25.8.12

" दैहिक (अनाधिकृत?) आकांक्षाओं के प्रबंधन


लाइफ़-स्टाइल में बदलाव से ज़िंदगियों में सबसे पहले आधार-भूत परिवर्तन की आहट के साथ कुछ ऐसे बदलावों की आहट सुनाई दे रही है जिससे सामाजिक व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन अवश्यंभावी है. कभी लगता था मुझे भी कि सामाजिक-तानेबाने के परम्परागत स्वरूप को आसानी से बदल न सकेगा . किंतु पिछले दस बरसों में जिस तेजी से सामाजिक सोच में बदलाव आ रहे हैं उससे तो लग रहा कि बदलाव बेहद निकट हैं शायद अगले पांच बरस में... कदाचित उससे भी पहले .कारण यह कि अब "जीवन को कैसे जियें ?" सवाल नहीं हैं अब तो सवाल यह है कि जीवन का प्रबंधन कैसे किया जाए. कैसे जियें के सवाल का हल सामाजिक-वर्जनाओं को ध्यान रखते हुए खोजा जाता है जबकि जीवन के प्रबंधन के लिये वर्जनाओं का ध्यान रखा जाना तार्किक नज़रिये से आवश्यक नहीं की श्रेणी में रखा जाता है.जीवन के जीने के तौर तरीके में आ रहे बदलाव का सबसे पहला असर पारिवारिक व्यवस्थापर खास कर यौन संबंधों पड़ता नज़र आ रहा है. बेशक विवाह नर-मादा के व्यक्तिगत अधिकार का विषय है पर अब पुरुष अथवा महिला के जीवन की व्यस्तताओं के चलते उभरतीं दैहिक (अनाधिकृत?) आकांक्षाओं के प्रबंधन का अधिकार भी मांगा जावेगा कहना कोई बड़ी बात नहीं. वास्तव में ऐसी स्थिति को मज़बूरी का नाम दिया जा रहा है.फ़िलहाल तो लव-स्टोरी को वियोग जन्य हेट स्टोरी में बदलते देर नहीं लगती .  किंतु आने वाला कल ऐसा न होगा.. जहां तक आने वाले कल का आभास हो रहा है वो ऐसा समय होगा जो " दैहिक (अनाधिकृत?) आकांक्षाओं के प्रबंधन" को एक अधिकार के रूप में स्वीकारेगा. दूसरा पक्ष ऐसे अधिकार की मांग के प्रति सकारात्मक रुख अपनाएगा. उसका मूल कारण "सर्वथा दूरियां एवम व्यस्तता जो अर्थोपार्जक कारण जनित होगी"
यह कोई भविष्यवक़्तव्य नहीं है न ही मैं भविष्य वक्ता हूं... वरन तेजी से आ रहे बदलाव से परिलक्षित हो रही स्थिति का अनुमान है. यह ऐसा बदलाव होगा जिसे न तो हमारी सामाजिक-नैतिक व्यवस्था रोकेगी और न ही खाप पंचायत जैसी कोई व्यवस्था इसे दमित कर पाएगी. कुल मिला कर इसे  बल-पूर्वक नहीं रोक सकता.
सामाजिक व्यवस्था द्वारा जनित परम्परागत वर्जनाओं के विरुद्ध सोच और शरीर का एक साथ खड़ा होना भारतीय परिवेश में महानगरों, के बाद नगरों से ग्राम्य जीवन तक गहरा असर डाल सकता है.
आप हम भौंचक इस विकास को देखते रह जाएंगें. सेक्स एक बायोलाजिकल ज़रूरत है उसी तरह अपने पारिवारिक "समुच्चय में रहना" सामाजिक व्यवस्था है. आर्थिक कार्य का दबाव सबसे पहले इन्ही बातों को प्रभावित करेगा. तब दम्पत्ति बायोलाजिकल ज़रूरत को पूरा करते हुए पारिवारिक समुच्चय को भी बनाए रखने के लिये एक समझौता वादी नीति अपनाएंगें. हमारा समाज संस्कृति की बलात रक्षा करते हुए भी असफ़ल हो सकता है . ऐसे कई उदाहरण समाज में व्याप्त हैं..बस लोग इस से मुंह फ़ेर रहे हैं.
पाश्चात्य व्यवस्था इस क़दर हावी होती नज़र आ रही है कि किसी को भी इस आसन्न ब्लैक होल से बचा पाना सम्भव नज़र नहीं आ रहा. हो सकता है मैं चाहता हूं कि मेरा पूरा आलेख झूठा साबित हो जाए जी हां परंतु ऐसा तब होगा जबकि जीवनों में स्थायित्व का प्रवेश हो ... ट्रक ड्रायवरों सा यायावर जीवन जीते लोग (महिला-पुरुष) फ़्रायड को तभी झुठलाएंगे जबकि उनका आत्म-बल सामाजिक-आध्यात्मिक चिंतन से परिपक्व हो पर ऐसा है ही नहीं. लोग न तो आध्यात्मिक सूत्रों को छू ही पाते हैं और न ही सामाजिक व्यवस्था में सन्निहित वर्जनाओं को. आध्यात्म एवम सामाजिक व्यवस्था के तहत बहुल सेक्स अवसरों के उपभोग को रोकने नैतिकता का ज्ञान कराते हुए संयम का पाठ पढ़ाया जाता है ताकि एक और सामाजिक नैतिकता बनी रहे दूसरी ओर यौन जनित बीमारियों का संकट भी जीवनों से दूर रहे, जबकि विज्ञान कंडोम के प्रयोग से एस.टी.डी.(सेक्सुअली-ट्रांसमीटेड-डिसीज़) को रोकने का परामर्श मात्र देता है.

आपको अंदाज़ा भी नहीं होगा कि दो दशक पहले बच्चे ये न जानते थे कि माता-पिता नामक युग्म उनकी उत्पत्ति का कारण है. किंतु अब सात-आठ बरस की उम्र का बच्चा सब कुछ जान चुका है. यह भी कि नर क्या है..? मादा किसे कहते हैं.. ? जब वे प्यार करते हैं तब “जन्म”-की घटना होती है. दूसरे शब्दों में कहें तो वे शारिरिक संपर्क को प्यार मानते हैं.
सामाजिक व्यवस्था पाप-पुण्य की स्थितियों का खुलासा करतीं हैं तथा भय का दर्शन कराते हुए संयम का आदेश देतीं हैं वहीं दूसरी ओर अत्यधिक अधिकाराकांक्षा तर्क के आधार पर जीवन जीने वाले इस आदेश को पिछड़ेपन का सिंबाल मानते हुए नकार रहे हैं .. देखें क्या होता है वैसे सभी चिंतक मानस मेरी अनुभूति से अंशत: ही सही सहमत होंगे.......

