21.11.15

हरेक मामले में उठाते हो अंगुलियाँ – क्या हश्र होगा आपका जो हाथ उठेंगे .. ?


मैं जाउंगा तो अश्क  के सैलाब उठेगें,
झुक जाएँगी नज़रें,  कई  लोग झुकेंगे
महफ़िल कभी चिराग  बिना, रौशन हुई है क्या  .....?
रोशन न रहोगे तुम भी, जो चिराग बुझेंगे..!!
दिल खोल के मिलिए गर मिलना हो किसी से –
वो फिर न मिला लम्हे ये दिन रात चुभेंगे !!
हरेक मामले में उठाते हो अंगुलियाँ –
क्या हश्र होगा आपका जो हाथ उठेंगे .. ?
                                गिरीश बिल्लोरे “मुकुल”
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पग पग पे मयकदा है हर शख्स है बादाकश
बहका वही है जिसने, कभी घूँट भर न पी !!
रिन्दों के शहर में हमने भी दूकान सज़ा ली
इक वाह के बदले में हम करतें हैं शायरी ..!!
                              गिरीश बिल्लोरे “मुकुल”

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मसले हल हुए न थे कि, कुहराम मच गया-
बदली हुई सूरत में वो    आवाम तक गया !
अक्सर हुआ यही है मेरे हिन्दोस्तान के साथ –
जिसपे किया यकीं वही बदनाम कर गया .!!
फिर कहने लगा चीख के,  संगे-दिल हो आप-
रिश्तों तार तार कर नुकसान कर गया !!
मुम्बई के धमाकों की समझ पेरिस में पाई है
समझा बहुत देर से, एहसान कर गया !!
                              गिरीश बिल्लोरे “मुकुल”


14.11.15

"वेतन और मज़दूरी मत बढ़ाओ ?"

आज के भौतिकयुग में ऐसी मांग बेहूदा ही लगती होगी न । है ही बेहूदा भाई इस सोच को आप क्रांतिकारी सोच मानें भी तो क्यों ? भारतीय अर्थव्यवस्था के इर्दगिर्द जटिलताओं का जंजाल है । आज भी अर्थ व्यवस्था बची अवश्य है परंतु स्थिरता के तत्व इसमें शामिल नहीं हैं । देश का विकास व्यक्तिगत सेक्टर में सबसे अधिक असंतुलित एवं भयातुर है । वो पूंजी निर्माण में सहायक नहीं हो पा रहा इस बिंदु पर मैंने पूर्व में चिंता ज़ाहिर की थी । उसी बिंदु को विस्तार देने एक बार फिर आपके समक्ष हूँ 
मित्रो देश को अधिक मुद्राओं (भारतीय सन्दर्भ में रुपयों ) की  ज़रुरत नहीं है . उससे  अधिक "फूल प्रूफ मूल्यनियतन प्रणाली" को विकसित करने की ज़रुरत है । ताकि आम भारतीय का घरेलू बजट प्रभावित न हो । किन्तु ऐसा संभव शायद ही हो इस दिशा में सोचना भारतीय अर्थविज्ञानीयो ने शायद छोड़ ही दिया है । 
       बाज़ार ने लोगों की जीवन शैली के स्तर को उठाने कास्ट एनहान्स्मेंट को प्रमुखता दी है । तो कराधान की आहुति से भी कीमतों का ग्राफ में धनात्मक  बढ़ोत्तरी ही नज़र आई है । आपको एक उपयोगी खाद्य सामग्री को क्रय करने में अगर 10 रूपए खर्च करने होते हैं तो जानिये आप 4 रुपये मूल्य की वस्तु खरीद रहे होते हैं जो 6 रूपए आपने अतिरिक्त दिए वो उत्पादन  लाभ विज्ञापन कमीशन कर के रूप में देते हैं । इस  बाज़ार असंतुलित हो गया है । आपकी एक ज़रुरत आपको कंगाल बनाने की दिशा में उठाया एक कदम है । इसी क्रम में बीमार होना तो एक सामान्य जीवन को हिला के रख देता है . 

ऐसा इस लिये हो रहा है क्योंक़ि न तो अर्थशास्त्रियों के पास "फूल प्रूफ मूल्यनियतन प्रणाली" के लिए कोई तरीका है न ही आम आदमी के मन में आर्थिक समस्याओं से निज़ात पाने के लिए कोई एजेण्डा ही है । सरकार अगर मूल्य नियंत्रण की गारंटी देती है तो हम कहेंगे ही न "वेतन और मज़दूरी मत बढ़ाओ ?"     

