3.8.23

पाकिस्तान में अधिकार सम्पन्न महिलाएं

 "अधिकार संपन्न कलस जनजाति की महिलाएं...!"
पाकिस्तान में महिला अधिकारों को लेकर हम सब केवल इतना जानते हैं कि वहां महिलाओं को अधिकार नहीं है। परंतु हिंदूकुश पर्वत माला में निवास कर रही कलस जनजाति जिसकी जनसंख्या 2018 के मुताबिक केवल 4000 थी जो अब बढ़कर लगभग 6000 है। कलस जन जाति में महिलाओं की स्थिति पाकिस्तान के अन्य स्थानों की अपेक्षा बेहतर है। यह जनजाति अफगानिस्तान पाकिस्तान सीमा पर कैलाश वैली के नाम से प्रसिद्ध है। पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा राज्य के चितराल जिले बुमबुरेत,रूमबुर,बिरर, नामक स्थानों में 
कलस जनजाति निवास करती है।
अफगानिस्तान में नूरिस्तानी जनजाति भी इसी जनजाति की एक शाखा है।
कलस जनजाति महिला प्रधान जनजाति है जहां किसी की मृत्यु पर एक अजीबो गरीब रस्म भी अदा की जाती है। पाकिस्तान में इस जनजाति को काफिर माना जाता है।
इस जनजाति में मृत्यु के समय मृत्यु भोज के रूप में बकरियों की बलि देकर अधिक से अधिक दूरदराज के गांवों मैं रहने वाले लोगों को खिलाया जाता है। जनजाति के लोगों का मानना है कि वह किसी को भी हंसी खुशी के साथ विदा करने पर विश्वास रखते हैं।
लोगों का मानना है कि यह जनजाति सिकंदर के साथ ईरान से अखंड भारत में आई थी तो कुछ लोग यह मानते हैं कि डीएनए के हिसाब से वह हिंदुस्तान से पलायन करके पहाड़ियों पर निवास करने लगी है। इस जनजाति के तीन त्यौहार होते हैं एक त्योहार शीत ऋतु प्रारंभ होने के पहले मनाया जाता है जिसमें अपने आराध्य से यह आव्हान किया जाता है कि यह शीत ऋतु उन्हें सुख प्रदान करें। यह त्यौहार जोशी त्यौहार कहलाता है। दूसरा त्यौहार शीत ऋतु के उपरांत मनाया जाता है जिसे उचाव कहते हैं, यह शीत ऋतु के समाप्त होने के उपरांत मनाया जाता है और ईश्वर को इस त्यौहार के माध्यम से उत्सव मना कर धन्यवाद दिया जाता है और यह कहा जाता है कि आपने इस शीत ऋतु में हमें सुरक्षा दी हम आपके आभारी हैं। एक अन्य त्यौहार जिसे कैमोस कहते हैं यह 14 दिनों तक मनाया जाता है। यह त्यौहार युवाओं के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। युवा लड़कियां अपना मनपसंद पति चुनती है और  उसके घर चली जाती है। उसके कुछ दिनों के बाद वर पक्ष की ओर से वधु के घर उपहार भेज कर विवाह की पुष्टि की जाती है।
  यह परंपरा हमारे देश के छत्तीसगढ़ की जनजातियों में प्रचलित घोटूल व्यवस्था की तरह ही है।
जन्म के समय प्रसूता को गांव के बाहर बने एक भवन में 14 से 15 दिन तक रखा जाता है। वहां पुरुषों का प्रवेश पूरी तरह वर्जित है। रजस्वला लड़कियों एवं महिलाओं  को भी 3 से 4 दिन तक इसी भवन में रहना होता है।
  कलस जनजाति के परिवार ताजा फल सूखे मेवे तथा अनाज में गेहूं आधारित व्यंजन उपयोग में लाते हैं।
कलस जनजाति के परिवारों में औसत उम्र पाकिस्तान की आबादी की औसत उम्र से अधिक होती है।
इस संबंध में अपनी बात कहते हुए जनजाति की एक लड़की ने बताया कि हम प्रकृति से प्राप्त भोजन ग्रहण करते हैं तथा हमेशा प्रसन्न रहने की कोशिश करते हैं साथ ही हम किसी का अपमान नहीं करते इस कारण ही हम सुंदर और लंबी उम्र पाते हैं।
  कलस जनजाति अपने लिए कपड़े स्वयं बनाते हैं यहां महिलाओं की पोशाक बहुत सुंदर तरीके से डिजाइन की जाती है। कलस जनजाति की महिलाएं चितराल जिले के चितराल नगर बाजार से कपड़े  खरीद अपनी पोशाक तैयार करती हैं।
पाकिस्तान के लोग इन्हें अपवित्र मानते हैं क्योंकि यहां के लोग शराब का सेवन करते हैं तथा महिलाओं को अधिक अधिकार प्राप्त हुए हैं जो पाकिस्तानी संस्कृति के विरुद्ध है।कलस जनजाति के बारे में यह भी कहा जाता है कि इस जनजाति में महिलाएं स्वच्छंद यौनाचार में संलिप्त है। इस तरह की अफवाह एवं असमानता को देखते हुए जनजाति के लोग पाकिस्तान से आने वाले सैलानियों से नाराज हैं।
पाकिस्तान में जनजाति विकास के लिए कोई सरकारी कार्यक्रम के बारे में अब तक कोई जानकारी प्राप्त नहीं हुई।
कलस जनजाति का धर्म- इनका धर्म भारतीय, हिंद-ईरानी धर्मों से मिलता जुलता है। कलस  एकेश्वरवाद को मानते हैं। पैगंबरवाद पर इनका विश्वास नहीं है।
    कुछ लोगों की मान्यता है कि इस जनजाति के लोग सिकंदर के सैनिकों के वंशज हैं तथा इनका धर्म यूनानी है। नवीनतम रिसर्च से ज्ञात होता है कि यह प्राचीन भारतीय ईरानी परिवारों से संबंध हैं।

पाकिस्तान जैसे राष्ट्र में इनकी संख्या कम होना स्वभाविक है इस जनजाति से धर्म परिवर्तन हुआ है। इस जनजाति के लोग धर्म परिवर्तन को गलत मानते हैं। संस्कृति बची हुई है उसमें संघर्षशील परिवारों का महत्वपूर्ण योगदान है यह चकित कर देने वाला तथ्य है।

27.7.23

मानवता के आइकॉन कलैक्टर टी अंबाजगेन : श्री महेन्द्र शुक्ला की फेसबुक पोस्ट

टी अंबाजगेन कलेक्टर साहब ,धन्य है वे माता-पिता  जिन्होंने इन्हे मानव सेवा के संस्कार दिए .!

80 साल की बूढ़ी माता घर में बिल्कुल अकेली। कई दिनों से भूखी। बीमार अवस्था में पड़ी हुई। खाना-पीना और ठीक से उठना-बैठना भी दूभर। हर पल भगवान से उठा लेने की फरियाद करती हुई .!

 खबर तमिलनाडु के करूर जिले के कलेक्टर टी अंबाजगेन के कानों में पहुंचती है। दरियादिल यह आइएएस अफसर पत्नि से खाना बनवाते है फिर टिफिन में लेकर निकल पड़ते है, वृद्धा के चिन्नमालनिकिकेन पट्टी स्थित झोपड़ी में .!

जिस बूढ़ी माता से पास-पड़ोस के लोग आंखें फेरे हुए थे, कुछ ही पल में उनकी झोपड़ी के सामने जिले के सबसे रसूखदार अफसर मेहमान के तौर पर खड़ा नजर आता है .!

 वृद्धा समझ नहीं पातीं क्या मामला है डीएम कहते हैं-माता जी आपके लिए घर से खाना लाया हूं, चलिए खाते हैं .!

वृद्धा के घर ठीक से बर्तन भी नहीं होते तो वह कहतीं हैं साहब हम तो केले के पत्ते पर ही खाते हैं। डीएम कहते हैं-अति उत्तम। आज मैं भी केले के पत्ते पर खाऊंगा .!

