23.2.22
Gateway to Indian Civilization and Culture 16000 BCE Prelaunch Review Vedio on YouTube by Amit Parnami
22.2.22
महाशिवरात्रि 1 मार्च 2022 को रिलीज़ होगी : "भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के प्रवेशद्वार :16000 ईसा पूर्व "
भारतीय सभ्यता कब शुरू हुई आर्य कौन थे भारत का सांस्कृतिक विकास कैसे हुआ और किसने किया? इन सभी सवालों के जवाब आपको जानने चाहिए न ssss....! सच्चे भारतीय को अपने भारतीय होने पर गौरव होना ही चाहिए ! गौरव तब आप महसूस करेंगे जब आप जानेंगे कि ने आपने अपना विकास कैसे किया ?
यह जानने के लिए आपको चाहिए कि आप उन
किताबों का अध्ययन करें जिनमें भारत के वैभव शाली सांस्कृतिक विकास का विवरण दर्ज
है। भारत को जानने के लिए चीन सेंट्रल एशिया पुर्तगाल यूनान जाने कहां-कहां से लोग उन दिनों आया करते थे जब आने जाने के
लिए हवाई यात्रा संभव न थी जी हां हम भारतीयों के पास गणित था राजनीति,समाजशास्त्र ,
रसायन शास्त्र ,चिकित्सा शास्त्र,
अर्थशास्त्र, साहित्य संगीत का ज्ञान का भंडार था था। आज आप और हम नासा के हवाले
से कई बातें कहते हैं परंतु हमारे पूर्वज सूर्य सिद्धांत के आधार पर नक्षत्र
विज्ञान की व्याख्या करते थे । जानते हैं सूर्य सिद्धांत किसने लिखा सूर्य
सिद्धांत के लेखक मयासुर नामक असुर प्रजाति के विद्वान थे। यही नक्षत्र विज्ञान का
अद्भुत ज्ञान का भंडार निमिष निमिष का हिसाब देता था। गैलीलियो बड़ी जद्दोजहद के
बाद सिद्ध कर पाएगी पृथ्वी गोल है लेकिन वराह के चित्र पर आपने गेंद जैसी गोल
पृथ्वी की आकृति देखी होगी यानी भारतीय नक्षत्र विज्ञान हजारों हजारों वर्ष पहले
तय कर चुका था कि पृथ्वी गोल है।
मैं अपने दर्शकों को बता दूं कि -
भारत ज्ञान विज्ञान के तमाम बिंदुओं के अलावा सांस्कृतिक विकास यात्रा में भी
सर्वोपरि रहा है। हमारा ज्ञान 4000
या 5000 साल पुराना नहीं है
बल्कि भारत की सभ्यता का विकास लाखो वर्ष पहले भारत में ही हुआ है और सांस्कृतिक
विकास 16000 वर्ष ईशा पूर्व हुआ है। यह मैं नहीं
कह रहा हूं यह कह रही है सामाजिक विचारक चिंतक कवि लेखक गिरीश बिल्लोरे की कृति
"भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का प्रवेश द्वार 16000 वर्ष ईसा पूर्व..!"
यह पुस्तक अमेजॉन फ्लिपकार्ट तथा
किंडल पर 01 मार्च 2022 से उपलब्ध होगी।
अमेजॉन पर भारतीय पाठक प्री रिलीज आर्डर किए जा सकते हैं। विदेशी पाठक किंडल पर ही
अमेजॉन के जरिए पुस्तक बुक कर सकते हैं। तो भारत को समझना है और उस पर गौरव करना
है तो इस कृति को अवश्य पढ़िए
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23.1.22
1939 का जबलपुर एवं नेताजी सुभाष चन्द्र बोस : डा आनंद राणा इतिहासकार
नेताजी सुभाष चंद्र बोस का प्रथम बार 22 दिसंबर 1931 से 16 जुलाई 1932 तक (जबलपुर सेंट्रल जेल में प्रथम प्रवास लगभग 6 माह 25 दिन) , द्वितीय बार 18 फरवरी 1933 से 22 फरवरी 1933 तक (जबलपुर सेंट्रल जेल में द्वितीय प्रवास 4 दिन का प्रवास) , तृतीय बार 5 मार्च 1923 से 11 मार्च 1939 (त्रिपुरी अधिवेशन में जबलपुर में 7 दिन का प्रवास) एवं चतुर्थ बार 4 जुलाई 1939 को अपने अंतिम प्रवास पर आए थे।
रेखा चित्र श्री राममनोहर सिन्हा
