27.8.18

अनकिया सभी पूरा हो : श्री अशोक चक्रधर

मॉरीशस में सम्पन्न विश्व हिंदी सम्मेलन पर चुटीली रिपोर्ट श्री एम एल गुप्ता आदित्य जी के ई-सन्देश से प्राप्त हुई । 
चौं रे चंपू! लौटि आयौ मॉरीसस ते?
दिल्ली लौट आया पर सम्मेलन से नहीं लौटपाया हूं। वहां 

तीन-चार दिन इतना काम किया किअब लौटकर एक ख़ालीपन सा लग रहा है। करनेको कुछ काम चाहिए।
एक काम करपूरी बात बता!
उद्घाटन सत्रअटल जी की स्मृति में दो मिनिटके मौन से प्रारंभ हुआ। दो हज़ार से अधिक प्रतिभागियों के साथ दोनों देशों के शीर्षस्थ नेताओंकी उपस्थिति श्रद्धावनत थी और हिंदी कोआश्वस्त कर रही थी। ‘डोडो और मोर’ की लघुएनीमेशन फ़िल्म को ख़ूब सराहना मिली। औरफिर अटल जी के प्रति श्रद्धांजलि का एक लंबासत्र हुआ। ‘हिंदी विश्व और भारतीय संस्कृति’ सेजुड़े चार समानांतर सत्र हुए। चार सत्र दूसरे दिनहुए। ‘हिंदी प्रौद्योगिकी का भविष्य’ विषय परविचार-गोष्ठी हुई। प्रतिभागी विभिन्न सभागारों मेंजमे रहे। भारतीय सांस्कृतिक कार्यक्रमों कोतिलांजलि दे दी गईलेकिन रात में देश-विदेश केकवियों ने अटल जी को काव्यांजलि दी। तीसरेदिन समापन समारोह हुआ। देशी-विदेशी विद्वानसम्मानित हुए। सत्रों की अनुशंसाएं प्रस्तुत कीगईं। भविष्य के लिए निकष को भारत का प्रवेश द्वार बताया गया। 
कछू बात तौ हमनैं अखबारन में पढ़ लईं। तूकोई खास बात बता! 
--एक ख़ास बात ये कि जिस होटल में हमें टिकाया गया, उसी में दो दशक पहले अटल जी ठहरे थे। इस बार यहां सुषमा जी ठहरी थीं। उनके निर्देशनमें पूरा सम्मेलन उसी कक्ष के पास वाले कक्ष सेसंचालित हो रहा था। वहां की खिड़कियों सेबंदरगाह के दूसरी ओर पुराना आप्रवासी भवनदिखता है। बंदरगाह पहले एक प्राकृतिक खाड़ीथा। यहीं जहाज आए। जहाजी उतरे। यह प्राकृतिक खाड़ी न होती तो इस छोटे से द्वीप पर बड़े जहाज न आ पाते और इस द्वीप का उपयोग एक सभ्य समाज को बसाने के लिए न हो पाता।मॉरीशसवासियों के प्रतापी भारतवंशी पुरखों केउद्यम से यहां गन्ने की खेती हुई। गन्ने ने सोना बरसा दिया। समृद्धि आने लगी और सन साठ में आज़ादी मिलने के बाद यह देश भारतवंशियों के हाथ में आ गया। विदेशी रहे, पर वर्चस्व भारतवंशियों का और उनकी भाषा का हुआ।उन्होंने हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं कोजीवित रखा। चचाअब चुनौती है हिंदी-भोजपुरीको बचाए रखने की।
चौंअब लोग हिंदी नायं बोलैं का?
