मेरे बांये बनारसी मित्र स्वामी रवि प्रकाश, माँ गीता जी तरंग ऑडिटोरियम परिसर |
अब जबकि वे सिर्फ ओशो है और अब जबकि वे ओशो हैं ।! सर्वकालिक प्रासंगिक है . 30 वर्ष पहले जब मैं स्वतंत्र पत्रकारिता करता था तब एक बार हास्य कवि सुरेंद्र शर्मा जी का इंटरव्यू लिया था उन्होंने रजनीश को भारत का सबसे बुद्धिमान व्यक्ति करार दिया था... 30 वर्ष बाद उनका मानना था कि ओशो इस विश्व का सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ व्यक्तित्व है । ओशो के बारे में सामाजिक सीमाओं से बंधे लोग कुछ भी अर्थ लगाएं कोई फर्क नहीं पड़ता ओशो सहमति असहमति के बीच मेरे लिए महत्वपूर्ण है । इस बीच एक रहस्योद्घाटन करना जरूरी है सवाल उठते हैं ओशो सामाजिक थे और उत्तर आते हैं नहीं ओशो सामाजिक नहीं थे संत सामाजिक हो भी नहीं सकता जो बदलाव लाता है वह सामाजिक नहीं होता सामाजिकता से ऊपर होता है... वे सामाजिक ना थे तभी तो समकालीनों ने उनको टार्च बेचने वाले की उपाधि दे देख रखी थी ।
इससे बड़ा प्रमाण और क्या होगा...?
सामाजिक वो ही होता है जिससे सत्ता को भय हो जावे .. टार्च बेचने वाले की उपाधि सरकारी किताबों के ज़रिये खोपड़ियों में ठूंस दी गई थी . स्पष्ट है कि समकालीन व्यवस्था कितनी भयभीत थी. तब खुलेआम ओशो विसंगतियों पर प्रहार करते नजर आते थे ।
जबलपुर के परिपेक्ष्य में कहूं तो प्रोफ़ेसर से आचार्य रजनीश में बदल जाने की प्रक्रिया ही सामाजिक तो नहीं हो सकती हां सामाजिक सरोकारी प्रक्रिया अवश्य हो सकती है ।
अब आप विवेकानंद में सामाजिक सरोकार तलाशें तो अजीब बात नहीं लगेगी क्या ।
कुछ उत्साही किस्म के लोग . दूध, तेल, नापने के लिए इंचीटेप का प्रयोग करने की कोशिश करतें हैं अलग थलग दिखने के लिए जो कभी हो ही नहीं सकता . दूध और तेल नापने के लिए दूसरे यंत्र अब आप तोते से उम्मीद करो कि घर की समस्याओं में वह अपने विचार व्यक्त करें संभव है क्या चलिए तोते से ही उम्मीद करो कि वह आपके लिए खाना परोस दे तो क्या यह भी संभव है कदापि नहीं । अद्भुत लोग अद्भुत होते हैं उन्हें अद्भुत ही रहने दिया जाए उनसे सीखा जाए क्योंकि वह आपको देख रहे होते हैं समाज को देख रहे होते हैं प्रक्रियाओं को घटित होते देख रहे होते हैं और फिर अपनी विशेषज्ञ बुद्धि से सजेस्ट करते हैं कि क्या होना चाहिए और क्या कर रहे हो । ओशो गांधी से असहमत थे चरखे से विकास का मार्ग उन्हें समझ में नहीं आया ऐसा लोग मानते हैं । ओशो का मत था उनकी सोच थी कहीं ना कहीं यह सही भी है विकास का चरखा स्वयं अब सुपर सोनिक स्पीड में बढ़ रहा है अब दूसरा गाल दिखाने पर लोग गर्दन तक हाथ बढ़ा देते हैं । देश काल परिस्थिति के आधार पर परिवर्तन आवश्यक हैं आज ही ओशो सन्यासियों से चर्चा हुई क्योंकि मैं ओशो से संवाद करता रहता हूं आपको अजीब लग रहा होगा पर यही सही है मैंने उनसे कहा- ओशो को समझने के लिए उनसे संवाद करो और समझाने के लिए नए तरीके अपना लो ।
