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गुरुवार, जुलाई 19, 2012

तबादले बनाम सुरक्षा असुरक्षा का भाव

                   तबादले सरकारी कर्मचारियों अधिकारियों की ज़िंदगी में चस्पा  एक ऐसा शब्द है जो मिश्रित एहसास कराता है. कभी सुरक्षित होने का तो कभी असुरक्षित होने का. कहीं न्याय होने का तो कभी अन्याय होने का. कभी योग्य होने का तो कभी अयोग्य होने का. वास्तव में ऐसा तब होता है जब नौकरी करने वाला दुनिया को अपने अनुसार चलाना चाहता है. सियाचिन के ग्लेशियर पर तैनात वीर सिपाहियों के बारे में विचार कीजिये.. तो साफ़ हो जाएगा कि हम कितना आत्म केंद्रित सोचते हैं.
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  इंसानी फ़ितरत है कि वो हमेशा एक रक्षा कवच में बना महफ़ूज़ रहे.महफ़ूज़ बने रहने की ज़द्दो-ज़हद के चलते जोड़ तोड़ बैक-बाईटिंग जैसी असाध्य-मानसिक- बीमारियों का शिकार आदमी केवल स्वयम के भले की बात सोचता है. अगर आदमी की सोच में एक बार भी जन साधारण के प्रति सकारात्मक भाव आ जाए तो कई सारे डा. कोटनीस हमारे सामने होंगे. बरसों से टकटकी लगाए देख रहा हूं... आंखें पथरा गईं अब तो.. एक भी डा. कोटनीस नहीं आया डा. कोटनीस के बाद.
              एक सिपाही की बीहड़ों पहाड़ों समंदरों हवाओं में भी आपकी हमारी ज़िंदगी को महफ़ूज़ रखने की ज़िम्मेदारी निबाहता है.. उससे हमारा व्यक्तिगत कोई परिचय नहीं फ़िर भी वो जान की बाज़ी लगा के हमको महफ़ूज़ रखता है. और हम हैं कि सुविधाओं के जोड़-बाक़ी में उलझें हैं.
                  मैं मेरा रुतबा मेरा वर्ग मेरा ओहदा बरकरार रहे बाकी सब जाएं भाड़ में - इस गुंताड़े में लगा संस्थानों से जुडा  आदमी बेशक जोड़ -तोड़ में  सिद्धहस्त नज़र आता है। जाने किस मुगालते में होता है ओस से भीगा नहाया धोया नहीं होता उसके शरीर में गलीच षड़यंत्र महक को आप महसूस कर सकते हैं। अपने अस्तित्व को लेकर हलाकान परेशान हम इतने स्वार्थी हो जाते हैं कि  किसी की पीठ पर वार करने तक में शर्म महसूस नहीं होती। इतना ही नहीं हम अपनी प्रतिबद्धताओं का कतई ध्यान नहीं रहता। कुल मिला कर सर्वदा आत्म केन्द्रित हो जाते हैं ... और आत्मकेंद्रित कभी जनकल्याण कर ही नहीं सकता।   
             

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