पिछले दस-पंद्रह साल में मॉरीशस बदल गया है। मैंने दस साल बाद यह जो मॉरीशस देखा, इसकी नई पीढ़ी में एक अलग तरह का स्वाभिमान है। अभी तक हम इसे कहते आ रहे हैं, गिरमिटिया देश। गिरमिटिया देश वे देश हैंजिनमें भारत से गए मजदूरों के श्रम की बुनियाद पर सम्पन्न देशों नेअपने मुनाफ़े के महल बना लिए। मॉरीशस के अलावा त्रिनिडाड-टोबैगो, सूरीनाम, गुयाना, फीजी और नेटाल (दक्षिण अफ्रीकाआदि देशों में जोमज़दूर आते थेउन्हें गिरमिटिया मज़दूर कहा जाता रहा है। यह मजदूर एग्रीमेंट के तहत भेजेजाते थे। एग्रीमेंट का अपभ्रंश गिरमिटिया हो गया। मैंने मॉरीशस के एक नवयुवक से पूछा कि गिरमिटिया सम्बोधन आपको ठीक लगता है? युवक ने कहा, न तो ठीक लगता है, न बुरा लगता है। हमारे पुरखे भी स्वयं को गिरमिटिया कहते आ रहे हैं तो हमने भी एक स्तर पर स्वीकार करलिया। उन्होंने संघर्ष कियाकुर्बानियां दींहमआभारी हैं उनकेलेकिन हम तो आज़ाद मॉरीशसमें पैदा हुए। फिर हमें क्यों कहा जाए गिरमिटिया,क्यों कहा जाए प्रवासी! हम मॉरीशसवासी हैं, मॉरीशियन हैं। हमें एक स्वायत्त देश का नागरिक मानकर मॉरीशियन कहा जाना चाहिए। बात सही है चचायह स्वाभिमान और अपने देश के प्रतिप्यार का मामला है। लोकतांत्रिक ढांचे पर खड़ाकोई भी देश आकार या क्षमता के कारण छोटा या बड़ा नहीं होता। वह एक सम्प्रभु देश होता है। यहतो मॉरीशस का बड़प्पन है कि वे स्वयं को भाषाऔर संस्कृति के साम्य के कारण छोटा भारतकहते हैं। बहरहालकहा जा सकता है किसम्मेलन सफल रहा। उसके परिणाम अच्छे रहे। यह पूरा सम्मेलन अटल जी को समर्पित था।उनके प्रति श्रद्धावनत था और भविष्य के लिएकार्यावनत। श्रेष्ठ नागरिकों से बसा हुआ एक सभ्यऔर सुंदर देश है मॉरीशस। धार्मिककार्मिक औरचार्मिक देश है। 
घूमा-फिरी करी कै नायं? 
घूमा-फिरी की बात तो घूमने वाले लोग जानें कि कितने घूमे, कितने फिरे। पर हम तो रहे घिरे। निरंतर किसी  किसी काम में। पहले दिन उद्घाटन सत्र के बाद श्रद्धांजलि सभा हुई। मुझे सुषमा जी ने संचालन सौंप दिया। तीन हज़ार की उपस्थिति में कौन नहीं होगा जो बोलना न चाहेगा और वह भी सारे के सारे हिंदी के बोलने वाले लोग बैठे हों तब। संयम के साथ ढाई घंटे श्रद्धांजलि सभा चली और विदेशी विद्वानों को अधिक समय दिया गया। उसके तत्काल बाद अपना सत्र था, प्रौद्योगिकी का। वह तीन घंटे चला। उसके अगले दिन निकष और इमली पर विचार गोष्ठी होनी थी, उसकी तैयारियों में लगे। थोड़ी अव्यवस्था तो जरूर थी, घोषणा किसी स्थान की हुई। सत्र कहीं हुए। इसमें वक्ता और श्रोता सभी भटकते रहे। बहरहाल, पहला सत्र रिजीजू जी की अध्यक्षता में हुआ था। उन्होंने बड़ी रुचि से निकष और कंठस्थ को देखा, सुना। चचा अब ज़रूरी ये है कि योजनाओं को मंत्रीगण समझें और उनको व्यवहार में लाया जाना देखें। इस मामले में यह सम्मेलन मुझे उपलब्धि नजर आता है, क्योंकि संगोष्ठी में विदेश राज्य मंत्री एम. जे. अकबर बैठे थे। उन्होंनेप्रौद्योगिकी से जुड़े हुए पच्चीस विद्वानों को सुना और उसके प्रति अपनी गंभीरता दिखाई।
मंत्री का कल्लिंगे?
