24.10.11

आधा लाख लोग पढ़ चुके होंगे मिसफ़िट को इस धनतेरस...तक


ब्लाजगत को नमन
न्यू-मीडिया ने गोया एक अनोखी क्रांति को जन्म दिया है.  क्रांति जिसके सकारात्मक और नकारात्मक दौनों पहलू हैं. मिसफ़िट को मैने साल भर से अधिक समय पूर्व ज्वाइन किया. गिरीष जी का आमंत्रण पाडकास्टिंग की वज़ह से था मेरे लिये. अचानक वेबकास्टिंग का प्रयोग हुआ मैने भी अपना खाता खोला वेबकास्टिंग में. सच कितना तेज़ बदलाव जीवंत संपर्क सहज अभिव्यक्ति और ढेरों पाठक नित नऎ आलेख, जानकारियां एक क्लिक मात्र से वाक़ई कमाल है. इन दिनों मिसफ़िट अपने तरीके से सृजन-यात्रा के एक नये मुक़ाम पर पहुंच रहा है.. अगले कुछ घण्टों में पाठक संख्या 49,834 से बड़कर आधा लाख हो जाएगी ये तय है. पर इसमें सबसे बड़ा अवदान आपके स्नेह का ही तो है.
        मिसफ़िट :सीधीबात को आपका प्रोत्साहन एवम स्नेह इसी प्रका मिलेगा हमें उम्मीद है
 आप सभी के प्यार और प्रोत्साहन के लिए आभार .......अब तक बहुत अच्छा समय बीता ,अनुभव भी अच्छा रहा बहुत कुछ सीखा,.....खोया भी और पाया भी....कोशिश रहेगी कि हर पल कुछ नया करूँ........

21.10.11

साहब आए और गये

    विक्रम की पीठ पे लदा बेताल टाइम पास करने की गरज़ से बोला :- विक्रम,   साहब का आने और वापस जाने के बीच से  एक  बरसाती नदी की तरह सियासती नदी उन्मुक्त रूप से बहा करती है. सुनो कल सा’ब आएंगे ? अच्छा कल ! काहे से आएंगे .. चलो अच्छा हुआ वो पुराना वाला था न ससुरा हर छुट्टी में आ धमकता था.. इनमें एक बात तो है कि ये .. छुट्टी खराब नहीं करते थे  ज़्यादा परेशान भी नहीं करते.  और ये अरे राम राम........मत पूछो गुप्ता बाबू.. 
      इस "अरे राम राम........मत पूछो गुप्ता बाबू.." में जितना कुछ छिपा है उसे आसानी से कोई भी समझ सकता है. 
      पुराना साहब अक्सर बुरा और उपेक्षा भाव से भरे "ससुरा" शब्द से कमोबेश हर डिपार्टमेंट में अलंकृत हुआ करता है. जितने भी साहब टाइप के पाठक इस आलेख को बांच रहे हैं बाक़ायदा अपनी स्थिति को खुद माप सकते है.यानी आज़ से उम्दा और कल से बेदतर न कुछ था न होगा ऐसा हर सरकारी विभाग में देखा जा सकता है. कल ही की बात है एक विभाग का अधिकारी अपने आकस्मिक आन पड़े कार्यों के चलते दिल्ली मुख्यालय से रीजनल आफ़िस आए स्थानीय अधिकारी  निर्देश के परिपालन में  कोताही न हो इसके मद्देनज़र एक अनुभवी इंतज़ाम-अली को ज़िम्मेदारी कार्यालयीन परंपरानुसार सौंप दी. आला-अफ़सर विज़िट में ऐसी बात का खास खयाल रखा जाता है  कि कोई ऐसा तत्व विज़िटार्थी अफ़सर के सामने न आ जाए जिसमें विज़िटार्थी  को प्रभावित करने सामर्थ्य हो अथवा तत्व विघ्न-संतोषी हो. हां एक बात और चुगलखोर और आदतन शिकायतकर्ता अधिकारी को तो क़तई पास न फ़टकने दिया जाता है. यथा सम्भव ऐसे तत्वों को सूचना से मरहूम रखने के भरसक प्रयास एवम बंदोबस्त कर लिये जाते हैं. पर साक्षर प्यून एवम हमेशा दफ़्तर की हर खबर से खुद को बाखबर रखने वाला "निषेधित-तत्व" सब कुछ जान ही लेता है. 
              तो दिल्ली से साहब आए  सरकारी कारज़ आड़ में ढेरों निजी निपटा गए .तो पाठको कैग की नज़र में  पर अन्ना-कसम  ये सरकारी है और अ-सरकारी भी.. जनता जनार्दन  का राजकोष को दिया कर का एक हिस्सा ऐसे काम पर भी खर्च होता है..क्या यह सही है विक्रम बोल ज़ल्दी बोल वरना....... 
विक्रम ने करा :-बैताल, आला अफ़सर को नहीं दोष गुसाईं..इस बात की पुष्टि तुम स्वर्गीय श्री श्रीराम ठाकुर के सटायर "अफ़सर को नहिं दोष गुसाईं"  से कर सकते हो.. विक्रम बोला और बेताल फ़ुर्र    

20.10.11

न मैं कंटक व्यस्त-पथ का न मैं पहिया पार्थ रथ का


कल एक आलेख पढ़ा है न आपने अपने कुछ खास मित्रों के लिये लिखा आलेख आज इस गीत में उतर आया है अजित गुप्ता जी ने आलेख को देख कर कहा था नेपथ्‍य से बहुत कुछ कहा गया है। सच !! कहा भी ऐसा ही था.अजित जी  
नेपथ्य की ध्वनियां उन तक पहुंच भी जाएं तो शायद ही मित्र गण खुद को आगे के लिये बदल पाएं. आज़ सोचा कि शायद उनको विश्वास दिलाने में सफ़ल हो जाऊं कदाचित जो मेरे साथ किया आगे से किसी और के साथ न करेंगें !! जो भी हो लिखना था लिख मारा

19.10.11

दोस्तों सुनो जो अब तक न कह सका था..!!

