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बुधवार, अगस्त 05, 2020

चुभता है वो 'पल' जब भी याद आता है...!

#संस्मरण 
*चुभता है वो 'पल' जब भी याद आता है...!*
*गिरीश बिल्लोरे मुकुल*

उस शाम दिव्यांग सहायता के लिए  मेरे   एलबम बावरे-फ़कीरा का विमोचन होना था । भव्य आयोजन में आगन्तुकों की देखभाल ये व्यवस्था वो व्यवस्था कार्ड वितरण सब कुछ अपने तरीके से यंत्रवत जारी था । सतीश भैया ( बड़े भैया ) का प्रबंधकीय कौशल एवं टीम मैनेजमेंट का स्किल गज़ब ही होता है । हम तो छोटे होने के सारे फायदे उठा रहे हैं। 
सुलभा यानी हमारी सहचरी को चिंता थी कि हमने कुछ खाया नहीं सुबह का एक प्लेट पोहा बस तीन चार बजे तक ये काम वो काम निपटाने की धुन में कब शाम के 5 बज गए होश न था । शाम को लगभग 5 बजे तक घर आया पर भूख न तो समझ में आ रही थी न ही महसूस हो रही थी । बस 15 मिनिट में कपड़े बदले और फुर्र । सुलभा के मन में एक कसक थी कि आज भोजन का निरादर हुआ है । और हम सोच रहे थे कि ... रोटी तो रोज़ खा लेता हूँ पर आज काम सबसे पहले ज़रूरी है ।
सच ये भी था कि - उस शाम के बारे में मुझे कुछ भय भी था । प्रिय मित्र राजेश पाठक ने कहा - यार गिरीश भाई, 1200 की स्ट्रैंथ ज़रूरत से ज़्यादा है ! ( उस वक़्त मानस भवन की क्षमता 1200 दर्शकों के लायक थी ) 300 लोग भी आ गए तो तुम्हारा कार्यक्रम सफल समझो । कुछ दूर खड़े भैया मुस्कान बिखेरने लगे । फिर राजेश ने कहा - इस सेल अनावश्यक स्थान घिर रहा है । एलबम की बिक्री तो 3 से 5 हज़ार अधिकतम होगी आडियो एलबम कितने लोग खरीदेंगे ? 
हमने भी सोचा था कि भाई साहब ने क्या सोच के एक  सेेल काउंटर भीतर लगा दिया ? 
    पर व्यस्ततावश बात आई गई हो गई । प्रोग्राम के बाद जब नोट गिनकर यादव जी पारे मास्साब, दिलीप नेमा जी की टीम ने कैश गिनकर भैया को दिया वो 30 हज़ार था ।
ठीक 6 बजे मानस भवन की सीट्स फूल पैक हो चुकीं थी । कुछ 100 से 200 अतिथि कॉरिडोर में खड़े होकर तो कुछ गेटों से झांक रहे थे । बेसुधी इस क़दर ज़ेहन पर हावी थी कि जो पॉइंट बना कर ले गया था बोलने के लिए याद न रहे अभी भी याद नहीं बस इतना देख पा रहा था कि बहुत से लोग अपने अपने रूमालों से आँसू पौंछ रहे थे । दादा ईश्वरदास रोहाणी डॉ जितेंद्र जामदार और मेरे बाहर से आए परिजन यानी पहली दूसरी पँक्ति को तो साफ तौर पर भावुक होते देख पा रहा था । बाक़ी पीछे भी यही स्थिति थी ऐसा बाद में पता चला । इस सबके बाद मुझे तो कुछ भी याद न था सब कुछ रहस्यमय लग रहा था । दिलीप भाई, श्रद्धा, सहित और बहुत सारे गायकों की प्रस्तुति के बाद आभास-श्रेयस, ज़ाकिर हुसैन , ने कार्यक्रम को बहुत ऊँचाई पर ला दिया ।
अचानक मानसभवन के प्रथम प्रवेश द्वार पर जाते ही सहचरी ने लगभग रोक लिया और फुर्ती से टिफ़िन से रोटी निकाल कर उसमें सब्जी लगाकर मुँह में ठूंस दी । बस मुझे शर्म सी आ रही थी पर ज्यों ही पत्नी का चेहरा देखा तो सारी शर्म कपूर हो गई । पत्नि के अन्तस् के भाव एक कवि क्यों न पढ़ पाता भला...? फिर तो कार्यक्रम के तिलिस्म से बाहर निकलने लगा था मैं और तब मुझे यह भी याद आ गया कि - आज देखो मैंने अपनी पत्नि को कितना अनदेखा किया, उसके हर आग्रह को अस्वीकार किया । इस सफलता में उसका बड़ा त्याग है, वो मेरे रात रात लिखने की आदत को लेकर कभी निराश नहीं होती होती भी होगी तो कभी व्यक्त नहीं करती । रात 2 या तीन बजे भी अगर चाय पीने की इच्छा हो तो बिना शिकायत शिकवे के झट उत्साह के साथ बना दिया करती है । जीवन में नारी का त्याग और समर्पण हर बात में समर्थन मिल गया तो जानिए कि स्वर्ग हो जाता है घर । मेरे भूखे रहने पर उसे स्व. माँ सव्यसाची की तरह का दर्द क्यों महसूस होता है ?
और में हूँ कि उसे मैंने मंच से भी आभार नहीं जताया । सुधि पाठको तब से अब तक ... *चुभता है वो 'पल' जब भी याद आता है...!*
सच नारी जन्म से अंतिम स्वांस तक सिर्फ नारी नहीं एक माँ भी होती है ! कभी आप भी महसूस करते होंगे ? नहीं किया तो घर में दफ्तर से फोन लगाएं दोपहर को उधर से वो पूछेंगी ज़रूर लन्च लिया कि नहीं ! है न सच ...?

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