28.2.22

शून्न्य से शिखर पर जाया जाता है ना कि एकदम शिखर पर कोई भी चढ़ा है आज तक...?


कल्पनाएं शिखर पर ले जा सकती है। भौतिक रूप से कोई भी शिखर पर पहली सीधी से ही चढ़ता है। कुछ लोग सोचते हैं कि वो एकदम आकाश में बादलों की तरह छा जाएं और बरसने लगे। भला कैसे संभव है बादल भी तो शून्य से बनते हैं। आप बनती हैं पानी की अथाह जल राशि से और कण कण व्याप्त भाप बन जाते हैं बादल। और फिर बरसते हैं शीतलता भरी बरसात का यही कारण है। शिखर से तो पत्थर लुढ़कते हैं सड़कें जाम हो जाती हैं। उल्कापात हो सकता है परंतु जमीन से आकाश को कवर करने की एक परियोजना होती है पानी की पानी जो समंदर से भाप में बदलता है और फिर वही तो बरसता है?
   हम अपने जीवन में यही गलती करते हैं और एकदम से छलांग लगाते हैं आकाश को छू लेने के लिए क्यों? चलो शून्य से शिखर की यात्रा शुरू करें चलो सागर मंथन करें बात आपको अच्छी लगेगी बहुत अच्छा कहा सिर्फ इतना मत कहिए एक बार महसूस कर लीजिए। 
*ॐ राम कृष्ण हरि:*

"भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का प्रवेश द्वार 16000 वर्ष ईसा पूर्व..! आन लाइन रिलीज़ महाशिवरात्री 1 फरवरी 2022 "

    (ShriHind Prakashan Ujjain )
भारत का सांस्कृतिक विकास कब और कैसे हुआ और किसने किया...? यह आज तक अनुत्तरित सवाल है। मैक्समूलर जैसे पश्चिमी विचारकों ने भारत के प्राचीन इतिहास को ईसा के 1500 वर्ष तक सीमित कर दिया । जो मेरी दृष्टि में  सर्वथा भारत वर्ष के साथ एक अन्यायपूर्ण कार्य रहा है । उदाहरण के लिए अवगत होवें कि –“जिस नदी के तटों पर वेद श्रुति के रूप में विद्वत जन द्वारा लिखे गए वह  सरस्वती नदी की  विलुप्ति 10000 वर्ष पूर्व हो चुकी थी जबकि विदेशी विचारक और भारतीय साहित्यकार क्रमश: श्रीयुत रामधारी सिंह जी दिनकर एवं यायावर बुद्धिष्ट विद्वान श्री राहुल सांकृत्यायन ने भी मैक्समूलर जी के सुर में सुर मिलाते हुए हमारी सभ्यता के विकासानुक्रम को ईसा के 1500 साल पूर्व तक सीमित किया है ।” इतना ही नहीं  श्रीयुत रामधारी सिंह जी दिनकर जी ने अपनी कृति “संस्कृति के चार अध्याय में तो राम को लोक कथाओं का नायक सिद्ध किया है ।” 
श्रीयुत विष्णु श्रीधर वाकणकर जी ने मध्यप्रदेश की नर्मदा घाटी एवं भारत में जीवन  की मौजूदगी 1.75 लाख साबित कर चुके हैं ।  
 इन सभी सवालों के जवाब जानने इस पुस्तक को लिखा है ।  ताकि हम जान सकें कि  हमने अपना विकास कब  और  कैसे किया ? 
इस पुस्तक में भारत के वैभवशाली सांस्कृतिक विकास का विवरण भी दर्ज है। 
आजकल  हम-आप नासा के हवाले से कई बातें कहते हैं परंतु हमारे पूर्वज सूर्य सिद्धांतों  के आधार पर नक्षत्र विज्ञान की व्याख्या करते हुए भविष्य की घटनाओं जैसे ऋतु परिवर्तन ग्रहण, ग्रहों का संरेखण, नक्षत्रों की स्थिति का अध्ययन एवं परिणाम बता देते थे । कम लोग ही जानते होंगे कि- सबसे सटीक सूर्य सिद्धांत किसने लिखा ? इस सूर्य सिद्धांत (नक्षत्र-विज्ञान) के लेखक मयासुर नामक असुर प्रजाति के विद्वान थे। यही नक्षत्र विज्ञान का अद्भुत ज्ञान का भंडार निमिष निमिष का हिसाब देता था। बेचारे गैलीलियो को तो  बड़ी जद्दोजहद के बाद सिद्ध कर पाए कि  पृथ्वी गोल है लेकिन इसके पहले ही पौराणिक कथाओं में  वराह का विवरण दर्ज़ हो चुका था । आपने यकीनन   वराह के चित्र पर गेंद पृथ्वी गोल की आकृति देखी ही होगी यानी भारतीय नक्षत्र विज्ञान हजारों हजारों वर्ष पहले तय कर चुका था कि पृथ्वी गोल है।
अखंड भारत में  ज्ञान विज्ञान के तमाम बिंदुओं एवं विषयों के पूर्व आज से लगभग 1.75 से 1.5 लाख वर्ष पहले ही मानव की उत्पत्ति हो चुकी थी तथा ईसा के 16000 वर्ष पूर्व सभ्यता का विकास होने लगा था । 
  सांस्कृतिक विकास यात्रा   ज्ञान 4000 या 5000 साल पुराना नहीं है बल्कि भारत की सभ्यता का विकास लाखों  वर्ष पहले भारत में ही हुआ है और सांस्कृतिक विकास 16000 वर्ष ईसा पूर्व हुआ है। मेरे कृति "भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का प्रवेश द्वार 16000 वर्ष ईसा पूर्व..!" ऐसे ही कई बिन्दुओं एवं विषयों पर केन्द्रित है ।   
यह पुस्तक आन लाइन मार्केटिंग साइट्स  पर  01 मार्च 2022 से उपलब्ध होगी । इसकी प्री बुकिंग भी संभव है।  
गिरीश बिल्लोरे मुकुल
girishbillore@gmail.com
9479756905

