मेरी
कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं इन कुत्तों से न ही युधिष्टिर की तरह लगाव . कुत्ते
कुत्ते हैं इंसान इंसान . बन्दर बन्दर होता है गदहा गदहा ... अब भला इन पर अनावश्यक रूप चर्चा क्यों की जाए. पर जब बारबार
ये दावे होते हैं कि कुत्ता स्वामी-भक्त होता है बात मेरे गले नहीं उतरती . इसके
पीछे कई कारण हैं .
उनमें
से एक वाकया भी महत्वपूर्ण कारण है जो
मुझे याद आ रहा है
हुआ
यूं कि .... एक बार डिंडोरी जाते वक्त शहर
से निकलते ही आस्थावश मैंने नाश्ते के लिए रखे केले बंदरों को खिलाने की गरज से
कार से बाहर फैंके संयोगवश एक छोटे बन्दर के हाथ केला लग गया. आसपास शक्तिशाली से
दिखने वाले बंदरों नें मेरी तरफ देखा अवश्य किन्तु छोटे बन्दर के हाथ से किसी ने
भी केला छीना नहीं.
यात्रा
जारी थी कुंडम के पहले मेरे मित्र साहू जी के ढाबे पर अपने घर का नाश्ता
करने का मेरी नियमित अभ्यास था . साहूजी के ढाबाकर्मी ताज़ी सौंधी चाय ले आते
साहूजी स्वयं मीठी बुन्देली में मुझसे बात करना नहीं चूकते .
तभी
दो कुत्ते नज़दीक आए बफादार सरकारी मुलाजिम की मानिद दम हिला रहे थे . हमने भी
परांठे के दो हिस्से किये . फैंक दिए उनके आगे . दौनों टुकड़ों पर दमदार कुत्ते ने
हक़ ज़माया . कमजोर वाले ने झपटना चाहा तो दमदार गुर्राया .
कुत्ते
जो अपनी बिरादरी के सगे नहीं होते वे आपके वफादार कैसे हो सकते हैं .
वास्तविकता ये है कि कुत्ते कुत्ते होते हैं .
वो अपरिचित परिस्थिति व्यक्ति आकृति को अनुकूल न समझ कर भौंकते हैं उस पर हमला
करतें हैं . आप हो कि गदहे की तरह भेजा स्तेमाल न कर पाए ... कि कुत्ते आत्म-भय वश
भौंकतें हैं न कि स्वामी भक्ति में .
कलाम साहब ने कहा था - मेरी मृत्यु पर अवकाश घोषित न हो आप उस दिन अधिक कार्य करें .
मानवता के पुजारी एवं शताब्दी के युगयोगी ने साबित किया कि कितना सहज है धारा से शिखर की यात्रा मगर उससे भी सहज और सरल है "सहज और सरल" होना । मेरे देश के बच्चे जो उनसे मिले हैं निसंदेह भाग्यशाली थे । हमारे कानों में बस मिसाइल मैं के सन्देश अनवरत जारी रहेंगे । हम घंटो सोचते रहें तो भी शब्द नहीं मिल रहे । सदियों लिखेंगे तो भी अनोखा व्यक्तित्व के बारे में लिख न पाएंगे । समंदर की स्याही से कल्पतरु की कलम से अनंत आकाश पर लिखी जाती रहेगी उनकी अमरगाथा तब भी हम पूर्ण न लिख पाएंगे । भला आकाश जैसे महान के बारे में लिखने की शक्ति मुझ में तो नहीं
संचार माध्यमों
से ज्ञात हो रहा है कि कुछ हस्तियों ने याकूब मेनन की फांसी पर दया का अनुरोध आपको
प्रेषित किया है . साथ ही कुछ लोग माननीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय पर टिप्पणी तक की है .
माननीय
सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय पर
टिप्पणीयाँ एक नकारात्मक स्थिति निर्मित करतीं हैं .
इस देश की अस्मिता अखंडता को चुनौती देना न्याय व्यवस्था
के तहत जारी निर्णयों को सार्वजनिक फोरम पर उठाना सर्वथा न्यायिक-व्यवस्था एवं
संवैधानिक व्यवस्था को निरुत्साहित करने की कोशिश है .
