना दें । अब आप ही बताइए मेरे सुझाव पर वे असहमत क्यों होते जबलपुर के लिए ओशो महोत्सव 2019 एक नया प्रयोग ना होकर बहुप्रतीक्षित अवसर था । विश्व भर में विस्तारित ओशो के अनुयायियों ने इसे महत्वपूर्ण माना तो जबलपुर में इस आयोजन की मेजबानी करते हुए स्वयं को गौरवान्वित किया । हां सरकार का सपोर्ट रहा है रहना भी चाहिए अध्यात्मिक विभाग ने अपनी ड्यूटी बखूबी निभाई है अधिकारियों कर्मचारियों ने जैसा कि मुझे सन्यासियों से पता चला पूरे मनोयोग से अपने दायित्वों का निर्वाह किया ओशो सन्यासियों को और ओशो के प्रशंसकों को अच्छा भी लगा । क्या यह पर्याप्त नहीं है एक सफल आयोजन के लिए । चलिए अब मूल मुद्दे पर वापस लौटते हैं... तो यह जान लीजिए के हम सांसारिक लोग बेचारे होते हैं सच मानिए फिर से कहता हूं कि सांसारिक लोग बेचारे होते हैं विद्वानों के प्रयोगों और उनकी अंतर-ध्वनि  को समझ नहीं  पाते हैं बेचारे .
      सम्भोग से समाधि तक पर पाबंदी लगाने की मांग करते सुने जाते थे तब लोग. मैं भी बच्चा था न सम्भोग का अर्थ समझता न समाधि का . घरेलू कपडे सुखाने वाले  तार / रस्सी आदि पर  चिड़िया चिडा के इस मिलन को मेरा बाल मन चिडे द्वारा चिड़िया के प्रति क्रूरता समझता था. और समाधियाँ तो स्थूल रूप में देखीं हीं थी जहां माथा नवाते थे हम लोग . पर अब समझ आ रहा है उसे क्या कहना चाहते थे उन्होंने जो भी कहा उसका पुनर्लेखन आवश्यक और उचित नहीं । इस आलेख में मुझे यह साबित करना है कि समकालीन संतों में 2 लोगों से मैं अत्यधिक प्रभावित हूं एक तो है सद्गुरु दूसरे हैं ओशो ओशो जो शरीर सहित मौजूद नहीं है सद्गुरु जो शरीर सहित मौजूद हैं । यह कभी पुरस्कार के पीछे नहीं दौड़े इन्होंने मलाला से हिस्सा भी नहीं की यह दोनों अलग-अलग किस्म के व्यक्ति हैं आप इन्हें अपनी आस्था वश भगवान कह सकते हैं . .. पर मैं है जीवन का गुरु मानता हूं ध्यान योग इनकी मौलिक अवधारणा है । मेरे गुरु स्वामी शुद्धानंद नाथ का स्पर्श मेरे लिए अति महत्वपूर्ण है उन्होंने प्रपंच अध्यात्म योग की अवधारणा को संपुष्टि दी है । अर्थात जीवन क्रम में अध्यात्म के महत्व को किस तरह से समाविष्ट करना है यह से सीखा है । तीनों संतो को एक साथ देखूं तो तीनों में एक समानता है वह है जीवन के सरोकारों को समझाने की अद्भुत शक्ति । स्वामी शुद्धानंद नाथ नागपुर से संबंधित थे । वर्तमान में वे सिर्फ अभौतिक रूप से मानस में मौजूद हैं । महापुरुष के रहने ना रहने का कोई खास फर्क हमारे जीवन पर नहीं पड़ता है यदि हम उनके मार्गों को पहचानते हैं । अगर नहीं पहचानते तो जरूर हमें इस बात का फर्क पड़ेगा की वास्तव में भी होते तो मुझ में बदलाव आता । ईशा फाउंडेशन स्थापना करने वाले सद्गुरु निरंतर सक्रिय हैं बदलाव एवं घटनाओं के सहारे चरित्र निर्माण करने तो स्वामी शुद्धानंद नाथ परिवारों के चरित्र के निर्माण एवं आध्यात्मिक चरित्रों के निर्माण की प्रक्रिया को समझाते हैं । वही ओशो वाह सामाजिक चैतन्य को परिष्कृत करने की कोशिश करते हैं । यहां तीनों महापुरुषों को मैंने वर्तमान में महसूस किया है ऐसा लगता है कि वे अपनी संपूर्ण काया के साथ मौजूद है मेरे साथ है यही महसूस करके हम स्प्रिचुअल यानी आध्यात्मिक यात्राएं कर सकते हैं ।
यहां केवल 3 महापुरुषों का जिक्र किया जा रहा है । इसका अर्थ यह नहीं है की कुल 3 ही महापुरुष इस धरती पर मौजूद हैं । महापुरुषों की कमी इस भूमि पर तो ना होगी कभी-कभी आप महसूस करेंगे कि अब विकल्प नहीं है कुछ कौन सिखाएगा कौन समझाएगा विप्लवी दौर है... चिंता मत कीजिए महापुरुष मरते नहीं जीवित रहते हैं आप भी हो सकते हैं यह भी हो सकते हैं वह भी हो सकते हैं यानी कोई भी प्रगट हो सकता है महापुरुष के रूप में कहीं भी कभी भी । जीवन के मूल्यों को समझने के लिए महापुरुषों को अपमानित ना करो क्योंकि यह वह सदाव्रत खजाना दे जाते हैं जो कभी खाली ही नहीं होता । ऊंचे ओहदे होते वालों से आप असहमत हों तो आप क्या कर सकेंगे कुछ नहीं ना !
सामाजिक व्यक्तियों से आप असहमत हो या ना हो उससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ेगा न ही वह आपकी परवाह करेंगे । पर जो आपके लिए सबसे ज्यादा चिंतित है वह महावीर है बुद्ध है याज्ञवल्क्य है शंकराचार्य है स्वामी शुद्धानंद नाथ है सद्गुरु है या ओशो है.... उससे रिश्ता बनाए रखो जिसे तुम बहुत अधिक पसंद करते हो । समाधान मिल जाएंगे । ओशो के ढेरों वीडियो मौजूद है किताबें है तकनीकी का लाभ उठाइए सद्गुरु को सुनिए, कुछ भी समझ में नहीं आ रहा ना तो चलिए उठाइए पुस्तकें किसी भी महापुरुष को समझने के लिए उसके विचारों तक पहुंचने के लिए पढ़ लीजिए । विश्व को प्रेम का संदेश देते ये महापुरुष निसंदेह आपको बदल देंगे संवाद तो करिए प्रतिप्रश्न कीजिए उत्तर मिलेगा आपको कहां जाएगा उत्तर इसी ब्रह्मांड में मौजूद है हर सवाल के उत्तर ।
ओशो महोत्सव के बहाने अगर इस आध्यात्मिक चिंतन में कुछ कमी रह गई हो तो संवाद आप भी कर सकते हैं । मैं अपने खास मित्र को इस आलेख के जरिए बता देना चाहता हूं कि जब ईश्वर ने तुम्हें उपेक्षित नहीं रखा तो तुम किसी को उपेक्षित रखने की कोशिश करके कोई बहुत बड़ा कमाल नहीं कर रहे हो । अस्तु शेष फिर कभी अभी तो ओशो महोत्सव की सफलता के लिए इस
पथरीले शहर को बधाई