17.8.12

विद्रूप विचारधाराएं और दिशा हीन क्रांतियों का दौर

देश के अंदर भाषाई, क्षेत्रीयता, जाति,धर्माधारित वर्गीकरण करना भारत की अखण्डता एवम संप्रभुता पर सीधा और घातक हमला है . देश आज एक ऐसे ही संकट के करीब जाता नज़र आ रहा है जाने क्या हो गया है कि हम कहीं भी कुछ भी सहज महसूस नहीं कर पा हैं . अचानक नहीं सुलगा असम अक्सर पूर्वोत्तर राज्यों के बारे में सोचता हूं रोंगटे खड़े हो जाते हैं वहां तीसेक साल से घुट्टी में पिलाई जा रही है कि इंडियन उनसे अलग हैं.साल भर पहले दिल्ली प्रवास के समय मित्रों की आपसी चर्चा के दौरान जब इस  तथ्य का खुलासा हुआ तो हम सब की रगों में विषाद भर गया मेरे मित्र ललित शर्मा और पाबला जी सहित हम सब घण्टों इस बात को लेकर तनाव में रहे थे. बस इतना ही हम कर सकते थे सो कर दिया पर जिनके पास ऐसी सूचना बरसों से है वे इस विषय में शांत क्यों हैं.. क्या हुआ हमारी स्वप्नजीवी सरकार को कि भारत को तोड़ने की कोशिशों का शमन करने कोई सख्त कदम नहीं उठा पा रही. उनकी क्या मज़बूरियां हैं इसका ज़वाब मांगना अब ज़रूरी हो गया है. 
                   विद्रूप-विचारधाराएं भाषाई आधार पर गठित राज्य की सड़ांध है. अब देखिये यू.पी. बिहार के लोगों को हिराकत से  भैया कहकर भाषाई आधार पर भेदभाव बरतने वाले कथित मुम्बईया लोग क्या देश की एकता पर प्रहार नहीं करते नज़र आ रहे. वहीं दक्षिण में हिंदी भाषियों को हिराक़त की नज़र से  देखा जाना अनदेखा करना उचित है.. कदापि नहीं. ऐसा नहीं है कि भारत में विद्रूप विचारोत्तेज़ना फ़ैलाकर भारत को तोड़ने की साज़िशों से गुप्तचर संस्थाओं ने आगाह न किया होगा. पर एक मज़बूत इच्छा शक्ति का अभाव देश को अंगारों पर रखकर जला देगा इस तथ्य से बेखबर हैं हम. हम अन्ना ब्राण्ड के आंदोलन जिसका अंत सियासत है में उलझ के रह गये हैं. हमारी मौलिक सोच जैसे तुषाराच्छादित हो गई. 

राजेश दुबे जी से साभार
फ़ेसबुक पर ये देख शायद आप भी न सो सकेंगे मित्र Rajesh Dubey जी ने अपनी पोस्ट में किसका खौफ़ शीर्षक से नक्सली करतूत उज़ागर की है....
किसका खौफ :: छत्‍तीसगढ में नक्‍सलियों का खौफ सिर चढ़कर बोल रहा है। पिछले दिनों नक्‍सलियों ने मुखबारी के संदेह में एक शिक्षक कर्मी ध्रुव की हत्‍या कर दी। उस शिक्षक की लाश को कोई हाथ लगाने को आगे नहीं बढ़ा तब उसके भाई ने स्‍वयं मोटर साइकिल पर लेकर लाश रवाना हुआ।इस खौफ का क्‍या अर्थ माने, क्‍या इंसान इस कदर इंसानियत भूलता जा रहा है कि दो हाथ भी अंतिम  यात्रा में नहीं मिल रहे हैं।
जिस सर्वहारा की के नाम पर नक्सलियों द्वारा कथित रूप से   समांतर सत्ता चलाई जा उसी का शोषण करने वालों में  नक्सलियों का स्थान ही सर्वोपरि है. 

न ही तुम हो स्वर्ण-मुद्रिका- जिसे तपा के जांचा जाए.



जितनी बार बिलख बिलख के रोते रहने को मन कहता
उतनी बार मीत तुम्हारा भोला मुख सन्मुख है रहता....!
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सच तो है अखबार नहीं तुम,
जिसको को कुछ पल बांचा जाये.
न ही तुम हो स्वर्ण-मुद्रिका-
जिसे तपा के जांचा जाए.
मनपथ की तुम दीप शिखा हो
यही बात हर गीत है कहता
जितनी बार बिलख बिलख के ...............
*************************
सुनो प्रिया मन के सागर का
जब जब मंथन मैं करता हूं
तब तब हैं नवरत्न उभरते
और मैं अवलोकन करता हूँ
हरेक रतन तुम्हारे जैसा..?
तुम ही हो ये मन  है कहता.
जितनी बार बिलख बिलख के ...............
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13.8.12

वाह मनीष सेठ वाह बाबा हमें गर्व है आप पर ..!!


