15.8.20

महाकौशल की वीरांगना अवन्तिबाई का स्वतन्त्रता आंदोलन में योगदान

आईये गर्व और नमन् करें..नई दुनिया समाचार पत्र के साथ.. भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सन् 1857 की संपूर्ण भारत में किसी भी रियासत परिवार से प्रथम महिला शहादत(20 मार्च 1858) वीरांगना क्षत्राणी..रानी अवंतीबाई लोधी की रही है..(क्योंकि झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई की शहादत 18 जून 1858 को और बेगम हजरत महल 7 अप्रैल 1879 - यहाँ यह भी स्पष्ट कर दूँ कि कित्तूर रियासत (कर्नाटक) की रानी चेन्नमा पहली वीरांगना थीं जिन्होंने 1829 में शहादत दी थी, परंतु यहाँ बात प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सन् 1857 की हो रही है ) उनके  अवतरण दिवस के 2 दिन पूर्व  सभी आत्मीय जनों को हार्दिक बधाईयाँ (16 अगस्त सन् 1831)(कमिश्नरी जबलपुर, जिला मंडला, रियासत रामगढ़.. संस्थापक गोंड साम्राज्य के वीर सेनापति मोहन सिंह लोधी.. 681 गाँव, सीमायें अमरकंटक सुहागपुर कबीर चौंतरा , घुघरी, बिछिया, रामनगर तक ) .. ब्रिटिश काल में तहसील रामगढ़, सदर मुकाम रामगढ़ ) ..प्रस्तुत शोध आलेख के लिए के लिए सर्वप्रथम नई दुनिया समाचार पत्र के यशस्वी संपादक श्री कमलेश पांडे जी का आभार व्यक्त करता हूँ कि उनके मार्गदर्शन में - वरिष्ठ और उम्दा पत्रकार महोदया अनुकृति श्रीवास्तव जी ने बड़ी लगन और सूक्ष्म विश्लेषण के साथ तैयार किया है..इतिहास संकलन समिति महाकोशल प्रांत की ओर से इतिहास के विद्यार्थी के रुप में मैंने अपना योगदान दिया 🙏 वीरांगना का गौरवमयी इतिहास प्रस्तुत करने के पूर्व मैं यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि जिस तरह इतिहास लेखन के दौरान महारथी शंकरशाह और उनके सुपुत्र रघुनाथशाह के साथ अन्याय हुआ है.. उससे भी बड़ा अन्याय वीरांगना रानी अवंतीबाई लोधी के साथ हुआ है.. इस षड्यंत्र में तथाकथित परजीवी और अंग्रेज़ों से भयाक्रांत बुद्धिजीवी इतिहासकार +अंग्रेजी पैटर्न और उनके स्रोतों को ब्रह्म वाक्य मानकर कैम्ब्रिज विचारधारा के इतिहासकार +मार्क्सवादी इतिहासकार और एक दल विशेष के इतिहासकार शामिल रहे हैं..जबकि रानी अवंतीबाई लोधी का कद और बलिदान किसी भी तरह से.. झाँसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई और अवध की बेगम हजरत महल की तुलना उन्नीस नहीं रहा है.. फिर भी राष्ट्रीय स्तर पर लिखे गए इतिहास में तथाकथित महान् इतिहासकारों ने उनके बारे एक पृष्ठ तो छोड़िये.. एक पंक्ति नहीं लिखी है.. और तो और एक उद्भट विद्वान और जाने-माने इतिहासकार राय बहादुर हीरालाल जी ने अपने गजेटियर "मंडला मयूख" में रानी अवंतीबाई लोधी के पलायन कर जाने का उल्लेख किया है क्योंकि वे अंग्रेजों के प्रभाव में थे.. Now what is reality? रानी अवंतीबाई लोधी ने अंग्रेजों से लगातार 9 माह संघर्ष किया है.. जिसमें 6 प्रमुख युद्ध लड़े(देवहारगढ़ के जंगलों 🌲🌲में छापामार युद्धों के अतिरिक्त) .. जिसमें 5 युद्धों में अंग्रेजों के धूल चटाई.. छठवें युद्ध में अपनी अंगरक्षिका गिरधाबाई के साथ स्वत:प्राणोत्सर्ग कर स्वतंत्रता संग्राम में पूर्णाहुति दी... इतिहास संकलन समिति महाकोशल प्रांत 💐 💐 💐
विशेष आभार : श्री आनंद राणा जी

11.8.20

आओ....खुद से मिलवाता हूँ..!! भाग 03

 