                                                 मैं जानता हूं कि आज़ तुम झुका हुआ सर लेकर किस वज़ह से मेरे तक आ रहे हो . सच आज तुम्हारे झुक जाने के लिये मैं बेहद खुश हूं. ऐसा नहीं है न ही मैं किसी किसी झूठे यक़ीन के साथ ज़िंदा हूं. हां बस इतना ज़रूर है कि तुमने मुझे बर्बाद करने के लिये जितने प्रयास किये सच मैं उतना ही मज़बूत हुआ केवल इसी लिये तुम्हारी आभारी हूं.   बेशक एक ज़िंदा एहसास लेकर हूं कि वो सुबह ज़रूर आएगी जो सुबह मुझे इर्द-गिर्द के अंधेरों से विमुक्त करेगी. पर तुम जो अंधेरों के संवाहक हो बेशक यही अंधेरा तुमको डसेगा यह सच है. 
                               मुझे अभ्यास है पराजय का तुम्हैं अभ्यास नहीं है मुझे मालूम है कि तनिक सी पराजय  भी तुम्हारे लिये बेशक जान लेवा साबित होगी. पर जब अपने सीने के ज़ख्मों को " गिनता हूं देर रात तक", तब मुझे बस तुम्हारे षड़यंत्रों के चक्रव्यूह साफ़ साफ़ नज़र आ जाते हैं फ़िर भी दोस्तो मैं यक़ीन करो बायस नहीं हूं. यक़ीन करों तुम्हारा शिकार मैं तुम पर आक्रमण करने पर यक़ीन नहीं करता वरन तुमको आक्रामकता का शिकार होने से बचा लेने का हिमायती हूं. मुझे तुम्हारी हर क़मीनगी से दोहरी ताक़त मिली है.. तुम्हारी तारीफ़ क्यों न करूं. तुम जो मेरे जीवन को मज़बूती देते रहे हो. तुमको मार देता ..? न ऐसा क्यों करूं तुम ही तो वो हो जिसकी वजह से मुझे रणकौशल का ग्यान हुआ है. मेरे गुरु हुए न तुम. 
    ओह..! ये क्या दु:खी मत हो रोना भी मत मुझे न तो तुम रुला सकते न ही मार सकते और न ही भुला सकते तुम्हारा मुझसे भयभीत होकर पीछे से वार करना बेशक तुम्हारे स्वान-चरित्र का सूचक है जो मालिक की रक्षा के वास्ते नहीं आसन्न भय से भयातुर होकर पीछे से भौंकता है. काट भी लेता है. तुम में और स्वान में फ़र्क करना मुझे कतई अच्छा नहीं लगता. 
   ओह..! ये क्या तुम्हारा सत्ता के निकट बने रहने का शौक कदाचित तुम्हारे अंत का कारण न बन जाए यही भय सदा सालता है मुझे.. पर यही तो प्राकृतिक न्याय है दोस्त शायद तुम्हारे इंतज़ार में है..   
पता नहीं किस कारण से तुम भयातुर हो सच यक़ीन करो मैं हर स्थिति में मित्र भाव से भरा हूं तुम जो हमेशा शत्रु होने का एहसास दिलाते रहे एक बार मुझे देखो गौर से एक दावानल हूं जो जला देगा अनचाहे खरपतवार तुम्हारे मन के  और तुम उस कंचन-काय होकर सामने होगे.. तब तक शायद मै न रहूं.. 

18.10.11

ज़ील ने गलत नहीं लिखा पर संतुलित नहीं लिखा

" मेरे देश की धरती गद्दार उगले , उगले रोज़ मक्कार ...." शीर्षक से ज़ील ने अपने ब्लाग ZEAL पर  जो लिखा उसमें कोई गलत बात मुझे समझ नहीं आ रही ज़ील क्या कोई भी सच्चा भारतीय  प्रशांत भूषण से सहमत न होगा. भारत की अखण्डता को बनाए रखने के लिये उनका यह बयान  सर्वथा ग़लत है. आपको याद दिला दूं कि प्रशांत भूषण ने क्या कहा
" प्रशांत भूषण ने  पिछले महीने 26 सितम्बर को कश्मीर मसले पर कहा था कि सालों से मौजूद सेना को वहां से हटा लेना चाहिए। साथ ही कश्मीर में लागू 'सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम' को हटा लिया जाना चाहिए। उन्होंने कहा था कि भारत के किसी भी क्षेत्र के लोग अगर भारत में नहीं रहना चाहते है तो ऐसी स्थति में वहां जनमत संग्रह कराया जाना चाहिए।" (स्रोत : दैनिक भास्कर)
     क्या यह बयान उचित है कोई भी सच्चा देशभक्त इसे स्वीकरेगा कदापि नहीं न ही उसे स्वीकारना चाहिये. भारत सरकार ने भी अपना मत स्पष्ट रूप से रक्खा है -"सरकार का कहना है कि वो प्रशांत भूषण की राय से सहमत नहीं हैं. सूचना एवं प्रसारण मंत्री अंबिका सोनी ने कहा कि वो प्रशांत के निजी बयान हो सकते हैं लेकिन भारत सरकार की राय उनसे नहीं मिलती है. "(स्रोत :news bullet.in)
    हां एक बात तय शुदा है कि कि ज़ील के आलेख में भारत-सरकार पर आक्रामता अवश्य दिखाई दी जो गैर ज़रूरी और कश्मीर के संदर्भ में सरकार के रुख से को रिलेट नहीं करती यानी बेहद उत्तेज़ना में लिखा आलेख और उससे अधिक उसपर एक बेनामी ब्लागर की टिप्पणियां और उस बेनामी ब्लागर की खुद के ब्लाग पर लिखी पोस्ट  ब्लागिंग को गर्त में भेज आमादा है.
                 मेरे व्यक्तिगत विचार ये हैं कि प्रशांत भूषण हालिया कथित सुर्खियों से बौरा से गए हैं. किसी भी कथन को सार्वजनिक करने से पेश्तर उसके प्रभाव का भली भांति पूर्वानुमान लगाना सार्वजनिक जीवन में सबसे ज़्यादा ज़रूरी है. यहां हम ब्लागर प्रशांत-भूषण पर हुए उत्तेजना जनित हमले की निंदा करते हैं. मेरी जिन भी ब्लागर साथियों से मुलाक़ात हुई वे सब इस बात से दु:खी थे . सब का मत है कि  हिंसा किसी भी स्थिति में हो क्षम्य नहीं होनी चाहिये  

17.10.11

क्या आपके फ़ादर अली ने भी कभी पहनी है ऐसी घड़ी..?