सच तो ये था कि, महात्मा गाँधी के असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन की असफलता से लोग विशेषकर युवा विचलित गए थे और वह अब सुभाष बाबू के साथ जाना चाहते थे, इसलिए सन् 1938 में हरिपुरा कांग्रेस में सुभाष चंद्र बोस विजयी रहे।
सन् 1939 में कांग्रेस में अध्यक्ष पद के चुनाव को लेकर
गहरे संकट के बादल घुमड़ने लगे थे। महात्मा गांधी नहीं चाहते थे कि अब सुभाष चंद्र
बोस अध्यक्ष पद के लिए खड़े हों, इसलिए उन्होंने कांग्रेस के
सभी शीर्षस्थ नेताओं को नेताजी सुभाष चंद्र बोस के विरुद्ध चुनाव में खड़े होने के
लिए कहा परंतु सुभाष चंद्र बोस के विरुद्ध अध्यक्ष पद हेतु लड़ने के लिए जब कोई भी
तैयार नहीं हुआ तब महात्मा गांधी ने पट्टाभि सीतारमैया को अपना प्रतिनिधि बनाकर
चुनाव में खड़े करने का निर्णय लिया ताकि दक्षिण भारत के प्रतिनिधियों का पूर्ण
समर्थन मिल सके।
सन् 1939 में नर्मदा के पुनीत तट पर त्रिपुरी में
कांग्रेस के 52 वें अधिवेशन को लाने के लिए जबलपुर के
स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों सेठ गोविंद दास, पंडित द्वारका
प्रसाद मिश्र, ब्यौहार राजेंद्र सिंहा, पंडित भवानी प्रसाद तिवारी, सवाईमल जैन और श्रीमती
सुभद्रा कुमारी चौहान आदि का विशेष योगदान रहा है।
शाश्वत त्रिपुरी तीर्थ क्षेत्रांतर्गत तिलवारा घाट के पास
विष्णुदत्त नगर बनाया गया।इस नगर में बाजार, भोजनालयों
व चिकित्सालयों की व्यवस्था की गई। जल प्रबंधन हेतु 90 हजार
गैलन की क्षमता वाला विशाल जलकुंड बनाया गया। अस्थाई रूप से टेलीफोन और बैंक तथा
पोस्ट ऑफिस की व्यवस्था की गई। दस द्वार बनाए गए। बाजार का नाम झंडा चौक रखा गया
था।
जनवरी सन् 1939 से ही जबलपुर में कांग्रेस के प्रतिनिधि आने लगे
थे। अंततः 29 जनवरी को सन् 1939 को
मतदान हुआ और परिणाम अत्यंत विस्मयकारी आए। 1580वोट नेताजी
सुभाष चंद्र बोस को मिले और महात्मा गाँधी व अन्य सभी के प्रतिनिधि पट्टाभि
सीतारमैय्या को 1377 ही वोट मिल पाये। इस तरह नेताजी सुभाष
चंद्र बोस ने महात्मा गांधी के प्रतिनिधि पट्टाभि सीतारमैया को 203 वोट के अंतर से हरा दिया और गाँधी जी ने इसे अपनी व्यक्तिगत हार के रुप
में स्वीकार कर लिया। चूँकि अब नेतृत्व हाथ से निकल गया था इसलिए दुबारा नेतृत्व
कैंसे हाथ में लिया जाये। फिर क्या था? ऐंसी चालें चली गयीं
जिससे इतिहास भी शर्मिंदा है!
गाँधी जी ने तत्कालीन विश्व की राजनीति का सबसे घातक बयान दिया “पट्टाभि की हार मेरी (व्यक्तिगत) हार है”। गाँधी जी जान गये थे, कि देश की युवा पीढ़ी और नेतृत्व सुभाष चन्द्र बोस के हाथ में चला गया है अब क्या किया जाए? इसलिए उक्त कूटनीतिक बयान दिया गया.। अब त्रिपुरी काँग्रेस अधिवेशन में पट्टाभि की हार को गाँधी जी ने अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया था।
5
मार्च को 52 वें अधिवेशन में नेताजी की विजय
पर 52 हाथियों का जुलूस निकाला गया, नेताजी
अस्वस्थ थे इसलिए रथ पर उनकी एक बड़ी तस्वीर रखी गई थी।
10
मार्च सन् 1939 को तिलवारा घाट के पास
विष्णुदत्त नगर में 105 डिग्री बुखार होने बाद भी नेताजी
सुभाष चंद्र बोस ने अपना वक्तव्य दिया जिसे उनके बड़े भाई श्री शरतचंद्र बोस ने
पूर्ण किया। इस दिन 2 लाख स्वतंत्रता के दीवाने उपस्थित रहे
यह अपने आप में एक अभिलेख है।