 किस्सा यही खत्म नहीं होता चलते-चलते डीएम वृद्धावस्था की पेंशन के कागजात सौंपते हैं। कहते हैं कि आपको बैंक तक आने की जरूरत नहीं होगी, घर पर ही पेंशन मिलेगी डीएम गाड़ी में बैठकर चले जाते हैं, आंखों में आंसू लिए वृद्धा आवाक रहकर देखती रह जातीं हैं .!

18.6.23

अफगानी तालिबान को बुद्ध याद आए ...!

 

 साभार गूगल फोटो 


मुल्ला उमर अब एक इतिहास बन कयामत के फैसले का इंतज़ार कर रहा है, उधर तालिबान कुछेक पुराने कामों पर पुनर्विचार कर रहा है. इस क्रम में 5वीं सदी में बने बामियान के बुद्ध इनको याद आ रहे हैं हैं. बामियान में दो बुद्ध मूर्तियाँ 2001 तक मोजूद थीं.   मूर्तियों में पहली बड़ी मूर्ती 55 फीट  जिसे सलसल कहा  गया तथा दूसरी मूर्ती समामा जो 37 फीट की  थी. इन पहाड़ियों  में अनेकों गुफाएं हैं जिनका उपयोग यात्री गण (व्यापारी एवं बौद्ध भिक्षुक तथा अन्य लोग ) आश्रय स्थल के रूप में करते थे.

इससे पहले कि हम इस विषय पर कुछ बात करें सबसे पहले बुद्ध का बामियान से सम्बन्ध कैसे बना इस इतिहास पर एक दृष्टि डालते हैं.

*बामियान में बुद्ध प्रतिमाओं का  इतिहास*

माना जाता है कि सिल्क रोड जिसकी लम्बाई 65000 किलोमीटर है  का निर्माण 130 ईसा पूर्व किया गया था.  यह मार्ग चीन से भारत होते हुए अफगानस्तान, ईरान(बैक्ट्रिया जिसे बाख़्तर या तुषारिस्तानतुख़ारिस्तान और तुचारिस्तान भी कहा गया है  ) , तुर्की होते हुए यूरोप पहुंचता है. इस मार्ग का निर्माण किसने कराया इस की पुष्टि हेतु कोई स्पष्ट साक्ष्य नहीं हैं.

इस मार्ग ने अंतर महाद्वीपीय संबंध को स्थापित किया है. सिल्क रुट का चीनभारतमिस्रईरानअरब और प्राचीन रोम की महान सभ्यताओं के विकास पर गहरा असर पड़ा। 

 इस मार्ग से व्यापार के अलावा,  ज्ञानधर्मसंस्कृतिभाषाएँविचारधाराएँभिक्षुतीर्थयात्रीसैनिकघूमन्तू जातियाँऔर बीमारियाँ भी फैलीं। व्यापारिक नज़रिए से चीन रेशमचाय और चीनी मिटटी के बर्तन भेजता थाभारत मसालेहाथीदांतकपड़ेकाली मिर्च और कीमती पत्थर भेजता था और रोम से सोनाचांदीशीशे की वस्तुएँशराबकालीन और गहने आते थे। हालांकि 'रेशम मार्गके नाम से लगता है कि यह एक ही रास्ता था वास्तव में बहुत कम लोग इसके पूरे विस्तार पर यात्रा करते थे। अधिकतर व्यापारी इसके हिस्सों में एक शहर से दूसरे शहर सामान पहुँचाकर अन्य व्यापारियों को बेच देते थे और इस तरह सामान हाथ बदल-बदलकर हजारों मील दूर तक चला जाता था। शुरू में रेशम मार्ग पर व्यापारी अधिकतर भारतीय और बैक्ट्रियाई थेफिर सोग़दाई हुए और मध्यकाल में ईरानी और अरब ज़्यादा थे। रेशम मार्ग से समुदायों के मिश्रण भी पैदा हुएमसलन तारिम द्रोणी में बैक्ट्रियाईभारतीय और सोग़दाई लोगों के मिश्रण के सुराग मिले हैं।

इस रोड माध्यम से एशियाई अखंड भारत से सर्वाधिक व्यापार हुआ करता था। किंतु हिंदूकुश पहाड़ी के क्षेत्र में  जनजाति कबीलो द्वारा व्यापारियों के साथ लूटपाट की जाती थी। भारतीय एवं चीनी व्यापारियों ने इन लोगों को भी अपने व्यापार का साझीदार बनाया। बौद्ध मत  के प्रचार प्रसार से प्रभावित होकर हिंदूकुश पहाड़ी के क्षेत्र में लोगों ने बुद्ध की दो बड़ी प्रतिमाएं स्थापित कर दी इससे व्यवसायिक एवं सांस्कृतिक एकात्मता का सिलसिला भी प्रारंभ हो गया। कहते हैं कि कुषाणों ने बुद्ध की प्रतिमाओं को स्थापित कराया था ताकि भारतीय एवं चीनी व्यापारियों के साथ संबंध प्रगाढ़ हो सके ।      

 विश्व धरोहर को पुन: 2022   संरक्षित करने की पेशकश करने की इच्छा नए तालिबान ने की है, जबकि तालिबान का पुरोधा मुल्ला उमर इन मूर्तियों को खत्म करके बेहद प्रसन्न हुआ था.

*क्या वजह है इस पेशकश की ..!*

दरअसल इस क्षेत्र में स्थित मैंस अनसक इलाके में  में तांबे का भंडार है. नए तालिबान अपनी सत्ता चलाने तथा रियाया के लिए रोटी की व्यवस्था करने के लिए धन जुटाना चाहता है. चीन इस के लिए विनियोजन को तैयार है अत: धन कमाने के लिए चीन के सामने तालिबान ने यह पेशकश की है.   

*कैसा  है भारतीयों के प्रति तालिबानों का नजरिया एवं व्यवहार ..!*

इसमें को दो राय नहीं कि अफगानी अवाम एवं स्वयम तालिबान भारत के साथ अपनापन रखते हैं. वे भारतीयों से जिस गर्मजोशी एवं आत्मीयता से मिलते हैं उतनी गर्म जोशी उनके दिल में पाकिस्तानियों के लिए नहीं हैं. हाल में यू ट्यूब पर कुछ भारतीय व्लागर्स के वीडियो देख कर तो यही लगा.

*कुल मिला कर श्री नरेन्द्र मोदी का रूस के राष्ट्रपति पुतिन को दी गई सलाह है जिसमें वे कहते हैं कि – “आज का दौर युद्धों के लिए नहीं है.*  

     


5.6.23

बालासोर रेल हादसा: दुर्घटना या साजिश ?


