आओ खुद से मिलवाता हूँ !
जीवन के रंग दिखलाता हूँ !
ये परबत पथ कितने सहज सरल
संग साथ चलो समझाता हूँ !!
बचपन किसे कितना याद है मुझे नहीं लगता कि बचपन याद रहता है । आत्मकथा का पहला पन्ना तो बचपन है नsss ! बचपन जिसे श्रुति के आधार पर ही लिखा जा सकता है । सो लिख रहा हूँ ।
घरेलू संवादों से ज्ञात हुआ कि आज़ाद-भारत की उम्र सोलह बरस दो माह उनतीस दिवस की तब 29 नवम्बर 1962 को रेलवे कॉलोनी सालीचौका में मेरा जन्म हुआ था । स्कूली रिकार्ड में जाने कैसे 1963 लिख गया यह रिसर्च का विषय है पर कोई फायदा नहीं इस खोजबीन में जो होना था सो हो गया ना अदालत मानेगी सरकारी दस्तावेज क्योंकि मैट्रिकुलेशन में जो भी लिखी गई वही अंतिम है।
अभी बीते 27 जून को मुझे पता चला कि मेरी जन्म तिथि 27 जून 1963 है और यह शुभ सूचना सर्विस रिकॉर्ड देखकर स्टाफ ने मुझे बधाई दी। बधाई स्वीकार की मैंने चाय मंगवा ली, नकली जन्मदिन पर चाय ही पिलाई जा सकती है वैसे भी कोविड-19 का दौर अनुबंध भूमि प्रतिबंधों को अधिरोपित करता है ।
माँ ने कई बार बताया कि मैं जन्म के बाद 9वें माह में चलना सीख चुका था , माँ बतातीं थीं कि इतनी कम आयु में मेरा सहजता से चलना सबके लिए कौतूहल का विषय था । घर के दरवाज़ों और मुझ पर खास नज़र होती थी । कहीं घर से बाहर न निकल जाऊं ? परन्तु अक्सर चुपके से बाहर निकल जाना मेरी मुख्य शरारत थी । पड़ोस के बैनर्जी बाबू के घर तक कि मेरी यात्रा अतरे-दूसरे दिन लगभग तय थी । बाबूजी की तरह वे भी सहायक स्टेशन मास्टर हुआ करते थे । पुतुल दीदी शिखा दीदी का नाम मुझे आज भी याद है चेहरों का ध्यान नहीं है । बड़ी बहन यानी शोभा दीदी के साथ रोटी पन्ना खेलतीं थीं वे । आठ से दस साल की उम्र रहीं होंगी तीनों की । दीदी मुझे उनके घर में रखे अंडे तोड़ने की वजह से वापस छोड़ जाया करतीं थीं । डांट फटकार का कार्यक्रम दीदी और माँ करतीं मुझे याद नहीं है होता भी कैसे एक बरस की उम्र की घटनाओं को कोई अवतार ही याद रख सकता है हम तो सामान्य ठहरे । माँ नहलाती मुझे फिर अंडे की महक मिटाने पावडर इतर आदि लगाती ।
शरारतें जब बढ़ने लगीं तो माँ ने बताया कि उनको दंड विधान अपनाने पड़े और मेरे पैरों बांध दिया जाता था ।
मध्यम वर्गीय परिवार की माताएं काम के बोझ से कुछ ज़्यादा ही दबी होतीं थीं उस दौर में । कुछ कठोर प्रबंध करना उनकी मजबूरी थी । मेरे दो बड़े भाई हरीश भैया, सतीश भैया, और शोभा दीदी और मेरा ध्यान रखना । खानपान की व्यवस्थाओं को सुनिश्चित करना घर में अतिथियों का आना जाना . बाबूजी को सुविधाएं देना पूजा पाठ आदि सब कुछ माँ के जिम्मे था । आज की तरह नहीं कि बर्तन साफ करने वाली मेंहरी जो कुए से पानी लाती थी के अलावा कामवाली बाइयों का गृह प्रवेश तीज त्यौहार पर ही होता था ।
माँ बाबूजी दीदी ने बताया कि 9 माह में चल निकलने वाला मैं 12 माह का होते होते बहुत शरारती हो चुका था ।
सच क्या है पर सुना तो है कि मूल नक्षत्र में जन्मी संतानें परिवार के खासकर माता पिता के लिए कष्टदाई होतीं हैं । हुआ तो यही पर इससे कोई अंधविश्वास मत अपना लेना इसे संजोग मान लेना जी ।