13.11.15

ऐ शहर-ए-लखनऊ तुझे मेरा सलाम है.....-डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी

मुझे लखनउ भुलाए नहीं भूलता डा भूपेन्द्र ने जो लिक्खा वो मेरे एहसासों में ज़िंदा है 20 बरस बाद भी... बेशक ख़ूबसूरत शहर ......... है   
अमाँ मियाँ वह भी क्या जमाना था। जब हमारा हर छोटा बड़ा सिक्का चला करता था। आज तो चवन्नी, अठन्नी और एक रूपए के सिक्के की वकत ही नहीं रही। हम भी नखलऊ में पले-बढ़े, पढ़े, तहजीब तालीम हासिल किया। चवन्नी की एक कप चाय और तीन पत्ती पान की कीमत भी चवन्नी हुआ करती थी। एक रूपए जेब में फिर क्या था पूरा नखलऊ घूमते थे। चवन्नी में सिटी बस पूरे नउवाबी शहर का सैर करती थी, और एक कप चाय तीन पत्ती पान की गिलौरी मुँह में डाले रॉथमैन्स/ट्रिपलफाइव (555 स्टेट एक्सप्रेस) होंठों से लगाए धूआँ उड़ाने के बाद कुल एक रूपए का ही खर्च बैठता था। वाह क्या जमाना था वह भी।
आज तो चवन्नी/अठन्नी का नाम सुनते ही दुकानदार इस कदर घूरता है जैसे किसी भिखमंगे से सामना पड़ गया हो। कुल मिलाकर यह कहना ही बेहतर होगा कि वह जमाना लद गया जब हमारा हर सिक्का चलता था। लखनऊ शहर को सलाम किए अर्सा बीत गया, सुना है कि अब नउवाबों का शहर नखलऊ काफी तब्दील हो गया है। काश! हमने शहर-ए-लखनऊ से मुहब्बत न की होती यहीं अच्छा होता कम से कम आज यह दर्द भरा गीत तो न गाना पड़ता कि- ऐ मुहब्बत तेरे अंजाम (परिणाम) पे रोना आया।
बहरहाल अब न तो नखलऊ में रहता हूँ और न वह जमाना ही रहा जब चवन्नी की कनकइयाउड़ाकर हम भी नखलउवा खेल में शामिल हुआ करते थे। कित्ता मजा आता था जब हर शाम हजरतगंज की लवलेन (जो अब नहीं है) में गंजिंग करने के नाम पर मटरगश्ती करते थे। हिन्द काफी हाउस में एक रूपए की काफी और घण्टों बैठकर गप्पबाजी। हम फिदाए लखनऊ और लखनऊ फिदाए हम पर। हमारी जवानी के शुरूआती दिनों में मेरे महबूब, पालकी, मेरे हुजूर, गीत फिल्मों की शूटिंग चारबाग रेलवे स्टेशन, पोलोग्राउण्ड, इमाम बाड़ा, मंकीब्रिज (हनुमान सेतु), मेडिकल कालेज, कैसरबाग, अमीनाबाद, नजीराबाद में हुई थी, जिसे देखकर खूब लुत्फ उठाया था। राजेन्द्र कुमार, जितेन्द्र, राज कुमार, माला सिन्हा, साधना जैसी अदाकाराओं को काफी करीब से देखने का मौका हमें नखलऊ में ही मिला था। उसके लिए मुम्बई की मायानगरी तक का चक्कर नहीं लगाना पड़ा था।
पॉकेट में अधिकतम 5 रूपए हुआ करते थे और हमारे ठाट-बाट नउवाबों जैसे। क्या जमाना था जब हम मुख्यमंत्री निवास और राजभवन में बगैर रोकटोक के प्रवेश पा जाते थे। उस समय आटो/टैम्पो का प्रचलन कम ही था। हम लोग ताँगे या फिर रिक्शे पर बैठकर गंतव्य को आते-जाते थे । पैसे वाले चार पहिया टैक्सियों में और नवाब बग्घियों में, मोहनमीकिन्स के मालिकान इम्पाला, शेवरलेट से चलते थे । यह सब लखनऊ की शान-ओ-शौकत थी। भिखमंगे व टुटपुँजिए कम ही दिखते थे। यहाँ तो ऐसे ही लोग उद्यमी/व्यवसाई होकर हम पर ही रोब गालिब करते हैं।
हमारे जमाने में लखनऊ का वजूदमिटा नहीं था, और न ही उसकी ऐतिहासिकता को मिटाने का प्रयास लोकतंत्रीय शासकों द्वारा किया गया था । हमें पता चला है कि अब तो लखनऊ काफी विस्तारित एवं परिवर्तित हो चुका है। शायद यही वजह भी है कि अब पर्यटक और बालीवुड के फिल्मकारों ने लखनऊ से मुँह मोड़ लिया। हुसैनाबाद का घण्टाघर, चारबाग रेलवे स्टेशन, खम्मनपीर बाबा, ऐशबाग की फ्लोर मिल, यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री, मवइया, टेढ़ी पुलिया, आलमबाग का चौराहा, ब्लण्ट स्क्वायर, नत्था होटल, के0के0सी0, हुसैनगंज, बर्लिंग्टन चौराहा, विधान भवन, जी0पी00, हजरतगंज का इलाहाबाद बैंक, अशोक मार्ग, डी.एस. आफिस, कोतवाली, मैफेयर सिनेमा, रायल कैफे, चौधरी स्वीट्स, लालबाग नावेल्टी सिनेमा, झण्डे वाला पार्क, नजीराबाद के कबाब की दुकानें, यहियागंज के वर्तन भण्डार, राम आसरे की मिठाइयाँ, पान दरीबा, गन्दा नाला, नाका हिन्डोला, गणेशगंज, गड़बड़झाला, दिलकुशा, ला मार्टीनियर, गोमती नदी, लखनऊ यूनिवर्सिटी, आई.टी.आई चौराहा, रेजीडेन्सी-बारादरी, इमाम बाड़े, रूमी दरवाजा की बहुत याद आती है। डालीगंज का हनुमान मन्दिर, लखनऊ की छत्तर मंजिल, शहीद स्मारक को भूल नहीं पा रहा हूँ, ग्लोब पार्क, रविन्द्रालय सभी मेरी जेहन में हैं।