आओ....खुद से मिलवाता हूँ..!! भाग 03
जन्म से आगे के 3 साल में भी जन्म से 12 माह की अवधि सबसे महत्वपूर्ण होतीं हैं ।
यही शैशवावस्था सम्पूर्ण विकास
का आधार है । किन्तु दक्षिण एशिया में इसे सबसे उपेक्षित रखा गया था आज़ादी के पूर्व से आज़ादी के 20 साल बाद तक । जन्म से लेकर 3 वर्ष की उम्र में शिशु को जिस श्रेणी की देखभाल की ज़रूरत होती है, उन मुद्दों पर किसी का ध्यान ही न था।
1 किशोरावस्था में बालिकाओं की उपेक्षा
2 अपरिपक्व आयु में विवाह
3 प्रसव पूर्व उचित देखभाल न होना
4 प्रसव की घटना को गम्भीरता से न लेना
5 जन्म के घण्टे भर में माँ का दूध न पिलाना
ये सब उस देश में होना जारी था जहां शेर के दांत बालक ने गिने थे, जी हाँ जहाँ का बालक नाग नाथ देता है और न जाने कितनी कथाएं बाल साहस की उपलब्धियों से भरी
पड़ीं हों.... मित्रों एवम सुधिजन आज से जन्माष्टमी का पर्व मनाए जाने की शुरुआत हो जावेगी ऐसा माहौल तत्कालीन भारत में भी था पर जन्मे अजन्मे बच्चों पर कोई नज़र न थी । इसे प्राकृतिक घटना और भगवान के भरोसे होने वाली घटना मानके होने दिया जाता रहा है । पर यहाँ एक बात बहुत आवश्यक है बताना कि भारत में बच्चों के जन्म के लिए ऐसा न था । मध्यकालीन युग में जब हिंसक परिस्थितियों ने भारत को विचलित किया तब से भारतीय परंपरागत व्यवस्थाएं बुरी तरह ध्वस्त हो गईं । वरना भारतीय संस्कृति में जन्म को एक महान घटना ही माना जाता रहा था । गर्भवती स्त्रीयों के प्रति सम्मान के भाव थे । इसका प्रमाण गर्भवती महिलाओं को प्रसव के पूर्व से ही शिशु के जन्म तक विशेष ध्यान देते हुए पुंसवन संस्कार से लेकर प्रसव तक बेहद प्रभावी नियम बने थे । जैसे पौराणिक कथाओं में गर्भवती स्त्रियों के लिए भोजन उसको आध्यात्मिक विषयो से जोड़े रखना तथा उसको मायके भेज कर उन्मुक्तता युक्त वातावरण देना । पर कालांतर में यह सब जैसे रुक सा गया । आर्थिक सामाजिक परिवर्तन के कारणों से गृहस्थ मुखिया ऐसा नहीं कर सकते थे । लोगों को सौ साल पहले जीवन को बचाने की संघर्ष करने होते थे । जिसका प्रभाव सामाजिक जीवन पर तेज़ी से पड़ा ।
इसका जिक्र इस आत्मकथा में क्यों कर रहा हूँ सोच रहे हैं न आप ?
तो जानिए मेरे जैसे स्वतंत्रता के बाद जन्में लोगों के लिए न तो सफलता पूर्वक जन्म लेने की अनुकूलता थी और न ही संसाधन । मेरा एक ममेरा भाई है । उसका जन्म के समय दाई ने जिस प्रकार नाड़ा काटा उससे उसके शरीर से अत्यधिक मात्रा में रक्त स्राव हुआ । और उससे उसका जीवन बहुत प्रभावित रहा है । इसे उसका दुर्भाग्य नहीं मानता हूँ वरन सामयिक परिस्थितियों को दोष देकर मुझे कोई शर्म महसूस नहीं हो रही है ।
मेरे जन्म के पूर्व के 50 साल तो और अधिक भयावह थे जब स्त्रियां बच्चे के रोने पर उसे अफीम दे दिया करतीं थीं ! ताकि बच्चा सोता रहे और वह घरेलू दायित्व का निर्वहन करती रहे । ये सत्य है क्योंकि यह माँ ने बताया था । और माँ झूठ नहीं बोलती ।
खैर छोड़िए यह सब आप तो जानिए कि आगे क्या हुआ । मेरे खयाल से मेरे जीवन में इससे आगे क्या हुआ इस बात को भाग 04 में बताना ही उचित होगा । तब तक आप अपने बच्चों के जन्म से उसके शैशव काल, बाल्यकाल में आपके अपने दायित्वों का निर्वहन की समीक्षा कर लीजिए । कुछ ग़लत लिखा हो तो बताइए अवश्य ।
( शेष जारी भाग 4 में.....)  

10.8.20

आओ....खुद से मिलवाता हूँ..!! भाग 02

 