25.2.22

Will Ukraine Russia war be the shortest?



Russia wants to return to its Soviet condition. Putin wants the old situation to be restored to what the world saw in 1991.
The US and the NATO Alliance together are not going to do anything in this matter.
  The United States does not, under any circumstances, support any form of military action other than sanctions.Going to war with Russia would be equivalent to opening the window to a world war.At the time of writing these lines, US President Joe Biden has made harsh remarks regarding interference on freedom and sovereignty
  Russia's four big banks and important products may be banned, but it is clear that Europe is in this war, fearful of energy, especially petrol, which goes through pipelines from Russia to Europe
    In this small war, there appears to be a mutual vested interest between Russia, America as well as many other countries in Europe.
  It is certain that Ukraine cannot survive with Russia for more than 1  or 2days without any outside help.In such a situation, the war can take a very short period of time.
   The negative consequences of this war can be seen immediately in the countries around , Ukraine like slovakia, Lithuania etc.
Here was the legality and illegality of the war, but there is no position to comment at the moment, but it is true that the thinking of Russia has proved to be expansionist.
Meanwhile, the concern of about 20000 Indians is haunting the Government of India.Till the time of writing of these lines, the Government of India is planning to relocate citizens to other countries by road other than by air.
Honey is not ready to give up on Ukraine's army chief and foreign minister Putin. Ukraine has made it clear the spirit of fighting till the last breath.
    Although Ukraine is diligently engaged in defending its existence, but the situation has changed due to the absence of NATO in the war.
Overall, this war is definitely small but will raise very big questions, which will put not only the Russian leadership but America in the dock in solving it.
Shortest War of the world
The Anglo-Zanzibar War was a military conflict fought between the United Kingdom and the Zanzibar Sultanate on 27 August 1896. The conflict lasted between 38 and 45 minutes, marking it as the shortest recorded war in history.

23.2.22

Gateway to Indian Civilization and Culture 16000 BCE Prelaunch Review Vedio on YouTube by Amit Parnami





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22.2.22

महाशिवरात्रि 1 मार्च 2022 को रिलीज़ होगी : "भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के प्रवेशद्वार :16000 ईसा पूर्व "

 


भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के प्रवेशद्वार :16000 ईसा पूर्व 
श्री राम एवं श्री कृष्ण मिथक न थे
 

भारतीय सभ्यता कब शुरू हुई आर्य कौन थे भारत का सांस्कृतिक विकास कैसे हुआ और किसने कियाइन सभी सवालों के जवाब आपको जानने चाहिए न ssss....!  सच्चे भारतीय को अपने भारतीय होने पर गौरव होना ही चाहिए ! गौरव तब आप महसूस करेंगे जब आप जानेंगे कि ने  आपने अपना विकास कैसे किया

यह जानने के लिए आपको चाहिए कि आप उन किताबों का अध्ययन करें जिनमें भारत के वैभव शाली सांस्कृतिक विकास का विवरण दर्ज है। भारत को जानने के लिए चीन सेंट्रल एशिया पुर्तगाल  यूनान जाने कहां-कहां से लोग उन दिनों आया करते थे जब आने जाने के लिए हवाई यात्रा संभव न थी जी हां हम भारतीयों के पास गणित था राजनीति,समाजशास्त्र , रसायन शास्त्र ,चिकित्सा शास्त्र, अर्थशास्त्र, साहित्य संगीत का ज्ञान का भंडार था था। आज आप और हम नासा के हवाले से कई बातें कहते हैं परंतु हमारे पूर्वज सूर्य सिद्धांत के आधार पर नक्षत्र विज्ञान की व्याख्या करते थे । जानते हैं सूर्य सिद्धांत किसने लिखा सूर्य सिद्धांत के लेखक मयासुर नामक असुर प्रजाति के विद्वान थे। यही नक्षत्र विज्ञान का अद्भुत ज्ञान का भंडार निमिष निमिष का हिसाब देता था। गैलीलियो बड़ी जद्दोजहद के बाद सिद्ध कर पाएगी पृथ्वी गोल है लेकिन वराह के चित्र पर आपने गेंद जैसी गोल पृथ्वी की आकृति देखी होगी यानी भारतीय नक्षत्र विज्ञान हजारों हजारों वर्ष पहले तय कर चुका था कि पृथ्वी गोल है।

मैं अपने दर्शकों को बता दूं कि - भारत ज्ञान विज्ञान के तमाम बिंदुओं के अलावा सांस्कृतिक विकास यात्रा में भी सर्वोपरि रहा है। हमारा ज्ञान 4000 या 5000 साल पुराना नहीं है बल्कि भारत की सभ्यता का विकास लाखो वर्ष पहले भारत में ही हुआ है और सांस्कृतिक विकास 16000 वर्ष ईशा पूर्व हुआ है। यह मैं नहीं कह रहा हूं यह कह रही है सामाजिक विचारक चिंतक कवि लेखक गिरीश बिल्लोरे की कृति 

"भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का प्रवेश द्वार 16000 वर्ष ईसा पूर्व..!"

