आज के भौतिकयुग में ऐसी
मांग बेहूदा ही लगती होगी न । है ही बेहूदा भाई इस सोच को आप क्रांतिकारी सोच
मानें भी तो क्यों ? भारतीय अर्थव्यवस्था के
इर्दगिर्द जटिलताओं का जंजाल है । आज भी अर्थ व्यवस्था बची अवश्य है परंतु स्थिरता
के तत्व इसमें शामिल नहीं हैं । देश का विकास व्यक्तिगत सेक्टर में सबसे अधिक
असंतुलित एवं भयातुर है । वो पूंजी निर्माण में सहायक नहीं हो पा रहा इस बिंदु पर
मैंने पूर्व में चिंता ज़ाहिर की थी । उसी बिंदु को विस्तार देने एक बार फिर आपके
समक्ष हूँ
मित्रो देश को अधिक मुद्राओं (भारतीय सन्दर्भ में रुपयों ) की ज़रुरत नहीं है . उससे अधिक "फूल प्रूफ मूल्यनियतन प्रणाली" को विकसित करने की ज़रुरत है । ताकि
आम भारतीय का घरेलू बजट प्रभावित न हो । किन्तु ऐसा संभव शायद ही हो इस दिशा में
सोचना भारतीय अर्थविज्ञानीयो ने शायद छोड़ ही दिया है ।
बाज़ार ने लोगों की जीवन शैली के स्तर को
उठाने कास्ट एनहान्स्मेंट को प्रमुखता दी है । तो कराधान की आहुति से भी कीमतों का
ग्राफ में धनात्मक बढ़ोत्तरी ही नज़र आई है ।
आपको एक उपयोगी खाद्य सामग्री को क्रय करने में अगर 10 रूपए खर्च करने होते हैं तो जानिये आप 4 रुपये मूल्य की वस्तु खरीद रहे होते हैं जो 6 रूपए आपने अतिरिक्त दिए वो उत्पादन लाभ विज्ञापन कमीशन कर के रूप में देते
हैं । इस बाज़ार असंतुलित हो गया है । आपकी एक ज़रुरत
आपको कंगाल बनाने की दिशा में उठाया एक कदम है । इसी क्रम में बीमार होना तो एक सामान्य जीवन को हिला के रख देता है .
ऐसा इस लिये हो रहा है क्योंक़ि न तो
अर्थशास्त्रियों के पास "फूल प्रूफ मूल्यनियतन प्रणाली" के लिए कोई
तरीका है न ही आम आदमी के मन में आर्थिक समस्याओं से निज़ात पाने के लिए कोई
एजेण्डा ही है । सरकार अगर मूल्य नियंत्रण की गारंटी देती है तो हम कहेंगे ही न
"वेतन और मज़दूरी मत बढ़ाओ ?"