आओ....खुद से मिलवाता हूँ..!! भाग 02

जब बीते क्षण याद आएं तब
चेहरे तैरा करते हैं ज़ेहन में ।
कुछ ध्वनियाँ भी गूंजा करतीं -
बन गीत मेरे आकुल मन में ।।
माँ, मौसी ने माना कान्हा मुझको
जब चंचल हो कर मुस्काता हूँ ।।
सालीचौका में मुझे एक रेलवे वाला गैंगमेन बहुत स्नेह करता था तब मेरी उम्र कोई एक बरस की होगी नाम था - हरि ।
माँ ने बताया हरि कुछ दिनों के लिए अपने गांव गया तो मैं बीमार पड़ गया । कौन था हरि ? ज़रूर उससे कोई सम्बंध होगा पूर्व जन्म का ऐसा सब कहते थे । पर बाद में आदि गुरु के बारे में सुना घर में सत्संग से कुछ समझा तो पता लगा कि- हरि सबके होते हैं सबमें होते हैं । यही है अद्वैत..! हरि कोई निर्देशक नहीं उससे डरो मत वो भयावह नहीं न वो किसी को दण्ड देता है न किसी को मारता है न ही ऐसा कोई फैसला करेगा या करता है कि तुम स्वर्ग जाओगे वो नर्क जाएगा । क्योंकि न स्वर्ग है न नर्क । न अप्सराएँ हैं न देवता न गन्धर्व ये प्रतीक-संज्ञा हैं जैसे कुबेर धन का देवता न कुबेर तो इकोनामी है । गन्धर्व वे हैं जो कला के संवाहक हैं । अप्सराएँ वो मनोदशा है जो लोक रंजन के लिए प्रफुल्लित कर देतीं हैं अपनी थिरकन से । नवरस सात स्वर भाव चिंतन दर्शन लेखन पठन-पाठन सब स्वर्ग के संसाधन हैं । हम इनको संग्रहीत कर सकते हैं.. हाँ हम घर, मोहल्ले, गांव, नगर, देश और इस धरती को स्वर्ग बना सकते हैं । यही है हरि का परमादेश । वो कोई आज्ञा नहीं देता । तुम जैसा करोगे वैसा ही प्रतिफल पाओगे ये तय है है न SSSSS ?
ये बचपन में नहीं बाद में समझ सका बचपन तो बचपन था ।
क्षमा कीजिए कथा लिखते लिखते दार्शनिक आलेखन करने लगा था ...! क्या करूँ विचार प्रवाह कभी कभी भटका देता है ।
आगे क्या हुआ ?
अक्सर रेलवे वालों के आपसी सम्बन्ध चाचा चाची , दादा जी , मामाजी मामी जी वाले बन जाते थे । वो दौर प्रेम विश्वास और स्नेह का सागर इधर उधर विस्तारित करने का दौर है । घरों के आपसी रिश्ते आज तक जिंदा हैं । कितना मारोगे अमर हैं मरते ही नहीं । बाबूजी ने सालीचौका के एक रईस को बिना टिकिट पकड़ा और फिर कहा था -'साले तुम अगली बार से बिना टिकट नहीं आओगे वरना हम तुम्हारा चार्ज कर देंगे ।
पता नहीं बाबूजी ने किस तरह आत्मीयता से डांटा कि उसने बाबूजी को चैलेंज कर दिया - 'सुनो, बाबूजी साला कहा है न तो पीछे मत हटना रिश्ता आप भी निभाना समझे ! पैर छूकर चौकसे जी निकल गए और पूरे चौकसे जायसवाल हमारे मामा जी बन गए । हमारे घर की हर शादी में सिवनी मालवा, सालीचौका, से ममेरा (निमाड़ी/भुवाणी) अर्थात चीकट (बुंदेली) लेकर हमारे मामा आया करते थे । उधर गुरुदेव के जितने भी साधक परिवार थे सबसे चाचा चाची ताऊ ताई वाले रिश्ते बनें । हम सबको ननिहाल, ददिहाल वाले के खून के रिश्तों का और इन रिश्तों के फ़र्क़ बहुत देर से यानी किशोरावस्था में पता लग पाए ।
माँ मुझे काजल लगा के डिठौना लगाना नहीं भूलती । शायद माँ की गोद वाला कोई ऐसा फोटो मुम्बई वाले काकाजी (श्री आर एन जी बिल्लोरे ) के पास देखा था । इस फोटो में मेरा चेहरा बहुत खूबसूरत है । माँ की गोद वाला फोटो एकदम मरफ़ी मुन्ने की तरह लगता था ऐसा कभी मौसी जी ने बताया था कि जब तुम ढेड़ साल के थे तब पोलियो का शिकार हो गए वरना तुमसे सुंदर कोई बच्चा न था घर में । पोलियो के कारण शरीर का दायां भाग प्रभावित हुआ और दवाओं के कारण तुम वैसे न रह गए जो इस बीमारी के बाद हुए ।
मुझे अक्सर लगता था कि मैं सामान्य हूँ क्योंकि मेरे सामने कोई ऐसी बातें नहीं होतीं थी जिससे मुझे यह महसूस हो कि अन्य बच्चों से अलग हूँ । अगर बालसुलभ गलतियां हुईं तो समान रुप से दण्ड का भागीदार होता था । यानी परिवार ने मुझे एक्स्ट्रा आर्डिनरी नहीं वरन एक सामान्य बच्चे की तरह पाला पोसा ।
हाल के वर्षों में जब बालभवन में किसी दिव्यांग बच्चे की माँ उसके एडमिशन के लिए आईं बहुत उदास थीं । आखिर माँ जो थीं ।
उनको समझाता हूँ .. माँ तुम नहीं जानती कि ये सन्तान ईश्वर है जो तुम्हासे अपनी सेवा कराना चाहते हैं । तुम उसको बोझ तो नहीं
हो !
न बोझ नहीं समझती ।
तब ठीक है उसकी सेवा करो , यही ईश्वर की पूजा है । और एक बात पूछूं सही सही बताना ?
जी , पूछिए सर..!
जब ईश्वर की पूजा करती हो तो रोती हो क्या ?
नहीं कभी नहीं !
तो इस बच्चे की सेवा एक पूजा है । और न तो पूजा बोझ होती है जो आप रोएं .... रोते हुए की गई पूजा ईश्वर को भी स्वीकार्य नहीं होती ।
ऐसे शब्द केवल वोही बोल सकता है जिसने उसे महसूस किया हो !माँ ने ये सब मुझे पहले ही महसूस करता दिया था । तभी तो किसी को दौड़ता देख खुद में हीनभावना महसूस नहीं की ।
क्रमशः जारी 

9.8.20

आओ....खुद से मिलवाता हूँ..!! भाग 01



आओ खुद से मिलवाता हूँ !
जीवन के रंग दिखलाता हूँ !
ये परबत पथ कितने सहज सरल
संग साथ चलो समझाता हूँ !!