यह पुस्तक अमेजॉन फ्लिपकार्ट तथा किंडल पर  01 मार्च 2022 से उपलब्ध होगी। अमेजॉन पर भारतीय पाठक प्री रिलीज आर्डर किए जा सकते हैं। विदेशी पाठक किंडल पर ही अमेजॉन के जरिए पुस्तक बुक कर सकते हैं। तो भारत को समझना है और उस पर गौरव करना है तो इस कृति को अवश्य पढ़िए

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23.1.22

1939 का जबलपुर एवं नेताजी सुभाष चन्द्र बोस : डा आनंद राणा इतिहासकार

 

1944 में अगर भारत आज़ाद मान लिया जाता तो देश की दशा कुछ और ही होती ऐसा सबका मानना है । उनको भारत की  स्वतन्त्रता भीख में नहीं साधिकार चाहिए थी । एक सच्चे राष्ट्रभक्त ने जगाई थी राष्ट्र प्रेम की वो ज्योति जो हरेक भारतीय के मानस पर आज भी दैदीप्यमान है । आइये जानते हैं उनका का रिश्ता था शहर जबलपुर से जानते हैं इतिहास वेत्ता श्री आनंद राणा के शब्दों में । पेंसिल स्कैच के लिए डा अर्चना शर्मा का आभार   
                     भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महानायक महा महारथी सुभाष चंद्र बोस को सन्
1939 में जबलपुर के पवित्र तीर्थ त्रिपुरी में भारत का शीर्ष नेतृत्व मिला था। भारत देश के युवा और प्रौढ़ प्रतिनिधियों ने गाँधी जी के नेतृत्व को नकार दिया था। जबलपुर में नेताजी सुभाष चंद्र बोस का 4 बार शुभ आगमन हुआ और यहीं त्रिपुरी अधिवेशन से नेताजी सुभाष चंद्र बोस की स्व के लिए विजय और उसकी प्राप्ति का शुभारंभ हुआ था।

नेताजी सुभाष चंद्र बोस का प्रथम बार 22 दिसंबर 1931 से 16 जुलाई 1932 तक (जबलपुर सेंट्रल जेल में प्रथम प्रवास लगभग 6 माह 25 दिन) , द्वितीय बार 18 फरवरी 1933 से 22 फरवरी 1933 तक (जबलपुर सेंट्रल जेल में द्वितीय प्रवास 4 दिन का प्रवास) , तृतीय बार 5 मार्च 1923 से 11 मार्च 1939 (त्रिपुरी अधिवेशन में जबलपुर में 7 दिन का प्रवास) एवं चतुर्थ बार 4 जुलाई 1939 को अपने अंतिम प्रवास पर आए थे।

रेखा चित्र श्री राममनोहर सिन्हा

सच तो ये था कि, महात्मा गाँधी के असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन की असफलता से लोग विशेषकर युवा विचलित गए थे और वह अब सुभाष बाबू के साथ जाना चाहते थे, इसलिए सन् 1938 में हरिपुरा कांग्रेस में सुभाष चंद्र बोस विजयी रहे।


सन् 1939 में कांग्रेस में अध्यक्ष पद के चुनाव को लेकर गहरे संकट के बादल घुमड़ने लगे थे। महात्मा गांधी नहीं चाहते थे कि अब सुभाष चंद्र बोस अध्यक्ष पद के लिए खड़े हों, इसलिए उन्होंने कांग्रेस के सभी शीर्षस्थ नेताओं को नेताजी सुभाष चंद्र बोस के विरुद्ध चुनाव में खड़े होने के लिए कहा परंतु सुभाष चंद्र बोस के विरुद्ध अध्यक्ष पद हेतु लड़ने के लिए जब कोई भी तैयार नहीं हुआ तब महात्मा गांधी ने पट्टाभि सीतारमैया को अपना प्रतिनिधि बनाकर चुनाव में खड़े करने का निर्णय लिया ताकि दक्षिण भारत के प्रतिनिधियों का पूर्ण समर्थन मिल सके।


सन् 1939 में नर्मदा के पुनीत तट पर त्रिपुरी में कांग्रेस के 52 वें अधिवेशन को लाने के लिए जबलपुर के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों सेठ गोविंद दास, पंडित द्वारका प्रसाद मिश्र, ब्यौहार राजेंद्र सिंहा, पंडित भवानी प्रसाद तिवारी, सवाईमल जैन और श्रीमती सुभद्रा कुमारी चौहान आदि का विशेष योगदान रहा है।