जब तक सरकार के मंत्रीगण नहीं समझेंगे कि प्रौद्योगिकी हिंदी के विकास के लिए सर्वाधिक ज़रूरी है, तब तक योजनाएं फाइलों में रहेंगी। आधे-अधूरे प्रयत्नों के साथ उत्पाद बनाए जाएंगे जो जनता तक नहीं जाएंगे। इस बार निकष का प्रारूप तीन हज़ार के सभागार में दिखाया गया कि वह हिंदी सीखने, परीक्षा देने और प्रमाण-पत्र प्राप्त करने वाला वैश्विक द्वार होगा। जिसमें उनकी सुननेबोलने, लिखने और पढ़ने की ऑनलाइनकक्षाएं दी जाएंगी, परीक्षाएं ली जाएंगी, प्रमाण-पत्र दिए जाएंगे। इन सबके बाद काव्यांजलि हुई। रात के बारह बज गए। लौटते ही अगले दिन के लिए अपने सत्र की अनुशंसाएं तैयार करनी थीं।विचार-गोष्ठी में भी अनेक अनुशंसाएं प्राप्त हुईं।पता नहीं ऊर्जा कहां से आती है, जो आपसे काम कराती है। काम डॉविजय कुमार मल्होत्रा ने भीरात भर किया। वर्धा विश्वविद्यालय की ओर से भी कागज़ आए। समापन समारोह के प्रारंभ में आठसत्रों का लेखा-जोखा बताने के लिए आठ कोज़िम्मेदारी दी गई थी। प्रत्येक के लिए समय दियागया तीन मिनिट का। अब भला तीन-तीन घंटों केसत्रों का ब्यौरा तीन-तीन मिनिट में कैसे दिया जासकता था। मेरे सत्र के काग़ज़ों का पुलिंदा मेरे हाथ में था। पहले वक्ता प्रोगिरीश्वर मिश्र का एकमिनिट तो मंचस्थ लोगों को संबोधित करने में हीनिकल गया। अपने सत्र की रपट वे बहुत अच्छीतरह बता रहे थे। तीन मिनिट पूरे होते हीसंचालिका महोदया ने डायस पर पर्ची रख दी।अच्छा हुआ उन्होंने वह पर्ची देखी ही नहींयादेखकर अनदेखी कर दी। डेढ़-दो मिनिट औरलेकर अपनी बात गरिमापूर्वक पूरी कर दी। अबमेरी बारी थी। डायस पर जाते ही मेरे हाथ से
अच्छा हुआ उन्होंने वहपर्ची देखी ही नहींया देखकरअनदेखी कर दी। डेढ़-दो मिनिट औरलेकर अपनी बा गरिमापूर्वक पूरीकर दी। अब मेरी बारी थी। डायसपर जाते ही मेरे हाथ से काग़ज़ों कापुलिंदा गिर गया। काग़ज़ बिखर गए।सभागार में सबके सामने मैंने कागज़ उठाए और माइक पर मेरा पहला वाक्य लगभग ऐसा थाउठाते समयये काग़ज़ मुझसे कह रहे थे कि अगर तुम हमारा सहारा लोगे तो तीन मिनिट में अपनी बात पूरी  करपाओगे। हमें डायस के माइक केनीचे दबा दो’ और चचा मैंने अपनेकाग़ज़ डायस पर रखे माइक के नीचेदबा दिये। स्मृति और अपने आईपैड पर लिखे नोट्स के सहारे मैंनेअनुशंसाएं सुना दीं अपनी बातसमाप् करने के लिए मैं एक कवितासुनाने को था कि अचानक पर्ची गई। मैंने अपनी सुनास पर कोमलब्रेक लगाए।
 मेरे कुर्सी पर लौटने तक शायद सुषमा जी ने संचालिका को पांच मिनिट का इशारा कर दिया। उसके बाद किसी को पर्ची नहीं भेजी गई। बने तसल्ली से अपनेअपने सत्र की अनुशंसाएं पढ़ीं फिर देशी-विदेशी विद्वानों को सम्मानित कियागया। सी-डैक द्वारा बनाई हुईनिकष’ फिल्म दिखा गई। वहां केकार्यकारी राष्ट्रपति का मार्मिकभाषण हुआ। धन्यवाद दिए गए।
अपनी कबता हमें तौ सुनाय दै!
सुनिए!
अनुपालन को प्यासी बैठीं
जाने कितनी अनुशंसाएं,
आड़े आती हैं शंकाएं
पीड़ित करतीं आशंकाएं।