महात्मा गांधी ने अधिवेशन को केवल अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं
बनाया था वरन् उन्हें और उनके समर्थकों को यह स्पष्ट हो गया था कि अब देश का
नेतृत्व उनके हाथों से निकल गया है, इसलिए
कांग्रेस की कार्य समितियों ने सुभाष चंद्र बोस के साथ असहयोग किया (यह
अलोकतांत्रिक था, परंतु गांधी जी का समर्थन था और यही
तानाशाही भी)। साथ ही सुभाष बाबू को गांधी जी के निर्देश पर काम करने के लिए कहा
गया जबकि अध्यक्ष सुभाष चंद्र बोस थे।
10
मार्च सन् 1939 को त्रिपुरी अधिवेशन में
संबोधित करते हुए सुभाष बाबू ने अपना मंतव्य रखा कि अब अंग्रेजों को 6 माह का अल्टीमेटम किया जाए वह भारत छोड़ दें। इस बात पर गांधी जी और उनके समर्थकों
के हाथ पांव फूल गए उधर अंग्रेजों को भी भारी तनाव उत्पन्न हो गया। इसलिए एक गहरी
संयुक्त चाल के चलते नेताजी सुभाष चंद्र बोस का असहयोग कर विरोध किया गया।
अंततः नेताजी सुभाष चंद्र बोस सुभाष बाबू ने कांग्रेस अध्यक्ष पद
से त्यागपत्र दे दिया।त्याग पत्र के उपरांत स्व का चरमोत्कर्ष हुआ। त्रिपुरी
अधिवेशन में 10 मार्च सन् 1939 को उन्होंने
अपने भाषण में यह कहा था कि द्वितीय विश्व युद्ध आरंभ होने के संकेत मिल रहे हैं
इसलिए यही सही समय है कि अंग्रेजों से आर-पार की बात की जाए। परंतु गांधी जी और
उनके समर्थकों ने विरोध किया। सच तो यह है कि सुभाष बाबू की बात मान ली गई होती तो
देश 7 वर्ष पहले आजाद हो जाता और विभाजन की विभीषिका नहीं
देखनी पड़ती।
सन् 1940 में व्यथित होकर नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने
फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की, परंतु बरतानिया सरकार ने
उन्हें गिरफ्तार कर लिया तब सुभाष चंद्र बोस ने आमरण अनशन का दृढ़ संकल्प व्यक्त
किया। इसलिए ब्रिटिश सरकार ने उन्हें डर कर मुक्त कर दिया।तदुपरांत जनवरी 1941
को सुभाष चंद्र बोस वेश बदलकर कोलकाता से काबुल, मास्को होते हुए जर्मनी पहुंच गए जहां पर हिटलर से मिलने के उपरांत जापान
से तादात्म्य स्थापित कर सिंगापुर पहुंचे। आजाद हिंद फौज के महानायक बने।
5
जुलाई 1943 को सिंगापुर के टाउन हाल के सामने
सुप्रीम कमाण्डर के रूप में नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जी ने सेना को सम्बोधित करते
हुए दिल्ली चलो! का नारा दिया और जापानी सेना के साथ मिलकर बर्मा सहित आज़ाद हिन्द
फ़ौज रंगून (यांगून) से होती हुई थलमार्ग से भारत की ओर बढ़ती हुई.
18
मार्च सन 1944 ई. को कोहिमा और इम्फ़ाल के
भारतीय मैदानी क्षेत्रों में पहुँच गई और ब्रिटिश व कामनवेल्थ सेना से जमकर मोर्चा
लिया। बोस ने अपने अनुयायियों को जय हिन्द का अमर नारा दिया और 21 अक्टूबर 1943 में सुभाषचन्द्र बोस ने आजाद हिन्द फौज
के सर्वोच्च सेनापति की हैसियत से सिंगापुर में स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार
आज़ाद हिन्द सरकार की स्थापना की। उनके अनुयायी प्रेम से उन्हें नेताजी कहते थे।
आज़ाद हिन्द फ़ौज का निरीक्षण करते सुभाष चन्द्र बोस अपने इस सरकार
के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा सेनाध्यक्ष तीनों का पद नेताजी
ने अकेले संभाला। इसके साथ ही अन्य जिम्मेदारियां जैसे वित्त विभाग एस.सी चटर्जी
को, प्रचार विभाग एस.ए. अय्यर को तथा महिला संगठन लक्ष्मी