आलेख : गिरीश बिल्लोरे 
  बालासोर रेल हादसे के बाद चर्चा यह है कि यह हादसा दुर्घटना है अथवा यह किसी साजिश का परिणाम है । लगातार चलने वाले चैनलस, अपना अपना कैलकुलेशन अपने-अपने एंगल से आपके सामने रख रहे हैं । अखबार अपनी अपनी बात अपने अपने तरीके से कह रहे हैं।
    सबको अपनी अपनी बात कहने का हक है परंतु सबको इस बात का ध्यान रखना चाहिए की विषम परिस्थिति में किसी भी तरह का पैनिक जनता के बीच में न फैले।
   इस संबंध में रेलवे  के सुरक्षा आयुक्त द्वारा अपने हिस्से का कार्य पूर्ण किया जा चुका है अथवा नियमानुसार पूर्ण होगा भी ऐसा सबको भरोसा है। परंतु रेलवे बोर्ड की सलाह पर जांच सीबीआई को करने के लिए सौंपा जाना किस बात की संभावना की ओर संकेत है कि-" इस घटना में कोई न कोई संदिग्ध परिस्थिति अवश्य ही उत्पन्न हुई है या आंतरिक सुरक्षा में कोई सेंधमारी की  संभावना व्यक्त की गई है , मीडिया समाचारों की माने तो आगे रेलवे बोर्ड इस घटना की जांच सीबीआई से कराने के लिए प्रस्ताव प्रस्तुत कर रहा है । 
  इसका यह अर्थ भी हो सकता है कि-" मौजूदा टेक्निकल फैलयुर तकनीकी असफलता / किसी न किसी टेंपरिंग या बाहरी हस्तक्षेप से होना संभव माना जा रहा है।" 
  और अगर ऐसा हुआ तो ऐसी घटना विश्व की सबसे व्यवस्थित एवं बड़ी रेल संचालन प्रणाली के लिए खतरे की घंटी है। अर्थात भारतीय रेल परिचालन प्रणाली में आतंकवादी गतिविधियों का प्रवेश संभव है। यह तो भविष्य में स्पष्ट होगा परंतु 8 फरवरी 2023 को मैसूर डिविजन में एक गाड़ी 12649 के कुलीज़न की  ऐसी ही घटना पर समय रहते नियंत्रण करने की जानकारी प्राप्त हुई है। 
यहां बालासोर पहुंचने वाली ट्रेन अपने को छोड़कर लूप लाइन में खड़ी मालगाड़ी वाली ट्रैक पर चली जाती है। जिससे उसके डब्बे एक अन्य मेन लाइन तक बिखर जाते हैं। जिससे कोलकाता जाने वाली एक ट्रेन को गुजारना था। और हुआ वही
बेंगलुरु कोलकाता सुपरफास्ट एक्सप्रेस उस ट्रक से गुजरते समय दुर्घटनाग्रस्त हो गई तथा दुर्घटनाग्रस्त बोगियों में सवार पैसेंजर्स को और अधिक नुकसान पहुंचा।
मालगाड़ी से टकराने वाली पैसेंजर ट्रेन किन कारणों से अपना ट्रैक बदलती है  इस पर अपना मत व्यक्त करते हुए रेल विभाग के एक इंजीनियर सुधांशु मणि बताते हैं कि-
[  ] रेलगाड़ी केवल रेल लाइन की सेटिंग के अनुसार चलती है। ड्राइवर यानी लोको पायलट अपने मन से किसी भी ट्रैक पर गाड़ी को नहीं ले जा सकते।
[  ] यह अवश्य है कि आसन्न खतरे को देखकर रेल ड्राइवर अर्थात लोको पायलट गाड़ी की गति को कम या स्थिर अवश्य कर सकते हैं।
[  ] इस दुर्घटना का प्रारंभिक कारण ट्रेन का मालगाड़ी वाले ट्रैकिंग प्रवेश कर जाना रहा है। वास्तव में ट्रेन लूप लाइन में रेल की पटरी के सेट हो जाने के कारण चली गई। अर्थात पटरी की सेटिंग में किसी भी तरह की मानवीय अथवा यांत्रिकीय त्रुटि के कारण अथवा जानबूझकर किए गए प्रयास से दुर्घटना हुई।
[  ] यह सच है कि-" लूप लाइन में ट्रेन को ले जाने के लिए ड्राइवर को सिग्नल नहीं था। परंतु दुर्घटना के फुटेज देखने से लगता है कि-" ड्राइवर अपनी गाड़ी को रोक पाने में असफल रहे ।
[  ] परंतु अभी तक यह तथ्य सामने नहीं आया है कि-" इनकी गति कितनी थी?" स्टेशनों पर न रुकने वाली ट्रेन की गति के संबंध में विमर्श आवश्यक है।लोको पायलट को भी इसी आधार पर क्लीन चिट नहीं दी जा सकती 
  आंकड़े बताते हैं कि 2017 से 2021 तक भारत में पटरी को छोड़ने के मामले 1127 रिपोर्ट हुए हैं। भारतीय रेल परिचालन व्यवस्था को दुर्घटना रहित बनाने के लिए कवच नामक एक कार्यक्रम को भारतीय रेल बजट में स्थान दिया गया है . यह कार्यक्रम रिसर्च एवं डेवलपमेंट के साथ-साथ उन सभी प्रयासों को लागू करेगा जिससे कुलिजन यानी आमने-सामने की भिड़ंत अथवा अन्य दुर्घटनाओं को रोका जा सके। इस कार्यक्रम में तेजी लाना आवश्यक है।
   अंततः भारत सरकार एवं भारतीय रेल विभाग को सुरक्षा के लिए r&d Research And Development तथा टेक्निकल सपोर्ट देने वाले ऐसे संस्थान की आवश्यकता पर कार्य करना चाहिए जो रेल दुर्घटनाओं को रोक सके। वैज्ञानिकों शोधकर्ताओं को भी इस दिशा में निरंतर काम करने की तथा सरकार को मदद करने की जरूरत है।

   
  

15.5.23

शिक्षा परीक्षा, रुजल्ट पर पत्रकार श्री शम्भूनाथ शुक्ला जी



एक बार अपन ११वीं में लुढ़के और एक बार १२वीं में। क्योंकि साइंस और मैथ्स अपने पल्ले नहीं पड़ती थी। अगर आर्ट्स में होते तो अपन पक्का फर्स्ट क्लास निकल जाते। फिर साइंस से मन उचट गया। लेकिन घर में एक ही रट कि “साइंस नहीं पढ़ी तो क्या घंटा पढ़ा!” 
कुछ दिन पंक्चर जोड़ने की दूकान खोली। नाम रखा, पप्पू पंक्चर। हम गोविंद नगर में CTI के पास बैठते। वहाँ ढाल थी। लोग आते और पंप से हवा ख़ुद भर कर चले जाते। तीन दिन में एक चवन्नी कमाई वह भी खोटी निकली। फिर क़ुल्फ़ी बेची। कुछ में हम टका भरते और पाँच पैसे की बेचते लोगों से कहते कि क़ुल्फ़ी ख़ुद निकालो। दुर्भाग्य कि सारी टका वाली क़ुल्फ़ी ही निकल गईं। पास धेला नहीं आया। फिर बकरमंडी में कार की बैटरी रिचार्ज करने का काम सीखा पर एक दिन छुट्टन मियाँ, जो अपने उस्ताद थे, ने गरम-गरम तारकोल हाथ पर डाल दिया। चमड़ी जल गई। वह भी छोड़ दिया। वहाँ जितना वेतन मिला, उससे बाटा की एक सैंडल ख़रीदी, जो 1973 में 26.99 रुपए की आई थी। इसके बाद दैनिक जागरण में एक बाबू टाइप जॉब निकली, इंटरव्यू के बाद पाया कि किसी अग्र-बाल का चयन हो गया। वेतन 200 रुपए था। तीन साल बाद उसी दैनिक जागरण में मुझे बुला कर सब एडिटर की जॉब दी गई। वेतन 700 रुपए था। 
इसलिए भेड़ की तरह डिग्री लेने से कुछ नहीं होता, बच्चे पर दबाव मत डालो। उसे कुछ मन का करने दो। कम वेतन पाएगा, लेकिन ख़ुश तो रहेगा। हमारे दोस्त लाजपत सेठी के बेटे ने दो-तीन साल पहले एक स्टार्टअप खड़ा किया। आज की तारीख़ में उसका टर्न ओवर 2800 करोड़ का है।
जिनके बच्चे फेल हो गये हों, वे दुःखी न हों। वह हो सकता है उन टॉपर बच्चों से अधिक योग्य निकले, जिनके कल फ़ोटो छपेंगे। न भी निकला तो संतोष करो कि बुढ़ापे में वही श्रवण कुमार बन कर सेवा तो करेगा।