बचपन किसे कितना याद है मुझे नहीं लगता कि बचपन याद रहता है । आत्मकथा का पहला पन्ना तो बचपन है नsss ! बचपन जिसे श्रुति के आधार पर ही लिखा जा सकता है । सो लिख रहा हूँ ।
घरेलू संवादों से ज्ञात हुआ कि आज़ाद-भारत की उम्र सोलह बरस दो माह उनतीस दिवस की तब 29 नवम्बर 1962 को रेलवे कॉलोनी सालीचौका में मेरा जन्म हुआ था । स्कूली रिकार्ड में जाने कैसे 1963 लिख गया यह रिसर्च का विषय है पर कोई फायदा नहीं इस खोजबीन में जो होना था सो हो गया ना अदालत मानेगी सरकारी दस्तावेज क्योंकि मैट्रिकुलेशन में जो भी लिखी गई वही अंतिम है।
अभी बीते 27 जून को मुझे पता चला कि मेरी जन्म तिथि 27 जून 1963 है और यह शुभ सूचना सर्विस रिकॉर्ड देखकर स्टाफ ने मुझे बधाई दी। बधाई स्वीकार की मैंने चाय मंगवा ली, नकली जन्मदिन पर चाय ही पिलाई जा सकती है वैसे भी कोविड-19 का दौर अनुबंध भूमि प्रतिबंधों को अधिरोपित करता है ।
माँ ने कई बार बताया कि मैं जन्म के बाद 9वें माह में चलना सीख चुका था , माँ बतातीं थीं कि इतनी कम आयु में मेरा सहजता से चलना सबके लिए कौतूहल का विषय था । घर के दरवाज़ों और मुझ पर खास नज़र होती थी । कहीं घर से बाहर न निकल जाऊं ? परन्तु अक्सर चुपके से बाहर निकल जाना मेरी मुख्य शरारत थी । पड़ोस के बैनर्जी बाबू के घर तक कि मेरी यात्रा अतरे-दूसरे दिन लगभग तय थी । बाबूजी की तरह वे भी सहायक स्टेशन मास्टर हुआ करते थे । पुतुल दीदी शिखा दीदी का नाम मुझे आज भी याद है चेहरों का ध्यान नहीं है । बड़ी बहन यानी शोभा दीदी के साथ रोटी पन्ना खेलतीं थीं वे । आठ से दस साल की उम्र रहीं होंगी तीनों की । दीदी मुझे उनके घर में रखे अंडे तोड़ने की वजह से वापस छोड़ जाया करतीं थीं । डांट फटकार का कार्यक्रम दीदी और माँ करतीं मुझे याद नहीं है होता भी कैसे एक बरस की उम्र की घटनाओं को कोई अवतार ही याद रख सकता है हम तो सामान्य ठहरे । माँ नहलाती मुझे फिर अंडे की महक मिटाने पावडर इतर आदि लगाती ।
शरारतें जब बढ़ने लगीं तो माँ ने बताया कि उनको दंड विधान अपनाने पड़े और मेरे पैरों बांध दिया जाता था ।
मध्यम वर्गीय परिवार की माताएं काम के बोझ से कुछ ज़्यादा ही दबी होतीं थीं उस दौर में । कुछ कठोर प्रबंध करना उनकी मजबूरी थी । मेरे दो बड़े भाई हरीश भैया, सतीश भैया, और शोभा दीदी और मेरा ध्यान रखना । खानपान की व्यवस्थाओं को सुनिश्चित करना घर में अतिथियों का आना जाना . बाबूजी को सुविधाएं देना पूजा पाठ आदि सब कुछ माँ के जिम्मे था । आज की तरह नहीं कि बर्तन साफ करने वाली मेंहरी जो कुए से पानी लाती थी के अलावा कामवाली बाइयों का गृह प्रवेश तीज त्यौहार पर ही होता था ।
माँ बाबूजी दीदी ने बताया कि 9 माह में चल निकलने वाला मैं 12 माह का होते होते बहुत शरारती हो चुका था ।
सच क्या है पर सुना तो है कि मूल नक्षत्र में जन्मी संतानें परिवार के खासकर माता पिता के लिए कष्टदाई होतीं हैं । हुआ तो यही पर इससे कोई अंधविश्वास मत अपना लेना इसे संजोग मान लेना जी ।
क़रीब डेढ़ बरस की उम्र में एक रात मुझे तेज़ बुखार आया बाबूजी बतातें हैं कि उस रात रातभर जागकर माँ बाबूजी ने मेरे सर पर दूध पानी की पट्टियाँ रखीं थीं । सुबह सुबह डॉक्टर को बुलाया गया डॉक्टर ने इंजेक्शन भी दिए पर कोई अधिक लाभ न हुआ । फलस्वरूप अगले दिन जबलपुर मेडिकल कॉलेज लाया गया । जहां एक दो दिन में डॉक्टर कौल साहब ने बताया दिया कि मेरी पोलियो के वायरस के कारण मसल्स क्षतिग्रस्त हो चुकीं हैं शरीर के दाएं भाग में असर हुआ है । विधाता का लिखा कौन मेट सकता है । परिवार ने फिर भी हर मंदिर झाड़फूंक हकीम वैद्य नीम हकीम से इलाज़ करवाया । कहतें हैं बाबूजी और माँ ने शरीर के मालिशें भी खूब कीं थीं । शेर की चर्बी से भी मसाज हुई थी । किसी ने कहा ये दान करो तो किसी ने कबूतर तक पलवा दिए । यह कहकर कि कबूतर के पंख से निकलने वाली हवा से मेरे शरीर में मसल्स फिर सक्रिय हो जावेंगी । मुझे तो कोई लाभ न हुआ अपितु कबूतरों से बिल्लियों को लाभ अवश्य हुआ । बेचारों को बिल्लियों ने निपटा दिया था ।
*******
1964 में स्वामी शुद्धानंदनाथ श्री जे पी शुक्ला (स्टेशन मास्टर ) चाचाजी के घर आया जाया करते थे से बाबूजी दीक्षित हुए । माँ ने भी दीक्षा ली । घर में आध्यात्मिक वातावरण का प्रकाश और तेज़ी से जमने लगा था । चिंतन मनन ध्यान कर्म के साथ प्रपंच में आध्यात्म के योग के वातावरण से घर का माहौल अदभुत होने लगा । माँ-बाबूजी केवल मेरे अन्य बच्चों की तरह होने की उम्मीद रखने लगे थे । परंतु गुरुदेव ने कहा - प्रारब्ध का फल भोगना आवश्यक है । पर इतना अवश्य है कि पप्पू (मेरा घरेलू नाम) अच्छा ही करेगा ।
गुरुदेव का आशीर्वाद, माता पिता भाई बहनों की छत्रछाया कौटोम्बिक स्नेह में मुझे कभी न लगा था कि मैं असामान्य हूँ । पर कहीं आना जाना होता तो अवश्य मुझे गोद में बैठकर जाना पड़ता था । घर में घुटनों के बल चलना मेरी आदत बन गई थी ।
कुछ दिनों के बाद बाबूजी गुर्रा यानी इटारसी के बाद जबलपुर रूट की स्टेशन पर ट्रांसफर होकर आए । तब मेरे चलने फिरने की समस्या का निदान ईश्वरी चाचा जी ने कर दिया । मुझे चाचाजी चाची जी बहुत प्रेम करते थे । चाचाजी ने काफी सोच विचार कर दो लकड़ियों के ऊपरी भाग में लकड़ी के गुटके फिट कर क्रेचैस बना दीं और चलने का अभ्यास कराया । तब तक मेरी उम्र 5 वर्ष की हो चुकी थी । तबसे मुझे बहुत कुछ याद है । वहीं मुंबई वाले काका की शादी हुई , काका जी की बारात में होशंगाबाद गया था ये सब याद है । मेरी दो छोटी बहनों का जन्म हो चुका था । उनके साथ हम मस्ती करने लगे थे ।
मेरी बहनें बड़े भैया सब के सब मेरा विशेष ध्यान रखते थे आज भी वही स्थिति है । पर उस समय स्कूल में जल्दी एडमिशन नहीं होते थे । बायां या दांया हाथ अगर उसके विपरीत वाले जान को सर के ऊपरी गोलार्द्ध से होते हुए कान पकड़ सके तो पहली कक्षा में नाम लिखा जाता था । हम भी स्कूल जाने की ज़िद करने लगे क्योंकि हम बाएं हाथ से दायां कान इसी तरीके से पकड़ने लगे थे । पर स्कूल दूर होने से हम न जा सके । इस समस्या का निदान तब हुआ जब कि बाबूजी का तबादला शहपुरा-भिटौनी रेलवे स्टेशन पर हुआ ।
क्रमशः जारी