हमारे मित्र मनीष सेठ इन दिनों कटनी में एकीकृत बाल विकास सेवा विभाग के  जिला अधिकारी हैं. बेहद चंचल हंसमुख हमारे अभिन्न मित्र हैं.हम आपस में  लड़ते झगड़ते भी खूब हैं.. स्वभाविक है इस सबके बिना मज़ा कहां आता है दोस्तों में.. और फ़िर जबलपुरिया नमक पानी ऐसा ही तो है कि बिना लड़े-झगड़े खाना पचता ही नहीं .. आपस में बाबा का संबोधन किया करतें हैं हम बात  1999 की दीवाली की है.. अचानक सड़क पर चलते चलते मुझे जाने क्या हुआ क्रेचेस फ़िसल गई और पोलियो वाले पैर में फ़ीमर बोन का भयानक फ़्रेक्चर फ़ीमर बोन कनेक्टिंग बाल से टूट कर अलग हो गई थी. कुछ मित्र होते हैं जो बुरे वक्त में नज़दीक होते हैं सबसे पहले मित्र मनीष सेठ ही थे जो मेरे सामने दिखे लगभग डपटते हुए उनको बोलते सुना -"बेवकूफ़ हो, मालूम है कि दीवाली के दिन बाज़ार में कार रिक्शे विक्शे जा नहीं पाते पैदल ही जाता पड़ता है तो क्या ज़रूरत थी कि बाज़ार जाओ, " .. इस बात में एक वेदना की प्रतिध्वनि मुझे आज़ भी याद है. आज़ वो घटना ताजी हो गई जब मेरे मेल बाक्स में ये संदेश मिला जो श्री आदित्य शर्मा जी का लिखा हुआ था.. आप ही देखिये आप भी कह उठेंगे 
   वाह मनीष सेठ जी Manish Seth वाह हमें गर्व है आप पर 
                       30 जुलाई सोमवार को प्रात: मुंबई से आये अज्ञात फोन से ज्ञात हुआ कि मेरे अनुज का बेग हावडा-मुंबई मेल में लावारिस मिला है, मेरा अनुज आशुतोष शर्मा रायगढ छत्तीसगढ था, तहकीकात से ज्ञात हुआ कि वह रायगढ से इन्दौर आने के लिये बिलासपुर के लिये शनिवार रात्रि 3.00 बजे निकला था, उसके बाद कोर्इ लोकेशन नही थी, सूचना विचलित करने वाली थी। दोपहर में एक फोन से ज्ञात हुआ कि अनुज को शहडोल रेल द्वारा इन्दौर के लिये रवाना किया गया है, उसी फोन पर संपर्क से ज्ञात हुआ कि बिलासपुर-इन्दौर ट्रेन है, मेरा अनुज अर्घमूर्छित अवस्था में है, और अन्य डिब्बे में बैठा है, मेरी उससे कोई बात नही हो पा रही थी, लेकिन र्इश्वर की कृपा से वह सुरक्षित है, इस बात का संतोष था।उस क्षेत्र मे मेरा कोई रिश्तेदार, मित्र या परिचित भी नही था, ऐसी सिथति में कैसे संपर्क हो उसकी मदद कैसे कर सके, इसी दुविधा में परेशान था। तभी मुझे र्इश्वरीय प्रेरणा मिली और मेने महिला बाल विकास जिला कार्यालय कटनी फोन लगाया जहां मेरी श्री मनीष सेठ (डी.पी.ओ. है मुझे यह भी जानकारी नही थी) से बात हुर्इ, उन्हें पूर्ण सिथति से अवगत करवा कर, मदद की अपेक्षा की गर्इ,ट्रेन सायं 6.20 पर कटनी पहुचनी थी। श्री मनीष सर से हमारा कोई परिचय भी नही था, मन कुछ आशंकित भी था। किन्तु  सर श्री मनीष सेठ ने एक अपरिचित के लिये पूर्ण मानवीय संवेदनाओं का प्रमाण देते हुए, मेरी सहायता की, वह स्वयं अपने स्टाफ को लेकर कटनी स्टेशन पहुचे, स्टाफ के साथ टे्रन की एक-एक बोगी में तलाश कर मेरे अनुज को ढूंढ निकाला मेरी उससे बात करवाई, उसके खाने-पीने की व्यवस्था की, उसकी आर्थिक मदद की, उसके सह यात्री को ध्यान रखने की समझार्इश देकर सहयात्री के मोबाइल नंबर उपलब्ध करवाये, जिस पर में सतत संपर्क में रह सका। आदरणीय सेठ सर एवं उनके सहयोगियों के इस विशिष्ट सहयोग का धन्यवाद ज्ञापित करने एवं आभार प्रदर्शन के लिये मेरे शब्द अत्यन्त बोने है।इस घटनाक्रम से मुझे यह दृढ विश्वास हुआ कि महिला बाल विकास विभाग में कार्यरत रहकर मेंने कितना बडा परिवार पाया है, म.प्र. के 50 जिलों में हमारा परिवार है, जो परिचित हो या अपरिचित किन्तु मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण होकर विपरीत परिसिथतियों में हमारी सहायता के लिये सदैव तत्पर है।इस घटनाक्रम का उल्लेख कर विभाग में सभी को प्रेषित करने का उददेश्य भी यही है कि हम म.प्र. में कही भी अकेले नही है, हर जगह हमारा परिवार मौजूद है, परस्पर सहयोग की भावना को प्रबल करने हेतु संकलिपत रहें। 
एकबार पुन: श्री मनीष सेठ जिला कटनी एवं उनके सहयोगी समस्त स्टाफ का हदय की अंतरंग गहराइयों से बहुत-बहुत धन्यवाद एवं आभार ..................................................

भवदीय
आदित्य शर्मा
महिला एवं बाल विकास विभाग
परियोजना- ब्यावरा
जिला राजगढ (म.प्र.)

11.8.12

लखनऊ की एक शाम दुनिया भर के ब्लॉगरों के नाम.


अंतर्राष्ट्रीय ब्लॉगर सम्मेलन की लखनवी शाम यानि अवध की एक शाम ही नहीं पूरा का पूरा दिन दुनिया के हिन्दी ब्लॉगरों के नाम होने जा रहा है ।

देश व विदेश के ब्लॉगर अगले महीने लखनऊ मे जुटेंगे । नए मीडिया के सामाजिक सरोकार पर बात करेंगे । इस बहस-मुहाबिसे मे पिछले कुछ दिनों से चर्चा के केंद्र मे रहे इस नए मीडिया पर मंथन होगा। साथ ही सकारात्मक ब्लोगिंग को बढ़ावा देने वाले 51 ब्लॉगरों को 'तस्लीम परिकल्पना सम्मान-2011' से नवाजा जाएगा । साथ ही हिंदी ब्लोगिंग दशक के सर्वाधिक चर्चित पांच ब्लोगर और पांच ब्लॉग के साथ-साथ दशक के चर्चित एक ब्लोगर दंपत्ति को भी परिकल्पना समूह द्वारा सम्मानित किया जाएगा ।  यह सम्मान 27 अगस्त को राय उमानाथ बली प्रेक्षागृह मे आयोजित अंतर्राष्ट्रीय ब्लॉगर सम्मेलन मे दिये जायेंगे 