12.5.23

एक सच्चा इंसान : तारेक फतेह

एक सच्चा इंसान : तारेक फतेह
जन्म 20 नवम्बर 1949
कराची, सिंध, पाकिस्तान
मृत्यु 24 अप्रैल 2023 (उम्र 73)
राष्ट्रीयता: कनाडाई
जातीयता: पंजाबी
व्यवसाय- राजनैतिक कार्यकर्ता, लेखक, प्रसारक
तारिक फतेह जी से मेरी ट्विटर पर ही संक्षिप्त बातचीत कुछ ही दिनों पहले शुरू हुई थी अक्सर ट्विटर स्पेस पर उनका मिलना अच्छा लगता था। इतना तो स्पष्ट व्यक्ति कभी भी पाकिस्तान जैसे मुल्क में रह ही नहीं सकता।
वे धर्म के प्रति बेहद तत्व ज्ञानी की तरह थे। और विशेष रुप से पाकिस्तान की जनता के जीवन स्तर उठाने के लिए सतत कोशिशें करते रहे किंतु पाकिस्तान की प्रोआर्मी राज्य प्रबंधन ने उनको ही उठाने के लिए बंदोबस्त कर दिए।
मैं उन पर इसलिए आकर्षित नहीं था कि वे किसी धर्म विशेष के संदर्भ में बात करते हैं बल्कि इस कारण आकर्षित था, क्योंकि  कि वे चाहते थे सांस्कृतिक निरंतरता जब एक सी है तो हमें साथ साथ चलने में क्या आपत्ति है ? 
     सनातनी व्यवस्था के प्रति बेहद सकारात्मक रूप से संवेदनशील थे । 13 अप्रैल से 29 अप्रैल 2023 तक मैं स्वयं परेल मुंबई स्थित ग्लोबल  अस्पताल में आईसीयू में भर्ती था दुनिया में क्या चल रहा है इसकी जानकारी न मिल सकी। बेहद दुख हुआ यह जानकर....
    अनवरत श्रद्धांजलि ओम शांति शांति

11.5.23

केदारनाथ मंदिर : अलौकिक स्थापत्य का नमूना लेखिका पूर्णिमा सनातनी


केदारनाथ मंदिर का निर्माण किसने करवाया था इसके बारे में बहुत कुछ कहा जाता है। पांडवों से लेकर आदि शंकराचार्य तक।
आज का विज्ञान बताता है कि केदारनाथ मंदिर शायद 8वीं शताब्दी में बना था।
यदि आप ना भी कहते हैं, तो भी यह मंदिर कम से कम 1200 वर्षों से अस्तित्व में है।
केदारनाथ की भूमि 21वीं सदी में भी बहुत प्रतिकूल है।
एक तरफ 22,000 फीट ऊंची केदारनाथ पहाड़ी, दूसरी तरफ 21,600 फीट ऊंची कराचकुंड और तीसरी तरफ 22,700 फीट ऊंचा भरतकुंड है।
इन तीन पर्वतों से होकर बहने वाली पांच नदियां हैं मंदाकिनी, मधुगंगा, चिरगंगा, सरस्वती और स्वरंदरी। इनमें से कुछ इस पुराण में लिखे गए हैं।
यह क्षेत्र "मंदाकिनी नदी" का एकमात्र जलसंग्रहण क्षेत्र है। यह मंदिर एक कलाकृति है I कितना बड़ा असम्भव कार्य रहा होगा ऐसी जगह पर कलाकृति जैसा मन्दिर बनाना जहां ठंड के दिन भारी मात्रा में बर्फ हो और बरसात के मौसम में बहुत तेज गति से पानी बहता हो। आज भी आप गाड़ी से उस स्थान तक नही जा सकते I
फिर इस मन्दिर को ऐसी जगह क्यों बनाया गया?
ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में 1200 साल से भी पहले ऐसा अप्रतिम मंदिर कैसे बन सकता है ?
1200 साल बाद, भी जहां उस क्षेत्र में सब कुछ हेलिकॉप्टर से ले जाया जाता है I JCB के बिना आज भी वहां एक भी ढांचा खड़ा नहीं होता है। यह मंदिर वहीं खड़ा है और न सिर्फ खड़ा है, बल्कि बहुत मजबूत है।
हम सभी को कम से कम एक बार यह सोचना चाहिए।
वैज्ञानिक अनुमान लगाते हैं कि यदि मंदिर 10वीं शताब्दी में पृथ्वी पर होता, तो यह "हिम युग" की एक छोटी अवधि में होता।
वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ जियोलॉजी, देहरादून ने केदारनाथ मंदिर की चट्टानों पर लिग्नोमैटिक डेटिंग का परीक्षण किया। यह "पत्थरों के जीवन" की पहचान करने के लिए किया जाता है। परीक्षण से पता चला कि मंदिर 14वीं सदी से लेकर 17वीं सदी के मध्य तक पूरी तरह से बर्फ में दब गया था। हालांकि, मंदिर के निर्माण में कोई नुकसान नहीं हुआ।
2013 में केदारनाथ में आई विनाशकारी बाढ़ को सभी ने देखा होगा। इस दौरान औसत से 375% अधिक बारिश हुई थी। आगामी बाढ़ में "5748 लोग" (सरकारी आंकड़े) मारे गए और 4200 गांवों को नुकसान पहुंचा। भारतीय वायुसेना ने 1 लाख 10 हजार से ज्यादा लोगों को एयरलिफ्ट किया। सब कुछ ले जाया गया। लेकिन इतनी भीषण बाढ़ में भी केदारनाथ मंदिर का पूरा ढांचा जरा भी प्रभावित नहीं हुआ।
भारतीय पुरातत्व सोसायटी के मुताबिक, बाढ़ के बाद भी मंदिर के पूरे ढांचे के ऑडिट में 99 फीसदी मंदिर पूरी तरह सुरक्षित है I 2013 की बाढ़ और इसकी वर्तमान स्थिति के दौरान निर्माण को कितना नुकसान हुआ था, इसका अध्ययन करने के लिए "आईआईटी मद्रास" ने मंदिर पर "एनडीटी परीक्षण" किया। साथ ही कहा कि मंदिर पूरी तरह से सुरक्षित और मजबूत है।
यदि मंदिर दो अलग-अलग संस्थानों द्वारा आयोजित एक बहुत ही "वैज्ञानिक और वैज्ञानिक परीक्षण" में उत्तीर्ण नहीं होता है, तो आज के समीक्षक आपको सबसे अच्छा क्या कहता ?
मंदिर के अक्षुण खड़े रहने के पीछे :
जिस दिशा में इस मंदिर का निर्माण किया गया है व जिस स्थान का चयन किया गया है I
ये ही प्रमुख कारण हैं I 
दूसरी बात यह है कि इसमें इस्तेमाल किया गया पत्थर बहुत सख्त और टिकाऊ होता है। खास बात यह है कि इस मंदिर के निर्माण के लिए इस्तेमाल किया गया पत्थर वहां उपलब्ध नहीं है, तो जरा सोचिए कि उस पत्थर को वहां कैसे ले जाया जा सकता था। उस समय इतने बड़े पत्थर को ढोने के लिए इतने उपकरण भी उपलब्ध नहीं थे। इस पत्थर की विशेषता यह है कि 400 साल तक बर्फ के नीचे रहने के बाद भी इसके "गुणों" में कोई अंतर नहीं है।
आज विज्ञान कहता है कि मंदिर के निर्माण में जिस पत्थर और संरचना का इस्तेमाल किया गया है, तथा जिस दिशा में बना है उसी की वजह से यह मंदिर इस बाढ़ में बच पाया।
केदारनाथ मंदिर "उत्तर-दक्षिण" के रूप में बनाया गया है। जबकि भारत में लगभग सभी मंदिर "पूर्व-पश्चिम" हैं। विशेषज्ञों के अनुसार, यदि मंदिर "पूर्व-पश्चिम" होता तो पहले ही नष्ट हो चुका होता। या कम से कम 2013 की बाढ़ में तबाह हो जाता। लेकिन इस दिशा की वजह से केदारनाथ मंदिर बच गया है।
इसलिए, मंदिर ने प्रकृति के चक्र में ही अपनी ताकत बनाए रखी है। मंदिर के इन मजबूत पत्थरों को बिना किसी सीमेंट के "एशलर" तरीके से एक साथ चिपका दिया गया है। इसलिए पत्थर के जोड़ पर तापमान परिवर्तन के किसी भी प्रभाव के बिना मंदिर की ताकत अभेद्य है।
टाइटैनिक के डूबने के बाद, पश्चिमी लोगों ने महसूस किया कि कैसे "एनडीटी परीक्षण" और "तापमान" ज्वार को मोड़ सकते हैं। 
लेकिन भारतीय लोगों ने यह सोचा और यह 1200 साल पहले परीक्षण किया I
क्या केदारनाथ उन्नत भारतीय वास्तु कला का ज्वलंत उदाहरण नहीं है?
2013 में, मंदिर के पिछले हिस्से में एक बड़ी चट्टान फंस गई और पानी की धार विभाजित हो गई I मंदिर के दोनों किनारों का तेज पानी अपने साथ सब कुछ ले गया लेकिन मंदिर और मंदिर में शरण लेने वाले लोग सुरक्षित रहे I जिन्हें अगले दिन भारतीय वायुसेना ने एयरलिफ्ट किया था।
सवाल यह नहीं है कि आस्था पर विश्वास किया जाए या नहीं। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि मंदिर के निर्माण के लिए स्थल, उसकी दिशा, वही निर्माण सामग्री और यहां तक ​​कि प्रकृति को भी ध्यान से विचार किया गया था जो 1200 वर्षों तक अपनी संस्कृति और ताकत को बनाए रखेगा।
हम पुरातन भारतीय विज्ञान की भारी यत्न के बारे में सोचकर दंग रह गए हैं I शिला जिसका उपयोग 6 फुट ऊंचे मंच के निर्माण के लिए किया गया है कैसे मन्दिर स्थल तक लायी गयी I
आज तमाम बाढ़ों के बाद हम एक बार फिर केदारनाथ के उन वैज्ञानिकों के निर्माण के आगे नतमस्तक हैं, जिन्हें उसी भव्यता के साथ 12 ज्योतिर्लिंगों में सबसे ऊंचा होने का सम्मान मिलेगा।
यह एक उदाहरण है कि वैदिक हिंदू धर्म और संस्कृति कितनी उन्नत थी। उस समय हमारे ऋषि-मुनियों यानी वैज्ञानिकों ने वास्तुकला, मौसम विज्ञान, अंतरिक्ष विज्ञान, आयुर्वेद में काफी तरक्की की थी।