स्वामीनाथन को सौंपा गया। उनके इस सरकार को जर्मनी, जापान,
फिलीपीन्स, कोरिया, चीन,
इटली, मान्चुको और आयरलैंड ने मान्यता दे दी।
जापान ने अंडमान व निकोबार द्वीप इस अस्थायी सरकार को दे दिये।
नेताजी उन द्वीपों में गये और उनका नया नामकरण किया। अंडमान का नया नाम शहीद द्वीप
तथा निकोबार का स्वराज्य द्वीप रखा गया। 30 दिसम्बर 1943 को इन द्वीपों पर स्वतन्त्र भारत का
ध्वज भी फहरा दिया गया। इसके बाद नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने सिंगापुर एवं रंगून
में आज़ाद हिन्द फ़ौज का मुख्यालय बनाया।
4
फ़रवरी 1944 को आजाद हिन्द फौज ने अंग्रेजों
पर दोबारा भयंकर आक्रमण किया और कोहिमा, पलेल आदि कुछ भारतीय
प्रदेशों को अंग्रेजों से मुक्त करा लिया।21 मार्च 1944
को दिल्ली चलो के नारे के साथ आज़ाद हिंद फौज का हिन्दुस्तान की
धरती पर आगमन हुआ।
22 सितम्बर 1944 को शहीदी दिवस मनाते हुये सुभाषचन्द्र बोस ने अपने सैनिकों से मार्मिक शब्दों में कहा “हमारी मातृभूमि स्वतन्त्रता की खोज में है। तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूँगा। यह स्वतन्त्रता की देवी की माँग है।”
जापान की पराजय के उपरांत नेताजी सुभाष चंद्र बोस वास्तविकता से
अवगत होने के लिए हवाई जहाज जापान रवाना हुए 18 अगस्त
सन् 1945 फारमोसा में विमान दुर्घटना में मृत घोषित कर दिया
गया परंतु यह सच नहीं था और अब प्रमाण भी सामने आ रहे हैं। बावजूद इसके नेताजी
सुभाष चंद्र बोस और उनकी आजाद हिंद फौज की स्व के लिए पूर्णाहुति ही बरतानिया
सरकार से भारत की स्वाधीनता के लिए राम बाण प्रमाणित हुई।
यह मत प्रवाह कि उदारवादियों ने स्वाधीनता दिलाई बहुत ही
हास्यास्पद सा लगता है क्योंकि सन् 1940 में
द्विराष्ट्र सिद्धांत की घोषणा हुई और भारत के विभाजन पर संघर्ष मुखर हो गया था,
परिस्थितियां विपरीत बनती गईं, विभाजन को लेकर
तथाकथित राष्ट्रीय आंदोलन बिखर गया था।
स्वाधीनता का श्रेय लेने वाला उदारवादी दल बिखर गया था और वह
जिन्ना को नहीं संभाल पाया। अंततोगत्वा भारत के विभाजन को लेकर हिंदू –
मुस्लिम विवाद आरंभ हुए और बरतानिया सरकार के विरुद्ध संग्राम लगभग
समाप्त हो गया था।
सन् 1942 का भारत छोड़ो
आंदोलन ने 3 माह में ही दम तोड़ दिया था तो दूसरी ओर विभाजन
तय दिखने लगा था। ऐंसी परिस्थिति में महात्मा गांधी किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए थे और
बाद में विनाशकारी निर्णय में सम्मिलित भी हो गए।
सन् 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध समाप्त हुआ और उसके
उपरांत इंग्लैंड में लेबर पार्टी की सरकार बनी। इंग्लैंड के प्रधानमंत्री क्लीमेंट
एटली ने जून 1948 तक भारत छोड़ने की घोषणा की परंतु विभाजन
कर, एक वर्ष पूर्व ही अंग्रेजों ने 15 अगस्त
सन् 1947 में भारत छोड़ दिया। यह सन् 1956 तक बहुत ही रहस्यमय बना रहा कि आखिर ऐंसा क्या हो गया था? कि ब्रिटानिया सरकार ने 1 वर्ष पूर्व ही भारत छोड़
दिया।
इस रहस्य का खुलासा सन् 1956 में
क्लीमेंट एटली ने किया, जब वे सेवानिवृत्त होने के बाद
कलकत्ता आए, वहां पर गवर्नर ने एक भोज के दौरान उनसे पूंछा
कि आखिरकार ऐसी कौन सी हड़बड़ी थी कि आपने 1 वर्ष पहले ही
भारत छोड़ दिया, तब क्लीमेंट एटली ने जवाब दिया कि सन् 1942