लखनऊ को वहाँ के वासिन्दे नखलऊ बोलते हैं, अब शायद ऐसा न होता हो, लेकिन बड़ा मजा आता था, जब दो नखलउवा आपस में बातें करते भौकाल मारते और एक से एक धाँसू लन्तरानियाँ मारते। ताँगों से चलने वाले नवाबों के एक हाथ में छड़ी और दूसरे में छाता हुआ करता था। शेरवानी, अचकन वल्लाह क्या खूब जमते थे इन परिधानों में वे लोग। एक जेब में भूने चने, दूसरी में सूखे मेवे और तीसरी जेब में इलायची, लौंग तथा चौथी में कन्नौज का इत्तर रखने वाले ये पुराने नवाब जब भी किसी से मिलते थे तब बाद दुआ-सलाम खैर सल्लाह के सूखे मेवे रखे पाकेट में हाथ डालकर उसे प्रस्तुत करते थे। यह भी कहते थे कि भाई नवाबी भले ही चली गई, लेकिन हम है तो खानदानी नवाब.. और इस तरह अपनी प्रशंसा स्वयं करते थे .  फिर इत्र लगाकर अलविदा कहते थे। हमें उनकी यह अदा काफी पसन्द आती थी।
हम लखनऊ शहर के तमाम ऐसे हिस्सों का भ्रमण करते थे, जहाँ अमीर लोग मौज-मस्ती के लिए जाया करते थे। खाला बाजार, चावल वाली गली, नक्खास, नादान महल रोड, पुराना चौक लखनऊ..........आदि। अब तो बस उन्हें याद करके ही सन्तोष करता हूँ। कुल मिलाकर लखनऊ में हमारा हर सिक्का चलता था और हम उस नवाबी शहर को याद करके यह गुन गुनाते हैं- ऐ शहर-ए-लखनऊ तुझे मेरा सलाम है, तेरा ही नाम दूसरा जन्नत का नाम है। फिलहाल बस ।

अकबरपुर, अम्बेडकरनगर (उ.प्र.)

11.11.15

मोमबत्ती से रहें सावधान : सरफ़राज़ ख़ान

पैराफिन वैक्स मोमबत्ती  जो रोमांस, फ्रैग्रेंस और रोशनी के लिए इस्तेमाल की जाती हैं, इनसे घर के अंदर वायु प्रदूषण होता है, जो कैंडिल पेट्रोलियम से तैयार की जाती हैं, उनको मानव कार्सिनोजेंस और इनडोर पॉल्यूशन के तौर पर जाना जाता है.  