है कौन पूर्णता का दावा
जो दावे से कर पाता है,
कितना भी कर डाले लेकिन
अनकिया बहुत रह जाता है।

चिन्हित करने के बावजूद
मंज़िल आगे बढ़ जाती है,
गति का लेखा पीछे आकर
गुपचुप-गुपचुप पढ़ जाती है।

मंज़िल हो जाय परास्त, अगर
गतिमान प्रगति का चक्का हो,
अनकिया सभी पूरा हो, यदि
संकल्प हमारा पक्का हो।

तीन बजे भोजन हुआ। पांच बजे बस आ गई। नौ बजे की फ्लाइट से वापसी हो गई। आपसे मिलना था, सो आ गया, वरना अभी परवर्ती काम बाकी थे। दूसरे सत्रों का ब्यौरा भी तैयार कर रहा हूं।

20.8.18

कृष्णं वन्दे जगतगुरु


【 *शोध दृष्टिपत्र* 】
[ कृष्ण ईश्वर के अवतार हैं इस बात को नकारने का सामर्थ्य अब शेष नहीं होना चाहिए कुछ तर्कवादी एवं वामपंथी चिंतक ईश्वर एवम भारतीय सनातन के अस्तित्व को ही नकारने के उद्देश्य से कर्मयोगी कृष्ण एवं मर्यादा पुरुषोत्तम राम को सिरे से खारिज करने की चेष्टा में बरसों से सक्रिय हैं. जन्माष्टमी के पर्व पर कृष्ण के सन्दर्भ में अपनी बात रखते हुए महायोगी कृष्ण के अस्तिव के समर्थन में अपने विचार रख रहा हूँ , ]
मेरा मंतव्य है कि जिस कृष्ण से सर्वहारा के प्रति संवेदना भाव का प्रादुर्भाव हुआ उसे अस्वीकृत करना गैरवाज़िब ही नहीं सिरे से खारिज करने लायक है.
भारतीय सनातनी संस्कृति के महानायक कृष्ण को काल्पनिक कैरेक्टर की संज्ञा देना तथा महाभारत की घटनाओं से असहमति होना भी आयातित वैचारिक षडयंत्रों का एक नमूना ही है.
*श्रीकृष्ण काल का नियतन*
विकी पीडिया में दर्ज विवरण अनुसार कृष्ण का जीवन काल ईसा के 3200 से 3100 वर्ष पूर्व का होना अनुमानित है जबकि कुछ विद्वान कृष्ण के काल को ईसा के 1000 साल पूर्व का मानते हैं. हम भी महाभारत काल को मोटे तौर पर 5 से 6 हजार साल पूर्व का मानते हैं. यहाँ वैदिक काल का ज़िक्र आवश्यक है जो कर्मयोगी कृष्ण के जीवन काल के उपरांत का माना जाता है. इसे ईसा के 1500 वर्ष पूर्व का माना जाना चाहिए तो उसके 1500 वर्ष पूर्व का कालखंड कृष्ण का कालखंड कहा जा सकता है. पश्चिमी विचारकों ने अंतत: रामायण काल एवं महाभारत काल के प्रति सकारात्मक रूप से सहमती व्यक्त की किन्तु कुछ विचारकों ने इस पर ख़ास सहमति न देते हुए ऋग्वेद के हवाले से आर्यों और कृष्ण के वंश मध्य संघर्ष का जिक्र भी किया है. सनातन संस्कृति का अभ्युदय वैदिक काल के पूर्व का है. कृष्ण का कालखंड आर्य आगमन के पूर्व का माना जाए तो स्वाभाविक है कि कृष्ण के कुल के लोग जो पेशे से गोपालक थे का वैदिक कालीन समाज से संघर्ष अवश्यम्भावी है क्योंकि कृष्ण के समाधिष्ठ होने के बाद यदुवंश के हाथ से सत्ता का छूटना और आर्यों द्वारा सुनियोजित तरीके से प्रशासनिक एवं सामाजिक व्यवस्था हाथों में लेना संघर्ष का एक प्रमुख कारण हो सकता है. *आर्यों का कृष्ण से युद्ध नहीं हुआ बल्कि उनके वंश से सम्भव है ।*