5.8.20

राजाधिराज श्री राम की कथा


"राजाधिराज श्रीराम की कथा !" 

एक  था रावण बहुत बड़ा प्रतापी यशस्वी राज़ा, विश्व को ही नहीं अन्य ग्रहों तक विस्तारित उसका साम्राज्य वयं-रक्षाम का उदघोष करता . यह तथ्य किशोरावस्था में मैंने  आचार्य चतुरसेन शास्त्री के ज़रिये  जाना था .  रावण के पराक्रम उसकी साम्राज्य व्यवस्था को. ये अलग बात है कि उन दिनों मुझमें उतनी सियासी व्यवस्था की समझ न थी. पर एक सवाल सदा खुद  पूछता रहा- क्या वज़ह थी कि राम ने रावण को मारा ? राम   को हम भारतीय जो  आध्यात्मिक धार्मिक भाव से देखते हैं ।
  राम को मैने भी कभी एक राजा के रूप में आम भारतीय की तरह मन में नहीं बसाया. मुझे उनका करुणानिधान स्वरूप ही पसंद है. किंतु जो अधिसंख्यक आबादी के लिये करुणानिधान हो वो किसी को मार कैसे सकता है ? और जब एक सम्राठ के रूप में राम को देखा तो सहज दृष्टिगोचर होती गईं सारी रामायण कालीन स्थितियां राजा रामचंद्र की रघुवीर तस्वीर साफ़ होने लगी 
                                      रामायण-कालीन वैश्विक व्यवस्था का दृश्य 
रावण के संदर्भ में  हिंदी विकीपीडिया  में दर्ज़ विवरण को देखें जहां बाल्मीकि के हवाले से (श्लोक सहित ) विवरण दर्ज़ है- 