के भारत छोड़ो आंदोलन के असफल हो जाने के बाद महात्मा गांधी हमारे
लिए कोई समस्या नहीं थे, परंतु नेताजी सुभाष चंद्र बोस और
उनकी आजाद हिंद फौज के कारण भारतीय सेना ने हमारे विरुद्ध विद्रोह कर दिया था।
तत्कालीन भारत के सेनापति अचिनलेक ने अपने प्रतिवेदन में सन् 1946 में जबलपुर से थल सेना के सिग्नल कोर के विद्रोह, बंबई
से नौसेना का विद्रोह, करांची और कानपुर से वायु सेना के
विद्रोह का हवाला देते हुए स्पस्ट कर दिया था कि अब भारतीय सेना पर हमारा नियंत्रण
समाप्त हो रहा है जिसका तात्पर्य है कि अब भारत पर और अधिक समय तक शासन करना असंभव
होगा, और यदि शीघ्र ही यहां से हम लोग वापस नहीं गए तो बहुत
ही विध्वंस कारी परिस्थितियां निर्मित हो सकती हैं और यही विचार अन्य विचारकों का
भी था। इसलिए हमने 1 वर्ष पूर्व ही भारत छोड़ दिया परंतु
भारतीय इतिहास में सेनाओं के स्वाधीनता संग्राम को विद्रोह का दर्जा देकर दरकिनार
कर दिया गया।
स्वाधीनता के अमृत महोत्सव पर यह श्रेय नेताजी सुभाष चंद्र बोस और
उनकी आजाद हिंद फौज के साथ भारतीय सेना को ही जाना चाहिए। यह गौरतलब है कि
माउंटबेटन और एडविना ने जो अपनी डायरियाँ लिखी थीं,
वे वसीयत के अनुसार इंग्लैंड के एक विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में
सुरक्षित कराई थीं, हाल ही में इंग्लैंड में एक पत्रकार ने
सूचना के अधिकार के अंतर्गत इनकी जानकारी मांगी है, तथा एक
पुस्तक “one life many loves” शीघ्र ही प्रकाशित होने वाली
है, परंतु इंग्लैंड की सरकार, दबाव बना
रही है, कि माउंटबेटन की डायरियों का खुलासा ना किया जाए
क्योंकि यदि माउंटबेटन और एडविना की डायरियों का खुलासा हुआ तो बहुत से उदारवादी
निर्वस्त्र हो जाएंगे और सत्ता के लिए संघर्ष का भी आईना साफ हो जाएगा।
आशा करते हैं कि बहुत जल्दी ही यह पुस्तक प्रकाशित होकर सामने आएगी।भारतीय
स्वतंत्रता संग्राम के अद्भुत और अद्वितीय महा महारथी अमर बलिदानी श्रीयुत नेताजी
सुभाष चंद्र बोस को स्व की विजय और प्राप्ति के लिए चिरकाल तक जाना जाएगा। नेताजी
सुभाष चंद्र बोस का अवदान वर्तमान और भावी पीढ़ी को सदैव याद दिलाता रहेगा कि “मैं रहूं या न रहूं, मेरा ये देश भारत रहना चाहिए”।
!!जय
हिंद!!
आलेख
डॉ. आनंद सिंह राणा
16.1.22
कहानी आचार्य चंद्रमोहन जैन लेखक पंडित सुरेंद्र दुबे
15.1.22
कहानी : आचार्यं चन्द्रद्मोहन जैन की लेखक श्री सुरेंद्र दुबे
12.1.22
हिंदू हिंदुत्व और स्वामी विवेकानंद..!
स्वामी विवेकानंद ने पहले ही कह दिया है कि-" हमें अपने हिंदू होने पर गर्व होना चाहिए..!"
हिंदू वही होगा जो हिंदुत्व का अनुसरण करेगा।
मानव कुछ ना कुछ विशेष गुण धर्म के साथ विकसित होता है। जब विज्ञान की ओर मनुष्य का ध्यान ही नहीं था पाषाण से लौह, और फिर लौह से अन्य धातु युग तक की यात्रा बिना किसी अनुशासनिक प्रणाली के संभव नहीं है। चाहे वह सामाजिक व्यवस्था हो या फिर कबीले में रहने की व्यवस्था। और यही जीवन व्यवस्था उसे यानी मनुष्य जाति को आवश्यकता और उसकी पूर्ति के लिए अन्वेषण एवं अविष्कार की प्रेरणा देती है। अति आवश्यक है कि हम धर्म के इस बिंदु को अवश्य पढ़ें। और जाने कि किन परिस्थितियों में मनुष्य ने अपने आप को आदिम युग से सभ्य मानव के रूप में विकसित कर दिया…?