शाश्वत त्रिपुरी तीर्थ क्षेत्रांतर्गत तिलवारा घाट के पास विष्णुदत्त नगर बनाया गया।इस नगर में बाजार, भोजनालयों व चिकित्सालयों की व्यवस्था की गई। जल प्रबंधन हेतु 90 हजार गैलन की क्षमता वाला विशाल जलकुंड बनाया गया। अस्थाई रूप से टेलीफोन और बैंक तथा पोस्ट ऑफिस की व्यवस्था की गई। दस द्वार बनाए गए। बाजार का नाम झंडा चौक रखा गया था।


जनवरी सन् 1939 से ही जबलपुर में कांग्रेस के प्रतिनिधि आने लगे थे। अंततः 29 जनवरी को सन् 1939 को मतदान हुआ और परिणाम अत्यंत विस्मयकारी आए। 1580वोट नेताजी सुभाष चंद्र बोस को मिले और महात्मा गाँधी व अन्य सभी के प्रतिनिधि पट्टाभि सीतारमैय्या को 1377 ही वोट मिल पाये। इस तरह नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने महात्मा गांधी के प्रतिनिधि पट्टाभि सीतारमैया को 203 वोट के अंतर से हरा दिया और गाँधी जी ने इसे अपनी व्यक्तिगत हार के रुप में स्वीकार कर लिया। चूँकि अब नेतृत्व हाथ से निकल गया था इसलिए दुबारा नेतृत्व कैंसे हाथ में लिया जाये। फिर क्या था? ऐंसी चालें चली गयीं जिससे इतिहास भी शर्मिंदा है!


गाँधी जी ने तत्कालीन विश्व की राजनीति का सबसे घातक बयान दिया पट्टाभि की हार मेरी (व्यक्तिगत) हार है। गाँधी जी जान गये थे, कि देश की युवा पीढ़ी और नेतृत्व सुभाष चन्द्र बोस के हाथ में चला गया है अब क्या किया जाए? इसलिए उक्त कूटनीतिक बयान दिया गया.। अब त्रिपुरी काँग्रेस अधिवेशन में पट्टाभि की हार को गाँधी जी ने अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था।


5 मार्च को 52 वें अधिवेशन में नेताजी की विजय पर 52 हाथियों का जुलूस निकाला गया, नेताजी अस्वस्थ थे इसलिए रथ पर उनकी एक बड़ी तस्वीर रखी गई थी।

10 मार्च सन् 1939 को तिलवारा घाट के पास विष्णुदत्त नगर में 105 डिग्री बुखार होने बाद भी नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अपना वक्तव्य दिया जिसे उनके बड़े भाई श्री शरतचंद्र बोस ने पूर्ण किया। इस दिन 2 लाख स्वतंत्रता के दीवाने उपस्थित रहे यह अपने आप में एक अभिलेख है।

महात्मा गांधी ने अधिवेशन को केवल अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बनाया था वरन् उन्हें और उनके समर्थकों को यह स्पष्ट हो गया था कि अब देश का नेतृत्व उनके हाथों से निकल गया है, इसलिए कांग्रेस की कार्य समितियों ने सुभाष चंद्र बोस के साथ असहयोग किया (यह अलोकतांत्रिक था, परंतु गांधी जी का समर्थन था और यही तानाशाही भी)। साथ ही सुभाष बाबू को गांधी जी के निर्देश पर काम करने के लिए कहा गया जबकि अध्यक्ष सुभाष चंद्र बोस थे।

10 मार्च सन् 1939 को त्रिपुरी अधिवेशन में संबोधित करते हुए सुभाष बाबू ने अपना मंतव्य रखा कि अब अंग्रेजों को 6 माह का अल्टीमेटम किया जाए वह भारत छोड़ दें। इस बात पर गांधी जी और उनके समर्थकों के हाथ पांव फूल गए उधर अंग्रेजों को भी भारी तनाव उत्पन्न हो गया। इसलिए एक गहरी संयुक्त चाल के चलते नेताजी सुभाष चंद्र बोस का असहयोग कर विरोध किया गया।

अंततः नेताजी सुभाष चंद्र बोस सुभाष बाबू ने कांग्रेस अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया।त्याग पत्र के उपरांत स्व का चरमोत्कर्ष हुआ। त्रिपुरी अधिवेशन में 10 मार्च सन् 1939 को उन्होंने अपने भाषण में यह कहा था कि द्वितीय विश्व युद्ध आरंभ होने के संकेत मिल रहे हैं इसलिए यही सही समय है कि अंग्रेजों से आर-पार की बात की जाए। परंतु गांधी जी और उनके समर्थकों ने विरोध किया। सच तो यह है कि सुभाष बाबू की बात मान ली गई होती तो देश 7 वर्ष पहले आजाद हो जाता और विभाजन की विभीषिका नहीं देखनी पड़ती।