भास्कर से साभार 

  बूचड़खाने से चीखते पुकारते कटते पशुओं की सी स्थिति हो चुकी है गोया हमारे चिंतन के लिये विषय चुक से गए हों  अपने इर्द-गिर्द देखिये कोई मौन-दृढ़ता युक्त व्यक्तित्व आपको क़तई नज़र न आएंगें. हम किसे सच मानें किसे झूठ इतना तक सामर्थ्य शेष नहीं रहा . कारण कारण क्या है बताते शर्म आती है सच जानना है तो जान ही लो :-"हम एक मानसिक दीवालियेपन वाले दौर में आ चुकें हैं !" सूचनाऒं की बौछार को हम सत्य मान लेते हैं. 
हमारी नज़र में हम उम्दा हैं बाक़ी सब बाक़ी सब दोयम दर्ज़े के . यानी सरो-पा नैगिटिविटि . दस बरस पहले एक दम्पत्ति दीवाली की खरीदी के वास्ते पास के शहर से आई थी. उन दिनों वीडियो-गेम्स का बड़ा चलन था. स्टेटस सिंबल बढ़ाने किये जाने वाले यत्नों में  सपूत के लिये वीडियो-गेम खरीदता जोड़ा  आपस में बतिया रहा था गुप्ता जी के बेटे के पास जो है उससे बेहतर है न ये . गुप्ता जी उनका सहकर्मी या पड़ौसी था. पेशे से अफ़सर ये लोग वाक़ई आपसी स्पर्द्धा में बच्चों तक को घसीट लेते है .गुप्ता जी के बेटे से बेहतर वीडियो-गेम उनके पास होना क्यों ज़रूरी है इस बात की पतासाजी करने की गरज़ से हमने बेवज़ह बात शुरु करदी पर्सनालिटी से हम सामान्य हैं सो हमने ही उनको अभिवादन किया बेरुखी से बमुश्किल नमस्कार का ज़वाब देने वाले उस अफ़सर से हमने बताया कि हम कौन हैं. तो ज़रा शर्मिंदा हुए बोले -"सर नाम तो सुना है आपका"
हम:-सुना नहीं पढ़ा होगा, हम तो मिसफ़िट आदमी हैं. बहरहाल आप से हमारी मुलाक़ात हुई है कहीं है न..?
वे :- जी, पिछले माह मिले थे न एडवोकेट जनरल के दफ़्तर में.
हम:- अर्र हां याद आया
                            मैं उनसे वहीं मिला था इस मुलाक़ात के पंद्रह दिन पहले पर वे मुझसे वह परिचय छिपाना चाह रहे थे कारण क्या था मुझे समझ में नहीं आ रहा था. बहरहाल उनसे मैने पूछ ही लिया :-सर, ये सब चीजें उधर भी तो मिल जातीं अच्छा किसी नातेदारी में आये होंगे..?
वे:-न जी बस श्रीमति जी चाह रहीं थीं जबलपुर में तफ़रीह हो जाए. उनको कुछ-साड़ियां दिलानी थीं, बच्चों के लिये गेम्स-वेम्स एकाध पिक्चर बस और क्या वरना हमारी ज़िंदगी  कोल्हू के बैल से कम कहां ?.
         बेचारा कोल्हू का बैल सोच भी वैसी ही हो गई उसकी...बताओ बछड़ों में प्रतिष्पर्द्धा के बीज बो रहा उसे क्या मालूम कि यही बेटा किसी दिन उसकी सांसे रोक देगा 
 हम:-भई, ये टीवी बच्चों को वो सब बता रही है जो हमको भी नहीं मालूम ..?
 वो :- भाई, साहब हमारा वो है न गुप्ता उस दिन जो फ़ाईल दिखा रहा था पडोस में रहता है उसके लड़के के पास समुराई का वीडियो गेम है, बेटा पूछ रहा था कि पापा आप के बास है क्या गुप्ता अंकल उनके पास सब कुछ जल्दी आ जाता है. 
           मुझे ताज़ुब हुआ उनके बेटे के सवाल पर गुप्ता जी के बेटे के पास वीडियो-गेम है और उनके बेटे के पास नहीं तो ओहदे की रौनक में कमीं नज़र आई शायद वे मानसिक दिवालिये पन की हद में हैं नहीं तो बेटे को समझा देते कि बेटे वीडियो-गेम किसी के बड़े या छोटे को मापने का स्केल नहीं. शायद वे अपनी बीवी के लिये भी साड़ियां इसी कारण दिला रहे  थे...... गुप्ता से कमज़ोर न दिखने के लिये उनको कितना खर्च करना पड़ा सच अफ़सरी बचाने, और दिखाने के लिये कितनी व्यवस्था जुटानी होती है. 
   दस बरस बाद  स्थिति और अधिक बद से बदतर दिखाई दे रही है लोग इस कदर विचारधारों के पीछे भाग रहे हैं  मानो कल वह विचारधारा मंहगी हो जाएगी पेट्रोल अथवा गैस के सिलेण्डरों की तरह. मानो कि खुद के व्यक्तित्व में कोई ठोस चिंतन न हो. आपको याद होगा लोग सरकारी नौकरी इस कारण पसंद करते थे कि उनका भविष्य सुरक्षित सुनिश्चित एवम रुतबे वाला है. गिनी घुटी पगार के साथ ऊपरी आमदनी की आकांक्षाएं ताक़ि कल का जीवन सुरक्षित हो लड़कियों  के अभिभावक ऐसा लड़का खोजते जो सरकारी नौकरी वाला हो .कुछ ऊपरी आमद हो  यानी सदाचारी हो  न हो . बेटे को भी डाक्टर इंजिनियर केवल उच्च आय वर्ग में लाने कि होड़ के अलावा कुछ न था. मेरे बड़े भाई मेरा कामर्स में दाखिला लेना जाने क्यों कुछेक क़रीबी नातेदारों के मन में मेरे या भैया दोयम भाव जगाता था उन दिनों. एक महिला नातेदार के पति की कलाई पर सजी  मंहगी रिस्टवाच बड़े भैया ध्यान देख रहे थे उनको ऐसा करते देख वे महिला नातेदार  कह उठी थी-क्या आपके फ़ादर अली ने भी कभी पहनी है ऐसी घड़ी..?
        बेशक हमारे पिता को मंहगी रिस्टवाच का कभी इंतज़ार न था वे तो उस घड़ी का इंतज़ार करते थे कि जब हम सफ़ल बनें. सफ़ल हैं हम मंहंगी रिस्टवाच वाली नातेदार के दिमागी दीवालिये पन पर हम ने संस्कारवश कोई टिप्पणी न की हमको मालूम था हमारा लक्ष्य जो मां बताया करती थी.    
लोग  भ्रष्टाचार का मूल तत्व है दिमागी दीवालिया पन यानी अंधी दौड़ दिखावा न्यूनतम ज़रूरतों से 
 . आगे सक्षमता हासिल कर लेने  की आकांक्षाएं
       यही भ्रष्टाचार अब खुद हमारा जीवन तबाह करने आमादा है तो हम अन्ना के पीछे हो लिये चीखने चिल्लाने लगे किंतु क्या वास्तविक बदलाव की अपेक्षा का भाव हमारे ज़ेहन में है नहीं तो पवित्र आंदोलन में गंदगी के साथ होकर न जुड़ें तो ही बेहतर होगा . जुड़ना है तो पूरे दिलो-दिमाग को मथ लीजिये सारी कालिमा को निकाल दीजिये बस इतना ही काफ़ी होगा. किसी भी विचारधारा को संयत भाव से समझिये अपने मौलिक चिंतन से उपजे नवनीत को जिसे अंतरआत्मा की आवाज़ पर  तय कीजिये कि आप स्वच्छ हाथों से पूजा करने जा      
                 मध्यवर्गीय जीवन बेतहाशा तनावग्रस्त एवम अकारण हीनता के भाव का शिकार है. खुद कम सोचता है किसी के सोचे पर अमल करता मध्य वर्ग एक अजीब सी जकड़न में है. हरेक पड़ौसी बदलाव के लिये बेवज़ह ज़द्दोज़हद  करता नज़र आ रहा है. कभी कभी तो क्रूरता पूर्ण तरीके तक स्तेमाल करता है.  