अहो रूपमहो धैर्यमहोत्सवमहो द्युति:।
अहो राक्षसराजस्य सर्वलक्षणयुक्तता॥

आगे वे लिखते हैं "रावण को देखते ही राम मुग्ध हो जाते हैं और कहते हैं कि रूप, सौन्दर्य, धैर्य, कान्ति तथा सर्वलक्षणयुक्त होने पर भी यदि इस रावण में अधर्म बलवान न होता तो यह देवलोक का भी स्वामी बन जाता।"
        रावण विस्तारवादी दुष्ट था और पापी था । पर उसमें शिष्टाचार और ऊँचे आदर्श वाली मर्यादायें भी थीं । 
राम के वियोग में दुःखी सीता से रावण ने कहा है, "हे सीते! यदि तुम मेरे प्रति कामभाव नहीं रखती तो मैं तुझे स्पर्श नहीं कर सकता ।" शास्त्रों के अनुसार वन्ध्या, रजस्वला, अकामा आदि स्त्री को स्पर्श करने का निषेध है अतः अपने प्रति अकामा सीता को स्पर्श न करके रावण मर्यादा का ही आचरण करता है।
चूंकि इतनी अधिक विशेषताएं थीं तो बेशक कोई और वज़ह रही होगी जो राम ने रावण को मारा मेरी व्यक्तिगत  सोच है कि रावण विश्व में एक छत्र राज्य की स्थापना एवम "रक्ष-संस्कृति" के विस्तार के लिये बज़िद था. जबकि त्रेता-युग का रामायण-काल के अधिकतर साम्राज्य सात्विकता एवम सरलतम आध्यात्मिक सामाजिक समरसता युक्त राज्यों की स्थापना चाहते थे. सामाजिक व्यवस्था को बनाने का अधिकार  उनका पालन करने कराने का अधिकार जनता को ही था. सम्राठ तब भी जनता के अधीन ही थे केवल "देश की भौगोलिक सीमाओं की रक्षा, शिक्षा केंद्रों को सहयोग, अंतर्राष्ट्रीय-संबंधों का निर्वाह, " जैसे दायित्व राज्य के थे. जबकि रावण की रक्षकुल संस्कृति में अपेक्षा कृत अधिक उन्नमुक्तता एवम सत्ता के पास सामाजिक नियंत्रण नियम  बनाने एवम उसको पालन कराने के अधिकार थे. जो वैदिक व्यवस्था के विपरीत बात थी. वेदों के व्याख्याकार के रूप में महर्षिगण राज्य और समाज सभी के नियमों को रेग्यूलेट करते थे. इतना ही नहीं वे शिक्षा स्वास्थ्य के अनुसंधानों के अधिष्ठाता भी थे .   
              इसके विपरीत  रावण , रामायण कालीन अंतर्राष्ट्रीय  राजनैतिक व्यवस्था का दूसरा सबसे ताक़तवर नियंता रहा है. रावण का सामरिक-आक्रान्ता उस काल की वैश्विक-सामाजिक,एवम आर्थिक व्यवस्था को बेहद हानि पहुंचा रही थी. कल्याणकारी-गणतंत्रीय राज्यों को रावण के सामरिक सैन्य-बल के कारण रावण राज्य की अधीन होने के अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग शेष नहीं होता. लगभग आधे विश्व में उसकी सत्ता थी. यानि रावण के अलावा अन्य किसी सत्ता को कोई स्थान न था. रघुकुल शासित भारत ही एकमात्र ऐसा देश था जहां कि रावण को स्वीकारा नहीं गया और न ही उसे भारतीय व्यवस्था के भीतर प्रवेश मिल सका .
क्या, भारतीय व्यवस्था तब भी गणतांत्रिक रही..?
          रामायण कालीन भारत का सत्ता केंद्र उत्तर-भारत में था. यह वो केंद्र था जहां से सम्पूर्ण भारत  रूस, अफगानिस्तान, ब्रह्मदेश, जावा, सुमात्रा, मलाया, थाई, इराक, ईरान आदि क्षेत्रों तक  व्यवस्थाएं विस्तारित थीं .  प्रत्येक राज्य अथवा उपनिवेश रघुवंश के नियमों से संचालित होते थे. हर व्यवस्था ततसमकालीन-राजधर्म के अनुरूप तब तक  चलती थी जब तक उसमें बदलाव प्रजातांत्रिक तरीके से न हो .  रघुवंश-काल में राम के द्वारा शम्बूक की हत्या एवं सीता को वनगमन के आदेश भी आज की परिस्थियों के सापेक्ष गंभीर त्रुटियाँ हैं इसे स्वीकारना होगा . परन्तु यह ऐसी स्थिति है जैसे किसी क़ानून की रचना के लिए  संख्या-बल के आगे प्रयासों का बेकार हो जाना . राम का जीवन राजा के रूप में रियाया के लिए अपेक्षाकृत अधिक जवाब-देह रहा है . अर्थात रामायण काल में प्रजातांत्रिक व्यवस्था थी । आम आदमी के विचारों को स्वीकार करना राजा का दायित्व था । 
          समकालीन विश्व-विद्यालयों ( ऋषि-आश्रमों,गुरुकुलों) को रावण अपने अधीन कर देना चाहता था ताक़ि भारतगणराज्य जो अयोध्या के अधीन है वह लंका अधीनता स्वीकार  ले . इससे उसके सामरिक-सामर्थ्य में अचानक वृद्धि अवश्यम्भावी थी.  कुबेर उसके नियंत्रण में थी यानी विश्व की अर्थव्यवस्था पर उसका पूरा पूरा नियंत्रण था. यद्यपि रामायण कालीन भौगोलिक स्थिति  का किसी को ज्ञान नहीं है जिससे एक मानचित्र तैयार करा के  आलेख में लगाया जा सकता ताक़ि स्थिति  और अधिक-सुस्पष्ट हो जाती फ़िर भी आप यह जान लें कि यदि लंका श्री लंका ही है तो भी भारतीय-उपमहादीपीय क्षेत्र में भारत एक ऐसी सामरिक महत्व की भूमि थी है जहां से सम्पूर्ण विश्व पर रावण अपनी "विमानन-क्षमता" से दवाब बना सकता था. 

समकालीन विश्व-विद्यालयों ( ऋषि-आश्रमों,गुरुकुलों) को रावण अपने अधीन क्यों करना चाहता था..?

           रावण के अधीन सब कुछ था केवल "विद्वानों" को छोड़कर जो उसके साम्राज्य की श्री-वृद्धि के लिये  उसके (रावण के) नियंत्रण रहकर काम करें. जबकि भारत में ऐसा न था वे आज की तरह ही स्वतंत्र थे उनके अपने अपने आश्रम थे जहां "यज्ञ" अर्थात "अनुसंधान" (प्रयोग) करने  की स्वतन्त्रता थी. तभी ऋषियों .के आश्रमों पर रावण की आतंकी गतिविधियां सदैव होती रहतीं थीं. यहां एक और  तथ्य की ओर ध्यान  दिलाना चाहता हूं कि रावण के सैनिकों ने  कभी भी किसी नगर अथवा गांवों में घुसपैठ नहीं कि किसी भी रामायण में इसका ज़िक्र नहीं है. तो फ़िर  ऋषियों .के आश्रमों पर हमले..क्यों होते थे ?

            उसके मूल में रावण की बौद्धिक-संपदाओं पर नियंत्रण की आकांक्षा मात्र थी. वो यह जानता था कि 

1.     यदि ऋषियों पर नियंत्रण पा लिया तो भारत की सत्ता पर नियंत्रण सहज ही संभव है.

2.     साथ ही  उसकी सामरिक शक्ति के समतुल्य बनने  के प्रयासों से रघुवंश को रोकना ....... अर्थात कहीं न कहीं उसे "रक्षकुल" की आसन्न समाप्ति दिखाई दे रही थी. 

        राम  के गणराज्य में प्रज़ातांत्रिक  व्यवस्था को सर्वोच्च स्थान था. सामाजिक व्यवस्था स्वायत्त-अनुशाषित थी. अतएव बिना किसी राजकीय दबाव के देश का आम नागरिक सुखी था. 