10.8.12

कृष्ण भौतिक एवम आध्यात्मिक मूल्यांकन


श्रीकृष्ण कोई किंवदंती नहीं है न ही वो वर्चुअल रहा है.  सत्य है शास्वत है सर्वकालिक है सार्वभौमिक चिरंतन सत्य है इसे नक़ार सकने की शक्ति मुझ में तो नहीं है
राधा,  रुक्मिणी,  सत्यभामा,  जांबवती,  नग्नजित्ती,  लक्षणा,  कालिंदीभद्रामित्रवृंदा.का पति , भौतिक अर्थों में रसिक  कृष्ण  समकालीन व्यवस्था के खिलाफ़ खड़ा विद्रोही  कृष्ण, राजनीतिग्य  कृष्ण,   सर्वहारा का नेता कृष्ण, जब विराट स्वरूप के दर्शन कराते हैं हैं तो सम्पूर्ण-सृष्टि का दर्शन हो जाता है. यानी कृष्ण को महान  वैज्ञानिक  कहू तो  अतिश्योक्ति नहीं है. यानी सब कुछ कृष्ण हैं  और सब कुछ में कृष्ण..ही हैं.   सत्ता से प्रताड़ित शोषितों  के घर जन्मे विश्व-सचेतक कर्मयोगी कृष्ण के फ़लसफ़े के आगे सर्वहारा के लिये लाये गए सारे आंदोलनों को कृष्णकालीन आंदोलन का अनुवाद करने का प्रयास मात्र लगते हैं . शेष आंदोलनों में आध्यात्मिक तत्व का न होने से पश्चातवर्ती  नकारात्मक  प्रभाव छोड़ते दिखाई  देते हैं. नक्सलवाद इसका सर्वोच्च उदाहरण है. यानी कृष्ण के रूप में ईश्वर ने जो किया उसका पश्चातवर्ती प्रभाव पाज़िटिव रहा है वरना दुर्योधनपौंड्रक जैसे व्यक्ति आज़ पूजे जाते उन्हैं हम याद करते . और  प्रतिहिंसा ही सर्वोच्च परिणाम होता.. कुरुक्षेत्र के बाद पर कृष्ण की गीता का समीचीन होना एक अदभुत तथ्य है.  
यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युथानम् अधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्। 
परित्राणाय साधुनाम विनाशाय च: दुष्कृताम, धर्मं संस्थापनार्थाय सम्भावामी युगे युगे॥"
           यह श्लोक सदा उद्घृत किया जाता है क्योंकि कृष्ण धर्म के सुदृढ़ीकरण के लिये अवतरित हुए थे. न कि किसी पंथ की प्राण-प्रतिष्ठा के लिये. धर्म जो सनातन हैं धर्म जो जनोन्मुखी है जनोत्कर्षी होता है.. पंथों को आप एक ज़मात मान सकते हैं. जो समकालीन एवम स्थानीय परिस्थिति सृजित होते हैं.  धर्म की व्याख्या महर्षियों ने की है धर्म जो जीवन की भौतिक एवम आध्यात्मिक  व्यवस्था का दिग्दर्शन करता है. जिसे तलवारें बंदूकें धमाके प्रतिस्थापित नहीं करते किंतु जब जब धर्म के खिलाफ़ हिंसा ने जन्म लिया तो पांचजन्य का फ़ुंकना तय है. पर विध्वंसक युद्धोपरांत गीता के श्लोक आध्यात्मिक दर्शन का अवलोकन कराते रहे और तो और बाद में भी भी सर्वदा सामयिक होने का बोध कराती गीता का आज भी सामयिक है कल भी सामयिक रहेगी .. 
कृष्ण की क्रांति सनातन धर्म के ततसमकालीन अवरोधों के शमन के लिये थी पर इतनी दूरदर्शिता से तैयार की गई स्टेटेज़ी पर आधारित थी...जो सर्वकालिक बन गई. कारण साफ़ है कि उसमें आध्यात्मिक तत्व का समावेश किया था श्रीकृष्ण ने. मिथक नहीं हैं मिथक कभी सर्वकालिक असर नहीं छोड़ते सत्य ही सर्वकालिक होता है. बांसुरी की तान छेड़ने वाला बालक कूटनितिज्ञ,युद्ध संचालक,रण-भूमि संयोजक, विचारक, यानी अपरिमित योग्यता धारक.   सब कुछ उसमें है जो एक ईश्वर में देखना चाहता हूं  अस्तु ऐसा दूसरा न था न होगा यानि वो ईश्वर है.. इससे इंकार करने का  सामर्थ्य न  तो मुझमें है न किसी में ही हो सकता है .
आप ईश्वर के साकार स्वरूप पर विश्वास  करें न करें पर एक चिंतन अवश्य कीजिये जो जनोन्मुखी है जो सदाचारी है जो सर्वग्य है जो व्यष्टि से समष्टि की ओर जाने के लिये हमें सहयोग करता है वो ईश्वर है.. श्रीकृष्ण में यही सब तो विद्यमान है. साकार में द्वापर में द्वारिका वाला कृष्ण निराकार में गीता के रूप में उपलब्ध है और रहेगा भी.  यहां कृष्ण को विराट मानव क्यों न कहूं तब जबकि उनके विराट मानव होने के पर्याप्त साक्ष्य उपलब्ध हैं. ऐसा कौन सा मानव होगा जिसे ब्रम्हांड का रहस्य ज्ञात  हो . आज अमेरिका अथवा उसी तरह का कोई देश विश्व के रहस्य को जानने में , ब्रम्हाण्ड के रहस्यों की पड़ताल करने में जुटे हैं पर ब्रह्म के बारे में ये न जान पाए कि -"गाड-पार्टिकल" क्या है. कर्मयोगी को यह ज्ञात था. कृष्ण के महान वैग्यानिक होने का प्रमाण त्रैलोक्य - दर्शन कराने से मिलता है.
            कृष्ण के युग में राजतंत्र ने शोषक आकार ले लिया था. कंस ठीक उसी तरह विद्रोहियों के खात्मे पर आमादा था जिस तरह आम तानाशाह किया करते हैं. ग्रामीण अर्थ-व्यवस्था छिन्नभिन्न हो चुकी थी . ग्रामीण के श्रम से हुआ उत्पादन शहरों खप रहा था . पर गोकुल की  सम्पूर्ण अर्थ-व्यवस्था नेस्तनाबूत हो रही थी. उस समय सर्वाधिक रूप से गौवंश द्वारा दिये दूध, दही, माखन, घी, और अनाज़ की खपत तो नगरों में थी, पर उत्पादक कृषक को लाभ अपर्याप्त था. कृष्ण ने सखाओं के साथ माखन दूध और दही के उत्पादों को मथुरा भेजने से रोकने बाल लीला के नाम पर लूटना, खत्म करना, ( चुराकर, मटकी आदि फ़ोड़ कर )  प्रारंभ किया. और कंस को संदेश दिया.. कि अब क्रांति आसन्न है. और तानाशाह कंस के अंत के लिये सर्वहारा की संस्तुति प्राप्त की.
            कुल मिला के कृष्ण का मानव जीवन सामाजिक धारा को परिवर्तन के लिये था . आप कृष्ण को जानने जितने भी साहित्यिक रसों रसात्मकता “कृष्ण पर ” साहित्यिक आलेखन करेंगें  कृष्ण उसी रसात्मकता के साथ  वहां  मौज़ूद मिलेगें. .      

