फिल्मों को लेकर मुझे एक बात याद आ रही है । 1982 की बात है मेरी मित्र स्वर्गीय डॉक्टर उषा त्रिपाठी ने बताया था भविष्य में सिनेमा की दुर्गति हो जानी है। मैं चाहती थी कि फिल्मों का संक्षिप्तीकरण हो मसाला फिल्म है न बने और मौलिक कहानियों पर फिल्मों का निर्माण हो। अत्यधिक मसालेदार फिल्मों के कारण हुआ भी यही अब तो स्थिति यह है कि -"न तो गाने लंबे समय तक जिंदा रहते हैं न ही फिल्में परंतु रंगमंच एक ऐसा माध्यम है - जहां मंचित सभी घटनाएं बहुत गहराई से असर करती हैं। जहां तक मेरा सवाल है मुझे कभी भी सहजता महसूस नहीं हुई किसी नाटक को देखकर। दुर्गावती पर अरुण दादा की स्क्रिप्ट, सुभद्रा कुमारी चौहान पर चतुर्वेदी जी की कलम ऐसी चली मैंने उस समय की यात्रा का एहसास भी किया है। मैं चकित था बॉबी देखकर पर आश्चर्यचकित कब हुआ जब भोपाल में मेरे सीनियर ऑफिशियलस आंखों से झरते हुए आंसूओं को रुमाल से सुखाते देखे गए थे। संस्कारधानी को सेल्यूट करता हूं रंग साधकों को नमन करता हूं पोस्ट विलंब से लिखी क्योंकि जिंदगी के साथ भी कुछ नाटक लगे होते हैं। अब सरकार और संस्कृति विभाग से अनुरोध है कि सच्चे और ईमानदार रंग कर्मियों को ही भरपूर वित्तीय मदद दें, ताकि थिएटर जिंदाबाद रहे वैसे तो थिएटर जिंदाबाद था है और रहेगा।
29.3.23
हैप्पी थिएटर डे
रंगमंच की वास्तविकता को देखते हुए दुख होने लगा है। अत्यधिक मेहनत महंगी प्रॉपर्टी प्रोत्साहन और समीक्षाओं की कमी के साथ-साथ कलाकारों तथा उनके माता-पिताओं की अत्यधिक महत्वाकांक्षा के दौर में हैप्पी थिएटर डे कहने से केवल फॉर्मेलिटी ही पूरी हो सकती है ?
सच मानिए तो थिएटर अगर जिंदा है तो केवल और केवल जिद्दी लोगों के कारण जो फकीरी में मदमस्त रहने के आदी हैं।
यह अलग बात है कि रंगमंच का उपयोग सामान्य रूप से राजनीतिक प्रतिबद्धता के लिए किया जा रहा है। यह बड़ा प्रभावकारी तरीका है। हरा भगवा सफेद नीला पीला हररंग की अपनी बोली अपना नैरेटिव और अपना पक्ष होता है। फिर भी सब अपने-अपने दर्शक जुटा ही लेते हैं।
बावजूद इसके रंगमंच जिंदा है यह खुशी की बात है। क्योंकि भारत के डेमोक्रेटिक सिस्टम की यही खूबसूरती है कि सबको सब स्वीकार्य है। मेरे हिसाब से थिएटर को अपने पाठ्यक्रम में कुछ और बदला लाना चाहिए। कुछ बदलाव हमने देखे। जैसे वॉइस ओवर पर एक्ट करना लाइव म्यूजिक का प्रयोग करना। थिएटर वजनदार होता है असरदार होता है। परंतु इसकी एक सीमा होनी चाहिए कि कहीं कथानक से मंचन भटका हुआ नजर ना आने लगे। फिर भी यह तय है कि तकनीकी के विकास के साथ नई-नई तकनीकी को शामिल करना आवश्यक होगा। और इससे दर्शकों की संख्या भी बढ़ेगी।
हो सकता है कि आप सहमत न हों ! आप की सहमति से मुझे तब तक फर्क नहीं पड़ेगा जब तक कि आप तथ्यपरक बातें ना करें। वैसे उम्मीद कम है, कि लोग इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार करेंगे। एक और सत्य में आपके सामने लाना चाहता हूं वह है रिपोर्टिंग अखबारों में उतना स्पेस नहीं मिलता जितना कि मिलना चाहिए। परंतु न्यू मीडिया के दौर में सब कुछ हमारे हाथ में है हम किसी भी नाटक की समीक्षा गंभीरता से कर सकते हैं।
वैसे पिछले वर्ष मैंने अपने विचारों में थिएटर को परिभाषित कर दिया था। भाई संजय गर्ग के साथ हुई मीटिंग हम यह निष्कर्ष निकाल पाए अगर बच्चों के व्यक्तित्व में ओवरऑल ट्रांसफॉरमेशन करना है माता-पिता अगर चाहे तो पर्सनालिटी डेवलपमेंट के लिए बच्चों को थिएटर में डाल सकते हैं।
दुर्भाग्यवश थिएटर आने वाला हर न्यू कमर अपने आपको एक कल्ट में बांध लेता है। उसे एक मौलिक कलाकार के रूप में साधना करनी जरूरी है। निर्देशक की झिड़की भी सुनना चाहिए.. यही प्रक्रिया है यही सफलता का प्रवेश द्वार है।
अब आप ही बताइए जो व्यक्ति आवरण से आच्छादित है वह सर्वज्ञ है तो सोचिए उस व्यक्ति की साधना इतनी कमजोर होगी।
पता नहीं ब्रह्मा ने भरतमुनि को नाट्यशास्त्र के भविष्य का पता ठिकाना दिया था या नहीं। परंतु ऐसा लग रहा है कि सिनेमा ने थिएटर पर भरपूर आक्रमण किया है।
भरतमुनि को सिनेमा के संदर्भ में तनिक भी आभास न था ।
परंतु अब दर्शक बोर हो रहे हैं क्योंकि उसमें जड़ता चुकी है और कहानियों में मौलिकता का अभाव है। जब नाटो नाटो गीत को अवार्ड मिला तो लगा कि क्या आज तक हिंदी फिल्म में आज तक कोई ओरिजिनल गीत नहीं बना? ऐसा नहीं है जरूर बने होंगे परंतु या तो उन तक यह गीत नहीं पहुंच पाए अथवा फॉर्मेट में कुछ बदलाव अवश्य हुआ है।
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2 टिप्पणियां:
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Bahut hi shandaar rachna
thanks for sharing
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