    रावण ने राम से  युद्ध के लिये कभी पहल न की तो राम को खुद वन जाना पड़ा. रावण भी सीता पर आसक्त न था वो तो इस मुगालते में थी कि राम सीता के बहाने लंका आएं और वो उनको बंदी बना कर अयोध्या से संचालित आधे विश्व से बलात संधि कर अपनी शक्ति को और अधिक बढ़ाए  पर उसे राम की संगठनात्मक-कुशाग्रता का कदाचित ज्ञान न था 

वानर-सेना :- राम ने वनवासियों के युवा नरों की सेना बनाई  लक्ष्मण की सहायता से उनको योग्यतानुसार  युद्ध कौशल सिखाया . राम की युवा-सैन्य शक्ति अभियंताओं , वैज्ञानिकों से भरी पड़ी थी . जबकि “रक्ष-कुल” के संस्थापक रावण का सैन्य-बल प्रमादी भोग-विलासी अधिक था . उस  सैन्य-बल युद्ध के अभ्यास तथा अभ्यास कराने वालों का अभाव रावण के राज्य की सामरिक शक्ति को कमजोर कर गया.   

          रावण को  लगा कि राम द्वारा जुटाई गई  बनाई गई  वानर-सेना (वन के नर ) लंका के लिये  कोई खतरा नहीं है बस यही एक भ्रम रावण के अंत का कारण था .  

           राम ने रावण का अंत किया क्योंकि रावण  एक ऐसी शक्ति के रूप में उभरा था  जो विश्व को अपने तरीक़े से संचालित करना चाहता था . इस अभियान में वह भारत-वर्ष के विद्वानों की मदद लेना चाहता था . जो रावण के कर्मचारी होते और सबके सब ऐय्याश रक्ष-कुलीन थे । जिनको राक्षस कहा गया है के हित-संवर्धन में कार्य करते .
           रावण के खात्में के लिए अयोध्या ने एक रणनीति बनाई . रणनीति के अनुरूप राम को वन भेजा गया .  जिससे रावण को लगे कि भारत को कभी भी अधीन किया जा सकता है .

वन में पूरी चतुराई से लो-प्रोफाइल में राम ने जहां निषाद से मैत्री एवं शबरी से बेर खाकर जननायकत्व का दर्ज़ा हासिल वहीं ऋषियों से युद्ध एवं नीतियों का विस्तार से ज्ञान प्राप्त किया. रावण वध की पूरी परियोजना पर काम करते हुए चौदह साल लगे. यानी लगभग तीन संसदीय चुनावों के अंतराल के बराबर समय लिया  . 

राम की सामरिक नीति में मैत्री-सम्बन्ध, लघु राज्यों के  सह-अस्तित्व, एवं तत्समकालीन अयोध्या राज संचालन नीति का विस्तार महत्वपूर्ण बिंदु थे.
युद्ध में एक विजेता को यही सब चाहिए . राम ने रावण के अंत के लिए ये सबसे ज़रूरी उपाय किये और अंत सब जानते ही हैं .

चुभता है वो 'पल' जब भी याद आता है...!

#संस्मरण 
*चुभता है वो 'पल' जब भी याद आता है...!*
*गिरीश बिल्लोरे मुकुल*

उस शाम दिव्यांग सहायता के लिए  मेरे   एलबम बावरे-फ़कीरा का विमोचन होना था । भव्य आयोजन में आगन्तुकों की देखभाल ये व्यवस्था वो व्यवस्था कार्ड वितरण सब कुछ अपने तरीके से यंत्रवत जारी था । सतीश भैया ( बड़े भैया ) का प्रबंधकीय कौशल एवं टीम मैनेजमेंट का स्किल गज़ब ही होता है । हम तो छोटे होने के सारे फायदे उठा रहे हैं। 
सुलभा यानी हमारी सहचरी को चिंता थी कि हमने कुछ खाया नहीं सुबह का एक प्लेट पोहा बस तीन चार बजे तक ये काम वो काम निपटाने की धुन में कब शाम के 5 बज गए होश न था । शाम को लगभग 5 बजे तक घर आया पर भूख न तो समझ में आ रही थी न ही महसूस हो रही थी । बस 15 मिनिट में कपड़े बदले और फुर्र । सुलभा के मन में एक कसक थी कि आज भोजन का निरादर हुआ है । और हम सोच रहे थे कि ... रोटी तो रोज़ खा लेता हूँ पर आज काम सबसे पहले ज़रूरी है ।
सच ये भी था कि - उस शाम के बारे में मुझे कुछ भय भी था । प्रिय मित्र राजेश पाठक ने कहा - यार गिरीश भाई, 1200 की स्ट्रैंथ ज़रूरत से ज़्यादा है ! ( उस वक़्त मानस भवन की क्षमता 1200 दर्शकों के लायक थी ) 300 लोग भी आ गए तो तुम्हारा कार्यक्रम सफल समझो । कुछ दूर खड़े भैया मुस्कान बिखेरने लगे । फिर राजेश ने कहा - इस सेल अनावश्यक स्थान घिर रहा है । एलबम की बिक्री तो 3 से 5 हज़ार अधिकतम होगी आडियो एलबम कितने लोग खरीदेंगे ? 
हमने भी सोचा था कि भाई साहब ने क्या सोच के एक  सेेल काउंटर भीतर लगा दिया ? 
    पर व्यस्ततावश बात आई गई हो गई । प्रोग्राम के बाद जब नोट गिनकर यादव जी पारे मास्साब, दिलीप नेमा जी की टीम ने कैश गिनकर भैया को दिया वो 30 हज़ार था ।
ठीक 6 बजे मानस भवन की सीट्स फूल पैक हो चुकीं थी । कुछ 100 से 200 अतिथि कॉरिडोर में खड़े होकर तो कुछ गेटों से झांक रहे थे । बेसुधी इस क़दर ज़ेहन पर हावी थी कि जो पॉइंट बना कर ले गया था बोलने के लिए याद न रहे अभी भी याद नहीं बस इतना देख पा रहा था कि बहुत से लोग अपने अपने रूमालों से आँसू पौंछ रहे थे । दादा ईश्वरदास रोहाणी डॉ जितेंद्र जामदार और मेरे बाहर से आए परिजन यानी पहली दूसरी पँक्ति को तो साफ तौर पर भावुक होते देख पा रहा था । बाक़ी पीछे भी यही स्थिति थी ऐसा बाद में पता चला । इस सबके बाद मुझे तो कुछ भी याद न था सब कुछ रहस्यमय लग रहा था । दिलीप भाई, श्रद्धा, सहित और बहुत सारे गायकों की प्रस्तुति के बाद आभास-श्रेयस, ज़ाकिर हुसैन , ने कार्यक्रम को बहुत ऊँचाई पर ला दिया ।
अचानक मानसभवन के प्रथम प्रवेश द्वार पर जाते ही सहचरी ने लगभग रोक लिया और फुर्ती से टिफ़िन से रोटी निकाल कर उसमें सब्जी लगाकर मुँह में ठूंस दी । बस मुझे शर्म सी आ रही थी पर ज्यों ही पत्नी का चेहरा देखा तो सारी शर्म कपूर हो गई । पत्नि के अन्तस् के भाव एक कवि क्यों न पढ़ पाता भला...? फिर तो कार्यक्रम के तिलिस्म से बाहर निकलने लगा था मैं और तब मुझे यह भी याद आ गया कि - आज देखो मैंने अपनी पत्नि को कितना अनदेखा किया, उसके हर आग्रह को अस्वीकार किया । इस सफलता में उसका बड़ा त्याग है, वो मेरे रात रात लिखने की आदत को लेकर कभी निराश नहीं होती होती भी होगी तो कभी व्यक्त नहीं करती । रात 2 या तीन बजे भी अगर चाय पीने की इच्छा हो तो बिना शिकायत शिकवे के झट उत्साह के साथ बना दिया करती है । जीवन में नारी का त्याग और समर्पण हर बात में समर्थन मिल गया तो जानिए कि स्वर्ग हो जाता है घर । मेरे भूखे रहने पर उसे स्व. माँ सव्यसाची की तरह का दर्द क्यों महसूस होता है ?
और में हूँ कि उसे मैंने मंच से भी आभार नहीं जताया । सुधि पाठको तब से अब तक ... *चुभता है वो 'पल' जब भी याद आता है...!*
सच नारी जन्म से अंतिम स्वांस तक सिर्फ नारी नहीं एक माँ भी होती है ! कभी आप भी महसूस करते होंगे ? नहीं किया तो घर में दफ्तर से फोन लगाएं दोपहर को उधर से वो पूछेंगी ज़रूर लन्च लिया कि नहीं ! है न सच ...?