10.12.19

बलात्कार' जैसा शब्द हमेशा के लिए गायब हो सकता है : शरद कोकास

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*समाज के शब्दकोष से 'बलात्कार'  जैसा शब्द हमेशा के लिए गायब हो सकता है -कुछ व्यवहारिक सुझाव दे रहे हैं शरद कोकास*

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पिछले कुछ दिनों से हैदराबाद की घटना पर सोशल मीडिया में विभिन्न तबके के लोगों के , स्त्री पुरुषों के , बुद्धिजीवियों के विभिन्न तरह के विचार  पढ़ने को मिल रहे हैं । इनमें कुछ आक्रोश से भरे हैं , कुछ भावनात्मक हैं  , कुछ में स्त्रियों के लिए अनेक टिप्स हैं , सुरक्षा और आत्मरक्षा के लिये सुझाव हैं , कानूनी सहायता की बातें हैं , अब तक हो चुकी कार्यवाही की रपट है , तरह तरह के आँकड़े हैं , अरब देशों के कानून की दुहाई है आदि आदि ।

मुझे लगता है ऐसी घटनाएं जब भी घटित होती हैं और उन अनेक घटनाओं में से जो घटनाएं  सुर्खियों में आ जाती हैं उन पर चर्चा शुरू हो जाती है । फिर कुछ समय बाद सब कुछ सामान्य हो जाता है । ऐसा करते हुए बरस बीत जाते हैं ।  अभी सोलह दिसम्बर की तारीख आनेवाली है । निर्भया को सात साल हो जायेंगे ।

समय ऐसा ही बीतता जायेगा ।  एक पीढ़ी के बाद दूसरी पीढ़ी आ जायेगी । हम विभिन्न उपाय करते रहेंगे और उम्मीद करते रहेंगे कि समाज मे अब सकारात्मक परिवर्तन होगा ।

जब भी मैं इस दिशा में सोचता हूँ तो मुझे लगता है क्या हम ऐसा कुछ नहीं कर सकते कि भले ही देर लग जाये लेकिन एक या दो पीढ़ी के बाद स्थायी रूप से ऐसा कुछ परिवर्तन हो ?

कुछ उपाय मेरे मन में आये हैं और मुझे लगता है कि इन समस्याओं और उनके समाधान को लेकर एक पीढ़ी की यदि अच्छी तरह से ब्रेन ट्रेनिंग की जाए तो सम्भव है हम समाज के सामूहिक अवचेतन का परिष्कार कर सके ।

सामान्यतः एक पीढ़ी हम पन्द्रह वर्ष की मानते हैं । यदि हम इस दिशा में अभी से सक्रिय हो जायें तो क्या इस शिक्षा के माध्यम से  पन्द्रह या बीस साल बाद बलात्कार जैसा शब्द समाज के शब्दकोश से गायब हो सकता है ?