सन् 1940 में व्यथित होकर नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की, परंतु बरतानिया सरकार ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया तब सुभाष चंद्र बोस ने आमरण अनशन का दृढ़ संकल्प व्यक्त किया। इसलिए ब्रिटिश सरकार ने उन्हें डर कर मुक्त कर दिया।तदुपरांत जनवरी 1941 को सुभाष चंद्र बोस वेश बदलकर कोलकाता से काबुल, मास्को होते हुए जर्मनी पहुंच गए जहां पर हिटलर से मिलने के उपरांत जापान से तादात्म्य स्थापित कर सिंगापुर पहुंचे। आजाद हिंद फौज के महानायक बने।

5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के टाउन हाल के सामने सुप्रीम कमाण्डर के रूप में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जी ने सेना को सम्बोधित करते हुए दिल्ली चलो! का नारा दिया और जापानी सेना के साथ मिलकर बर्मा सहित आज़ाद हिन्द फ़ौज रंगून (यांगून) से होती हुई थलमार्ग से भारत की ओर बढ़ती हुई.

18 मार्च सन 1944 ई. को कोहिमा और इम्फ़ाल के भारतीय मैदानी क्षेत्रों में पहुँच गई और ब्रिटिश व कामनवेल्थ सेना से जमकर मोर्चा लिया। बोस ने अपने अनुयायियों को जय हिन्द का अमर नारा दिया और 21 अक्टूबर 1943 में सुभाषचन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फौज के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से सिंगापुर में स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार आज़ाद हिन्द सरकार की स्थापना की। उनके अनुयायी प्रेम से उन्हें नेताजी कहते थे।

आज़ाद हिन्द फ़ौज का निरीक्षण करते सुभाष चन्द्र बोस अपने इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा सेनाध्यक्ष तीनों का पद नेताजी ने अकेले संभाला। इसके साथ ही अन्य जिम्मेदारियां जैसे वित्त विभाग एस.सी चटर्जी को, प्रचार विभाग एस.ए. अय्यर को तथा महिला संगठन लक्ष्मी स्वामीनाथन को सौंपा गया। उनके इस सरकार को जर्मनी, जापान, फिलीपीन्स, कोरिया, चीन, इटली, मान्चुको और आयरलैंड ने मान्यता दे दी।

जापान ने अंडमान व निकोबार द्वीप इस अस्थायी सरकार को दे दिये। नेताजी उन द्वीपों में गये और उनका नया नामकरण किया। अंडमान का नया नाम शहीद द्वीप तथा निकोबार का स्वराज्य द्वीप रखा गया। 30 दिसम्बर 1943 को इन द्वीपों पर स्वतन्त्र भारत का ध्वज भी फहरा दिया गया। इसके बाद नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने सिंगापुर एवं रंगून में आज़ाद हिन्द फ़ौज का मुख्यालय बनाया।

4 फ़रवरी 1944 को आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजों पर दोबारा भयंकर आक्रमण किया और कोहिमा, पलेल आदि कुछ भारतीय प्रदेशों को अंग्रेजों से मुक्त करा लिया।21 मार्च 1944 को दिल्ली चलो के नारे के साथ आज़ाद हिंद फौज का हिन्दुस्तान की धरती पर आगमन हुआ।

        22 सितम्बर 1944 को शहीदी दिवस मनाते हुये सुभाषचन्द्र बोस ने अपने सैनिकों से मार्मिक शब्दों में कहा हमारी मातृभूमि स्वतन्त्रता की खोज में है। तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा। यह स्वतन्त्रता की देवी की माँग है।

जापान की पराजय के उपरांत नेताजी सुभाष चंद्र बोस वास्तविकता से अवगत होने के लिए हवाई जहाज जापान रवाना हुए 18 अगस्त सन् 1945 फारमोसा में विमान दुर्घटना में मृत घोषित कर दिया गया परंतु यह सच नहीं था और अब प्रमाण भी सामने आ रहे हैं। बावजूद इसके नेताजी सुभाष चंद्र बोस और उनकी आजाद हिंद फौज की स्व के लिए पूर्णाहुति ही बरतानिया सरकार से भारत की स्वाधीनता के लिए राम बाण प्रमाणित हुई।

यह मत प्रवाह कि उदारवादियों ने स्वाधीनता दिलाई बहुत ही हास्यास्पद सा लगता है क्योंकि सन् 1940 में द्विराष्ट्र सिद्धांत की घोषणा हुई और भारत के विभाजन पर संघर्ष मुखर हो गया था, परिस्थितियां विपरीत बनती गईं, विभाजन को लेकर तथाकथित राष्ट्रीय आंदोलन बिखर गया था।

स्वाधीनता का श्रेय लेने वाला उदारवादी दल बिखर गया था और वह जिन्ना को नहीं संभाल पाया। अंततोगत्वा भारत के विभाजन को लेकर हिंदू मुस्लिम विवाद आरंभ हुए और बरतानिया सरकार के विरुद्ध संग्राम लगभग समाप्त हो गया था।

सन् 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन ने 3 माह में ही दम तोड़ दिया था तो दूसरी ओर विभाजन तय दिखने लगा था। ऐंसी परिस्थिति में महात्मा गांधी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए थे और बाद में विनाशकारी निर्णय में सम्मिलित भी हो गए।