15.10.11

टुकड़े-टुकड़े दिन बीता..


मीना कुमारी (1 अगस्त1932 - 31 मार्च1972भारत की एक मशहूर अभिनेत्री थीं। इन्हें खासकर दुखांत फ़िल्म में उनकी यादगार भूमिकाओं के लिये याद किया जाता है। 1952 में प्रदर्शित हुई फिल्म बैजू बावरा से वे काफी वे काफी मशहूर हुईं।
मीना कुमारी का असली नाम माहजबीं बानो था और ये बंबई में पैदा हुई थीं । उनके पिता अली बक्श भी फिल्मों में और पारसी रंगमंच के एक मँजे हुये कलाकार थे और उन्होंने कुछ फिल्मों में संगीतकार का भी काम किया था। उनकी माँ प्रभावती देवी (बाद में इकबाल बानो),भी एक मशहूर नृत्यांगना और अदाकारा थी जिनका ताल्लुक टैगोर परिवार से था । माहजबीं ने पहली बार किसी फिल्म के लिये छह साल की उम्र में काम किया था। उनका नाम मीना कुमारी विजय भट्ट की खासी लोकप्रिय फिल्म बैजू बावरा पड़ा। मीना कुमारी की प्रारंभिक फिल्में ज्यादातर पौराणिक कथाओं पर आधारित थे। मीना कुमारी के आने के साथ भारतीय सिनेमा में नयी अभिनेत्रियों का एक खास दौर शुरु हुआ था जिसमें नरगिस, निम्मी, सुचित्रा सेन और नूतन शामिल थीं।
1953 तक मीना कुमारी की तीन सफल फिल्में आ चुकी थीं जिनमें : दायरादो बीघा ज़मीन और परिणीता शामिल थीं. परिणीता से मीना कुमारी के लिये एक नया युग शुरु हुआ। परिणीता में उनकी भूमिका ने भारतीय महिलाओं को खास प्रभावित किया था चूकि इस फिल्म में भारतीय नारियों के आम जिदगी की तकलीफ़ों का चित्रण करने की कोशिश की गयी थी। लेकिन इसी फिल्म की वजह से उनकी छवि सिर्फ़ दुखांत भूमिकाएँ करने वाले की होकर सीमित हो गयी। लेकिन ऐसा होने के बावज़ूद उनके अभिनय की खास शैली और मोहक आवाज़ का जादू भारतीय दर्शकों पर हमेशा छाया रहा।

मीना कुमारी की शादी मशहूर फिल्मकार कमाल अमरोही के साथ हुई जिन्होंने मीना कुमारी की कुछ मशहूर फिल्मों का निर्देशन किया था। लेकिन स्वछंद प्रवृति की मीना अमरोही से1964 में अलग हो गयीं। उनकी फ़िल्म पाक़ीज़ा को और उसमें उनके रोल को आज भी सराहा जाता है । शर्मीली मीना के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं कि वे कवियित्री भी थीं लेकिन कभी भी उन्होंने अपनी कवितायें छपवाने की कोशिश नहीं की। उनकी लिखी कुछ उर्दू की कवितायें नाज़ के नाम से बाद में छपी।

 मीना कुमारी जी की एक गज़ल ---




टुकड़े-टुकड़े दिन बीता, धज्जी-धज्जी रात मिली
जितना-जितना आंचल था, उतनी ही सौगात मिली
रिमझिम-रिमझिम बूंदों में, ज़हर भी है और अमृत भी
आंखें हंस दीं दिल रोया, यह अच्छी बरसात मिली
जब चाहा दिल को समझें, हंसने की आवाज़ सुनी
जैसे कोई कहता हो, ले फिर तुझको मात मिली
मातें कैसी घातें क्या, चलते रहना आठ पहर
दिल-सा साथी जब पाया, बेचैनी भी साथ मिली
होंठों तक आते आते, जाने कितने रूप भरे
जलती-बुझती आंखों में, सादा सी जो बात मिली


टेक्स्ट कंटेण्ट साभार विकीपीडिया  एवम स्टार-न्यूज़ एजेंसी से साभार  

12.10.11

हर जन्मदिन एक नई शुरुआत...

ये आजकल के बच्चे भी बहुत मन मानी करते हैं ..सुनते नहीं है जल्दी ..हाँ..हाँ कह कर बात को टाल देते हैं पर उन्हें नहीं पता कि ..माँ इतनी आसानी से हार नहीं मानती ......
आज करना ही पड़ा----सुनिये केवल राम जी के  विचार उनके जन्मदिन पर उनकी ही आवाज में ...