क़रीब डेढ़ बरस की उम्र में एक रात मुझे तेज़ बुखार आया बाबूजी बतातें हैं कि उस रात रातभर जागकर माँ बाबूजी ने मेरे सर पर दूध पानी की पट्टियाँ रखीं थीं । सुबह सुबह डॉक्टर को बुलाया गया डॉक्टर ने इंजेक्शन भी दिए पर कोई अधिक लाभ न हुआ । फलस्वरूप अगले दिन जबलपुर मेडिकल कॉलेज लाया गया । जहां एक दो दिन में डॉक्टर कौल साहब ने बताया दिया कि मेरी पोलियो के वायरस के कारण मसल्स क्षतिग्रस्त हो चुकीं हैं शरीर के दाएं भाग में असर हुआ है । विधाता का लिखा कौन मेट सकता है । परिवार ने फिर भी हर मंदिर झाड़फूंक हकीम वैद्य नीम हकीम से इलाज़ करवाया । कहतें हैं बाबूजी और माँ ने शरीर के मालिशें भी खूब कीं थीं । शेर की चर्बी से भी मसाज हुई थी । किसी ने कहा ये दान करो तो किसी ने कबूतर तक पलवा दिए । यह कहकर कि कबूतर के पंख से निकलने वाली हवा से मेरे शरीर में मसल्स फिर सक्रिय हो जावेंगी । मुझे तो कोई लाभ न हुआ अपितु कबूतरों से बिल्लियों को लाभ अवश्य हुआ । बेचारों को बिल्लियों ने निपटा दिया था ।
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1964 में स्वामी शुद्धानंदनाथ श्री जे पी शुक्ला (स्टेशन मास्टर ) चाचाजी के घर आया जाया करते थे से बाबूजी दीक्षित हुए । माँ ने भी दीक्षा ली । घर में आध्यात्मिक वातावरण का प्रकाश और तेज़ी से जमने लगा था । चिंतन मनन ध्यान कर्म के साथ प्रपंच में आध्यात्म के योग के वातावरण से घर का माहौल अदभुत होने लगा । माँ-बाबूजी केवल मेरे अन्य बच्चों की तरह होने की उम्मीद रखने लगे थे । परंतु गुरुदेव ने कहा - प्रारब्ध का फल भोगना आवश्यक है । पर इतना अवश्य है कि पप्पू (मेरा घरेलू नाम) अच्छा ही करेगा ।
गुरुदेव का आशीर्वाद, माता पिता भाई बहनों की छत्रछाया कौटोम्बिक स्नेह में मुझे कभी न लगा था कि मैं असामान्य हूँ । पर कहीं आना जाना होता तो अवश्य मुझे गोद में बैठकर जाना पड़ता था । घर में घुटनों के बल चलना मेरी आदत बन गई थी ।
कुछ दिनों के बाद बाबूजी गुर्रा यानी इटारसी के बाद जबलपुर रूट की स्टेशन पर ट्रांसफर होकर आए । तब मेरे चलने फिरने की समस्या का निदान ईश्वरी चाचा जी ने कर दिया । मुझे चाचाजी चाची जी बहुत प्रेम करते थे । चाचाजी ने काफी सोच विचार कर दो लकड़ियों के ऊपरी भाग में लकड़ी के गुटके फिट कर क्रेचैस बना दीं और चलने का अभ्यास कराया । तब तक मेरी उम्र 5 वर्ष की हो चुकी थी । तबसे मुझे बहुत कुछ याद है । वहीं मुंबई वाले काका की शादी हुई , काका जी की बारात में होशंगाबाद गया था ये सब याद है । मेरी दो छोटी बहनों का जन्म हो चुका था । उनके साथ हम मस्ती करने लगे थे ।
मेरी बहनें बड़े भैया सब के सब मेरा विशेष ध्यान रखते थे आज भी वही स्थिति है । पर उस समय स्कूल में जल्दी एडमिशन नहीं होते थे । बायां या दांया हाथ अगर उसके विपरीत वाले जान को सर के ऊपरी गोलार्द्ध से होते हुए कान पकड़ सके तो पहली कक्षा में नाम लिखा जाता था । हम भी स्कूल जाने की ज़िद करने लगे क्योंकि हम बाएं हाथ से दायां कान इसी तरीके से पकड़ने लगे थे । पर स्कूल दूर होने से हम न जा सके । इस समस्या का निदान तब हुआ जब कि बाबूजी का तबादला शहपुरा-भिटौनी रेलवे स्टेशन पर हुआ ।
क्रमशः जारी