"महाराणा के स्व के लिए भीषण संग्राम और पूर्णाहुति : महाबली हाथी रामप्रसाद"


 इतिहास में प्रचलित पंचांग के अनुसार महा महारथी महाराणा प्रताप की जयंती 9 मई को है परंतु तिथि के अनुसार इस वर्ष 22 मई को मनाई जाएगी।मुगलों के लिए यमराज और हिंदुत्व के सूर्य महाराणा की जयंती के पूर्व आज हल्दीघाटी के युद्ध के एक महायोद्धा - विश्व के सर्वश्रेष्ठ हाथी - महारथी "रामप्रसाद" की याद आ गई। भारतवर्ष सदा से वीरों और वीरांगनाओं की पवित्र भूमि रही है जिसमें विभिन्न प्राणियों ने भी अपनी वीरता के जौहर दिखाए हैं। चतुष्पादों में राणा कर्ण सिंह का घोड़ा शुभ्रक,रानी दुर्गावती का हाथी सरमन, महाराणा प्रताप का हाथी रामप्रसाद और घोड़ा चेतक प्रसिद्ध हैं। यूं तो रामप्रसाद ने महाराणा प्रताप के साथ अनेक युद्ध लड़े थे परंतु हल्दीघाटी का युद्ध रामप्रसाद वीरता का चरमोत्कर्ष था, जो चिरकाल तक अविस्मरणीय रहेगा। 
18 जून को प्रातः हल्दीघाटी में भयंकर मोर्चा खुल गया महाराणा प्रताप के अग्रिम दस्ते ने मुगलों को खमनौर तक खदेड़ा मुगलों में अफरा-तफरी मच गई। पुन:शहजादा सलीम, मान सिंह, सैय्यद बारहा और आसफ खान ने मोर्चा संभाला। शहजादा सलीम और मान सिंह की रक्षार्थ 20 हाथियों ने घेराबंदी कर रखी थी। घेराबंदी तोड़ने के लिए राणा प्रताप ने रामप्रसाद को आगे बढ़ाया अपरान्ह लगभग 12.30 बजे हाथियों का घमासान युद्ध हुआ। शस्त्रों से सुसज्जित रामप्रसाद ने भयंकर रौद्र रुप धारण किया अकबर के 13 हाथियों को अकेले रामप्रसाद ने मार डाला और 7 हाथियों को मोर्चे से हटा दिया गया। इस तरह राणा प्रताप के लिए रामप्रसाद ने शहजादा सलीम और मानसिंह तक पहुंचने का मार्ग खोल दिया। महाराणा प्रताप ने शहजादा सलीम पर भयंकर आक्रमण किया, महावत मारा गया और हौदे पर जबरदस्त भाले का प्रहार किया, शहजादा सलीम नीचे गिर गया जिसे बचाने मान सिंह आया परिणाम स्वरूप मान सिंह की भी वही दुर्गति हुई। शहजादा सलीम और मान सिंह युद्ध भूमि से पलायन कर गए। सैय्यद बारहा और आसफ खां पर राणा पूंजा (पूंजा भील) ने घात लगाकर हमला किया। मुगल सेना हल्दीघाटी से पलायन कर गई और महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी का युद्ध जीत लिया। परंतु दूसरी ओर रामप्रसाद ने शेष हाथियों का पीछा किया और आगे निकल गया परंतु थकान अधिक हो गई थी और महावत भी मारा गया तब 7  हाथियों और 14 महावतों की सहायता से पकड़ा गया। अकबर के इस युद्ध का एक कारण रामप्रसाद हाथी की प्राप्ति भी करना था, परंतु सब व्यर्थ गया अकबर ने इसका नाम पीरप्रसाद रखा और हर प्रकार के मनपसंद खाद्यान्न प्रस्तुत किए परंतु रामप्रसाद ने ग्रहण नहीं किया और इसी अवस्था में 18 दिन बाद रामप्रसाद ने प्राणोत्सर्ग किया। धूर्त अकबर ने स्वयं रामप्रसाद की मृत्यु पर कहा कि "जिसके हाथी को मैं नहीं झुका सका.. उसके स्वामी को क्या झुका सकूंगा"। अंत में यह सत्य ही है कि धन और संपत्ति आएगी भी - जाएगी भी - फिर आएगी, परंतु आत्म सम्मान जाने के बाद कभी लौट कर नहीं आता है। महाराणा प्रताप के स्व के लिए पूर्णाहुति देने वाले महारथी हाथी रामप्रसाद को शत् शत् नमन है
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डॉ. आनंद सिंह राणा,श्रीजानकीरमण महाविद्यालय एवं इतिहास संकलन समिति महाकोशल प्रांत 🙏🙏