11.10.11

राज का काज


सरकारी महकमों  में अफ़सरों  को काम करने से ज़्यादा कामकाज करते दिखना बहुत ज़रूरी होता है जिसकी बाक़ायदा ट्रेनिंग की कोई ज़रूरत तो होती नहीं गोया अभिमन्यु की मानिंद गर्भ से इस विषय
 की का प्रशिक्षण उनको हासिल हुआ हो. 
           अब कल्लू को ही लीजिये जिसकी ड्यूटी चतुर सेन सा’ब  ने "वृक्षारोपण-दिवस" पर गड्ढे के वास्ते  खोदने के लिये लगाई थी मुंह लगे हरीराम की पेड़ लगाने में झल्ले को पेड़ लगने के बाद गड्डॆ में मिट्टी डालना था पानी डालने का काम भगवान भरोसे था.. हरीराम किसी की चुगली में व्यस्तता थी सो वे उस सुबह "वृक्षारोपण-स्थल" अवतरित न हो सके जानतें हैं क्या हुआ..? हुआ यूं कि सबने अपना-अपना काम काज किया कल्लू ने (गड्डा खोदा अमूमन यह काम उसके सा’ब चतुर सेन किया करते थे), झल्ले ने मिट्टी डाली, पर पेड़ एकौ न लगा देख चतुर सेन चिल्लाया-"ससुरे  पेड़ एकौ न लगाया कलक्टर सा’ब हमाई खाल खींच लैंगे काहे नहीं लगाया बोल झल्ले ?"
हरीराम को यह करना था 
 झल्ले बोला:-"सा’ब जी हम गड्डा खोदने की ड्यूटी पे हैं खोद दिया गड्डा बाक़ी बात से हमको का ?"
चतुरसेन :- औ’ कल्लू तुम बताओ , ?
कल्लू:-"का बोलें हज़ूर, हमाई ड्यूटी मिट्टी पूरने की है सो हम ने किया बताओ जो लिखा आडर में सो किया हरीराम को लगाना था पेड़ आया नही उससे पूछिये "
        सरकारी आदमी हर्फ़-हर्फ़ लिखे काम करने का संकल्प लेकर नौकरी में आते हैं सब की तयशुदा होतीं हैं ज़िम्मेदारियां उससे एक हर्फ़ भी हर्फ़ इधर उधर नहीं होते काम. सरकारी दफ़तरों के काम काज़ पर तो खूब लिक्खा पढ़ा गया है मैं आज़ आपको सरकार के मैदानी काम जिसे अक्सर हम राज़काज़ कहते हैं की एक झलक दिखा रहा हूं.
      "कल्लू दादा स्मृति समारोह" के आयोजन स्थल पर काफ़ी गहमा गहमीं थी सरकारी तौर पर जनाभावनाओं का ख्याल रखते हुए इस आयोजन के सालाना की अनुमति की नस्ती से "सरकारी-सहमति-सूचना" का प्रसव हो ही गया जनता के बीच उस आदेश के सहारे कर्ता-धर्ता फ़ूले नहीं समा रहे थे. समय से बडे़ दफ़्तर वाले साब ने मीटिंग लेकर छोटे-मंझौले साहबों के बीच कार्य-विभाजन कर दिया. कई विभाग जुट गए  "कल्लू दादा स्मृति समारोह" के सफ़ल आयोजन के लिये कई तो इस वज़ह से अपने अपने चैम्बरों और आफ़िसों से कई दिनों तक गायब रहे कि उनको "इस महत्वपूर्ण राजकाज" को सफ़ल करना है. जन प्रतिनिधियों,उनके लग्गू-भग्गूऒं, आला सरकारी अफ़सरों उनके छोटे-मंझौले मातहतों का काफ़िला , दो दिनी आयोजन को आकार देने धूल का गुबार उड़ाता आयोजन स्थल तक जा पहुंचा. पी आर ओ का कैमरा मैन खच-खच फ़ोटू हैं रहा था. बड़े अफ़सर आला हज़ूर के के अनुदेशों को काली रिफ़िलर-स्लिप्स पर ऐसे लिख रहे थे जैसे वेद-व्यास के  कथनों गनेश महाराज़ लिप्यांकित कर रहे हों. छोटे-मंझौले अपने बड़े अफ़सर से ज़्यादा आला हज़ूर को इंप्रेस करने की गुंजाइश तलाशते नज़र आ रहे थे. आल हज़ूर खुश तो मानो दुनियां ..खैर छोड़िये शाम होते ही कार्यक्रम के लिये तैयारीयों जोरों पर थीं. मंच की व्यवस्था में  फ़तेहचंद्र, जोजफ़, और मनी जी, प्रदर्शनी में चतुर सेन साब,बदाम सिंग, आदि, पार्किंग में पुलिस वाले साब लोग, अथिति-ढुलाई में खां साब, गिल साब, जैसे अफ़सर तैनात थे. यानी आला-हज़ूर के दफ़्तर से जारी हर हुक़्म की तामीली के लिये खास तौर पर तैनात फ़ौज़. यहां ऐसा प्रतीत हो रहा था कि इतने महान कर्म-निष्ठ, अधिकारियों की फ़ौज तैनात है कि इंद्र का तख्ता भी डोल जाएगा वाक़ई. इन महान "सरकारीयों" की "सरकारियत" को विनत प्रणाम करता हूं .
               मुझे मंच के पास वाले साहब लोग काफ़ी प्रभावित कर रहे थे. अब फ़तेहचन्द जी को लीजिये बार बार दाएं-बाएं निहारने के बाद आला हज़ूर के ऐन कान के पास आके कुछ बोले. आला हज़ूर ने सहमति से मुण्डी हिलाई फ़िर तेज़ी से टेण्ट वाले के पास गये .. उसे कुछ समझाया वाह साहब वाह गज़ब आदमी हैं आप और आला-हज़ूर के बीच अपनत्व भरी बातें वाह मान गए हज़ूर के "मुसाहिब" हैं आप की क्वालिटी बेशक 99% खरा सोना भी शर्मा जाए.  आपने कहा क्या होगा ? बाक़ी अफ़सरान इस बात को समझने के गुंताड़े में हैं पर आप जानते हैं आपने कहा था आला-हज़ूर के ऐन कान के पास आकर "सर, दस कुर्सियां टीक रहेंगी. मैं कुर्सी की मज़बूती चैक कर लूंगा..? आला-हज़ूर ने सहमति दे ही दी होगी. 
               जोज़फ़  भी दिव्य-ज्ञानी हैं. उनसे सरोकार  पड़ा वे खूब जानतें हैं रक्षा-कवच कैसे ओढ़ते हैं उनसे सीखिये मंच के इर्दगिर्द मंडराते मनी जी को भी कोई हल्की फ़ुल्की सख्शियत कदाचित न माना जावे. अपनी पर्सनालटी से कितनों को भ्रमित कर चुकें हैं . 
               आला-हज़ूर के मंच से दूर जाते ही इन तीनों की आवाज़ें गूंज रही थी ऐसा करो वैसा करो, ए भाई ए टेंट ए कनात सुनो भाई का लोग आ जाएंगे तब काम चालू करोगे ? ए दरी   भाई जल्दी कर ससुरे जमीन पे बिठाएगा का .. ए गद्दा ..
  जोजफ़ चीखा:-"अर्र, ए साउंड, इधर आओ जे का लगा दिया, मुन्नी-शीला बजाओगे..? अरे देशभक्ति के लगाओ. और हां साउण्ड ज़रा धीमा.. हां थोड़ा और अरे ज़रा और फ़िर   मनी जी की ओर  मुड़ के बोला "इतना भी सिखाना पड़ेगा ससुरों को " 
 तीनों अफ़सर बारी-बारी चीखते चिल्लाते निर्देश देते  रहे टैंट मालिक रज्जू भी बिलकुल इत्मीनान से था सोच रहा था कि चलो आज़ आराम मिला गले को . टॆंट वाले मज़दूर अपने नाम करण को लेकर आश्चर्य चकित थे  जो दरी ला रहा वो दरी जो गद्दे बिछा रहा था वो गद्दा .. वाह क्या नाम मिले . 
        कुल मिला कर आला हज़ूर को इत्मीनान दिलाने में कामयाब ये लोग "जैक आफ़ आल मास्टर आफ़ नन"वाला व्यक्तित्व लिये  इधर से उधर डोलते  रहे इधर उधर जब भी किसी बड़े अफ़सर नेता को देखते सक्रीय हो जाते थोड़ा फ़ां-फ़ूं करके पीठ फ़िरते ही निंदा रस में डूब जाते . 
 फ़तेहचंद ने मनी जी से पूछा :यार बताओ हमने किया क्या है..?
जवाब दिया जोजफ़ और मनी जी ने समवेत स्वरों में ;"राजकाज "
फ़तेहचंद - यानी  राज का काज हा हा हा 