6.8.12

लव मैरिज या अरेंज मैरिज ..पर.. बहस गै़रज़रूरी लगती है

              शादी को लेकर बरसों से सुलगता आ रहा है ये सवाल कि -"शादी प्रेम करके की जाए या शादी के बाद प्रेम हो ?" 
 इस सवाल का ज़वाब स्वामी शुद्धानंद नाथ के एक सूत्र से हल कर पाया जिसमें यह कहा कि -"प्रेम ही संसार की नींव है" यह सूत्र  आध्यात्मिक भाव धारा का सूत्र है. जो ये बात उजागर करता है कि  - प्रेम के बिना संसार का अस्तित्व न था न है.. और न ही रहेगा . यदि प्रेम न रहा तो आप जीवन की कल्पना कैसे करेंगें. 
          प्रेम के रासायनिक विज्ञान से तो मैं परिचित नहीं न ही उसकी बायोलाजिकल वज़ह को मैं जानता हूं.. बस इतना अवश्य है कि मेरी रगों में एक एहसास दौड़ता है जिसे मैं प्रेम कहता हूं. शायद आप भी इस एहसास से वाकिफ़ हैं होंगे ही मानव हैं तो होना अवश्यम्भावी है.जहां तक जीवन साथी के चुनाव का मामला है उसमें कोई खाप पंचायत जैसी फ़ोर्स हस्तक्षेप करे  खारिज करने योग्य है. इस बात का सदैव ध्यान हो कि -"प्रेमी जोड़े के खिलाफ़ कोई हिंसक वातावरण न बने." यानी साफ़ तौर पर विवाह के पूर्व पारस्परिक प्रेम नाज़ायज कतई नहीं. अगर विपरीत लिंगी से प्रेम हो  गया तो विवाह में कोई हर्ज़ नहीं माना जाये .परन्तु यौन सम्बंध की अनुमति विवाह के बाद ही अनुमति योग्य है. कुल मिलाकर दैहिक वर्जनाओं के  खिलाफ़ न हों.. ! ठीक उसी तरह यदि विवाह के बाद केवल एक निष्ठ प्रेम के परिणाम स्वरूप उभरी यौन आकांक्षा को ही मान्यता मिलती रहे यही सांस्कृतिक सत्य है. 
आप सोच रहें होंगे लव मेरिज या अरेंज मेरिज विषय की खूंटी पर टंगा आलेख उपदेश होता जा रहा है.. ! हो सकता है पर मेरे मत से मेरिज यानी विवाह के आगे कोई विशेषण  कैसे लगाया जा सकता है. ’प्रेम’ विवाह का एक मूल तत्व होता है जो विवाह संस्था को पुष्ट करता है. यानी कि विवाह के पूर्व प्रीत या सामाजिक पारिवारिक व्यवस्था के ज़रिये विवाह यानि अरेंज मेरिज तब तक गलत नहीं जब तक उसमें पारस्परिक विद्रोही भाव का प्रवेश न हो. 
   केवल सेक्स के लिये विवाह करना दौनो विवाहों में हो सकता यदि ऐसा है तो लव मेरिज और अरेंज मेरिज दौनों में स्थायित्व का अभाव देखेंगे. ऐसे विवाह विवाह नहीं हो सकते . ऐसी स्थिति सर्वदा गलत ही है. साफ़ तौर पर स्वीकारना होगा - सफ़ल वैवाहिक जीवन के लिये प्रीत की रसीली मीठी मीठी भावनाएं न नज़र आएं तो न तो प्रेम विवाह और न ही अरेंज विवाह करना करवाना ग़लत ही होगा.. 
         सुधि पाठको, लव  मैरिज  या अरेंज मैरिज पर बहस की ज़रूरत अब नहीं है. बस सही पार्टनर की तलाश पर बात हो जो  लव  मैरिज  में भी मिल सकता है  अरेंज मैरिज में भी. ! 
लिंक => "इधर"

25.7.12

दो जून की रोटी को मोहताज सांस्कृतिक दूत ये सपेरे : फ़िरदौस ख़ान



चित्र साभार : चौथी दुनिया
भारत विभिन्न संस्कृतियों और परंपराओं का देश है. प्राचीन संस्कृति के इन्हीं रंगों को देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में बिखेरने में सपेरा जाति की अहम भूमिका रही हैलेकिन सांस्कृतिक दूत ये सपेरे सरकारप्रशासन और समाज के उपेक्षित रवैये की वजह से दो जून की रोटी तक को मोहताज हैं. 

देश के सभी हिस्सों में सपेरा जाति के लोग रहते हैं. सपेरों के नाम से पहचाने जाने वाले इस वर्ग में अनेक जातियां शामिल हैं. भुवनेश्वर के समीपवर्ती गांव पद्मकेश्वरपुर एशिया का सबसे बड़ा सपेरों का गांव माना जाता है. इस गांव में सपेरों के क़रीब साढ़े पांच सौ परिवार रहते हैं और हर परिवार के पास कम से कम दस सांप तो होते ही हैं. सपेरों ने लोक संस्कृति को न केवल पूरे देश में फैलायाबल्कि विदेशों में भी इनकी मधुर धुनों के आगे लोगों को नाचने के लिए मजबूर कर दिया. सपेरों द्वारा बजाई जाने वाली मधुर तान किसी को भी अपने मोहपाश में बांधने की क्षमता रखती है.
डफलीतुंबा और बीन जैसे पारंगत वाद्य यंत्रों के जरिये ये किसी को भी सम्मोहित कर देते हैं. प्राचीन कथनानुसार भारतवर्ष के उत्तरी भाग पर नागवंश के राजा वासुकी का शासन था. उसके शत्रु राजा जन्मेजय ने उसे मिटाने का प्रण ले रखा था. दोनों राजाओं के बीच युध्द शुरू हुआलेकिन ऋषि आस्तिक की सूझबूझ पूर्ण नीति से दोनों के बीच समझौता हो गया और नागवंशज भारत छोड़कर भागवती (वर्तमान में दक्षिण अमेरिका) जाने पर राजी हो गए. गौरतलब है कि यहां आज भी पुरातन नागवंशजों के मंदिरों के दुर्लभ प्रमाण मौजूद हैं.
स्पेरा परिवार की कस्तूरी कहती हैं कि इनके बच्चे बचपन से ही सांप और बीन से खेलकर निडर हो जाते हैं. आम बच्चों की तरह इनके बच्चों को खिलौने तो नहीं मिल पातेइसलिए उनके प्रिय खिलौने सांप और बीन ही होते हैं. बचपन से ही सांपों के सानिंध्य में रहने वाले इन बच्चों के लिए सांप से खेलना और उन्हें क़ाबू कर लेना ख़ास शग़ल बन जाता है.

सिर पर पगड़ीदेह पर भगवा कुर्तासाथ में गोल तहमदकानों में मोटे कुंडलपैरों में लंबी नुकीली जूतियां और गले में ढेरों मनकों की माला और ताबीज़ पहने ये लोग कंधे पर दुर्लभ सांप और तुंबे को डाल कर्णप्रिय धुन के साथ गली-कूचों में घूमते रहते हैं. ये नागपंचमीहोलीदशहरा और दिवाली के  मौक़ों पर अपने घरों को लौटते हैं. इन दिनों इनके अपने मेले आयोजित होते हैं.