10.5.23

स्मृतियों के गलियारों दैनिक पुलका महोत्सव


हमें नहीं मालूम था कि डाइनिंग टेबल क्या होता है। परमिशन से ही मिलती थी बिस्तर पर बैठकर खाने की जो बुखार से पीड़ित होता था। और वह भी एक गहन देखरेख में। केवल दो तरह की दवाई चलती थी कम्युनिटी मेडिसिन के नाम पर एपीसी एवं सल्फर बेस्ड ड्रग #सल्फा_डायजिन फिर बीमार हुए जाता तो पहुंच गए अस्पताल।
फल वालों के यहां वही जाते थे जिनके घर में कोई मरीज होता था। दीवान साहब के यहां शाम कुछ लोग चले आए और पूछने लगे:- सुबह जब मैं अदालत जा रहा था तब आपको मैंने साइकिल पर फल वाले से फल लेते हुए देखा कोई बीमार है क्या दादा जी तो ठीक है न?
   हां भाई सब ठीक है पर दादाजी को डॉक्टर ने बताया है की जरा एप्पल वगैरह खिलाओ। 
एप्पल कैसे खिलाते हो छिलके निकाल के?
जी हां बिल्कुल, ठीक है जैसा डॉक्टर कहीं वैसा चलेगा। दादा जी से मिल लिया जाए बहुत समय तक दादा जी के साथ वकील साहब ने वार्तालाप की और फिर इसके बाद शाम के रात में परिवर्तित होने का अनुभव हुआ।
  स्मृतियों के गलियारों में आपको याद होगा स्कूल के लिए निकलने से पहले मां सब बच्चों को एक लाइन से बिठाकर भोजन कराती। एक घर में कम से कम चार से पांच बच्चे हुआ करते थे हम तो 6 भाई-बहन थे। बड़ी बहन सबसे ज्यादा जिम्मेदार और बड़ा भाई सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण माना जाता था इन दोनों की आज्ञा का पालन करना शेष सभी की बाध्यता थी ।
  हां तुम्हें बता रहा था कि हमारे यहां रोज पुलका महोत्सव मनता था। आपके यहां भी मनता होगा है न..?
कटोरियां थालियों और क्रमबद्ध बैठने की नियमावली एवं व्यवस्था  सबको मालूम हुआ करती थी सबसे छोटा बच्चा मां के सबसे नजदीक होता था।
   तब किचन के पास डाइनिंग हॉल का कोई कॉलम नहीं था । सुविधा की दृष्टि से चल फिर की जगह छोड़कर बच्चों को बराबर संख्या में बांट दिया जाता था। बैठक में भोजन पट्टी और  लकड़ी के पाट मान्य थे। हाथ धोना अनिवार्य था घरेलू वस्त्र पहनना अनिवार्य था बाहर के वस्त्र पहनकर कोई खाना नहीं खा सकता था। अपने आराध्य को स्मरण कर भोजन करने की परंपरा वहीं से सीखी है। 
हमारे घर सुबह का रोटी महोत्सव बेहद जोरदार हुआ करता था। 9:30 तक मां बच्चों को आवाज देने लगती थी। कब उठती थी कब सोती होगी इसका हमें कोई अंदाज ना था। यह जब रोटियां यानी पुलके चूल्हे में नाचते थे न बहुत प्यारे लगते थे। तवों पर भी इनका नृत्य अनोखा हुआ करता था।
   घर में लगी हुई या बाजार से मंगाई गई सब्जियां बड़ी स्वादिष्ट हुआ करती थी। मजेदार माहौल तो जब गोभी का सीजन आता था तब बनता था। रसेदार गोभी की सब्जी गोभी की अपनी खुशबू मां के हाथ की अपनी खुशबू अद्भुत वाह खुशबू का विवरण में लिख नहीं सकता। क्योंकि शब्द हीन हो गया हूं। गुड़ तो मेरी कमजोरी थी जैसे खानपान में सबकी अपनी अपनी कमजोरियां । हां एक ऐलान मैंने जरूर किया था अब इस घर में अगर मूंग की दाल बनी तो मैं बिल्कुल घर से भाग जाऊंगा..!
कहां भागोगे?
वहां जहां अच्छी सब्जी बनती हो।
अच्छा तुम कोई बड़े अफसर बन गए या कोई प्रधानमंत्री बन गए तो क्या करोगे मूंग की दाल कभी किसी ने दी तो नहीं खाओगे क्या ?
माता जी मैं प्रधानमंत्री बना तो मूंग की दाल पर प्रतिबंध लगा दूंगा। और फिर सब के ठहाके गूंज उठे। मैं समझ ना पाया क्या कह गया और फिर मैं भी उनकी हंसी में शामिल हो गया।
  सुबह शाम के *पुलका महोत्सव* मनाती वक्त इस बात का माता जी को विशेष ख्याल रहता था कि कौन कितना खाएगा?
   अपनी छोटी बहन से बोला मैंने बिंदु- मैंने आज एक रोटी और लेनी है।
मां ने जब यह सुना तो कहा- रोज थाली में खाना छोड़ना गलत बात है। खाना मत छोड़ा करो।
मुझे उस दिन उतनी ही रोटियां मिली जितनी में खा सकता था। लेकिन मां तो मां होती है न !
  सब्यसाची मां ने मेरे टिफिन में रोटी की संख्या बढ़ा दी। पता नहीं उन लोगों को डाइटिशियन का कोर्स कौन कराता था।
   स्कूल में पहुंचते ही दो की जगह 3 रोटी देखकर बांछें खिल गई। अब मैं रोटी की कीमत समझने लगा था।
   भारत में हजारों लोग शास्त्री जी के आह्वान को अपने मस्तिष्क में बैठा कर रखते थे जिन्होंने दिया था जय जवान जय किसान का नारा। मां भी अन्न की बर्बादी के लिए बेहद दुखी होती थी अंततः मुझ में वह आदत आ ही गई कि कम से कम थाली में कुछ न छोड़ा जाए।
  1966 में ताशकंद समझौते के बाद एक दिन बाबूजी मां सभी बेहद उदास थे वे बहुत देर बाद समझ में आया कि - मितव्ययिता  पाठ पढ़ाने वाले प्रधानमंत्री जी के निधन के कारण वे दुखी हैं।
     यह तब समझ में आया जब लगभग 10 वर्ष के हो गए।
    हमारा दैनिक पुलका महोत्सव जय किसान के बिना संभव न था। कुल मिलाकर सुबह-शाम के पुलका में मिलने वाले आहार की श्रेष्ठता और खुशबू भले ही अभिव्यक्त करना मुश्किल हो मस्तिष्क में रची बसी है। कैसी लगी मेरी स्मृतियां? टिप्पणी जरूर कीजिए
*गिरीश बिल्लौरे मुकुल*

8.3.23

राजनेताओं के लिए गधे कम पड़ गए थे


जबलपुर में रसरंग बरात का अपना 30 साल पुराना इतिहास है। हम भी नए-नए युवा होने का एहसास दिलाते थे। कार्यक्रमों में येन केन प्रकारेण उपस्थिति और उपस्थिति के साथ अधकचरी कविताएं कभी-कभी सुनाने का जुगाड़ हो जाता था।

देखा देखी हमने भी राजनीति पर व्यंग करना शुरू कर दिया.... सफल नहीं रहे....कहां परसाई जी कहां हम.... कहाँ राजा-भोज कहाँ गंगू तेली,,,!

 हमने अपनी कविताएं जेब में रख ली और अभय तिवारी इरफान झांसी सुमित्र जी  मोहन दादा यानी अपने मोहन शशि भैया की राह पकड़ ली। गीत लिखने लगे शशि जी के गीत गीत गीले नहीं होते बरसात में की तर्ज पर अपनी हताशा दर्ज करती गीत मिले हुए अब के बरसात में और ठिठुरते रहे सावनी रात में..! अथवा सुमित्र जी का गीत “मैं पाधा का राज कुंवर हूं...!”