9.10.11

यशभारत ने छापा : ब्लाग इन मीडिया

 
ब्लाग इन मीडिया 
    एक  था रावण बहुत बड़ा प्रतापी यशस्वी राज़ा, विश्व को ही नहीं अन्य ग्रहों तक विस्तारित उसका साम्राज्य वयं-रक्षाम का उदघोष करता आचार्य चतुरसेन शास्त्री के ज़रिये  जाना था रावण के पराक्रम को. उसकी साम्राज्य व्यवस्था को. ये अलग बात है कि उन दिनों मुझमें उतनी सियासी व्यवस्था की समझ न थी. पर एक सवाल सदा खुद  पूछता रहा- क्या वज़ह थी कि राम ने रावण को मारा ? राम   को हम भारतीय जो  आध्यात्मिक धार्मिक भाव से देखते हैं  राम को मैने कभी भी एक राजा के रूप में आम भारतीय की तरह मन में नहीं बसाया. मुझे उनका करुणानिधान स्वरूप ही पसंद है. किंतु जो अधिसंख्यक आबादी के लिये करुणानिधान हो वो किसी को मार कैसे सकता है ? और जब एक सम्राठ के रूप में राम को देखा तो सहज दृष्टिगोचर होती गईं सारी रामायण कालीन स्थितियां राजा रामचंद्र की रघुवीर तस्वीर साफ़ होने लगी (आगे पढ़ने क्लिक कीजिये इधर)

मोरा गोरा अंग ..बन्दिनी आवाज़ श्रद्धा बिल्लोरे की आवाज़ में

8.10.11

बेटी बचाओ अभियान : बालाघाट में स्मृति ईरानी को जन सैलाब ने किया भावुक

जबलपुर में बेटी बचाओ अभियान के सफ़ल आयोजनों की खबरें लगातार मिल रही है .. इस बीच बालाघाट से प्राप्त रिपोर्ट अनुसार स्मृति इरानी ने की उपस्थिति से अभूतपूर्व रहा शुभारम्भ समारोह 

बेटियाँ मातृ शक्ति हैं, इनका संरक्षण समाज और देश के अस्तित्व के लिये जरूरी है। बालाघाट में बेटी बचाओ अभियान का शुभारंभ करते हुए सांसद श्रीमती स्मृति ईरानी ने कहा कि मध्यप्रदेश ने जन-कल्याण की ऐसी योजनाएँ बनाई हैं जिसे सारे राष्ट्र ने न केवल सराहा है बल्कि अपनाया भी है। इस मौके पर समारोह के आयोजक सहकारिता एवं लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी मंत्री श्री गौरीशंकर बिसेन भी उपस्थित थे। इस अवसर पर बेटियों वाले माता-पिता को सम्बल कार्ड वितरित किये गये।

श्रीमती स्मृति ईरानी ने कहा कि मध्यप्रदेश सरकार केवल बेटी बचाने का काम ही नहीं कर रही है बल्कि उसने बेटी को लक्ष्मी के रूप में पूजने की परम्परा शुरू की है और उसे अपने पैरों पर खड़े होने में मदद कर रही है। उन्होंने कहा कि बेटियाँ तो मातृ शक्ति हैं। एक सक्षम माँ ही बेटी को बचाने में अहम भूमिका निभा सकती है और उसका भविष्य उज्जवल बना सकती है। श्रीमती ईरानी ने कहा कि म.प्र. देश का ऐसा पहला राज्य है जिसने महिला सशक्तिकरण की दिशा में कार्य करते हुए लाड़ली लक्ष्मी योजना, गाँव की बेटी योजना और मुख्यमंत्री कन्यादान जैसी योजनाएँ बनाई हैं। म.प्र. की इन योजनाओं को राष्ट्रीय स्तर पर भी सराहा जा रहा है। म.प्र. के मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान ने जन-हितैषी योजनाओं के बल पर प्रदेश में अपनी पहचान मामा के रूप में बनाई है। प्रदेश की जनता ने भी उन्हें एक राजनेता के रूप में नहीं बल्कि समाज नेता के रूप में अपनाया है। श्रीमती ईरानी ने कहा कि महिलाएँ ही परिवार को एक सूत्र में बाँधती हैं। महिलाओं को मौका मिले तो वह समाज को भी एक नई दिशा देने में सक्षम होंगी। दशहरा पर्व की शुभकामनाएँ देते हुए उन्होंने कहा कि हम सभी ये संकल्प करें कि भ्रष्टाचार रूपी रावण का अंत करके ही दम लेंगे।

लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी एवं सहकारिता मंत्री श्री बिसेन ने उपस्थित जन-समुदाय को संबोधित करते हुए कहा कि बेटी है तो समाज का आने वाला भविष्य भी सुरक्षित रहेगा। कन्या की भ्रूण हत्या का पाप न करें, बल्कि बेटी के जन्म को सौभाग्य मानते हुए कन्यादान का पुण्य कमायें। बालाघाट जिले में केवल बेटियों वाले माता-पिता को सम्बल कार्ड दिया जा रहा है। जिससे ऐसे दम्पत्ति बेटा न होने के कारण स्वयं को असहाय महसूस न करें।
मुलना स्टेडियम बालाघाट में आयोजित कार्यक्रम में सभी व्यक्तियों द्वारा संकल्प लिया गया कि वे बेटी के जन्म में बाधा नहीं बनेंगे और बेटी को साक्षर बनाकर उसे सक्षम भी बनायेंगे। कार्यक्रम में अतिथियों द्वारा कन्याओं के चरण धोकर उनकी पूजा की गई। इस कार्यक्रम में केवल बेटियों वाले दम्पत्तियों को सम्बल कार्ड प्रदान किये गये। कार्यक्रम में कक्षा 10वीं की परीक्षा में प्रदेश में प्रथम आने वाली बालिका कुमारी आरुषी पारधी, लांजी की बालिका कुमारी जागृति यादव को लेपटाप व 11 हजार रुपये की पुरस्कार राशि का चेक प्रदान किया गया। इस कार्यक्रम में स्व-प्रेरणा से गाँव के बच्चों के लिये स्कूल चलाने वाली पायल लिल्हारे तथा खुरमुंडी के छात्रावास में रहकर कक्षा 7वीं की पढ़ाई करने वाली बिना हाथों वाली बालिका कुमार जमुना को 5-5 हजार रुपये की सहायता राशि के चेक प्रदान किये गये।


बेटी बचाओ अभियान के अंतर्गत कटंगी, मलाजखंड एवं लांजी में भी कार्यक्रमों का आयोजन किया गया। जिले में केवल बेटियों वाले माता-पिता जिन्होंने एक या दो बेटी के बाद नसबंदी आपरेशन करा लिया है को सम्बल कार्ड प्रदान किये गये। बालाघाट प्रदेश का ऐसा पहला जिला है जहाँ पर सम्बल कार्ड प्रदान कर केवल बेटियों वाले माता-पिता को बेटा न होने पर असहाय महसूस नहीं होने दिया जायेगा।


 



















7.10.11

क्यों मारा राम ने रावण को ?


साभार : ताहिर खान 
    एक  था रावण बहुत बड़ा प्रतापी यशस्वी राज़ा, विश्व को ही नहीं अन्य ग्रहों तक विस्तारित उसका साम्राज्य वयं-रक्षाम का उदघोष करता आचार्य चतुरसेन शास्त्री के ज़रिये  जाना था रावण के पराक्रम को. उसकी साम्राज्य व्यवस्था को. ये अलग बात है कि उन दिनों मुझमें उतनी सियासी व्यवस्था की समझ न थी. पर एक सवाल सदा खुद  पूछता रहा- क्या वज़ह थी कि राम ने रावण को मारा ? राम   को हम भारतीय जो  आध्यात्मिक धार्मिक भाव से देखते हैं  राम को मैने कभी भी एक राजा के रूप में आम भारतीय की तरह मन में नहीं बसाया. मुझे उनका करुणानिधान स्वरूप ही पसंद है. किंतु जो अधिसंख्यक आबादी के लिये करुणानिधान हो वो किसी को मार कैसे सकता है ? और जब एक सम्राठ के रूप में राम को देखा तो सहज दृष्टिगोचर होती गईं सारी रामायण कालीन स्थितियां राजा रामचंद्र की रघुवीर तस्वीर साफ़ होने लगी 
                                        रामायण-कालीन वैश्विक व्यवस्था का दृश्य 
रावण के संदर्भ में  हिंदी विकीपीडिया  में दर्ज़ विवरण को देखें जहां बाल्मीकि के हवाले से (श्लोक सहित ) विवरण दर्ज़ है- 
अहो रूपमहो धैर्यमहोत्सवमहो द्युति:।
अहो राक्षसराजस्य सर्वलक्षणयुक्तता॥
आगे वे लिखते हैं "रावण को देखते ही राम मुग्ध हो जाते हैं और कहते हैं कि रूप, सौन्दर्य, धैर्य, कान्ति तथा सर्वलक्षणयुक्त होने पर भी यदि इस रावण में अधर्म बलवान न होता तो यह देवलोक का भी स्वामी बन जाता।"
                रावण जहाँ दुष्ट था और पापी था वहीं उसमें शिष्टाचार और ऊँचे आदर्श वाली मर्यादायें भी थीं। राम के वियोग में दुःखी सीता से रावण ने कहा है, "हे सीते! यदि तुम मेरे प्रति कामभाव नहीं रखती तो मैं तुझे स्पर्श नहीं कर सकता।" शास्त्रों के अनुसार वन्ध्या, रजस्वला, अकामा आदि स्त्री को स्पर्श करने का निषेध है अतः अपने प्रति अकामा सीता को स्पर्श न करके रावण मर्यादा का ही आचरण करता है।