जन्माष्टमी के अवसर पर हम इस बिंदु पर विमर्श करना चाहते हैं कि
क्या कृष्ण मानवतावादी न थे ..?
और
क्या उनको सिरे से खारिज कर देना चाहिए ?
प्रथम प्रश्न के उत्तर में मेरा मत है कि वास्तव में कृष्ण महान मानवतावादी व्यक्तित्व के धनी थे. उनका जीवनवृत देखने से इस बात की पुष्टि भी होती है कि वे केवल करुणाकर थे जिनने असम के पराक्रमी राजा नरकासुर की कैद से जिन्हौने 16 हजार स्त्रियों को मुक्त कराया और उनको अपने राज्य में सुरक्षा प्रदान की . कृष्ण की परन्तु उन्होंने आठ महिलाओं से शादी की। उनकी आठ पत्नियों के नाम रुक्मिणी, सत्यभामा, जाम्बवती, कालिंदी, मित्रविंदा, नाग्नाजिती, भद्रा और लक्ष्मणा थीं . राधा से कृष्ण का मात्र आद्यात्मिक सम्बन्ध था.
दूसरा उदाहरण *कृष्ण ने किशोरावस्था में साथियों के साथ गोपियों के दूध दही माखन से भरे घड़ों को तोड़ कर मथुरा में दूध दही माखन की आपूर्ति रोक कर कंस के विरुद्ध क्रान्ति के संकेत दिए. कालान्तर में कंस का वध कर सामुदायिक दासता को ख़त्म करते हुए प्रशासनिक व्यवस्था अपने पास कर ली.*
कृष्ण व्यक्ति पूजा के विरोधी थे इस बात की पुष्टि इस तथ्य से भी सहज हो जाती है कि उनने इंद्र देव की पूजा के खिलाफ सभी को एकजुट किया और इंद्र के बदले की भावना से किये अत्याचार को रोकने पर्वत को छतरी बना कर जनता की रक्षा भी की .
कृष्ण ने दम्भी दुर्योधन के अत्याचार से मुक्ति के लिए जिस तरह पांडवों का साथ दिया उसे भारतीय सनातनी व्यवस्था का वो उज्जवल पक्ष उभरता है जिसमें सबसे पहले सबसे पीड़ित की मदद के लिए आगे आना चाहिए साथ ही आगे बढ़ क्र मदद करना चाहिए.
द्वापर में नारी के प्रति दोयम व्यवहार को कोई स्थान न था सो अगर हम मान लें कि आर्य कृष्ण के उपरांत भारत आए तथा वेदों की रचना की तो यह हमारी सनातन प्रणाली से ही लिया गया सन्देश था जिसे उन्होंने (आर्यों ने) स्वीकार्य किया कि स्त्री-पुरुष में समानता होनी चाहिए. तथा वेदों में लिपिबद्ध भी किया गया.
*वैदिक भारत में नारी की स्थिति*
संयुक्त परिवार प्रथा प्रचलित थी .
अस्पृश्यता, सती प्रथा, परदा प्रथा, बाल विवाह आदि का प्रचलन नहीं था .