किसी
भी राष्ट्रद्रोह में शामिल किसी भी हिस्से के अपराध को उतना ही जघन्य माना जाना
चाहिए जितना की मुख्य षडयंत्रकारी माना जाना चाहिए . स्पष्ट है कि देशद्रोह के मैकैनिज़म में शामिल
हो कोई भी पुर्जा चाहे तो अपराध को कारित होने से रोक सकता है . याकूब अगर प्रथम
दिन से ही चाहता तो वह इस जघन्य अपराध को रोक सकता था . लिहाजा वो टाइगर मेनन के
सामान ही दोषी है . जैसा पूरे मुकदमें में
प्रस्तुत एवं साबित हुआ . अत: प्रोसीज़रल
चूकों को आधार पर अथवा किसी भी अन्य कारण प्रस्तुत समस्त दया याचिकाएं स्वीकार्य
योग्य नहीं हैं .
जब अपराध की स्वीकारोक्ति एवं पुष्टि हो
चुकी है तब मर्सी आवेदन न केवल उचित है बल्कि न्यायहित में नहीं है .
अगर
आप अन्य किसी देश के नागरिक होते तो क्या होता -
भारत
में अभिव्यक्ति के अधिकार का इतना भयंकर दुरुपयोग कि लोग राजद्रोह को भी
भावनात्मकता से जोड़ दिया जाता है . पूरी कानूनी कार्यवाई पूरी हो जाने के बाद भी
छिद्रान्वेषण किया जा रहा है. जबकि पडौसी मुल्क में ही देखें आज़ादी की लड़ाई के लिए
आगे आए लोगों को रात अँधेरे घरों से अगवा कर ख़त्म कर दिया जाता है . भारत में कम
से कम ये स्थिति तो नहीं हैं
भारत
में जब जहीन लोग इस तरह क काम में सक्रीय पाए जाते हैं तो लगता है कि अभिव्यक्ति
के अधिकार का पुनरावलोकन ज़रूरी है ? भारतीय संवैधानिक इंतज़ाम के सन्दर्भ में कोई
भी टिप्पणी जिससे विश्व में गलत सन्देश जा रहा हो .
कौन गुस्ताख पूछने आया तेरा रास्ता और तू
क्या है जो हो न पाए कभी पूरी वो आरज़ू आरज़ू क्या है सियासी का वो चिलमची
है सोचिये उसकी आबरू क्या
है मुकुल सच बयान करता है शोर होता है बता तू क्या
है Girish Billore Mukul
एक ज़माने से देश के कोने-कोने
से युवा हिंदी सिनेमा में छा जाने का ख़्वाब लिए मुंबई आते रहे हैं. इनमें से कई
खु़शक़िस्मत तो सिनेमा के आसमान पर रौशन सितारा बनकर चमकने लगते हैं, तो कई
नाकामी के अंधेरे में खो जाते हैं. लेकिन युवाओं के मुंबई आने का यह सिलसिला बदस्तूर
जारी रहता है. एक ऐसे ही युवा थे संजीव कुमार, जो फ़िल्मों में नायक बनने का ख़्वाब देखा
करते थे. और इसी ख़्वाब को पूरा करने के लिए वह चल पड़े एक ऐसी राह पर, जहां
उन्हें कई मुश्किलों का सामना करना था. मगर अपने ख़्वाब को पूरा करने के लिए वह
मुश्किल से मुश्किल इम्तिहान देने को तैयार थे. उनकी इसी लगन और मेहनत ने उन्हें
हिंदी सिनेमा का ऐसा अभिनेता बना दिया, जो ख़ुद ही अपनी मिसाल है. संजीव
कुमार का जन्म 9 जुलाई, 1938 को मुंबई में हुआ था. उनका असली नाम हरि भाई ज़रीवाला था.
उनका पैतृक निवास सूरत में था. बाद में उनका परिवार मुंबई आ गया. उन्हें बचपन से
फ़िल्मों का काफ़ी शौक़ था. वह फ़िल्मों में नायक बनना चाहते थे. अपने इस सपने को पूरा
करने के लिए उन्होंने रंगमंच का सहारा लिया. इसके बाद उन्होंने फ़िल्मालय के
एक्टिंग स्कूल में दाख़िला ले लिया और यहां उन्होंने अभिनय की बारीकियां सीखीं.