इस दिशा में सोचते हुए जो विचार मेरे मन मे आये हैं उन्हें आपके सामने रख रहा हूँ । आपकी इनसे असहमति भी हो सकती है किंतु विचार करने में क्या हर्ज है ।

यह सम्भव हो सकता है अगर हम सिर्फ इतना करें कि...

1.हम अपने बेटों को जन्म से ही *ब्रेन ट्रेनिंग* के माध्यम से यह बताएँ कि उनकी और उनकी बहनों या अन्य लड़कियों की देह में केवल जननांग का अंतर है अन्यथा वे हर बात में बराबर हैं । उन्हें जननांगों के बारे में बचपन से समझायें कि उनका उपयोग क्या है । अन्य प्राणियों की देह और मनुष्य की देह में क्या अंतर है । देह की संरचना बताते हुए बेटों को बतायें कि बेटियों को भी शरीर मे उतना ही कष्ट होता है , उतनी ही बीमारियां होती हैं । जबरन छूने से , च्यूंटी काटने से , ज़ोर से पकड़ने से, मारने से शरीर मे उतना ही दर्द होता है । चोट लगने से वैसा ही घाव होता है। अनुभूति के स्तर पर मस्तिष्क की भूमिका के बारे में उन्हें बतायें ।

2.शरीर में हार्मोन्स की भूमिका  हम बच्चों को विस्तार से नहीं समझा सकते किंतु छुपाए जाने वाले विषयों पर 'सहज होकर' तो बात कर सकते हैं ? हम उन्हें जननांगों के बारे में बताते हुए यह तो बता सकते हैं कि सजीव होने के कारण उनमें कुछ प्राकृतिक क्रियाएं एक सी घटित होती हैं यथा मलमूत्र विसर्जन , पोषण , चयापचय, प्रजनन , जन्म और मृत्यु ।

3.यह भी बतायें कि बेटों की तरह बेटियों का भी हर बात में बराबरी का हक़ है पढ़ने लिखने में, खाने पीने में, खेलने कूदने में , घर मे लाई वस्तुओं का उपभोग करने में , प्यार और दुलार पाने में भी । देह और मस्तिष्क के स्तर पर दोनों बराबर है । बच्चों के हर सवाल का जवाब दें ।

*4.उनसे झूठ नहीं बोलें कि उन्हें अस्पताल से लेकर आये हैं या कोई परी देकर गई है। उन्हें बतायें कि वे मां के पेट से आये  हैं । मां के पेट में कैसे आये यह भी बतायें और किस तरह बाहर आये यह भी । इसमें शर्म न करें यह कोई गंदी बात नहीं है । केवल इतनी सी बात समझाने से उनका जीवन बदल सकता है।*

5.जितने काम लड़कियों को सिखाते हैं उतने ही काम लड़कों को सिखाएं मसलन खाना पकाना , बर्तन कपड़े धोना, झाड़ू पोछा करना, घर साफ करना, कपड़े सीना, गाड़ी चलाना , इत्यादि ।

*6.और सबसे महत्वपूर्ण बात कि समझ आते ही उन्हें यौनिकता के बारे में बतायें। उन्हें बतायें कि स्त्री को मासिक धर्म क्यों होता है । स्वप्नदोष क्या होता है, हस्तमैथुन क्या होता है। यह प्राकृतिक आनन्द यदि उन्हें मिलता है तो इसमें कोई बुराई नहीं है । लेकिन जबरन बलात्कार में बुराई है ।उन्हें प्रजनन शास्त्र के बारे में बतायें। उन्हें बतायें कि यद्यपि सेक्स मनुष्य के जीवन का महत्वपूर्ण अंग है लेकिन जबरिया सेक्स बलात्कार कहलाता है चाहे वह पत्नी के साथ क्यों न हो । उन्हें बतायें कि यौन प्रताड़ना किसे कहते हैं । उन्हें बतायें कि यौन सुख की अनुभूति स्त्री पुरुष में अलग अलग होती है और शरीर का मन से क्या सम्बन्ध होता है । यह भी कि अपराध किसे कहते हैं।*

(माफ कीजियेगा अगर आप इन बातों में गंदगी देख रहे हों तो । यह बातें गंदी नहीं है । यदि उचित माध्यम से उन्हें यह बातें नहीं बताई जाएंगी तो बच्चे पोर्न फिल्म और साहित्य का सहारा लेंगे और 'स्वप्न दोष का इलाज' ' लिंग के टेढ़ेपन का इलाज' ' 'सफेद पानी का इलाज ' जैसे ' गुप्त ज्ञान' को दीवारों पर इश्तेहार के रूप में लिखने वाले आपके बच्चों का शोषण करेंगे । वैसे इनके लिये पुस्तकें भी उपलब्ध हैं । जैसे एकलव्य प्रकाशन भोपाल की 'बिटिया करे सवाल' जिसमे प्रजनन व मासिक धर्म सम्बन्धी जानकारी है।)

