10.5.23

स्मृतियों के गलियारों दैनिक पुलका महोत्सव


हमें नहीं मालूम था कि डाइनिंग टेबल क्या होता है। परमिशन से ही मिलती थी बिस्तर पर बैठकर खाने की जो बुखार से पीड़ित होता था। और वह भी एक गहन देखरेख में। केवल दो तरह की दवाई चलती थी कम्युनिटी मेडिसिन के नाम पर एपीसी एवं सल्फर बेस्ड ड्रग #सल्फा_डायजिन फिर बीमार हुए जाता तो पहुंच गए अस्पताल।
फल वालों के यहां वही जाते थे जिनके घर में कोई मरीज होता था। दीवान साहब के यहां शाम कुछ लोग चले आए और पूछने लगे:- सुबह जब मैं अदालत जा रहा था तब आपको मैंने साइकिल पर फल वाले से फल लेते हुए देखा कोई बीमार है क्या दादा जी तो ठीक है न?
   हां भाई सब ठीक है पर दादाजी को डॉक्टर ने बताया है की जरा एप्पल वगैरह खिलाओ। 
एप्पल कैसे खिलाते हो छिलके निकाल के?
जी हां बिल्कुल, ठीक है जैसा डॉक्टर कहीं वैसा चलेगा। दादा जी से मिल लिया जाए बहुत समय तक दादा जी के साथ वकील साहब ने वार्तालाप की और फिर इसके बाद शाम के रात में परिवर्तित होने का अनुभव हुआ।
  स्मृतियों के गलियारों में आपको याद होगा स्कूल के लिए निकलने से पहले मां सब बच्चों को एक लाइन से बिठाकर भोजन कराती। एक घर में कम से कम चार से पांच बच्चे हुआ करते थे हम तो 6 भाई-बहन थे। बड़ी बहन सबसे ज्यादा जिम्मेदार और बड़ा भाई सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण माना जाता था इन दोनों की आज्ञा का पालन करना शेष सभी की बाध्यता थी ।
  हां तुम्हें बता रहा था कि हमारे यहां रोज पुलका महोत्सव मनता था। आपके यहां भी मनता होगा है न..?
कटोरियां थालियों और क्रमबद्ध बैठने की नियमावली एवं व्यवस्था  सबको मालूम हुआ करती थी सबसे छोटा बच्चा मां के सबसे नजदीक होता था।
   तब किचन के पास डाइनिंग हॉल का कोई कॉलम नहीं था । सुविधा की दृष्टि से चल फिर की जगह छोड़कर बच्चों को बराबर संख्या में बांट दिया जाता था। बैठक में भोजन पट्टी और  लकड़ी के पाट मान्य थे। हाथ धोना अनिवार्य था घरेलू वस्त्र पहनना अनिवार्य था बाहर के वस्त्र पहनकर कोई खाना नहीं खा सकता था। अपने आराध्य को स्मरण कर भोजन करने की परंपरा वहीं से सीखी है। 
हमारे घर सुबह का रोटी महोत्सव बेहद जोरदार हुआ करता था। 9:30 तक मां बच्चों को आवाज देने लगती थी। कब उठती थी कब सोती होगी इसका हमें कोई अंदाज ना था। यह जब रोटियां यानी पुलके चूल्हे में नाचते थे न बहुत प्यारे लगते थे। तवों पर भी इनका नृत्य अनोखा हुआ करता था।
   घर में लगी हुई या बाजार से मंगाई गई सब्जियां बड़ी स्वादिष्ट हुआ करती थी। मजेदार माहौल तो जब गोभी का सीजन आता था तब बनता था। रसेदार गोभी की सब्जी गोभी की अपनी खुशबू मां के हाथ की अपनी खुशबू अद्भुत वाह खुशबू का विवरण में लिख नहीं सकता। क्योंकि शब्द हीन हो गया हूं। गुड़ तो मेरी कमजोरी थी जैसे खानपान में सबकी अपनी अपनी कमजोरियां । हां एक ऐलान मैंने जरूर किया था अब इस घर में अगर मूंग की दाल बनी तो मैं बिल्कुल घर से भाग जाऊंगा..!
कहां भागोगे?
वहां जहां अच्छी सब्जी बनती हो।
अच्छा तुम कोई बड़े अफसर बन गए या कोई प्रधानमंत्री बन गए तो क्या करोगे मूंग की दाल कभी किसी ने दी तो नहीं खाओगे क्या ?
माता जी मैं प्रधानमंत्री बना तो मूंग की दाल पर प्रतिबंध लगा दूंगा। और फिर सब के ठहाके गूंज उठे। मैं समझ ना पाया क्या कह गया और फिर मैं भी उनकी हंसी में शामिल हो गया।
  सुबह शाम के *पुलका महोत्सव* मनाती वक्त इस बात का माता जी को विशेष ख्याल रहता था कि कौन कितना खाएगा?
   अपनी छोटी बहन से बोला मैंने बिंदु- मैंने आज एक रोटी और लेनी है।
मां ने जब यह सुना तो कहा- रोज थाली में खाना छोड़ना गलत बात है। खाना मत छोड़ा करो।
मुझे उस दिन उतनी ही रोटियां मिली जितनी में खा सकता था। लेकिन मां तो मां होती है न !
  सब्यसाची मां ने मेरे टिफिन में रोटी की संख्या बढ़ा दी। पता नहीं उन लोगों को डाइटिशियन का कोर्स कौन कराता था।
   स्कूल में पहुंचते ही दो की जगह 3 रोटी देखकर बांछें खिल गई। अब मैं रोटी की कीमत समझने लगा था।
   भारत में हजारों लोग शास्त्री जी के आह्वान को अपने मस्तिष्क में बैठा कर रखते थे जिन्होंने दिया था जय जवान जय किसान का नारा। मां भी अन्न की बर्बादी के लिए बेहद दुखी होती थी अंततः मुझ में वह आदत आ ही गई कि कम से कम थाली में कुछ न छोड़ा जाए।
  1966 में ताशकंद समझौते के बाद एक दिन बाबूजी मां सभी बेहद उदास थे वे बहुत देर बाद समझ में आया कि - मितव्ययिता  पाठ पढ़ाने वाले प्रधानमंत्री जी के निधन के कारण वे दुखी हैं।
     यह तब समझ में आया जब लगभग 10 वर्ष के हो गए।
    हमारा दैनिक पुलका महोत्सव जय किसान के बिना संभव न था। कुल मिलाकर सुबह-शाम के पुलका में मिलने वाले आहार की श्रेष्ठता और खुशबू भले ही अभिव्यक्त करना मुश्किल हो मस्तिष्क में रची बसी है। कैसी लगी मेरी स्मृतियां? टिप्पणी जरूर कीजिए
*गिरीश बिल्लौरे मुकुल*

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