सन् 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हुआ और उसके उपरांत इंग्लैंड में लेबर पार्टी की सरकार बनी। इंग्लैंड के प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने जून 1948 तक भारत छोड़ने की घोषणा की परंतु विभाजन कर, एक वर्ष पूर्व ही अंग्रेजों ने 15 अगस्त सन् 1947 में भारत छोड़ दिया। यह सन् 1956 तक बहुत ही रहस्यमय बना रहा कि आखिर ऐंसा क्या हो गया था? कि ब्रिटानिया सरकार ने 1 वर्ष पूर्व ही भारत छोड़ दिया।

इस रहस्य का खुलासा सन् 1956 में क्लीमेंट एटली ने किया, जब वे सेवानिवृत्त होने के बाद कलकत्ता आए, वहां पर गवर्नर ने एक भोज के दौरान उनसे पूंछा कि आखिरकार ऐसी कौन सी हड़बड़ी थी कि आपने 1 वर्ष पहले ही भारत छोड़ दिया, तब क्लीमेंट एटली ने जवाब दिया कि सन् 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के असफल हो जाने के बाद महात्मा गांधी हमारे लिए कोई समस्या नहीं थे, परंतु नेताजी सुभाष चंद्र बोस और उनकी आजाद हिंद फौज के कारण भारतीय सेना ने हमारे विरुद्ध विद्रोह कर दिया था। तत्कालीन भारत के सेनापति अचिनलेक ने अपने प्रतिवेदन में सन् 1946 में जबलपुर से थल सेना के सिग्नल कोर के विद्रोह, बंबई से नौसेना का विद्रोह, करांची और कानपुर से वायु सेना के विद्रोह का हवाला देते हुए स्पस्ट कर दिया था कि अब भारतीय सेना पर हमारा नियंत्रण समाप्त हो रहा है जिसका तात्पर्य है कि अब भारत पर और अधिक समय तक शासन करना असंभव होगा, और यदि शीघ्र ही यहां से हम लोग वापस नहीं गए तो बहुत ही विध्वंस कारी परिस्थितियां निर्मित हो सकती हैं और यही विचार अन्य विचारकों का भी था। इसलिए हमने 1 वर्ष पूर्व ही भारत छोड़ दिया परंतु भारतीय इतिहास में सेनाओं के स्वाधीनता संग्राम को विद्रोह का दर्जा देकर दरकिनार कर दिया गया।

स्वाधीनता के अमृत महोत्सव पर यह श्रेय नेताजी सुभाष चंद्र बोस और उनकी आजाद हिंद फौज के साथ भारतीय सेना को ही जाना चाहिए। यह गौरतलब है कि माउंटबेटन और एडविना ने जो अपनी डायरियाँ लिखी थीं, वे वसीयत के अनुसार इंग्लैंड के एक विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में सुरक्षित कराई थीं, हाल ही में इंग्लैंड में एक पत्रकार ने सूचना के अधिकार के अंतर्गत इनकी जानकारी मांगी है, तथा एक पुस्तक “one life many loves” शीघ्र ही प्रकाशित होने वाली है, परंतु इंग्लैंड की सरकार, दबाव बना रही है, कि माउंटबेटन की डायरियों का खुलासा ना किया जाए क्योंकि यदि माउंटबेटन और एडविना की डायरियों का खुलासा हुआ तो बहुत से उदारवादी निर्वस्त्र हो जाएंगे और सत्ता के लिए संघर्ष का भी आईना साफ हो जाएगा।

आशा करते हैं कि बहुत जल्दी ही यह पुस्तक प्रकाशित होकर सामने आएगी।भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अद्भुत और अद्वितीय महा महारथी अमर बलिदानी श्रीयुत नेताजी सुभाष चंद्र बोस को स्व की विजय और प्राप्ति के लिए चिरकाल तक जाना जाएगा। नेताजी सुभाष चंद्र बोस का अवदान वर्तमान और भावी पीढ़ी को सदैव याद दिलाता रहेगा कि मैं रहूं या न रहूं, मेरा ये देश भारत रहना चाहिए

!!जय हिंद!!

       आलेख
डॉ. आनंद सिंह राणा

 


 