चूंकि इतनी अधिक विशेषताएं थीं तो बेशक कोई और वज़ह रही होगी जो राम ने रावण को मारा मेरी व्यक्तिगत  सोच है कि रावण विश्व में एक छत्र राज्य की स्थापना एवम "रक्ष-संस्कृति" के विस्तार के लिये बज़िद था. जबकि त्रेता-युग का रामायण-काल के अधिकतर साम्राज्य सात्विकता एवम सरलतम आध्यात्मिक सामाजिक समरसता युक्त राज्यों की स्थापना चाहते थे. सामाजिक व्यवस्था को बनाने का अधिकार  उनका पालन करने कराने का अधिकार जनता को ही था. सम्राठ तब भी जनता के अधीन ही थे केवल "देश की भौगोलिक सीमाओं की रक्षा, शिक्षा केंद्रों को सहयोग, अंतर्राष्ट्रीय-संबंधों का निर्वाह, " जैसे दायित्व राज्य के थे. जबकि रावण की रक्षकुल संस्कृति में अपेक्षा कृत अधिक उन्नमुक्तता एवम सत्ता के पास सामाजिक नियंत्रण नियम  बनाने एवम उसको पालन कराने के अधिकार थे. जो वैदिक व्यवस्था के विपरीत बात थी. वेदों के व्याख्याकार के रूप में महर्षिगण राज्य और समाज सभी के नियमों को रेग्यूलेट करते थे. इतना ही नहीं वे शिक्षा स्वास्थ्य के अनुसंधानों के अधिष्ठाता भी थे यानी विशेषज्ञ को उनका अधिकार था  

                          इसके विपरीत  रावण को रामायण कालीन अंतर्राष्ट्रीय  राजनैतिक व्यवस्था का सबसे ताक़तवर एवम तानाशाह कहा जाए तो ग़लत नहीं है. रावण का सामरिक तनाव उस काल की वैश्विक-सामाजिक,एवम आर्थिक व्यवस्था को बेहद हानि पहुंचा रही थी.कल्याणकारी-गणतंत्रीय राज्यों को रावण के सामरिक सैन्य-बल के कारण रावण राज्य की अधीन होने के अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग शेष नहीं होता. लगभग सारे विश्व में उसकी सत्ता थी.यानि रावण के किसी  अन्य किसी प्रशासन को कोई स्थान न था.वर्तमान भारत ही एकमात्र ऐसा देश था जहां कि रावण को स्वीकारा नहीं गया. जिसका सत्ता केंद्र उत्तर-भारत में था. 
                        समकालीन विश्व-विद्यालयों ( ऋषि-आश्रमों,गुरुकुलों) को रावण नष्ट कर देना चाहता था ताक़ि भारतगणराज्य जो अयोध्या के अधीन है वह अधीनता स्वीकर ले . इससे उसके सामरिक-सामर्थ्य में अचानक वृद्धि अवश्यम्भावी थी.  कुबेर उसके नियंत्रण में थी यानी विश्व की अर्थव्यवस्था पर उसका पूरा पूरा नियंत्रण था. यद्यपि रामायण कालीन भौगोलिक स्थिति  का किसी को ज्ञान नहीं है जिससे एक मानचित्र तैयार करा के  आलेख में लगाया जा सकता ताक़ि स्थिति  अधिक-सुस्पष्ट हो जाती फ़िर भी आप यह जान लें कि यदि लंका श्री लंका ही है तो भी भारतीय-उपमहादीपीय क्षेत्र में भारत एक ऐसी सामरिक महत्व की भूमि थी है जहां से सम्पूर्ण विश्व पर रावण अपनी "विमानन-क्षमता" से दवाब बना सकता था. 
समकालीन विश्व-विद्यालयों ( ऋषि-आश्रमों,गुरुकुलों) को रावण नष्ट क्यों करना चाहता था..?
           रावण के अधीन सब कुछ था केवल "विद्वानों" को छोड़कर जो उसके साम्राज्य की श्री-वृद्धि के लिये  उसके (रावण के) नियंत्रण रहकर काम करें. जबकि भारत में ऐसा न था वे स्वतंत्र थे उनके अपने अपने आश्रम थे जहां "यज्ञ" अर्थात "अनुसंधान" (प्रयोग) करने  की स्वतन्त्रता थी. तभी ऋषियों .के आश्रमों पर रावण की आतंकी गतिविधियां सदैव होती रहतीं थीं. यहां एक और  तथ्य की ओर द्यान दिलाना चाहता हूं कि रावण के सैनिक द्वारा  कभी भी किसी नगर अथवा गांवों में घुसपैठ नहीं कि किसी भी रामायण में इसका ज़िक्र नहीं है. तो फ़िर  ऋषियों .के आश्रमों पर हमले..क्यों होते थे ?
            उसके मूल में रावण की बौद्धिक-संपदाओं पर नियंत्रण की आकांक्षा मात्र थी. वो यह जानता था कि 
  1. यदि ऋषियों पर नियंत्रण पा लिया तो भारत की सत्ता पर नियंत्रण सहज ही संभव है.
  2. साथ ही  उसकी सामरिक शक्ति के समतुल्य बनने  के प्रयासों से रघुवंश को रोकना .                        
                                     अर्थात कहीं न कहीं उसे "रक्षकुल" की आसन्न समाप्ति दिखाई दे रही थी. 
        राम  के गणराज्य में प्रज़ातांत्रिक  व्यवस्था को सर्वोच्च स्थान था. सामाजिक व्यवस्था स्वायत्त-अनुशाषित थी. अतएव बिना किसी राजकीय दबाव के देश का आम नागरिक सुखी था. 
    रावण ने राम से  युद्ध के लिये कभी पहल न की तो राम को खुद वन जाना पड़ा. रावण भी सीता पर आसक्त न था वो तो इस मुगालते में थी कि राम सीता के बहाने लंका आएं और वो उनको बंदी बना ले पर उसे राम की संगठनात्मक-कुशाग्रता का कदाचित ज्ञान न था 
वानर-सेना :- राम ने वनवासियों के युवा नरों की सेना बनाई  लक्ष्मण की सहायता से उनको योग्यतानुसार  युद्ध कौशल सिखाया . 
           सीता हरण के उपरांत रावण को  लगा कि राम की सीता हरण के बाद बनाई गई वानर-सेना लंका के लिये  (मेरी दृष्टि में यु +वा+ नर+ योद्धा ऐसे युवाओं की सेना  जो वन में निवासरत थे राम ने उनको लक्ष्मण की सहायता से युद्ध कौशल सिखाया ) कोई खतरा नहीं है बस यही एक भ्रम रावण के अंत का कारण था . 
           राम ने रावण का अंत किया क्योंकि रावण  एक ऐसी शक्ति के रूप में उभरा था  जो विश्व को अपने तरीक़े से संचालित करना चाहती थी. राम को पूरी परियोजना पर काम काम करते हुए चौदह साल लगे. यानी लगभग तीन संसदीय चुनावों के बराबर . 


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