2.8.20

Lamtera : loudly soul generated voice of spiritual person..

बुंदेली लोक गायन में 3 गायन शैलीयाँ  मुझे बहुत भावुक कर देती है जिनको #बम्बूलियाँ, #देवीजस और  #लमटेरा के नाम से जानते हैं । यूं तो बुंदेली लोक गायन में ढिमरयाई, फाग, राई, बरेदी, बधाई,  भी हैं । पर ये तीन आध्यात्मिक चिंतन से सराबोर होने के कारण मोहित करतीं हैं । इन से मेरा बचपन से रिश्ता बन गया था । #बाबूजी रेलवे में स्टेशन मास्टर हुआ करते थे तब मैंने इनकी ध्वनियों को सुना था । 
*गांव के रेलवे स्टेशन के पास से गुज़रते क़ाफ़िले से उभरती मधुर समवेत आवाज़ें जो बैलों की गले की लकड़ी और पीतल की घंटियों , पहियों की खड़ख़ड़ाहट, के साथ सम्मिश्रित ( synchronise ) होकर कुछ इस तरह बन जाती थीं...गोया गंधर्वों के झुंड के झुंड सपरिवार धरा पर उतर आए हों शिव को तलाशने वह भी बेटी शांकरी के अंचल में*
मां नर्मदा के भक्त बुंदेलखंड में कुछ इसी तरह का दृश्य बनाया करते थे ।
ऐसे दृश्य अक्सर मैंने सुबह-सुबह देखे-सुने हैं । तब जब बहुत कम उम्र थी मन में संगीत के प्रति अनुराग पैदा हो गया । शनै: शनै: जब नर्मदा के महत्व को समझा तो जाना कि पूरे नर्मदा तट ही नहीं आध्यात्मिक चिंतन के वे तट हैं जहां गुरुवर शंकराचार्य साधना स्थल के रूप में चिन्हित कर गए थे।
इन्हीं तटों के इर्दगिर्द पनपी मालवी, निमाड़ी, भुवाणी, बुंदेली, बोलियां । 
   बुंदेलखंड महाकौशल के आसपास बचपन रहने के कारण मुझे बम्बुलिया, एवम  लमटेरा, ढिमरयाई, फाग, राई, जैसी गायन-शैलियों ने खूब लुभाया है। पर सबसे अधिक बम्बूलियाँ एवम लमटेरा ने । 
बंबुलिया और लमटेरा शैली में जिस तरह से लोक गायक आत्मा से निकली हुई आवाज में शिव और नर्मदा की आराधना करते हैं, उसे केवल एक आध्यात्मिक संगीत ही कह सकता हूँ । इससे अलग कुछ भी मानने को तैयार नहीं । 
बम्बूलियाँ एवम लमटेरा शैली में जिस आवाज़ का प्रयोग होता है वो आवाज़ *loudly soul generated voice of spiritual person..* ही है । 

कुछ उद्धरण देखिए

दरस की तो बेरा भई रे...!
पट खोलो छ्बीले भैरो लाल रे..!

लगन मोरी तुमसे तो लगी रे...!
महादेव बाबा बड़े रसिया रे...!!
फ़ोटो Mukul Yadav ji

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