16.1.22

कहानी आचार्य चंद्रमोहन जैन लेखक पंडित सुरेंद्र दुबे

ओशो की आलोचना क्यों? इस प्रश्न का उत्तर स्वयं ओशो में छिपा है। वह यह कि ओशो अपने समय के सबसे बड़े आलोचक थे। कोई ऐसे-वैसे आलोचक नहीं बल्कि बड़े ही सुतार्किक समालोचक। जिन्होंने कुछ भी अनक्रिटिसाइज़्ड नहीं रहने दिया। उन्होंने अपनी सदी ही नहीं बल्कि पूर्व की सदियों तक में व्याप्त विद्रूपताओं पर जमकर कटाक्ष किया। उनके बेवाक वक्तव्यों में अतीत और वर्तमान ही नहीं भविष्य के सूत्र भी समाहित होते थे। यही उनकी दूरदर्शिता थी, जो उन्हें कालजयी बनाती है। उन्होंने निर्भीकतापूर्वक परम्परागत धर्मों की जड़ों पर वज्रप्रहार तक से गुरेज़ नहीं किया। इस वजह से कट्टरपंथियों-रूढिवादियों का भयंकर विरोध भी झेला। राजनीति व राजनीतिज्ञों का खुलकर माखौल उड़ाया।जिसके कारण उच्च पदासीनों की वक्रदृष्टि तक पड़ी। जिससे ओशो कभी विचलित नहीं हुए। वे किसी त्रिकाल-दृष्टा की भाँति अडिग भाव से अपने पथ पर बढते चले गए। कभी न तो विरोधियों की परवाह की, न ही समर्थकों को मनमानी करने दी। वस्तुत: उनका अपना आत्मानुशासन था, जिसके बावजूद स्वातंत्र्य उनका मूल स्वर था। जरा देखिए, उन्होंने कितनी अद्भुत देशना दी- "सम्पत्ति से नहीं,स्वतंत्रता से व्यक्ति सम्राट बनता है, मेरे पास मैं हूँ, इससे बड़ी कोई सम्पदा नहीं।" इतने महान ओशो की समालोचना का भार मैंने अपने कान्धों पे उठाया है। यह कोई आसान कार्य नहीं। आपको सिर्फ ओशो की समालोचना को पढते रहना है, यही मेरे श्रम का उपयुक्त मूल्य है।
जगत के ओशो, जबलपुर के आचार्य रजनीश, जो 19 जनवरी 1990 को शाम 5 बजे तक देह में थे। चूँकि आत्मा अजर-अमर-अविनाशी है, अत: देह से मुक्त हो जाने के बावजूद उनके अब भी अस्तित्व में बरकरार होने से इनकार नहीं किया जा सकता। कमोवेश यह ओशो का ही नहीं बल्कि प्रत्येक व्यक्ति का सत्य है। क्योंकि सभी मूलत: सिर्फ शरीर नहीं चिरन्तन शाश्वत आत्मतत्व हैं। आत्मा ठीक वैसे ही अनादि है, सदा से है और सदा रहेगी जैसे परमात्मा और ब्रह्मांड का भौतिक रहस्य अर्थात प्रकृति। इसलिए जाने वाले के प्रति जैसे शोक व्यर्थ है, वैसे ही मोह भी। ऐसा इसलिए क्योंकि मोहजनित 'राग' ही 'बन्धन' का कारण है, जबकि 'विराग' ही 'मुक्ति' का साधन। जो देहमुक्त होकर चले गए भावुक मनुष्य द्वारा प्रेम के वशीभूत उनका पुण्य-स्मरण करते रहना स्वाभाविक सी बात है, किन्तु मोह व राग का बना रहना घातक है। मेरे विचार से सच्चा प्रेम वही है, जो राग रहित हो, जिसका आधार मोह न हो। प्रेम तो बस प्रेम हो, सहज, सरल, निश्छल। ऐसा होने पर ही वह प्रेमी और प्रेमपात्र दोनों के लिए मुक्ति का कारक बनेगा अन्यथा बन्धन। आध्यात्मिक दृष्टि से मुक्ति के लिए इस अहम सूत्र को गहराई से समझना, स्मरण रखना और आचरण में उतारना अति आवश्यक है। फिर दोहराए देता हूँ कि प्रेम और राग में मूलभूत विभेद है, प्रेम मुक्ति का जबकि राग बन्धन का कारण बनता है। आज देखता हूँ कि ओशो जैसी विराट देशना के अध्येता और उनकी ध्यान विधियों के अनुरुप साधनारत देश-दुनिया में फैले करोडों संन्यासी 'ओशोवादी' होने जैसी संकीर्ण मनोवृत्ति के शिकार हो गए हैं। यह सब देख कर मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं है, क्योंकि जिन ओशो ने अपनी शरण में आने वाले आध्यात्मिक रुप से प्यासे व्यक्तियों से उनका जन्मजात पुराना धर्म-जाति आदि परिचय एक झटके में छीनकर 'नए मनुष्य' की संरचना के लिए अभूतपूर्व 'नव-संन्यास' दिया, वे भी उसी अतत: उसी मूढ़ता के शिकार हो गए हैं, जिसके विरोध में बीसवीं सदी के सम्बुद्ध रहस्यदर्शी ओशो सामने आए थे। ओशो ने 'साधक' और 'परमात्मा' के बीच से धर्म-अध्यात्म के ठेकेदारों को हटाने का क्रान्तिकारी कारनामा किया था। यह स्वच्छ-ताजी हवा का एक अतीव आनंददायक झौंका था। लेकिन उनके देहमुक्त होते ही ओशो के अधिकारी स्वयं वही करने लगे आजीवन ओशो जिसके मुखालिफ रहे। दुर्भाग्य ये कि ओशोवाद, ओशोधर्म, ओशोसम्प्रदाय