बनारस से आए हुए सन्यासियों मैं मुझे असहमति नजर नहीं आई वे शत प्रतिशत सहमत थे । हमने पुष्टि भी की कि प्रक्रियाएं और परंपराएं कभी भी ना तो धर्म हो सकती ना ही अध्यात्म अतः देश काल परिस्थिति के अनुसार परिवर्तित हो जाओ यह बहुत बेहतरीन मौका है कि आप ओशो महोत्सव के बहाने एक बड़ा अवसर प्राप्त कर चुके हो ओशो ने कुछ सोच समझकर ही कुछ कहा था कुछ नहीं बहुत कुछ कहा था आज के समय को जिसकी जरूरत है । दिन प्रतिदिन सूचनाओं के आधार पर विचारधाराएं बनती बिगड़ती रहती हैं पॉलिटिकली सिचुएशन पर सामाजिक व्यवस्था परिवर्तित हो रही है जबकि पहले ऐसा ना हुआ करता था समाज पॉलिटिक्स को बदलता था चिंतन पॉलिटिक्स पर गहरा प्रभाव छोड़ता था लोग सच्चाई और साफगोई पर भरोसा रखते थे परंतु ग्लोबलाइजेशन पॉलीटिकल अस्थिरता के दौर में सब कुछ बदल रहा है और तेजी से बदल रहा है तब जरूरी है कि हम अपनी सोच को मिशन मोड में ले आए और ओशो जैसे विद्वानों को समीचीन बना दें । अब आप ही बताइए मेरे सुझाव पर वे असहमत क्यों होते जबलपुर के लिए ओशो महोत्सव 2019 एक नया प्रयोग ना होकर बहुप्रतीक्षित अवसर था । विश्व भर में विस्तारित ओशो के अनुयायियों ने इसे महत्वपूर्ण माना तो जबलपुर में इस आयोजन की मेजबानी करते हुए स्वयं को गौरवान्वित किया । हां सरकार का सपोर्ट रहा है रहना भी चाहिए अध्यात्मिक विभाग ने अपनी ड्यूटी बखूबी निभाई है अधिकारियों कर्मचारियों ने जैसा कि मुझे सन्यासियों से पता चला पूरे मनोयोग से अपने दायित्वों का निर्वाह किया ओशो सन्यासियों को और ओशो के प्रशंसकों को अच्छा भी लगा । क्या यह पर्याप्त नहीं है एक सफल आयोजन के लिए । चलिए अब मूल मुद्दे पर वापस लौटते हैं... तो यह जान लीजिए के हम सांसारिक लोग बेचारे होते हैं सच मानिए फिर से कहता हूं कि सांसारिक लोग बेचारे होते हैं विद्वानों के प्रयोगों और उनकी अंतर-ध्वनि को समझ नहीं पाते हैं बेचारे .
सम्भोग से समाधि तक पर पाबंदी लगाने की मांग करते सुने जाते थे तब लोग. मैं भी बच्चा था न सम्भोग का अर्थ समझता न समाधि का . घरेलू कपडे सुखाने वाले तार / रस्सी आदि पर चिड़िया चिडा के इस मिलन को मेरा बाल मन चिडे द्वारा चिड़िया के प्रति क्रूरता समझता था. और समाधियाँ तो स्थूल रूप में देखीं हीं थी जहां माथा नवाते थे हम लोग . पर अब समझ आ रहा है उसे क्या कहना चाहते थे उन्होंने जो भी कहा उसका पुनर्लेखन आवश्यक और उचित नहीं । इस आलेख में मुझे यह साबित करना है कि समकालीन संतों में 2 लोगों से मैं अत्यधिक प्रभावित हूं एक तो है सद्गुरु दूसरे हैं ओशो ओशो जो शरीर सहित मौजूद नहीं है सद्गुरु जो शरीर सहित मौजूद हैं । यह कभी पुरस्कार के पीछे नहीं दौड़े इन्होंने मलाला से हिस्सा भी नहीं की यह दोनों अलग-अलग किस्म के व्यक्ति हैं आप इन्हें अपनी आस्था वश भगवान कह सकते हैं . .. पर मैं है जीवन का गुरु मानता हूं ध्यान योग इनकी मौलिक अवधारणा है । मेरे गुरु स्वामी शुद्धानंद नाथ का स्पर्श मेरे लिए अति महत्वपूर्ण है उन्होंने प्रपंच अध्यात्म योग की अवधारणा को संपुष्टि दी है । अर्थात जीवन क्रम में अध्यात्म के महत्व को किस तरह से समाविष्ट करना है यह से सीखा है । तीनों संतो को एक साथ देखूं तो तीनों में एक समानता है वह है जीवन के सरोकारों को समझाने की अद्भुत शक्ति । स्वामी शुद्धानंद नाथ नागपुर से संबंधित थे । वर्तमान में वे सिर्फ अभौतिक रूप से मानस में मौजूद हैं । महापुरुष के रहने ना रहने का कोई खास फर्क हमारे जीवन पर नहीं पड़ता है यदि हम उनके मार्गों को पहचानते हैं । अगर नहीं पहचानते तो जरूर हमें इस बात का फर्क पड़ेगा की वास्तव में भी होते तो मुझ में बदलाव आता । ईशा फाउंडेशन स्थापना करने वाले सद्गुरु निरंतर सक्रिय हैं बदलाव एवं घटनाओं के सहारे चरित्र निर्माण करने तो स्वामी शुद्धानंद नाथ परिवारों के चरित्र के निर्माण एवं आध्यात्मिक चरित्रों के निर्माण की प्रक्रिया को समझाते हैं । वही ओशो वाह सामाजिक चैतन्य को परिष्कृत करने की कोशिश करते हैं । यहां तीनों महापुरुषों को मैंने वर्तमान में महसूस किया है ऐसा लगता है कि वे अपनी संपूर्ण काया के साथ मौजूद है मेरे साथ है यही महसूस करके हम स्प्रिचुअल यानी आध्यात्मिक यात्राएं कर सकते हैं ।
यहां केवल 3 महापुरुषों का जिक्र किया जा रहा है । इसका अर्थ यह नहीं है की कुल 3 ही महापुरुष इस धरती पर मौजूद हैं । महापुरुषों की कमी इस भूमि पर तो ना होगी कभी-कभी आप महसूस करेंगे कि अब विकल्प नहीं है कुछ कौन सिखाएगा कौन समझाएगा विप्लवी दौर है... चिंता मत कीजिए महापुरुष मरते नहीं जीवित रहते हैं आप भी हो सकते हैं यह भी हो सकते हैं वह भी हो सकते हैं यानी कोई भी प्रगट हो सकता है महापुरुष के रूप में कहीं भी कभी भी । जीवन के मूल्यों को समझने के लिए महापुरुषों को अपमानित ना करो क्योंकि यह वह सदाव्रत खजाना दे जाते हैं जो कभी खाली ही नहीं होता । ऊंचे ओहदे होते वालों से आप असहमत हों तो आप क्या कर सकेंगे कुछ नहीं ना !
सामाजिक व्यक्तियों से आप असहमत हो या ना हो उससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ेगा न ही वह आपकी परवाह करेंगे । पर जो आपके लिए सबसे ज्यादा चिंतित है वह महावीर है बुद्ध है याज्ञवल्क्य है शंकराचार्य है स्वामी शुद्धानंद नाथ है सद्गुरु है या ओशो है.... उससे रिश्ता बनाए रखो जिसे तुम बहुत अधिक पसंद करते हो । समाधान मिल जाएंगे । ओशो के ढेरों वीडियो मौजूद है किताबें है तकनीकी का लाभ उठाइए सद्गुरु को सुनिए, कुछ भी समझ में नहीं आ रहा ना तो चलिए उठाइए पुस्तकें किसी भी महापुरुष को समझने के लिए उसके विचारों तक पहुंचने के लिए पढ़ लीजिए । विश्व को प्रेम का संदेश देते ये महापुरुष निसंदेह आपको बदल देंगे संवाद तो करिए प्रतिप्रश्न कीजिए उत्तर मिलेगा आपको कहां जाएगा उत्तर इसी ब्रह्मांड में मौजूद है हर सवाल के उत्तर ।
ओशो महोत्सव के बहाने अगर इस आध्यात्मिक चिंतन में कुछ कमी रह गई हो तो संवाद आप भी कर सकते हैं । मैं अपने खास मित्र को इस आलेख के जरिए बता देना चाहता हूं कि जब ईश्वर ने तुम्हें उपेक्षित नहीं रखा तो तुम किसी को उपेक्षित रखने की कोशिश करके कोई बहुत बड़ा कमाल नहीं कर रहे हो । अस्तु शेष फिर कभी अभी तो ओशो महोत्सव की सफलता के लिए इस