 

दिवाली आने को है इस्लिए हमें मोमबत्ती के प्रदूषण से अपने आप को दूर रखना चाहिए. जो लोग परफैक्ट हेल्थ मेला में आएगें उन्हें पैराफिन वैक्स मोमबत्ती के प्रदूषण के बारे में बताया जाएगा। बीसवैक्स या सोय से तैयार की गई कैंडिल, भले ही वे कितनी महंगी हो उनको सुरक्षित कहा जा सकता है क्योंकि इनसे नुकसानपरक प्रदूषण नहीं होता है.

किसी मौके पर पैराफिन कैंडिल और इसके उत्सर्जन से नुकसान नहीं होता है, लेकिन सालों तक पैराफिन की कैंडिल की रोशनी जो बाथरूम या टब पर इस्तेमाल की जाती है तो यह समस्या का सबब बन सकती है. वेंटिलेशन से बंद कमरों के प्रदूषण के स्तर को कम किया जा सकता है. जलती हुई कैंडिल से होने वाले प्रदूषण से भी सांस संबंधी समस्या या एलर्जी हो सकती है।

3.11.15

“लाल टोपी फैंक दी बंदरों ने ...!!”


लाल-टोपी बेचने वाले थके व्यापारी को पेड़ की छांह भा गई थी उसने लट्टे में बंधे 4 रोट में से दो रोट सूते और ठंडे पानी से प्यास बुझाई ... एक झपकी लेने की गरज से गठरी सिरहाना बनाया और लगा ख़ुर्र-ख़ुर्र खुर्राटे भरने. तब तक बन्दरों के मुखिया टोपी पहन कर चेलों को भी टोपी पहना दी . जागते ही व्यापारी ने अपने अपने सर की टोपी फैंकी सारे बंदरों ने वही किया अपने सर की लाल-टोपियाँ ज़मीन पर फैंक दी .
सदियों से नानी दादी की इस कहानी का अर्थ हर हिन्दुस्तानी के रक्त में बह रहा है. ........
रक्त जो ज़ेहन तक जाता है
जेहन जो उसे साफ़ करता है
जो मान्यताएं बदलता है...
ज़ेहन जो संवादी है ... उसे साफ़ रखो
जोड़ लो पुर्जा पुर्ज़ा
जिनको ज़रुरत है जोड़ने की ...!!    

28.10.15

भस्म आरती

अंतस में खौलता लावा
चेहरे पर मुस्कान का ढक्कन
धैर्य की सरेस से चिपका
तुम से मिलता हूँ ....!!
तब जब तुम्हारी बातों की सुई
मेरे भाव मनकों के छेदती
तब रिसने लगती है अंतस पीर
भीतर की आग –
तब पीढ़ा का ईंधन पाकर
तब युवा हो जाता है यकायक “लावा”
तब अचानक ज़ेहन में या सच में सामने आते हो
तब
चेहरे पर मुस्कान का ढक्कन
धैर्य की सरेस से चिपका
तुम से मिलता हूँ ....!!
मुस्कुराकर ....... अक्सर .........
मुझे ग़मगीन न देख
तुम धधकते हो अंतस से
पर तुम्हें नहीं आता –
चेहरे पर मुस्कान का ढक्कन
धैर्य की सरेस से चिपकाना ....!!
तुममें –मुझसे बस यही अलहदा है .
तुम आक्रामक होते हो
मैं मूर्खों की तरह टकटकी लगा
अपलक तुमको निहारता हूँ ...
और तुम तुम हो वही करते हो जो मैं चाहता हूँ ......
धधक- धधक कर खुद राख हो जाते हो
फूंक कर मैं ........
फिर उड़ा देता हूँ .........
तुम्हारी राख को
अपने दिलो-दिमाग से
हटा देता हूँ
तुम्हारी देह-भस्म
जो काबिल नहीं होती
गिरीश की भस्म आरती के ...
‪#‎गिरीश‬ बिल्लोरे “मुकुल”

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अलबरूनी का भारत : समीक्षा

"अलबरूनी का भारत" गिरीश बिल्लौरे मुकुल लेखक एवम टिप्पणीकार          औसत नवबौद्धों  की तरह ब्राह्मणों को गरियाने वाले श...