जैसी संकीर्णता सिर उठा चुकी है। ओशो के दीवाने-परवाने-मस्ताने अपने दिल-दिमाग की खिड़कियां, गवाक्ष, वातायन सभी द्वार बन्द किए हुए हठधर्मी सा हास्यास्पद व्यवहार करने लगे हैं। वे पूरी तरह आश्वस्त से हो गए हैं कि अब ओशो से बेहतर 'बुद्ध-पुरुष' का उद्भव इस पृथ्वी पर असम्भव है। ओशो ही भूतो न भविष्यति थे, किस्सा खत्म। हम ओशो कृपाछत्र के तले आत्मज्ञान अर्जन की साधना में रत रहकर सम्बुद्ध होने में जुटे रहें, इस तरह ओशो की धारा के सम्बुद्ध बढ़ते रहें, कोई स्वतंत्र बुद्ध अब मुमकिन नहीं। ओशो के सील-ठप्पे के बिना बुद्धत्व का सर्टिफिकेट मान्य नहीं होगा। सर्वाधिकार सुरक्षित। कॉपीराइट हमारा। खबरदार! किसी ने एकला चलो रे गीत गुनगुनाने की हिमाकत की तो वह मिसफिट करार दे दिया जाएगा, उसकी आध्यात्मिक साधना प्रश्नवाचक हो जाएगी।
ओशो एक इंटरनेशनल ब्रांड हैं, जो जबलपुर से उछाल मारकर देश-दुनिया में छा गए। जबलपुर को अपनी जिन विशेषताओं पर नाज है, नि:संदेह उनमें वे प्रथम पंक्ति में आते हैं। तीस साल पहले देह मुक्त हो चुकने के बावजूद वे आज भी अपने विचारों के जरिए जीवन्त बने हुए हैं। वीडियो में उनको बोलते देखा जा सकता है। ऑडियो में उनकी आवाज़ सुनी जा सकती है। किताबों में उनकी बातें पढ़ी जा सकती हैं। तस्वीरों में उनके दर्शन किए जा सकते हैं। स्मार्ट मोबाइल में एक क्लिक पर उनके विचार जाने जा सकते हैं। इन सभी तरीकों से लोग उनसे जुड़ सकते हैं। उनके विचारों से प्रेरणा ग्रहण कर सकते हैं। यह बाहरी स्तर की बात है। आन्तरिक स्तर में ओशो कम्यून व विभिन्न ओशो आश्रम आते हैं। साधारण जिज्ञासुओं द्वारा भी इसमें ध्यान के लिए प्रवेश किया जा सकता है। कमलपत्रवत नृत्य उत्सव-महोत्सव का आनंद लिया जा सकता है। ओशो लायब्रेरी की सदस्यता लेकर किताबें पढ़ी जा सकती हैं। ओशो जगत के बाहरी व आन्तरिक स्तर के बाद एक तीसरा स्तर आता है, जहाँ लोग अनुयायी बन जाते हैं। आध्यात्मिक प्यास, ऊहापोह भरी मानसिक अवस्था, ओशो-प्रेम के ज्वर, स्व-प्रेरणा या फिर किसी ओशोवादी से प्रभावित या वशीभूत होकर संन्यास ले लेते हैं। हालांकि ज्यादातर ओशो वर्ल्ड का ग्लैमर भी उसका हिस्सा बन जाने की एक बड़ी वजह होता है। यहाँ वह सब आसानी से मुहैया हो सकता है, जो बाहर समाज में पा लेना अपेक्षाकृत कठिन है। इस तरह के लोग बिना गहरी प्यास के मरूंन चोला और ओशो की तस्वीर वाली माला धारण कर लेते हैं। यहीं से घर कर जाती है-संकुचन की बीमारी। जो त्रासदी की भूमिका बनती है। अब ओशो-रंग दिल-दिमाग में इस कदर छा जाता है कि परमात्मा विस्मृत सा हो जाता है। ओशो के प्रति घनीभूत प्रेम शीघ्र ही कट्टर ओशो-भक्त बना देता है। स्वयं की सोच-समझ और स्वविवेक गुजरे जमाने की चीज़ होकर रह जाते हैं। रही सही कसर ओशो-जगत में सहजता से उपलब्ध दैहिक-आकर्षण पूरी कर देता है। इस तरह अधिकतर संन्यासी 'गए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास' की विडम्बना के शिकार हो जाते हैं। आत्मज्ञान या सम्बोधि की बात दूर छिटक जाती है, ध्यान-योग से पहले मन भटकाव के बियावान जंगल में दाखिल हो जाता है। जोरबा के चक्कर में बुद्धा हवा हो जाता है। नया मनुष्य दूर की बात है, पुराना मनुष्य और पुराना होकर आदमी की क्षुद्र हैसियत में जकड़ देता है। आखिर में न खुदा मिला न बिसाले सनम यानि न घर के रहे न घाट के वाली त्रिशंकु अवस्था हो जाती है। सिर्फ ओशो-ओशो की जुगाली करते रहना ही शेष रह जाता है। स्वयं के स्तर पर नई खोज का रास्ता बन्द सा हो जाता है। मौलिक सोच-समझ शून्य हो जाती है। विडम्बनाग्रस्त मरूंन चोला-मालाधारी व्यक्ति ओशो-साहित्य की चलती-फिरती प्रदर्शनी मात्र रह जाता है। वह बिजूका सरीखा नज़र आने लगता है। यह सब इसलिए होता है, क्योंकि ओशो की पारस-देशना के मर्म को सतह से नीचे उतर कर तलहटी तक छू पाने में असमर्थ अभागा अनुयायी कभी सोना नहीं बन सकता।

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