धर्म की परिभाषाओं को आपने देखा भी होगा । यहां फिर से लिखने की जरूरत नहीं है। फिर भी मैं अपने नजरिए से धर्म को क्या समझता हूं वह बता देता हूं मौजूदा परिभाषा भी प्रस्तुत हैं ।
1. मेरे नज़रिए से धर्म-"ईश्वरीय आस्था युक्त परिवर्तनशील वैज्ञानिक प्रक्रिया है..!°
2. धर्म में जड़त्व तो नहीं बल्कि प्रगति शीलता के बिंदुओं का समावेश होता है और ये बिंदु रिचुअल्स और मानवतावादी दृष्टिकोण के साथ सिंक्रोनाइज होते हैं, ऐसा व्यक्ति ही धार्मिक कहलाता है जो स्वयं से पृथक एक शक्ति को स्वीकार करता है उस शक्ति को ब्रह्म अथवा ईश्वर तत्व की संज्ञा दी जाती है।
3. धर्म देश काल परिस्थिति के अनुसार लागू होता है, क्योंकि उसकी प्रकृति ही परिवर्तनशील है।
4. ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार ने वाला धर्म की परिभाषा को समझ सकता है ।जो ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार करता है वह कुछ प्रक्रियाओं का पालन करता है ।
5. केवल पूजा प्रणाली ही धर्म नहीं है। किंतु पूजा प्रणाली धर्म का एक हिस्सा है। ऋग्वेद इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। जहां जो देता है अर्थात वह देवता है और ऋग्वेद के मंत्रों जिसे हम ऋचा कहते हैं अर्थ को समझना होगा। हवन या यज्ञ एक और वायुमंडल की शुद्धता का प्रयोग है तो दूसरी ओर जीवन यापन के लिए प्राप्त होने वाले संसाधनों के लिए उन देने वाले यानी देवताओं के प्रति कृतज्ञता का ज्ञापन भी है। वेद में उस सरस्वती नदी का जिक्र आया है, जो वर्तमान में विलुप्त है उसी देवता माना है तो उसे यज्ञ के माध्यम से आहुतियां देने का अनुमान लगाया गया जबकि वेदों में जिस सरस्वती का देवी स्वरूप आह्वान किया गया है वह बुद्धि के दाता सरस्वती यानी शारदा है ना कि सरस्वती। इससे इस बात की पुष्टि होती है कि नदियां जीवित होती हैं ना कि देव स्वरूप। इसकी पुष्टि में विद्वान आचार्य मृगेंद्र विनोद जी द्वारा प्रस्तुत विवरणों को देखा जाए तो पता चलता है कि सरस्वती नदी का यज्ञ नदी के तट पर जाकर ही किया जाता था और यह लगभग 18 वर्ष में पूर्ण होता था ना कि यज्ञ आहुति के द्वारा सरस्वती नदी का आह्वान किया जाता था।
6. धर्म में मान्यताओं को देश काल परिस्थितियों के अनुसार बदलाव की सुविधा मौजूद है ।
7. धर्म किसी संस्थान का डॉक्ट्रिन नहीं होता। आप सोचते होंगे कि ईश्वर की आराधना करने की प्रक्रिया डॉक्ट्रिन नहीं है ..? प्रक्रिया डॉक्ट्रिन है पर धर्म डॉक्ट्रिन नहीं है। जैसे आपके शरीर में बहुत सारे अंग है परंतु अंग आप नहीं है बल्कि आप अपने अंगों का समुच्चय हैं। धर्म क्योंकि प्रक्रिया नहीं है घर एक अवधारणा है और उस अवधारणा को करने समझने देखने के लिए प्रक्रियाओं की जरूरत होती है अतः केवल प्रक्रिया ही धर्म नहीं हो सकती।
8. चलिये हम विचार करतें हैं कि हम सनातनी है अर्थात हम हिंदू धर्म के मानने वाले हैं । इसका अर्थ यह है कि सनातन व्यवस्था में एक व्यवस्था जो आस्था के साथ ईश्वर पर विश्वास करती है उस तक (ईश्वर तक) पहुंचने के प्रयत्नों को बल देती है ।
अस्तु यह यह कहना और मानना ही होगा कि :- "धर्म एक व्यवस्था है जो आस्था के साथ नैसर्गिक है। सनातन है अर्थात कंटीन्यूअस है और इसमें मानवता के घटक देश काल परिस्थिति के अनुसार समावेशित होते रहते हैं ।"
सनातन में रूढ़िवाद मौजूद नहीं है, अगर कोई रूढ़ि नज़र आए तो उसे सांप्रदायिक या पंथगत ही होगी । सनातन का बड़ी नदी का प्रांजल प्रवाह है जिसमें कई छोटी नदियां क्रमशः शामिल होती जाती हैं और मुख्य नदी किसी भी सहायक नदी का विरोध नहीं करती। रूढ़ियां सनातन धर्म में बाधा उत्पन्न कर सकती हैं, अतः सनातन में विमर्श या वार्ताएं होती हैं यही वार्ताएं अंतिम निर्णय पर पहुंचती है ऐसे निर्णय बाधाओं को तोड़ते हैं।
ऐसा लगता है यहां रूढ़ियों की परिभाषा देने की जरूरत नहीं है आप जानते हैं रूढ़ियाँ क्या होतीं हैं ? परंतु एक तथ्य यह है कि सनातन रूढ़ियों को तोड़ता है, अत: सनातन अपेक्षाकृत अधिक या कि पूर्णत: सहिष्णु है । सनातन विकल्प की मौजूदगी को स्वीकारता है। उदाहरण के तौर पर एक कहावत है- फूल नहीं तो फूल की पत्ती चढ़ा दीजिए प्रभु प्रसन्न हो जाएंगे। इस कथन का अर्थ है कि विकल्पों को उपयोग में लाया जाए ।
मनु स्मृति के अनुसार धर्म की परिभाषा-
"धार्यते इति धर्म:" अर्थात जो धारण किया जाये वह धर्म हैं अथवा लोक परलोक के सुखों की सिद्धि के हेतु सार्वजानिक पवित्र गुणों और कर्मों का धारण व सेवन करना धर्म हैं। दूसरे शब्दों में यह भी कह सकते हैं की मनुष्य जीवन को उच्च व पवित्र बनाने वाली ज्ञानानुकुल जो शुद्ध सार्वजानिक मर्यादा पद्यति हैं वह धर्म हैं।
चलिए अब धर्म की कुछ परिभाषाओं को देखते हैं-"धर्म का परिभाषा क्या हैं?"