मंगतराव कहते हैं कि सभी सपेरे इकट्ठे होकर सामूहिक भोज 'रोटड़ाका आयोजन करते हैं. ये आपसी झगड़ों का निपटारा कचहरी में न करके अपनी पंचायत में करते हैंजो सर्वमान्य होता है. सपेरे नेपालअसमकश्मीरमणिपुरनागालैंड और महाराष्ट्र के दुर्गम इलाकों से बिछुड़ियाकटैलधामनडोमनीदूधनागतक्षकए पदमदो मुंहाघोड़ा पछाड़चित्तकोडियाजलेबियाकिंग कोबरा और अजगर जैसे भयानक विषधरों को अपनी जान की बाजी लगाकर पकड़ते हैं. बरसात के दिन सांप पकड़ने के लिए सबसे अच्छे माने जाते हैंक्योंकि इस मौसम में सांप बिलों से बाहर कम ही निकलते हैं.

हरदेव सिंह बताते हैं कि भारत में महज 15 से 20 फीसदी सांप ही विषैले होते हैं. कई सांपों की लंबाई 10 से 30 फीट तक होती है. सांप पूर्णतया मांसाहारी जीव है. इसका दूध से कुछ लेना-देना नहीं हैलेकिन नागपंचमी पर कुछ सपेरे सांप को दूध पिलाने के नाम पर लोगों को धोखा देकर दूध बटोरते हैं. सांप रोजाना भोजन नहीं करता. अगर वह एक मेंढक निगल जाए तो चार-पांच महीने तक उसे भोजन की ज़रूरत नहीं होती. इससे एकत्रित चर्बी से उसका काम चल जाता है. सांप निहायत ही संवेदनशील और डरपोक प्राणी है. वह ख़ुद कभी नहीं काटता. वह अपनी सुरक्षा और बचाव की प्रवृत्ति की वजह से फन उठाकर फुंफारता और डराता है. किसी के पांव से अनायास दब जाने पर काट भी लेता हैलेकिन बिना कारण वह ऐसा नहीं करता.

सांप को लेकर समाज में बहुत से भ्रम हैंमसलन सांप के जोड़े द्वारा बदला लेनाइच्छाधारी सांप का होनादुग्धपान करनाधन संपत्ति की पहरेदारी करनामणि निकालकर उसकी रौशनी में नाचनायह सब असत्य और काल्पनिक हैं. सांप की उम्र के बारे में सपेरों का कहना है कि उनके पास बहुत से सांप ऐसे हैं जो उनके पितादादा और पड़दादा के जमाने के हैं. कई सांप तो ढाई सौ से तीन सौ साल तक भी ज़िन्दा रहते हैं. पौ फटते ही सपेरे अपने सिर पर सांप की पिटारियां लादकर दूर-दराज के इलाक़ों में निकल पड़ते हैं. ये सांपों के करतब दिखाने के साथ-साथ कुछ जड़ी-बूटियों और रत्न भी बेचते हैं. अतिरिक्त आमदनी के लिए सांप का विष मेडिकल इंस्टीटयूट को बेच देते हैं. किंग कोबरा और कौंज के विष के दो सौ से पांच सौ रुपये तक मिल जाते हैंजबकि आम सांप का विष 25 से 30 रुपये में बिकता है।

आधुनिक चकाचौंध में इनकी प्राचीन कला लुप्त होती जा रही है. बच्चे भी सांप का तमाशा देखने की बजाय टीवी देख या वीडियो गेम खेलना पसंद करते हैं. ऐसे में इनको दो जून की रोटी जुगाड़ कर पानी मुश्किल हो रहा है. मेहर सिंह और सुरजा ठाकुर को सरकार और प्रशासन से शिकायत है कि इन्होंने कभी भी सपेरों की सुध नहीं ली. काम की तलाश में इन्हें दर-ब-दर भटकना पड़ता है. इनकी आर्थिक स्थिति दयनीय है. बच्चों को शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं सुविधाएं नहीं मिल पा रही हैं. सरकार की किसी भी योजना का इन्हें कोई लाभ नहीं मिल सकाजबकि क़बीले के मुखिया केशव इसके लिए सपेरा समाज में फैली अज्ञानता को ज़िम्मेदार ठहराते हैं. वह कहते हैं कि सरकार की योजनाओं का लाभ वही लोग उठा पाते हैंजो पढ़े-लिखे हैं और जिन्हें इनके बारे में जानकारी है. मगर निरक्षर लोगों को इनकी जानकारी नहीं होतीइसलिए वे पीछे रह जाते हैं. वह चाहते हैं कि बेशक वह नहीं पढ़ पाएलेकिन उनकी भावी पीढ़ी को शिक्षा मिले. वह बताते हैं कि उनके परिवारों के कई बच्चों ने स्कूल जाना शुरू किया है.

निहाल सिंह बताते हैं कि सपेरा जाति के अनेक लोगों ने यह काम छोड़ दिया है. वे अब मज़दूरी या कोई और काम करने लगे हैं. इस काम में उन्हें दिन में 100-150 रुपये कमाना पहाड़ से दूध की नदी निकालने से कम नहीं हैलेकिन अपने पुश्तैनी पेशे से लगाव होने की वजह से वह आज तक सांपों को लेकर घूमते हैं.

वो सोचता है- काट लूं साले कुत्तों को और खबर बन जाऊं..!



                                     उस दिन शहर के अखबार समाचार पत्रों में रंगा था समाचार उसके खिलाफ़ जन शिकायतों को लेकर हंगामा, श्रीमान क के नेतृत्व में आला अधिकारीयों को ज्ञापन सौंपा गया ? नाम सहित छपे इस समाचार से वो हताशा से भरा  उन बेईमान मकसद परस्तों को  कोस रहा था  किंतु कुछ न कर सका राज़ दंड के भय से बेचारगी का जीवन ही उसकी नियति है. 

एक दिन वो एक पत्रकार मित्र से मिला और पेपर दिखाते हुए उससे निवेदन किया -भाई,संजय इस समाचार में केवल अमुक जी का व्यक्तिगत स्वार्थ आपको समझ नहीं आया ? 

संजय-समझ तो आया आया भाई साहब किंतु , मैं क्या करुँ पापी पेट रोटी का सवाल है जो गोल-गोल तभी फूलतीं हैं जब मैं अपने घर तनखा लेकर आता हूँ…..!
वो-तो ठीक है ऐसा करो भइयाजी,मेरी इन-इन उपलब्धियों को प्रकाशित कर दो अपने लीडिंग अखबार में !
फ़िर उसने   अपनी उपलब्धियां गिनाईं जिन्हैं   सार्वजनिक करने से कल तक शर्माते था . उसकी बात सुन कर संजय ने कहा  भैयाजी,आपको इन सब काम का वेतन मिलता है ,कोई अनोखी बात कहो जो तुमने सरकारी नौकर होकर कभी की हो ?
वो -अनोखी बात…….?
संजय ने पूछा -अरे हाँ, जिस बात को लेकर आपको सरकार ने कोई इनाम वजीफा,तमगा वगैरा दिया हो….?
वो -तमगा ईनाम सबसे दूर मैं  अर्र याद आया भाई,मेरी प्लान की हुई योजनाओं को सरकार ने लागू किया 

संजय:-इस बात का प्रमाण,है कोई !