*ध्यान रहे यह बातें यौन शिक्षा या सेक्स एजुकेशन से बिल्कुल अलग हैं हम उन्हें मानसिक तौर पर तैयार करते हुए उन्हें स्त्री का सम्मान करना सिखा रहे हैं।*

7.मुझे विश्वास है बेहतर ढंग से जब उनके मां बाप , शिक्षक , प्रशिक्षक आदि द्वारा हीउन्हें यह बातें बताई जाएंगी तो वे अपनी पिछली पीढ़ी से अधिक समझदार होंगे । जब वे अच्छी तरह इन बातों को समझ लें उन्हें यह भी बतायें कि वे उनसे पहले की पीढ़ी के लोगों को यानि अपने पिताओं, चाचाओं, मामाओं, फुफ़ाओं और नाना दादाओं को भी यह बात बतायें क्योंकि 15 साल बाद भी पहले की पीढ़ी तो 30 , 45 या 60 साल की रहेगी । हो सकता है यह नई पीढ़ी अपनी पिछली पीढ़ी से कहे कि *आपने स्त्री का जितना अपमान कर लिया सो कर लिया अब करेंगे तो आपको सरे आम जुतियाया जाएगा ।*

*इस प्रोग्राम की उस वर्ग में सबसे अधिक ज़रूरत होगी जिसे हम निम्न तबका कहते हैं*

8. हो सकता है आपको यह पंद्रह साल का ब्रेन ट्रेनिंग वाला कार्यक्रम पसंद न आये तो ठीक है । इसे भी जारी रखिये  और चाहें तो इन पन्द्रह सालों में बलात्कारियों को सजा देना हो , लम्बे मुकदमे चलाने हो , मोमबत्तियां जलानी हो , धर्म के नाम पर अपराध को उचित ठहराना हो , फेसबुक से लेकर संसद तक जितनी बहस करनी हो , व्यवस्था परिवर्तन के लिए आंदोलन करना हो , स्त्रियों को आत्मरक्षा का प्रशिक्षण देना हो , यानि जो करना हो करते रहें । विरोध भी बदस्तूर जारी रहे क्योंकि अंततः हमारा उद्देश्य एक बेहतर समता मूलक समाज की स्थापना ही है ।

*शरद कोकास*

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8.12.19

Revenge : never justice my reaction on Chief Justice of India statement


*भारत के मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणी पर त्वरित टिप्पणी*
बदला कभी भी न्याय नहीं हो सकता  एकदम सटीक बात कही है  माननीय चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया ने ।
     सी जे आई का यह बयान आज यानी दिनांक 8 दिसंबर 2020 को सुर्खियों में है । यह अलग बात है कि लगभग इतने ही दिन यानी 8 दिन शेष है निर्भया कांड के 7 वर्ष पूर्ण होने के और अब तक अपराधी भारतीय जनता के टैक्स का खाना खा खा कर जिंदा है ।
     भारतीय सामाजिक एवं  जीवन दर्शन भी यही कहता है । सांस्कृतिक विकास के अवरुद्ध हो जाने से सामाजिक विसंगतियां पैदा होती हैं । इस पर किसी किसी की भी असहमति नहीं है ।
  निश्चित तौर पर यह बयान हैदराबाद एनकाउंटर के बाद आया है। माननीय मुख्य न्यायाधीश जी के प्रति पूरा सम्मान है  उनका एक एक शब्द  हम सबके लिए  आदर्श वाक्य  के रूप में  स्वीकार्य है  ।
मेरी व्यक्तिगत राय है कि :- हैदराबाद पुलिस का एक्शन  बदला नहीं है  उसे  रिवेंज की श्रेणी में  रखा नहीं जा सकता  ऐसा मैं सोचता हूं और  यह मेरी व्यक्तिगत राय है किसी की भी सहमति असहमति  इससे यह राय नहीं दी गई है । यह एक सामान्य सी बात है कि पुलिस को यह अधिकार नहीं है कि वह निर्णय करें । पुलिस भी इस बात से सहमत रहती है ।
जहां तक हैदराबाद में हुए एनकाउंटर की घटना को परिभाषित करने का मुद्दा है इस घटना को रिवेंज या बदला नहीं कहा जा सकता । बदला दो पक्षों के बीच में हुई क्रिया और प्रतिक्रिया से उपजी एक घटना है जिसमें उभय पक्षों की व्यक्तिगत हित के लिए संघर्ष की स्थिति पैदा होती है ।
       यहां विक्टिम और क्रिमिनल के बीच पुलिस, मीडिया, व्यवस्था, समाज  तीसरे पक्ष के रूप में दर्शक हैं । इस दृष्टिकोण से सोचा जाए तो आप स्वयं समझदार हैं कि मामला क्या है ।हम सबसे विद्वान हैं हमारी न्याय पालिका, हम ऐसा मानते हैं । न्यायपालिका मौजूदा कानूनों के अंतर्गत निर्णय लेती है । और यही एक प्रजातांत्रिक स्तंभ का दायित्व है परंतु यदि न्याय में विलंब अथवा देर हो तो उससे अगर कोई उत्प्रेरण की स्थिति बने उसके लिए किसी को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता परंतु पुलिस प्रशासन को कानून अपने हाथ में लेने का अधिकार नहीं है यहां पुलिस कानून को अपने हाथ में लेती नजर नहीं आ रही ।
अगर ऐसा लग रहा है कि बेहद एवं आक्रोश के वशीभूत होकर ऐसा कोई क़दम उठा ले कि संसद से सड़क तक जब चारों ओर उन्हें मृत्युदंड देने का अनु गुंजन हो रहा हो ऐसी स्थिति में कानून जो न्याय दिलाने की गारंटी तो दे रहा है लेकिन विलंब के बारे में मॉल है इस पर सद्गुरु भी बहुत स्पष्ट है . कोई भी विचारशील व्यक्ति असहमति दे ही नहीं सकता ना कोई कभी न साहित्यकार क्योंकि रचना शील व्यक्ति सृजक होता है विध्वंसक नहीं पर अगर उसे ऐसा लगता है जैसा सतगुरु ने कहा कि यहां न्याय पाने में या न्याय मिलने में इतना विलंब होता है जिसे हम निर्मम विलंब भी कह सकते हैं.... तो कानून कमजोर नजर आने लगता है इस लिंक पर जाइए और देखिए सतगुरु ने क्या कहा...?
   यहां यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि बलात्कार और फिर बर्बरता के साथ हत्या या टॉर्चर कर देना पुराने कानूनों से ही परिभाषित है इसे जघन्य से जघन्यतम अपराध की श्रेणी में रखा जाना चाहिए इसे देशद्रोह के अपराध के समकक्ष रखकर न्यूनतम सुनवाई के साथ शीघ्र और अधिकतम दंड की श्रेणी में रख देना चाहिए कम से कम विधायिका यह दायित्व निर्वहन कर सकती है मीडिया भी चाहे परंपरागत मीडिया हो या सोशल मीडिया इस मुद्दे को इस तरह से उठाते हुए बदलाव की मांग कर सकती है यह हमारा प्रजातांत्रिक अधिकार है । यहां माननीय मुख्य न्यायाधीश की अभिव्यक्ति को सम्मान देने के लिए कम से कम इतना तो किया जा सकता है कि कानूनों में शीघ्र और समुचित बदलाव लाने की जरूरत पर तेज़ी से काम हो  ।
 *गिरीश बिल्लोरे मुकुल*