उनकी क़िस्मत अच्छी थी कि उन्हें 1960 में फ़िल्मालय बैनर की फ़िल्म हम
हिंदुस्तानी में काम करने क मौक़ा मिल गया. फ़िल्म में उनका किरदार तो छोटा-सा था, वह भी
सिर्फ़ दो मिनट का, लेकिन इसने उन्हें अभिनेता बनने की राह दे दी. 1965 में बनी फ़िल्म निशान में उन्हें बतौर मुख्य अभिनेता काम
करने का सुनहरा मौक़ा मिला. यह उनकी ख़ासियत थी कि उन्होंने कभी किसी भूमिका को छोटा
नहीं समझा. उन्हें जो किरदार मिलता, उसे वह ख़ुशी से क़ुबूल कर लेते. 1968 में
प्रदर्शित फ़िल्म शिकार में उन्हें पुलिस अफ़सर की भूमिका मिली. इस फ़िल्म में मुख्य
अभिनेता धर्मेंद्र थे, लेकिन संजीव कुमार ने शानदार अभिनय से आलोचकों का ध्यान अपनी तरफ़ खींचा. इस
फ़िल्म के लिए उन्हें सहायक अभिनेता का फ़िल्मफ़ेयर अवॊर्ड मिला. 1968 में
प्रदर्शित फ़िल्म संघर्ष में छोटी भूमिका होने के बावजूद वह छा गए. इस फ़िल्म में
उनके सामने महान अभिनेता दिलीप कुमार भी थे, जो उनकी अभिनय प्रतिभा के क़ायल हो गए थे.
उन्होंने फ़िल आशीर्वाद, राजा और रंक और अनोखी रात जैसी फ़िल्मों में अपने दमदार अभिनय की छाप छोड़ी. 1970 में
प्रदर्शित फ़िल्म खिलौना भी बेहद कामयाब रही. इस फ़िल्म ने संजीव कुमार को बतौर
अभिनेता स्थापित कर दिया. इसी साल प्रदर्शित फ़िल्म दस्तक में सशक्त अभिनय के लिए
वह सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाज़े गए. फिर 1972 में
प्रदर्शित फ़िल्म कोशिश में उन्होंने गूंगे बहरे का किरदार निभाकर यह साबित कर दिया
कि वह किसी भी तरह की भूमिका में जान डाल सकते हैं. इस फ़िल्म को संजीव कुमार की
महत्वपूर्ण फ़िल्मों में शुमार किया जाता है. फ़िल्म शोले में ठाकुर के चरित्र को
उन्होंने अमर बना दिया. उन्होंने 1974 में
प्रदर्शित फ़िल्म नया दिन नई रात में नौ किरदार निभाए. इसमें उन्होंने विकलांग, नेत्रहीन, बूढ़े, बीमार, कोढ़ी, हिजड़े, डाकू, जवान
और प्रोफ़ेसर का किरदार निभाकर अभिनय और विविधता के नए आयाम पेश किए. उन्होंने
फ़िल्म आंधी में होटल कारोबारी का किरदार निभाया, जिसकी पत्नी राजनीति के लिए पति का घर
छोड़कर अपने पिता के पास चली जाती है. इसमें उनकी पत्नी की भूमिका सुचित्रा सेन ने
निभाई थी. इस फ़िल्म के लिए संजीव कुमार को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता के फ़िल्मफ़ेयर
पुरस्कार से सम्मानित किया गया. अगले ही साल 1977 में उन्हें फ़िल्म अर्जुन पंडित के लिए
सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला. उनकी अन्य
फ़िल्मों में पति पत्नी, स्मगलर, बादल, हुस्न और इश्क़, साथी, संघर्ष, गौरी, सत्यकाम, सच्चाई, ज्योति, जीने की राह, इंसाफ़ का मंदिर, ग़ुस्ताख़ी माफ़, धरती कहे पुकार के, चंदा और बिजली, बंधन, प्रिया, मां का आंचल, इंसान और शैतान, गुनाह और क़ानून, देवी, दस्तक, बचपन, पारस, मन मंदिर, कंगन, एक पहेली, अनुभव, सुबह और शाम, सीता और गीता, सबसे बड़ा सुख, रिवाज, परिचय, सूरज और चंदा, मनचली, दूर नहीं मंज़िल, अनामिका, अग्नि रेखा, अनहोनी, शानदार, ईमान, दावत, चौकीदार, अर्चना, मनोरंजन, हवलदार, आपकी क़सम, कुंआरा बाप, उलझन, आनंद, धोती लोटा और चौपाटी, अपने रंग हज़ार, अपने दुश्मन, आक्रमण, फ़रार, मौसम, दो लड़कियां, ज़िंदगी, विश्वासघात, पापी, दिल और पत्थर, धूप छांव, अपनापन, अंगारे, आलाप, ईमान धर्म, यही है ज़िंदगी, शतरंज के खिलाड़ी, मुक्ति, तुम्हारे लिए, तृष्णा डॊक्टर, स्वर्ग नर्क, सावन के गीत, पति पत्नी और वो, मुक़द्दर, देवता, त्रिशूल, मान अपमान, जानी दुश्मन, घर की लाज, बॊम्बे एट नाइट, हमारे तुम्हारे, गृह प्रवेश, काला पत्थर, टक्कर, स्वयंवर, पत्थर से टक्कर, बेरहम, अब्दुल्ला, ज्योति बने जवाला, हम पांच कृष्ण, सिलसिला, वक़्त की दीवार, लेडीज़ टेलर, चेहरे पे चेहरा, बीवी ओ बीवी, इतनी सी बात, दासी, विधाता, सिंदूर बने ज्वाला, श्रीमान श्रीमती, नमकीन, लोग क्या कहेंगे, खु़द्दार, अय्याश, हथकड़ी, सुराग़, सवाल, अंगूर, हीरो और यादगार शामिल हैं. उन्होंने पंजाबी फ़िल्म फ़ौजी चाचा में भी काम किया.