वो:-……………..?

संजय ने जोर देकर पूछा -बोलो जी कोई प्रमाण है ?नहीं न तो फ़िर क्या करुँ , कैसे आपकी तारीफ़ छापूं भैया जी न  
वो- संजय तारीफ़ मत छापो मुझे सचाई उजागर करने दो आप मेरा वर्जन ले लो जी ये सम्भव नहीं है,मित्र,आप ऐसा करो कोई ज़बरदस्त काम करो फ़िर मैं आपके काम को प्राथमिकता से छाप दूंगा जबरदस्त काम …..?
 संजय-अरे भाई,कुत्ता आदमीं को काटता है कुत्ते की आदत है,ये कोई ख़बर है क्या ?,मित्र जब आदमी कुत्ते को काटे तो ख़बर बनातीं है .तुम ऐसा ही कुछ कर डालो यह घटना मेरे जीवन की अनोखी घटना थी  जीवन का यही टर्निंग पाइंट था वह घायल आदमी निकल पडा कुत्तों की तलाश में . पग पग पर कुत्ते ही मिले थे उसको सोच भी रहा था.. सोच काट लूं साले कुत्तों को और खबर बन जाऊं..!
            किंतु   कोई उसके मन को बार बार सिर्फ़ एक ही बात कह रहा था "भई तुम तो आदमीयत मत तजो ! वो कौन था जो उसे यह सिखा रहा है बेचारा उसी की तलाश में है.

19.7.12

तबादले बनाम सुरक्षा असुरक्षा का भाव

                   तबादले सरकारी कर्मचारियों अधिकारियों की ज़िंदगी में चस्पा  एक ऐसा शब्द है जो मिश्रित एहसास कराता है. कभी सुरक्षित होने का तो कभी असुरक्षित होने का. कहीं न्याय होने का तो कभी अन्याय होने का. कभी योग्य होने का तो कभी अयोग्य होने का. वास्तव में ऐसा तब होता है जब नौकरी करने वाला दुनिया को अपने अनुसार चलाना चाहता है. सियाचिन के ग्लेशियर पर तैनात वीर सिपाहियों के बारे में विचार कीजिये.. तो साफ़ हो जाएगा कि हम कितना आत्म केंद्रित सोचते हैं.
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  इंसानी फ़ितरत है कि वो हमेशा एक रक्षा कवच में बना महफ़ूज़ रहे.महफ़ूज़ बने रहने की ज़द्दो-ज़हद के चलते जोड़ तोड़ बैक-बाईटिंग जैसी असाध्य-मानसिक- बीमारियों का शिकार आदमी केवल स्वयम के भले की बात सोचता है. अगर आदमी की सोच में एक बार भी जन साधारण के प्रति सकारात्मक भाव आ जाए तो कई सारे डा. कोटनीस हमारे सामने होंगे. बरसों से टकटकी लगाए देख रहा हूं... आंखें पथरा गईं अब तो.. एक भी डा. कोटनीस नहीं आया डा. कोटनीस के बाद.
              एक सिपाही की बीहड़ों पहाड़ों समंदरों हवाओं में भी आपकी हमारी ज़िंदगी को महफ़ूज़ रखने की ज़िम्मेदारी निबाहता है.. उससे हमारा व्यक्तिगत कोई परिचय नहीं फ़िर भी वो जान की बाज़ी लगा के हमको महफ़ूज़ रखता है. और हम हैं कि सुविधाओं के जोड़-बाक़ी में उलझें हैं.
                  मैं मेरा रुतबा मेरा वर्ग मेरा ओहदा बरकरार रहे बाकी सब जाएं भाड़ में - इस गुंताड़े में लगा संस्थानों से जुडा  आदमी बेशक जोड़ -तोड़ में  सिद्धहस्त नज़र आता है। जाने किस मुगालते में होता है ओस से भीगा नहाया धोया नहीं होता उसके शरीर में गलीच षड़यंत्र महक को आप महसूस कर सकते हैं। अपने अस्तित्व को लेकर हलाकान परेशान हम इतने स्वार्थी हो जाते हैं कि  किसी की पीठ पर वार करने तक में शर्म महसूस नहीं होती। इतना ही नहीं हम अपनी प्रतिबद्धताओं का कतई ध्यान नहीं रहता। कुल मिला कर सर्वदा आत्म केन्द्रित हो जाते हैं ... और आत्मकेंद्रित कभी जनकल्याण कर ही नहीं सकता।   
             

