14.11.15

"वेतन और मज़दूरी मत बढ़ाओ ?"

आज के भौतिकयुग में ऐसी मांग बेहूदा ही लगती होगी न । है ही बेहूदा भाई इस सोच को आप क्रांतिकारी सोच मानें भी तो क्यों ? भारतीय अर्थव्यवस्था के इर्दगिर्द जटिलताओं का जंजाल है । आज भी अर्थ व्यवस्था बची अवश्य है परंतु स्थिरता के तत्व इसमें शामिल नहीं हैं । देश का विकास व्यक्तिगत सेक्टर में सबसे अधिक असंतुलित एवं भयातुर है । वो पूंजी निर्माण में सहायक नहीं हो पा रहा इस बिंदु पर मैंने पूर्व में चिंता ज़ाहिर की थी । उसी बिंदु को विस्तार देने एक बार फिर आपके समक्ष हूँ 
मित्रो देश को अधिक मुद्राओं (भारतीय सन्दर्भ में रुपयों ) की  ज़रुरत नहीं है . उससे  अधिक "फूल प्रूफ मूल्यनियतन प्रणाली" को विकसित करने की ज़रुरत है । ताकि आम भारतीय का घरेलू बजट प्रभावित न हो । किन्तु ऐसा संभव शायद ही हो इस दिशा में सोचना भारतीय अर्थविज्ञानीयो ने शायद छोड़ ही दिया है । 
       बाज़ार ने लोगों की जीवन शैली के स्तर को उठाने कास्ट एनहान्स्मेंट को प्रमुखता दी है । तो कराधान की आहुति से भी कीमतों का ग्राफ में धनात्मक  बढ़ोत्तरी ही नज़र आई है । आपको एक उपयोगी खाद्य सामग्री को क्रय करने में अगर 10 रूपए खर्च करने होते हैं तो जानिये आप 4 रुपये मूल्य की वस्तु खरीद रहे होते हैं जो 6 रूपए आपने अतिरिक्त दिए वो उत्पादन  लाभ विज्ञापन कमीशन कर के रूप में देते हैं । इस  बाज़ार असंतुलित हो गया है । आपकी एक ज़रुरत आपको कंगाल बनाने की दिशा में उठाया एक कदम है । इसी क्रम में बीमार होना तो एक सामान्य जीवन को हिला के रख देता है . 

ऐसा इस लिये हो रहा है क्योंक़ि न तो अर्थशास्त्रियों के पास "फूल प्रूफ मूल्यनियतन प्रणाली" के लिए कोई तरीका है न ही आम आदमी के मन में आर्थिक समस्याओं से निज़ात पाने के लिए कोई एजेण्डा ही है । सरकार अगर मूल्य नियंत्रण की गारंटी देती है तो हम कहेंगे ही न "वेतन और मज़दूरी मत बढ़ाओ ?"     

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