पूर्णिमा दीदी के गीत अमर दीदी के गीत गहरा असर छोड़ते थे और अभी भी भुलाए नहीं भूलते। बड़े गजब के गीत लिखते हैं सुकुमार से कवि चौरसिया बंधु हमारे अग्रज उस दौर की कविताएं बिल्कुल घटिया न थी।

छंद मर्मज्ञ भाई आचार्य संजीव वर्मा सलिल ने तो गीत रचना में छंद की प्रतिष्ठा को रेखांकित कर दिया था।

जी हां 30-35  बरस पुराना साहित्यिक एनवायरमेंट जबलपुर में वापस नहीं लौटेगा,  कारण क्या है, मुझे नहीं मालूम पर यूनुस अदीब,  पथिक जी रसिक जी कमाल के गीतकार हैं।

आज आप जिनको पत्रकार कहते हैं वह पत्रकार नहीं कवि और गीतकार भी थे जी हां मैं जिक्र कर रहा हूं गंगा पाठक जी का। फैक्ट्री से लौटकर मानसेवी पत्रकार के रूप में गंगा भैया की कविता प्रभावित करने के लिए काफी हुआ करती थी।

पूज्य रामनाथ अग्रवाल जी के घर की गोष्ठी हो या सुमित्र जी के ठिकाने पर आनंद का अनुभव होता था भले ही घर देर से लौटने पर यानी लगभग रात 3 बजे तक लौटने पर कितनी फटकार न मिली हो।

दूसरे दिन अखबारों में अपने नाम को तलाशना हमारा शौक बन गया था। शशि जी ने खूब छापा कवि बना दिया। एक गोष्ठी में शायद वह गोष्टी सुमित्र जी के जन्मदिन पर थी। मेडिकल निवासी गेंदालाल जी सुमित्रा जी को जरी शॉपी उपहार स्वरूप। और कहने लगे माला काहे से बनती है जरी से और फूल से - तो गेंदा हम हैं जा जरी लै लो कमरा उन्मुक्त खिलखिला हट से गूंज गया। तभी  पूज्य मां गायत्री ने खीर खिला दी। सुमित्र जी और शशि जी ने बताया था कि-" कवि गोष्ठियों को कार्यशाला समझा जाना चाहिए।"

 सच में अब कार्यशालाएं नहीं होती। अनेकांत को छोड़कर कोई भी संस्था निरंतर कवि गोष्ठी नहीं करती। मध्यप्रदेश लेखक संघ ने कुछ दिन तक मोर्चा संभाला पर कवियों में भी राजनेता के गुण आ ही जाते हैं कोई बात नहीं मध्य प्रदेश लेखिका संघ ने बहुत दिनों तक इस परंपरा को आगे बढ़ाया।

सूरज भैया का पढ़ने का तरीका और मानवीय संवेदना ओं को उभार कर लिखने की प्रवृत्ति अद्भुत है अद्वितीय है।

गणेश नामदेव जी का डायरी खोलने का स्टाइल अभी तक आंखों के सामने घूमता है। कुछ दिनों बाद तो यह लगने लगा था कि जबलपुर में पुष्प वर्षा करो तो हर तीसरा फूल किसी ना किसी कवि के माथे पर ही लगता है। फिर धीरे-धीरे कहानी मंच मिलन मित्र संघ की यादें ताजा हो रही है।

हिंदी मंच भारती ने भी नए स्वर नए गीत कार्यक्रमों का सिलसिला जारी रखा था। अखंड कवि सम्मेलन इसी जबलपुर में हुआ है। गजब की बात है कि कवियों का टोटा नहीं पड़ा।

उस दौर में समाचार पत्र भी गजब काम करते थे। तब साहित्यकार पत्रकार भी हुआ करते थे अब यदा-कदा अरुण श्रीवास्तव जैसे साहित्यकार पत्रकार की तरह नजर आते हैं।

माटी की गागरिया जैसी कविता लिखने वाले भवानी दादा को कौन भूलेगा। पूजनीय सुभद्रा जी केशव पाठक पन्नालाल श्रीवास्तव नूर के इस शहर में कविता अब कराह रही है ।

ऐसा नहीं है कि बसंत मिश्रा यशोवर्धन पाठक विनोद नयन कोई कोशिश नहीं कर रहे हैं या राजेश पाठक प्रवीण ने कोर कसर छोड़ रखी हो। पर पता नहीं क्या हो गया है वह कार्यशाला नहीं होती जिसे हम गोष्ठी कहते थे। मणि मुकुल जी को भूलना गलत होगा। साधारण सा व्यक्तित्व साधारण सी कविता मणि मुकुल के अलावा बहन गीता गीत भी लिखती हैं तो डॉ संध्या जैन श्रुति ने कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। विनीता पैगवार, रजनी कोठारी

सवाल गंगाचरण से भी है जब लिखते हैं तो अटेंशन पाते हैं जब पढ़ते हैं तो गहरा असर छोड़ते हैं। यूनुस अदीब, संतोष नेमा अभी की कोशिश कर रहे हैं।

    राजनेताओं के लिए गधे कम पड़ गए थे के लिए इंतज़ार कीजिये 



 

1.3.23

सामरिक ताकत बनने से पहले मानव संसाधन का विकास जरूरी है

    कॉलेज के दिनों में बढ़-चढ़कर हम अक्सर निशस्त्रीकरण पर बेहद प्रभावशाली ढंग से अपने विचार रखा करते थे। उस दौर में हमारे मस्तिष्क में भी शस्त्र विहीन राष्ट्र की कल्पना अत्यधिक आदर्शवादी ताकि चलते हावी रहा करती थी।

उन दिनों सैन्य शक्ति के संदर्भ में भरत किसी भी गिनती में नहीं आता था। परंतु हमारे मस्तिष्क में हमेशा ही विश्व की भारत के लिए की जाने वाली चैरिटी का ख्याल बना रहता था। आर्थिक दृष्टि से भारत की विकास दर इतनी धीमी थी जितनी थी चीटियां भी धीमी गति से नहीं चलती। तब हम चिंतित जरूर थे परंतु हताश नहीं । तब भारत कई मोर्चों पर युद्ध रत रहा है। सीमा पर हमेशा चीन और पाकिस्तान की हरकतें देश कौन उत्साह विहीन करने की कोशिश करती रही हैं। दूसरा मुद्दा भारतीय जनता की स्वास्थ्य शिक्षा से संबंधित समस्याएं।

एक और कुपोषण रक्त अल्पता औसत आयु में कमी तथा सामाजिक स्वास्थ्य के गिरते हुए समंक हमारे मस्तिष्क को जब जोड़ देते थे वहीं दूसरी ओर शिक्षा का स्तर भी बेहद शर्मनाक था। सोचिए जब हम अपने जॉब में आए तब भी शिक्षा का स्तर और स्वास्थ्य संबंधी आंकड़ों में कोई उत्साहवर्धक परिणाम नजर नहीं आते थे।

   खेतों में उपस्थित का अनाज अपर्याप्त था।  केयर जैसे संस्थान अमेरिका से प्राप्त खाद्यान्न सहायता के परिवहन का कार्य करती थी। तब यूनिसेफ टीके लगाने के लिए अभी प्रेरक और प्रमुख सहायक एजेंसी के रूप में हमारी के लिए तत्पर हुआ करती थी।

   मेरा चिंतन हमेशा से ही समाज में कुछ धनात्मक देखना चाहता था। इसके पीछे एक कारण है वह कारण जानेंगे तो आप समझ जाएंगे कि मैंने एक खास विभाग में नौकरी करना क्यों पसंद किया। ऐसा नहीं कि मेरे पास विकल्प न रही हों। बहुत सारे विकल्प थे पत्रकारिता वकालत और ढेरों सरकारी नौकरियां। पत्रकारिता में मेरे मित्र आज कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं तो वकालत करने वाले साथियों ने तो हाई कोर्टस में न्यायाधीश का रुतबा हासिल कर दिया है। मुझसे मेरे इंटरव्यू में पूछा गया कि-"आपने यह जॉब क्यों पसंद की?"

मैं जानता नहीं जानता था कि प्रश्न किस उद्देश्य से किया गया? शायद वह समझ रहे होंगे कि- इससे बेहतर अपॉर्चुनिटी मुझे मिल सकती है। मैंने अपनी बैसाखियों   की ओर इशारा करते हुए कहा-" मैडम अगर उस वक्त जब मेरा जन्म हुआ था पल्स पोलियो अभियान चलाया गया होता तो शायद मैं इन बैसाखियों के सहारे नहीं चलता ।  मैंने सोचा नहीं था कि ऐसा मैं कह पाऊंगा।

   पर यही वाक्य शायद उनके हृदय पर गहराई से अंकित हो गया था।

अपनी नौकरी के साथ-साथ लोग सोशियो इकोनामिक डेवलपमेंट के लिए अगर  चिंता करने लगेंगे तो तय है कि किसी ना किसी दिन भर आदर्श स्थिति में नजर आएगा ऐसा उस वक्त भी मेरा मानना था और आज भी यही सोचता हूं।

   काम करते-करते समझ में आता था कि महिलाओं का प्रसूति के दौरान मरना स्वाभाविक प्रक्रिया है आंकड़े रोके नहीं रुक रहे हैं। कई बच्चे तो पहला जन्मदिन भी नहीं बना पा रहे। जब फैमिली प्लानिंग पर किसी को समझा रहा था तब भीड़ में से एक महिला ने ठेठ देहाती भाषा में मुझे डपकते हुए कहा-" बेकार की बातें मत कीजिए साहब, हमारे परिवार में हम यह सब नहीं कर सकते। परिवार में अब तक कोई भी बच्चा 6 महीने या 1 साल से ज्यादा जिंदा नहीं रहा है हम अगर परिवार कल्याण अपना लेंगे तो शायद हमें मुक्ति भी ना मिल पाए?"