7.12.19

दरिन्दों का ख़ात्मा सिर्फ़ गन से होगा : मैत्रेयी पुष्पा

वरिष्ठ महिला कहानीकार साहित्यकार मैत्रेई पुष्पा जी ने अपनी फेसबुक वॉल पर निम्नानुसार पंक्तियां लिखकर हैदराबाद पुलिस का हौसला बढ़ाया है
*न भाषण से होगा न अनशन से होगा*
*दरिन्दों का ख़ात्मा सिर्फ़ गन से होगा
जब कभी साहित्यकार विचारक चिंतक बेचैन हो जाते हैं तब ऐसा लिखते हैं जैसा आदरणीय मैत्रेई पुष्पा ने लिखा है .
मैत्रेई पुष्पा जी उतनी ही संवेदनशील है जितना बाकी सृजन करता होते हैं । हम कभी नहीं चाहते कि कोई मारा जाए परंतु बात पर हम सब एकमत हैं अगर रेप किया है भारतीय अस्मिता पर किसी भी तरह की चोट करने की कोशिश की तो फैसला गन से ही होना चाहिए ।
हैदराबाद पुलिस ने जो किया उससे बहुत सारे संदेश निकल कर जा रहे हैं व्यवस्था जनतंत्र में जनता की आवाज को सुन पा रही है अब उन्नाव की बारी है । हर उस मानव अधिकार की झंडा बरदारी करने वालों को समझ में आना चाहिए की राष्ट्रीय हितों और महिलाओं के ईश्वर दत्त अधिकारों के हनन से बड़ा कोई अधिकार नहीं है और अगर अब कोई भी आयातित विचारधारा पुलिस की इस कार्रवाई का विरोध करेगा तो बेशक एक्सपोज हो जाएगा जिसे भी बोलना है वह पुलिस के इस कदम को सही बताए तो बोले वरना मुंह में कपड़ा बांधकर चुपचाप रहे । हम साहित्यकार बिल्कुल हिंसा पसंद नहीं करते इसका यह आशय नहीं है कि किसी के अधिकार का अतिक्रमण करने वाले को जिंदा रहने का हक भी देते हैं .
महायोगी कृष्ण श्री कृष्ण ने महाभारत की अनुमति दी थी । जरूरत होने पर शस्त्र उठाना ही बुद्धिमत्ता है भारतीय दर्शन यह कहता है और इसे अस्वीकार करना मूर्खता ही है ।
उन्नाव कठुआ जबलपुर भोपाल हबीबगंज जैसी घटनाएं सामने आ भी जा रहे हैं मीडिया भी परेशान है सोशल मीडिया पर उन्मुक्त आवाजें उठती जा रहे हैं 7 वर्षों से इन आवाजों को सुनने वाला ऐसा लगता था कि कोई नहीं । नारी हिंसा के खिलाफ अगर यह कदम उठाया तो सिर्फ वॉरियर्स ने सोशल वारियर्स ने बेशक एक कदम कई सारे रास्ते निर्धारित करेगा जहां संदेश जाना था वहां पहुंच भी गया है ।
समाज को भी समझ लेना चाहिए कि अपनी पुरुष संतानों को सम्मान करना सिखाए । समाज को चाहिए कि अगर घर का कोई बच्चा इस तरह के कार्यों में संलग्न है तो उसे प्रताड़ना देने से किसी के मानव अधिकार का हनन नहीं होता आखिर विक्टिम समाज यानि महिलाओं का बेटियों का भी तो अधिकार है, कश्मीर में जिस तरह से आम लोगों मानव अधिकारों का उल्लंघन हुआ था उसके जवाब में 370 का हट जाना बहुत सराहनीय कदम था ठीक उसी तरह महिलाओं के खिलाफ बेटियों के खिलाफ अत्याचार करने वालों के साथ अगर एनकाउंटर कर दिया तो कोई बुराई नहीं है । आधी रात को खुल जाने वाली अदालतों में खर्राटे मारती हुई फाइलिंग बरसों धूल की चादर ओढ़तीं रहें तो जनता अगर कोई निर्णय लेती है तो गलत क्या है . टनों मॉम पिघलने के बाद भी लाखों पढ़ने लिखे जाने के बाद भी अगर व्यवस्था दंडित ना कर सके तो यह स्थिति आनी ही थी ।
यहां समाज को भी समझना होगा कि भारत में अब यह नहीं चलेगा लिहाजा
अभिभावक भी संभल जाए और समझ जाएं कि उन्हें अपने पुरुष संतानों को क्या सिखाना है और अगर आप ना समझ पाए तो अपने बुजुर्गों की गोद में उन्हें अवश्य भेजें कम से कम उनके पास वक्त होगा बच्चों को संस्कारित करने के लिए । अगर माता-पिता यह नहीं कर सकते तो उन्हें भी माता पिता के पद पर रहने का कोई हक नहीं छोड़ देना चाहिए उन्हें अपने इस गरिमामय पद ।