धर्म संस्कृत भाषा का शब्द हैं जो कि धारण करने वाली धृ धातु से बना हैं। "धार्यते इति धर्म:" अर्थात जो धारण किया जाये वह धर्म हैं। अथवा लोक परलोक के सुखों की सिद्धि के हेतु सार्वजानिक पवित्र गुणों और कर्मों का धारण व सेवन करना धर्म हैं। दूसरे शब्दों में यहभी कह सकते हैं की मनुष्य जीवन को उच्च व पवित्र बनाने वाली ज्ञानानुकुल जो शुद्ध सार्वजानिक मर्यादा पद्यति हैं वह धर्म हैं। यह भी ध्यान देने योग्य है कि- "धृति: क्षमा दमोअस्तेयं शोचं इन्द्रिय निग्रह: धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणं (मनु स्मृति)
जैमिनी मीमांसा दर्शन के दूसरे सूत्र में धर्म का लक्षण हैं लोक परलोक के सुखों की सिद्धि के हेतु गुणों और कर्मों में प्रवृति की प्रेरणा धर्म के लक्षण हैं।
वैदिक साहित्य में धर्म वस्तु व्यक्ति समष्टि के स्वाभाविक गुण तथा कर्तव्यों के अर्थों में जैसे जलाना और प्रकाश करना अग्नि जैसे बिंदुओं को धर्म माना हैं तो प्रजा का पालन और रक्षण राजा का धर्म तथा राजाज्ञा का पालन करना प्रजा का धर्म बताया गया है ।
आध्यात्मिक संदर्भों में व्यक्ति में अंतर्निहित भावों जैसे धैर्य, क्षमा, मन को प्राकृतिक प्रलोभनों बचाव, हरण का त्याग, शौच शुद्धता, इन्द्रिय निग्रह, बुद्धि एवम ज्ञान, विद्या, सत्य, अक्रोध आदि को धर्म के लक्षण के रूप में निरूपण किया है। सदाचार परम धर्म हैं
महाभारत में कहा है कि-
"धारणाद धर्ममित्याहु:,धर्मो धार्यते प्रजा:..!
अर्थात जो धारण योग्य है फलतः- जिसे प्रजाएँ धारण करती हैं- धर्म हैं।"
कणाद ने धर्म का लक्षण यह किया हैं- "यतोअभयुद्य निश्रेयस सिद्धि: स धर्म:" अर्थात सामष्टिक रुप से सामाजिक अभ्युदय यानी विकास जिसे अंग्रेजी में डेवलपमेंट कहां गया है । वह धर्म है और आराधना योग आदि प्रणालियों को अपनाकर आत्मोत्तथान करने की प्रक्रिया धर्म का लक्षण है।
स्वामी दयानंद के अनुसार धर्म की परिभाषा -जो पक्षपात रहित न्याय सत्य का ग्रहण, असत्य का सर्वथा परित्याग रूप आचार हैं उसी का नाम धर्म और उससे विपरीत का अधर्म हैं
स्वामी जी कहते हैं कि "पक्षपात रहित न्याय आचरण सत्य भाषण आदि युक्त जो ईश्वर आज्ञा वेदों से अ-विरुद्ध हैं, उसको धर्म मानता हूँ ! महर्षि दयानंद धर्म के पालन के लिए किए गए कार्यों और कृत कार्य के लिए प्राण उत्सर्ग तक प्रस्तुत रहने के धर्म को स्वीकार करने का आग्रह करते हैं।
कार्ल मार्क्स से लेकर वर्तमान परिस्थिति तक जो लोग पॉलिटिकल सोच के साथ धर्म को परिभाषित करते हैं विशेष तौर पर हिंदू या सनातन को वह उनकी समझ से परे है।
धर्म की परिभाषा लाक्षणिक हैं । धर्म को लक्षणों एवम उसमें शामिल सात्विक प्रक्रियाओं के जरिए पहचाना जा सकता है।
सुधि पाठकों, धर्म Dharm एक वह शब्द है जो Religion से अलग है ।
Oxford dictionary एवम हिंदी डिक्शनरी में से धर्म Dharma शब्द को religion अर्थात संप्रदाय के रूप में नहीं रखना चाहिए। धर्म और संप्रदाय शब्द मूल रूप से प्रथक प्रथक हैं ।
