संचार माध्यमों
से ज्ञात हो रहा है कि कुछ हस्तियों ने याकूब मेनन की फांसी पर दया का अनुरोध आपको
प्रेषित किया है . साथ ही कुछ लोग माननीय सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय पर टिप्पणी तक की है .
माननीय
सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय पर
टिप्पणीयाँ एक नकारात्मक स्थिति निर्मित करतीं हैं .
इस देश की अस्मिता अखंडता को चुनौती देना न्याय व्यवस्था
के तहत जारी निर्णयों को सार्वजनिक फोरम पर उठाना सर्वथा न्यायिक-व्यवस्था एवं
संवैधानिक व्यवस्था को निरुत्साहित करने की कोशिश है .
किसी
भी राष्ट्रद्रोह में शामिल किसी भी हिस्से के अपराध को उतना ही जघन्य माना जाना
चाहिए जितना की मुख्य षडयंत्रकारी माना जाना चाहिए . स्पष्ट है कि देशद्रोह के मैकैनिज़म में शामिल
हो कोई भी पुर्जा चाहे तो अपराध को कारित होने से रोक सकता है . याकूब अगर प्रथम
दिन से ही चाहता तो वह इस जघन्य अपराध को रोक सकता था . लिहाजा वो टाइगर मेनन के
सामान ही दोषी है . जैसा पूरे मुकदमें में
प्रस्तुत एवं साबित हुआ . अत: प्रोसीज़रल
चूकों को आधार पर अथवा किसी भी अन्य कारण प्रस्तुत समस्त दया याचिकाएं स्वीकार्य
योग्य नहीं हैं .
जब अपराध की स्वीकारोक्ति एवं पुष्टि हो
चुकी है तब मर्सी आवेदन न केवल उचित है बल्कि न्यायहित में नहीं है .
अगर
आप अन्य किसी देश के नागरिक होते तो क्या होता -
भारत
में अभिव्यक्ति के अधिकार का इतना भयंकर दुरुपयोग कि लोग राजद्रोह को भी
भावनात्मकता से जोड़ दिया जाता है . पूरी कानूनी कार्यवाई पूरी हो जाने के बाद भी
छिद्रान्वेषण किया जा रहा है. जबकि पडौसी मुल्क में ही देखें आज़ादी की लड़ाई के लिए
आगे आए लोगों को रात अँधेरे घरों से अगवा कर ख़त्म कर दिया जाता है . भारत में कम
से कम ये स्थिति तो नहीं हैं
भारत
में जब जहीन लोग इस तरह क काम में सक्रीय पाए जाते हैं तो लगता है कि अभिव्यक्ति
के अधिकार का पुनरावलोकन ज़रूरी है ? भारतीय संवैधानिक इंतज़ाम के सन्दर्भ में कोई
भी टिप्पणी जिससे विश्व में गलत सन्देश जा रहा हो .