अपने जीवन काल में आपने भी देखे होंगे बदतमीज लोगों को जो सामने से गुजरती हुई महिला को लगभग खा जाने वाली निगाहों से देखते हैं ।
मुझे मेरी पत्नी एक किस्सा सुनाया करती है ,,,,, वे 89-90 में वे अपने पिता के साथ जो वयोवृद्ध थे राज्य सरकार के राजस्व विभाग में अधिकारी के पद से सेवानिवृत्त हुए थे ट्रेन से जबलपुर से हरदा जा रहे थे । पिपरिया आते-आते तक शोहदों ने बुजुर्ग पिता से यानी मेरे ससुर जी से अभद्र हरकत शुरू कर दी . और फिर बागरा तवा के टनल में अभद्रता की हदें पार करते हुए अभद्र वार्तालाप भी करने लगे । पत्नी को यह बात नागवार गुजरी और उसने अपने पिता का छाता लेकर उन पर आक्रमण कर दिया । ऐसा नहीं था कि ट्रेन में पुलिस वाला नहीं था पुलिस वाला था एक नहीं दो पुलिस वाले थे एक गेट पर खड़ा और दूसरा सो रहा था । मेरी पत्नी ने गेट पर खड़े पुलिस वाले का डंडा छीना और उन लड़कों पर आक्रमण शुरू कर दिया अब तो भी अगली स्टेशन गुर्रा फटाफट कोच से बाहर हो गए । यह उस दौर की कहानी है जब महिलाओं के लिए प्रतिबंध आम बात थी । पर अब स्थितियां बहुत बदल चुकी हैं परंतु समाज का रवैया वैसा ही है संस्कार ही ऐसा नहीं है कि से निचले स्तर के लोग ही इस तरह का व्यवहार करते हैं । ऐसे व्यवहारों के लिए संभ्रांत परिवार की बिगड़ैल औलादे यहां तक कि प्रौढ़ एवं बुजुर्ग जो संस्कार हीन होते हैं यह सब करते हुए आपको नजर आ जाएंगे । विद्यालयों महाविद्यालयों सरकारी संस्थाओं गैर सरकारी इंस्टीट्यूशंस में कुल मिलाकर कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जहां आज भी महिला को सुरक्षित होने का दावा किया जा सकता है । मध्य रात्रि को कोर्ट खुलवाने वाले ट्विटर पर फेसबुक पर अथवा अन्य किसी सोशल मीडिया पर अपनी बात कह कर यश अर्जित करने वाले माया नगरी के लोग भी कम नहीं है । इसकी मूल वजह यह है कि हम अपनी सांस्कृतिक नैतिकता को बलाए तक रख देते हैं । पोर्न फिल्में देखना, वर्जनाओं के विरुद्ध अपने आप को क्रांतिकारी सिद्ध करने की कोशिश करने वाले लोग अपनी संतानों को ऐसे कोई संस्कार नहीं दे पा रहे हैं जो भारतीय परिवेश के अनुकूल हों ।
शिवाजी की कहानी याद होगी वारियर शिवाजी के सैनिक जब लूट का माल लेकर दरबार में दाखिल हुए तो उन्होंने एक डोली में एक अनिद्य सुंदर स्त्री को भी शिवाजी के समक्ष प्रस्तुत किया । शिवाजी ने कहा वाह कितनी सुंदर हो बिल्कुल मेरी मां की तरह सैनिकों को काटो तो खून ना था ।
यह थे तब के संस्कार पर अब अब हम संस्कृति संस्कार की बात करने वालों को मूर्ख समझते हैं परिणाम स्वरूप सामाजिक विद्रूपता और हैदराबाद उन्नाव कठुआ जैसी स्थितियां सामने आती हैं । हैदराबाद पुलिस ने जो किया अगर मानव अधिकार आयोग अथवा ऐसे कोई संगठन या विचारधारा वाले लोग इस पर कोई भी आपत्ति उठाते हैं तो देश के लिए शिकारियों नहीं भी हो सकता होगा । हां मैं सब से कहूंगा कि अनुशासन बना कि रखें आपकी आवाज बहुत दूर तक जा चुकी है बस अब थोड़ा वक्त व्यवस्था को भी दिया जाए और ज्यादा वक्त खुद को सुधारने में खपा दिया जाए . 