अब तक उपलब्ध वैदिक साहित्य से लेकर महाकाव्यों तक में जिस जीवन दर्शन और अध्यात्मिक दर्शन की मीमांसा की गई है उसमें धर्म और धर्मतत्वों में विविधता दृष्टिगोचर नहीं होती।
परंतु वर्तमान राजनीतिक परिवेश में हिंदू और हिंदुत्व का असहज वर्गीकरण किया जा रहा है। यह वर्गीकरण ना तो वैज्ञानिक है और ना ही तथ्य परक ही है।
मनुष्य के जीवन में धर्म सबसे महत्वपूर्ण तत्व है। मान लीजिए हम ब्रह्म की कल्पना भी नहीं करते परंतु एक ऐसे विश्व की कल्पना करते हैं, जहां सुख-शांति, समृद्धि के साथ दृष्टिगोचर हो तथा लोग एकात्म भाव से जीवन बिताऐं.... उसे वास्तविक रुप से जीवन दर्शन कहा जाएगा।
इसके सापेक्ष एक ऐसा वर्ग जो वैराग्य भाव से ईश्वर के साथ एकात्मता का आकांक्षी हो और वह केवल और केवल लोक कल्याण के साथ-साथ आत्म विकास और आत्म कल्याण की अवधारणा पर आधारित जीवन को जी रहा हो ऐसा करना अध्यात्मिक दर्शन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
हिंदू धर्म वस्तुत: सनातन व्यवस्था पर आधारित है सनातन का अर्थ है जिसका कंटिन्यू जारी रहना अर्थात जिस में निरंतरता का बोध होता हो। और यही सनातन मनुष्यों को जीवन दर्शन तथा आध्यात्मिक दर्शन के मार्गों पर चलने के लिए प्रेरित करता है।
हिंदू जन हिंदुत्व का अनुगमन करते हुए दोनों ही मार्ग पर निरापद रूप से चल सकते हैं।
परंतु जब राजनीतिज्ञ जीवन दर्शन और अध्यात्मिक दर्शन के मूल आधार पर टिप्पणी करते हैं तब उनकी बौद्धिक योग्यता और क्षमता पर हास्य उत्पन्न होता है।
हिंदू जन अपने आधार साहित्य जिसकी अंतिम प्रमाणिक समीक्षा रामचरितमानस में तुलसी ने कर दी है पर आधारित जीवन प्रणाली को स्वीकार करता है।
परंतु राजनीतिक कारणों से प्रजातंत्र में धर्म जो हमारा व्यक्तिगत अधिकार है उस व्यक्तिगत अधिकार की समीक्षा की जाने लगी।
अब आप प्रश्न करेंगे कि फिर तीन तलाक के संदर्भ में कानून क्यों लाया गया?
मित्रों मैं यहां धर्म की चर्चा कर रहा हूं ना कि संप्रदाय की। सनातन धर्म में समान अधिकार साम्य, एवं अधिकारों पर अतिक्रमण को रोकने के सिद्धांत मौजूद हैं। विभिन्न कथाओं, आज्ञाओं, सूत्रों, मंत्रों के माध्यम से जीवन जीने की कला विस्तार पूर्वक सिखाई गई है। और यह हिंदुत्व का आधार है।
हिंदू अच्छा हिंदुत्व बुरा ऐसी समीक्षा की ही नहीं जा सकती। राजनीतिज्ञों को इस बात का खासतौर पर ध्यान रखना चाहिए कि जो उदाहरण वह प्रस्तुत करके धर्म को परिभाषित करते हैं जबकि वास्तव में वे मान्यताओं एवं संप्रदाय डॉक्ट्रिनस का उल्लेख कर रहे होते हैं।
आप क्यों पॉलीटिशियंस की बातों पर उलझे और अपने आप को कंफ्यूज करें अगर आपको सनातन को समझना है तो आपको स्वयं सनातन का यानी हिंदू धर्म का अध्ययन करना होगा। हिंदू धर्म का अध्ययन हिंदुत्व थे अनुसरण के बगैर संभव नहीं है।
ग़ज़ल : उनके फनों को अब तो कुचलने का वक्त है ।।
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