कई फ़िल्में उनकी मौत के बाद प्रदर्शित हुईं, जिनमें बद और बदनाम, पाखंडी, मेरा
दोस्त मेरा दुश्मन, लाखों की बात, ज़बरदस्त, राम तेरे कितने नाम, बात बन जाए, हाथों की लकीरें, लव एंड गॊड, कांच की दीवर, क़त्ल, प्रोफ़ेसर की पड़ौसन और राही शामिल हैं. संजीव कुमार के दौर में हिंदी सिनेमा
में दिलीप कुमार, धर्मेंद्र, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन और शम्मी कपूर जैसे अभिनेताओं का बोलबाला था. इन अभिनेताओं के
बीच संजीव कुमार ने अपनी अलग पहचान क़ायम की. उन्होंने अभिनेता और सहायक अभिनेता के
तौर पर कई यादगार भूमिकाएं कीं. वह आजीवन
अविवाहित रहे. हालांकि कई अभिनेत्रियों के साथ उनके प्रसंग सुर्ख़ियों में रहे. कहा
जाता है कि पहले उनका रुझान सुलक्षणा पंडित की तरफ़ हुआ, लेकिन
प्यार परवान नहीं चढ़ पाया. इसके बाद उन्होंने हेमा मालिनी से विवाह करना चाहा, लेकिन
वह अभिनेता धर्मेंद्र को पसंद करती थीं, इसलिए यहां भी बात नहीं बन पाई. हेमा
मालिनी ने इस्लाम धर्म स्वीकार कर पहले से शादीशुदा धर्मेंद्र से शादी कर ली.
धर्मेंद्र ने भी इस विवाह के लिए इस्लाम क़ुबूल किया था. यह कहना ग़लत न होगा कि
ज़िंदगी में प्यार क़िस्मत से ही मिलता है. अपना अकेलापन दूर करने के लिए संजीव
कुमार ने अपने भतीजे को गोद ले लिया. संजीव कुमार के परिवाए में कहा जाता था कि
उनके परिवार में बड़े बेटे के दस साल का होने पर पिता की मौत हो जाती है, क्योंकि
उनके दादा, पिता और भाई के साथ ऐसा हो चुका था. उनके साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ. जैसे ही उनका
भतीजा दस साल का हुआ 6 नवंबर, 1985 को दिल का दौरा पड़ने से उनकी मौत हो गई. यह महज़ इत्तेफ़ाक़ था
या कुछ और. ज़िंदगी के कुछ रहस्य ऐसे होते हैं, जो कभी सामने नहीं आ पाते. बहरहाल, अपने
अभिनय के ज़रिये संजीव कुमार खु़द को अमर कर गए. जब भी हिंदी सिनेमा और दमदार अभिनय
की बात छिड़ेगी, उनका नाम ज़रूर लिया जाएगा.
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तुम पुकार लो, तुम्हारा इन्तज़ार है, तुम पुकार लो ख़्वाब चुन रही है रात, बेक़रार है तुम्हारा इन्तज़ार है, तुम पुकार लो
होंठ पे लिये हुए, दिल की बात हम जागते रहेंगे और, कितनी रात हम होंठ पे लिये हुए, दिल की बात हम जागते रहेंगे और, कितनी रात हम मुख्तसर सी बात है, तुम से प्यार है तुम्हारा इन्तज़ार है, तुम पुकार लो
दिल बहल तो जायेगा, इस ख़याल से हाल मिल गया तुम्हारा, अपने हाल से दिल बहल तो जायेगा, इस ख़याल से हाल मिल गया तुम्हारा, अपने हाल से रात ये क़रार की बेक़रार है तुम्हारा इन्तज़ार है,
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(लेखिका :- फिरदौस खान स्टार न्यूज़ एजेंसी में संपादक हैं)