4.12.19

वेदानां-सामवेदोSस्मि

चित्र : गूगल से साभार 

गीता में सामवेद की व्याख्या करते हुए भगवान श्री कृष्ण ने अभिव्यक्त किया है कि वेदों में मैं सामवेद हूं ।
ईश्वरीय अनुभूति के लिए अगर वेद है ज्ञान तो साम है गान को महर्षियों ने अभिव्यक्त किया है ।
परंतु साम क्या है ..?
जब ऋषियों ने यह महसूस किया कि केवल मंत्र को सहजता से पढ़ना क्या चाहो उसे विस्तार देना आसान नहीं है तब उन्होंने यह महसूस किया कि हर ऋचाओं में प्राकृतिक रूप से लयात्मकता मौजूद है तब उन्होंने रिचा और मंत्र को छांदस मानते हुए काव्य की संज्ञा दी । संस्कृत भाषा ही छांदस भाषा है । इसे आप सब समझ पा रहे होंगे अगर आप ने ईश्वर की आराधना के लिए संस्कृत में लिखे गए स्त्रोतों का गायन एवं तथा वेदों के मंत्रों का जाप किया हो तो आप इसे सहजता महसूस कर पाते होंगे । यदि नहीं तो एक बार ऐसा महसूस करके देखिए यह । यह कोई नई बात नहीं है जो मैं बता रहा हूं यह सब कुछ लिखा हुआ है विभिन्न ग्रंथों में पुस्तकों में आलेखों में बस आपको उस तक पहुंचना है किताबों में ना भी पढ़ें तो आप इसे महसूस कर सकते हैं ।
आपने संगीत रत्नाकर में ध्वनि शक्तियों के बारे में पढ़ा होगा । ध्वनि की 22 शक्तियां होती है । इन्हें षड्ज में सन्निहित या समावेशित किया गया है ।
इस बिंदु पर मुझे ज्यादा कुछ नहीं कहना है संगीत के विद्यार्थी इसे बेहतर जानते हैं ।
2 अक्टूबर 2014 की घटना मुझे बेहतर तरीके से याद है । उस दिन शासकीय अवकाश था परंतु गांधी जयंती मनाने के लिए मैंने बच्चों को खासतौर पर संगीत के बच्चों को बुलाया और उनसे जाना कि वह किस तरह से अभ्यास करते हैं साथ ही उस दिन हमने महात्मा गांधी का स्मरण भी किया उनके प्रिय भजनों का गायन भी बच्चों से सुना । उस दिन बात करते-करते अचानक मन में एक विदुषी स्वर्गीय कमला जैन का स्मरण हो आया बात 1975 या 76 की है .... हिंदी दिवस के अवसर पर एक काव्य गोष्ठी रेल विभाग द्वारा आयोजित की गई थी जिसमें रेल विभाग में पदस्थ स्टेशन मास्टर के पुत्र होने के कारण मुझे काव्य पाठ के लिए मुझे भी आमंत्रण मिला था । विदुषी श्रीमती कमला जैन ने अपने भाषण में ओमकार के महत्व को रेखांकित करते हुए उसके वैज्ञानिक और शारीरिक प्रभाव का विश्लेषण किया था । अतः मैंने प्रयोग के तौर पर बच्चों से ओंकार के घोष की अपेक्षा की थी । तब तक मैं यह एहसास कर चुका था कि वास्तव में ओम के सस्वर अभ्यास ध्वनि में आकर्षण पैदा होता है क्योंकि यह अभ्यास मैंने कर रखा था । परिणाम स्वरूप यह अभ्यास बच्चों की शिक्षिका डॉ शिप्रा सुल्लेरे ने अपनी कक्षाओं में भी सप्तक में कराया जिसका परिणाम यह है कि अब मेरे संस्थान के बच्चे बाहर जब प्रस्तुतियां देते हैं तो फीडबैक के तौर पर मुझे यह जानकारी मिलती है आपके बच्चे काफी सुरीले हैं ।
यह सत्य है कि- विश्व की समस्त सभ्यताओं से पुरानी भारतीय सनातनी सभ्यता में सामवेद जो अन्य वेदों पृथक ईश्वर आराधना तथा ईश्वर को महसूस करने का क्रिएटिव अर्थात सृजनात्मक रूट चार्ट या रोड मैप है ।
विद्वान यह मानते हैं कि संगीत मस्तिष्क, मेधा, स्वास्थ्य, चिंतन, व्यवहार, सभी को रेगुलेट करता है नियंत्रण भी रखता है । संगीत का अभ्यास हमारे डीएनए में भी परिवर्तन लाता है । और अंत में सर्वे जना सुखिनो भवंतु वेद वाक्य को साकार भी कर देता है ।