   मेरा प्रति प्रश्न था कि क्या आपने घर परिवार में बच्चों के जन्म को लेकर केवल ईश्वर पर भरोसा किया है? उत्तर होना स्वाभाविक था। तब मैंने कहा माताजी अगर आप मुझ पर भरोसा करें आंगनवाड़ी पर भरोसा करें तो शायद इस बार ऐसा ना हो? फिर आप जैसा कहोगी मैं मान लूंगा और यहां तक कह डाला कि-" तुम्हारे साथ चलूंगा सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देने के लिए"

  बात का पूरा पूरा असर हुआ आखिर बुजुर्ग महिला अपने कुल के लिए इससे बेहतर और क्या सोच सकती है। इस परिवार पर मेरी विशेष नजर थी। परिवार में हर गर्भवती के रजिस्ट्रेशन और टाइमली टीकाकरण के साथ-साथ आयरन की गोलियां उपलब्ध कराई जाती थी और उसे नियमित रूप से प्रेगनेंसी पीरियड में खाने की मॉनिटरिंग भी सुनिश्चित कर ली थी ।

    यहां आइए 30 से 35 वर्ष पुराने भारत की तस्वीर है जो मैंने आपको दिखाई। आप देख नहीं पाते क्योंकि विकास केवल ढांचागत आकृतियों में नजर आता है। विकास को देखने का नजरिया सबसे पुख्ता तौर पर किसी भी देश की वाइटल स्टैटिसटिक्स को देखने का नजरिया ही होता है। जन्म दर मृत्यु दर मातृ मृत्यु दर एनीमिया स्कूल ड्रॉपआउट रेट से लेकर कम्युनिटी मेडिसिन और प्रैक्टिसेज देखने वाला मुद्दा है। मेरे मित्र स्वर्गीय डॉक्टर संजय श्रीवास्तव कहा करते थे कि- 10 परसेंट मरीज मेरे हैं 90% आपके ही आप चाहे तो तस्वीर बदलते देर नहीं लगेगी।"

हुआ भी वही परंतु मुझे महसूस हो रहा था कि तस्वीर बदलने में शिक्षा आड़े आती है उन पर पारिवारिक परंपराएं हावी रहती हैं और इस बात का भय भी कि 4 लोग क्या कहेंगे।

   यह चार लोग कौन हैं मैंने तो आज तक नहीं देखा आपने देखा हो तो बताइए। इसका भय हर मन से हटना जरूरी है। बहुत मेहनत मशक्कत लगती है अच्छी परंपराओं को बरकरार रखने और गलत परंपराओं को समाप्त करने में। एक्सक्लूसिव ब्रेस्टफीडिंग एक रामबाण इलाज है परंतु यह मुद्दा भी बड़ी मुश्किल से समझ में आने लगा है। शहरी दंपत्ति खास तौर पर महिलाएं यहां तक कि डॉक्टर्स भी कोलोस्ट्रम वाला दूध पिलवाने के संदेश को तेजी से प्रोत्साहित नहीं करते हैं , बताएगा इस मुद्दे पर झगड़े भी कर लेता था।

  बदलाव के लिए केवल मैं ही जिम्मेदार हूं ऐसा मैं नहीं कह रहा हूं बदलाव के लिए मेरे जैसे लाखों लोग इसमें शामिल है। जो यह जानते हैं कि मानव संसाधन का विकास बिना वाइटल स्टैटिसटिक्स के आंकड़ों में पॉजिटिव सुधार लाए संभव नहीं है। भारत की स्वास्थ्य सेवाओं में गुणवत्ता तभी से नजर आने लगी थी। कोविड-19 के दौरान जब लोग इस बात के लिए घबराए हुए थे कि हम 10 साल में भी टीका लगा पाएंगे या नहीं तब हम जैसे लोग इस मुद्दे पर किसी तरह का मानसिक टेंशन नहीं लेते थे। वजह थी हमारी मजबूत वर्किंग फोर्स।

और उससे भी बड़ी वजह थी व्यवस्था में आपसी तालमेल। स्वास्थ्य आंगनवाड़ी शिक्षा के साथ-साथ सामुदायिक सहयोग का सिंक्रोनाइजेशन कोविड-19 टीकाकरण की सफलता का प्रमुख रहस्य रहा है।

अब जब कुछ दिनों में मैं सरकार से रिटायर हो जाऊंगा तब भी इस परिवर्तन को देखकर अपने आप को सौभाग्यशाली मानूंगा की किस तरह से हमने एक युग को बदलते देखा है।

मेरी मैदानी वर्कर अक्सर दुखी रहा करती थी कि उनके केंद्र पर महिलाएं नहीं आती। हमने एक प्रयोग शुरु कर दिया और आपस में थोड़ा बहुत चंदा किया तथा हर गर्भवती महिला की गोद भरने की रस्म प्रारंभ की गई। हम महिला को यह बताने में सफल रही थे कि-" हमारा मैदानी केंद्र आपके लिए पिता का घर है।" 

  इंस्टीट्यूशनल डिलीवरी तक महिलाओं को उनके ससुराल में बांध कर रखना मेरी कल्पना थी। और इस परिकल्पना को आकार देने में हमारे विभाग की कमिश्नर श्रीमती कल्पना श्रीवास्तव एवं सबके लिए प्रिय एवं आदरणीय आईएएस अधिकारी श्री ने इस योजना को पूरे प्रदेश में लागू कर दिया।

    यह एक निजी इनीशिएटिव था जो आगे चलकर विराट रूप लेने वाला था इसका मुझे और मेरी टीम को ज्ञान नहीं था। हमारी केंद्र एक सांस्कृतिक आकर्षण पैदा कर सके जिससे हम अपनी बात पुख्ता तौर पर कहने के लिए समर्थ हो चुके थे।

   ऐसा मशीनें नहीं करती हैं मशीनें सटीक काम तो करती है लेकिन संवेदना एवं सुविधाओं के साथ नहीं।

   हां मुझे याद आ रहा है जब बीसीजी की वाइल खोलने के लिए 4 बच्चों का होना जरूरी होता था। इस सिस्टम को खत्म करने के लिए जोरदार तरीके से हम लोगों ने अपनी बातें स्टेट सेमिनार में रखी। इससे यूनिफॉर्म इम्यूनाइजेशन कार्यक्रम को ताकत मिली और उम्र के पहले वर्ष में लगने वाले टीके समय पर लगने लगे। पोलियो के मामलों पर भारत ने जिस तरह से चक्रव्यूह रच दिया है उसका तोड़ स्वयं विश्व स्वास्थ्य संगठन के पास भी न होगा क्योंकि भारत के पास मानव संसाधन का एक विराट कोर्स उपलब्ध है।

   इस आर्टिकल का उद्देश्य केवल यही है कि अगर आप भारत को विश्व गुरु के रूप में देखना चाहते हैं तो  बारीकी से सामाजिक चिंतन की जरूरत है। यूं ही नहीं हो जाता है socio-economic डेवलपमेंट।

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Is everything predestined ? Dr. Salil Samadhia

आध्यात्मिक जगत के बड़े से बड़े प्रश्नों में एक है  - क्या सब कुछ पूर्व निर्धारित है ?  (Is everything predestined ? ) यदि हां , तॊ...