10.7.12

वर्जनाओं के विरुद्ध एकजुट होते : सोच और शरीर


लाइफ़-स्टाइल में बदलाव से ज़िंदगियों में सबसे पहले आधार-भूत परिवर्तन की आहट के साथ कुछ ऐसे बदलावों की आहट सुनाई दे रही है जिससे सामाजिक व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन अवश्यंभावी है. कभी लगता था मुझे भी कि सामाजिक-तानेबाने के परम्परागत स्वरूप को आसानी से बदल न सकेगा . किंतु पिछले दस बरसों में जिस तेजी से सामाजिक सोच में बदलाव आ रहे हैं उससे तो लग रहा कि बदलाव बेहद निकट हैं शायद अगले पांच बरस में... कदाचित उससे भी पहले .कारण यह कि अब "जीवन को कैसे जियें ?" सवाल नहीं हैं अब तो सवाल यह है कि जीवन का प्रबंधन कैसे किया जाए. कैसे जियें के सवाल का हल सामाजिक-वर्जनाओं को ध्यान रखते हुए खोजा जाता है जबकि जीवन के प्रबंधन के लिये वर्जनाओं का ध्यान रखा जाना तार्किक नज़रिये से आवश्यक नहीं की श्रेणी में रखा जाता है.जीवन के जीने के तौर तरीके में आ रहे बदलाव का सबसे पहला असर पारिवारिक व्यवस्थापर खास कर यौन संबंधों पड़ता नज़र आ रहा है. बेशक विवाह नर-मादा के व्यक्तिगत अधिकार का विषय है पर अब पुरुष अथवा महिला के जीवन की व्यस्तताओं के चलते उभरतीं दैहिक (अनाधिकृत?) आकांक्षाओं के प्रबंधन का अधिकार भी मांगा जावेगा कहना कोई बड़ी बात नहीं. वास्तव में ऐसी स्थिति को मज़बूरी का नाम दिया जा रहा है.फ़िलहाल तो लव-स्टोरी को वियोग जन्य हेट स्टोरी में बदलते देर नहीं लगती .  किंतु आने वाला कल ऐसा न होगा.. जहां तक आने वाले कल का आभास हो रहा है वो ऐसा समय होगा जो " दैहिक (अनाधिकृत?) आकांक्षाओं के प्रबंधन" को एक अधिकार के रूप में स्वीकारेगा. दूसरा पक्ष ऐसे अधिकार की मांग के प्रति सकारात्मक रुख अपनाएगा. उसका मूल कारण "सर्वथा दूरियां एवम व्यस्तता जो अर्थोपार्जक कारण जनित होगी"
यह कोई भविष्यवक़्तव्य नहीं है न ही मैं भविष्य वक्ता हूं... वरन तेजी से आ रहे बदलाव से परिलक्षित हो रही स्थिति का अनुमान है. यह ऐसा बदलाव होगा जिसे न तो हमारी सामाजिक-नैतिक व्यवस्था रोकेगी और न ही खाप पंचायत जैसी कोई व्यवस्था इसे दमित कर पाएगी. कुल मिला कर इसे  बल-पूर्वक नहीं रोक सकता.
सामाजिक व्यवस्था द्वारा जनित परम्परागत वर्जनाओं के विरुद्ध सोच और शरीर का एक साथ खड़ा होना भारतीय परिवेश में महानगरों, के बाद नगरों से ग्राम्य जीवन तक गहरा असर डाल सकता है.
उस पर कुछ विचारक ऐसे हैं जोकि मानते विवाह संस्था अब केवल फर्जीवाड़ा रह गई है। और यही फर्जीवाड़े का हवाला देते हुए विमेन लिबरेशन के नाम पर कभीी अभिव्यक्ति आजादीी के सामाजिक संरचना को क्षषति पहुंचाने में कोई कमी नहीं छोड़ी जा रही  । अब प्रोफेसर रजनीश को हीी ले जिनकोो मैं केवल चंद्र मोहन जैन महंत महान तर्क शास्त्री आचार्य से आगे नहींं मानता ने विवाह संस्था को कम्यून में ले जाकर तोड़ा लोगों को घर से कम्यून आमंत्रित किया और गृहस्थी को छिन्न-भिन्न करने की पूरी कोशिश की गई यही तो दुखद है।
आप हम भौंचक इस विकास को देखते रह जाएंगें. सेक्स एक बायोलाजिकल ज़रूरत है उसी तरह अपने पारिवारिक "समुच्चय में रहना" सामाजिक व्यवस्था है. आर्थिक कार्य का दबाव सबसे पहले इन्ही बातों को प्रभावित करेगा. तब दम्पत्ति बायोलाजिकल ज़रूरत को पूरा करते हुए पारिवारिक समुच्चय को भी बनाए रखने के लिये एक समझौता वादी नीति अपनाएंगें. हमारा समाज संस्कृति की बलात रक्षा करते हुए भी असफ़ल हो सकता है . ऐसे कई उदाहरण समाज में व्याप्त हैं..बस लोग इस से मुंह फ़ेर रहे हैं.
पाश्चात्य व्यवस्था इस क़दर हावी होती नज़र आ रही है कि किसी को भी इस आसन्न ब्लैक होल से बचा पाना सम्भव नज़र नहीं आ रहा. हो सकता है मैं चाहता हूं कि मेरा पूरा आलेख झूठा साबित हो जाए जी हां परंतु ऐसा तब होगा जबकि जीवनों में स्थायित्व का प्रवेश हो ... ट्रक ड्रायवरों सा यायावर जीवन जीते लोग (महिला-पुरुष) फ़्रायड को तभी झुठलाएंगे जबकि उनका आत्म-बल सामाजिक-आध्यात्मिक चिंतन से परिपक्व हो पर ऐसा है ही नहीं. लोग न तो आध्यात्मिक सूत्रों को छू ही पाते हैं और न ही सामाजिक व्यवस्था में सन्निहित वर्जनाओं को. आध्यात्म एवम सामाजिक व्यवस्था के तहत बहुल सेक्स अवसरों के उपभोग को रोकने नैतिकता का ज्ञान कराते हुए संयम का पाठ पढ़ाया जाता है ताकि एक और सामाजिक नैतिकता बनी रहे दूसरी ओर यौन जनित बीमारियों का संकट भी जीवनों से दूर रहे, जबकि विज्ञान कंडोम के प्रयोग से एस.टी.डी.(सेक्सुअली-ट्रांसमीटेड-डिसीज़) को रोकने का परामर्श मात्र देता है.

आपको अंदाज़ा भी नहीं होगा कि दो दशक पहले बच्चे ये न जानते थे कि माता-पिता नामक युग्म उनकी उत्पत्ति का कारण है. किंतु अब सात-आठ बरस की उम्र का बच्चा सब कुछ जान चुका है. यह भी कि नर क्या है..? मादा किसे कहते हैं.. ? जब वे प्यार करते हैं तब “जन्म”-की घटना होती है. दूसरे शब्दों में कहें तो वे शारिरिक संपर्क को प्यार मानते हैं.
सामाजिक व्यवस्था पाप-पुण्य की स्थितियों का खुलासा करतीं हैं तथा भय का दर्शन कराते हुए संयम का आदेश देतीं हैं वहीं दूसरी ओर अत्यधिक अधिकाराकांक्षा तर्क के आधार पर जीवन जीने वाले इस आदेश को पिछड़ेपन का सिंबाल मानते हुए नकार रहे हैं .. देखें क्या होता है वैसे सभी चिंतक मानस मेरी अनुभूति से अंशत: ही सही सहमत होंगे.......

3.7.12

मत्स्य गंधी होके जल से आपको एतराज़ कैसा


मत्स्य गंधी होके जल से आपको एतराज़ कैसा
इस आभासी फलक पे आपका विश्वास कैसा..?

पता था की धूप में होगा निकलना ,
स्वेद कण का भाल पे सर सर फिसलना
साथ छाजल लेके निकले, सर पे साफा बाँध के
खोज है  इस खोज में मधुमास क्या बैसाख कैसा ?

बागवां हो   बाड़ियों में शूल के बिरवे न रोपो
तुम सही  हो इस सत्य को कसौटी पे कसो सोचो
बूढ़ा बरगद और पीपल सब तो हैं
कंटीली झाड़ी तले तपस्वी आवास कैसा …?




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विश्व का सबसे खतरनाक बुजुर्ग : जॉर्ज सोरोस

                जॉर्ज सोरोस (जॉर्ज सोरस पर आरोप है कि वह भारत में धार्मिक वैमनस्यता फैलाने में सबसे आगे है इसके लिए उसने कुछ फंड...