नाट्य, चित्र निर्माण, गीत समस्त ललित कलाओं पर अगर आप ध्यान दें तो यह सब शब्द रंग के बेहतर संयोजन का उदाहरण है यह इसलिए कह रहा हूं क्योंकि अगर किसी भी क्रिएशन में उचित क्रम बाध्यता नहीं होती तो निश्चित तौर पर वह प्रभावी नहीं हो पाता . कुछ कवि गद्य को कविता कहने की भूल कर रहे हैं कविता में अपनी लयात्मकता है वह उसका लालित्य हुए संप्रेषण क्षमता को प्रभावी बनाती है तो नाटक या कथानक लघु कथा आदि में शब्दों भावों के सुगठित संयोजन से जो लयात्मकता दृष्टिगोचर होती है उससे पाठक अथवा श्रोता या दर्शक एक रिश्ता कायम कर लेता है ।
आज मुझे संगीत की बात करनी है आते हैं अत्यधिक ध्यान वही केंद्रित रखना चाहूंगा । मनुष्य के विकास के साथ उसने संगीत को जीवन में समावेश करने के हर सभ्यता में प्रयास किए हैं । संगीत आया कहां से ? इस बारे में बरसों से एक सवाल मेरी मस्तिष्क में घूमता रहा है....ध्वनियाँ कहां से प्राप्त की गई हैं ? यह प्रश्न के उत्तर में यह महसूस करता हूं और आप सब की सहमति चाहता हूं अगर सही हूं तो संगीत के लिए ध्वनि बेशक हवा बरसात सरिता के कलकल निनाद से पंछियों पशुओं की आवाजों से प्राप्त की गई है । लोकजीवन ने इसे सिंक्रोनाइज करके लोक संगीत का निर्माण किया होगा है या नहीं निश्चित तौर पर आप सहमत होंगे और उसके पश्चात विस्तार से अन्वेषण कर मनुष्य ने संगीत के शास्त्रीय स्वरूप का निर्माण अवश्य किया है ... ऐसा मेरा मानना है ।
यह सब कुछ पर हो जाने के बाद अब यह तय करना जरूरी है कि संगीत की जरूरत क्यों है जीवन को ?
आइए इसे भी तय कर लेते हैं..... एक अदृश्य अनुभूति को समझिए जो आपके शरीर को इस योग्य बनाती है कि आप किसी परम उद्देश्य को पूर्ण करने जिसके लिए आपको धरती पर प्रकृति अर्थात माँ ने जन्म दिया है । संगीत से जीवन सुगठित एवं संवेदी होता है । क्योंकि हम कंप्यूटर या रोबोट नहीं है हमें भावात्मक था जन्म के साथ दी गई है इन्हीं भावों के जरिए हम स्वयं को कम्युनिकेट एवं अभिव्यक्त करते हैं । हमारी अभिव्यक्ति में अथवा कम्युनिकेशन में अगर लयात्मक ता नहीं है तो हम सफल नहीं हो सकते । चाहे तो आप इस विषय पर रिसर्च कर सकते हैं एक एक शब्द यहां मैंने अपनी मानसिक रिसर्च के उपरांत कहा है ।
संगीत शारीरिक अनियमितताओं को नियमित करने का बेहतर तरीका है जिसके परिणाम स्वरूप हम अव्यवस्थित जीवन क्रम को व्यवस्थित जीवन क्रम में बदल देते हैं ।
नास्तिकों को छोड़ दिया जाए तो ईश्वर पर भरोसा करने वालों के लिए यह बताना आवश्यक है कि संगीत में जीवन ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकारने की क्षमता के विकास का गुण होता है । आप जब शिव आराधना करते हैं रावण के लिखे हुए शिव तांडव को पढ़ते हैं अथवा पुष्पदंत रचित शिव महिम्न स्त्रोत का पाठ करते हैं तो आप महसूस कर दीजिए उस समय आप कितना प्रभावी ढंग से ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकारते हुए उस में विलीन हो जाना चाहते हैं ।         

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