शिक्षा एवं वर चुनने का अधिकार महिलाओं को था . विधवा विवाह, महिलाओं का उपनयन संस्कार, नियोग, गन्धर्व एवं अंतर्जातीय विवाह प्रचलित था.
वस्त्राभूषण स्त्री एवं पुरूष दोनों को प्रिय थे.
अपाला, घोष, मैत्रयी, विश्ववारा, गार्गी आदि विदुषी महिलाएं थीं।
उपरोक्त विवरण स्पष्ट रूप से साबित करने में सफल है कि आर्यों के काल के पूर्व अर्थात राम एवम कृष्ण काल में नारी को साम्य अवसर थे । कृष्ण काल में अधिक स्वाधीनता मिली थी जो रामायण काल में रक्ष-संस्कृति के पोषक रावण ने राज परिवार तक सीमित थी ।
वर्तमान सन्दर्भ में देखा जाए तो अत्याधुनिक विचारक जो भारत की सनातन व्यवस्था के खिलाफ हैं कृष्ण एवं उनके काल में सामाजिक व्यवस्था को क्या उनको सिरे से खारिज कर देना चाहते हैं जबकि द्वापर में अस्पृश्यता, दास-प्रथा, भिखारियों और कृषि दासों का न होना एक उल्लेखनीय तथ्य है जो वेदों में भी कालान्तर में लिखा गया .
सुधि पाठको रामायण एवं महाभारत के शीर्ष पुरुष राम एवं कृष्ण की गाथाएं न तो भ्रामक हैं न ही काल्पनिक अपितु मूल कथानक में दौनों ही अस्तित्व में थे जिसकी पुष्टि वैज्ञानिकों द्वारा भी की जा चुकी है और कार्बन टेस्ट से भी भारतीय संस्कृति के अस्तित्व को हाल में 50 से 55 हज़ार वर्ष पूर्व के मानव जीवन एवम अन्य अवशेष मिलने की पुष्टि हुई है । अत: उनको काल्पनिक मानना सनातनी व्यवस्था के साथ अतिचार होगा . अस्तु हम सनातनी व्यवस्था के समर्थन में सतत अध्ययन करते कराते रहें तथा वाम-विचारकों के अनर्गल प्रलाप को रोकने संकल्पित हों. साथ ही अपने घर आनेवाले अन्य वर्ण के लोगों एवम अपने बच्चों को सन्दर्भों के साथ बताएं कि भारतीय सनातन संस्कृति एवम परम्पराएं माइथ अर्थात काल्पनिक नहीं सत्य है । एक बात और ध्यान दीजिए कि क्रिश्चियन इतिहास 2500, मुस्लिम इतिहास 1500 वर्ष तक का है । जबकि हमारा इतिहास 50 हज़ार से अधिक पुराना है लिपिबध्द भी था जो तक्षशिला के उस ग्रंथालय में सुरक्षित था जिसे डाकू लुटेरे विदेशियों ने जला दिया था आपने सुना ही होगा कि तक्षशिला की लायब्रेरी की आग कई दिनों तक बुझी ही न थी ।

*शोध दृष्टिपत्र*
*गिरीश बिल्लोरे मुकुल*
969/1, गेट नम्बर 4
स्नेह नगर रोड, जबलपुर
482002
girishbillore@gmail.com

17.8.18

समय से आगे के चिंतक महात्मा अटल जी


आज स्तब्ध हो जाना लाज़िमी है जिसकी अवधारणा थी कि डेमोक्रेटिक सिस्टम में हिंसा और वैमनस्यता का कोई स्थान न नहीं । एक कवि के अतिरिक्त शायद ही कोई इतना नरम रुख रखता हो एक सियासी होने के बावज़ूद ।
हिंसा के विरुद्ध एक समरस वातावरण निर्माण की कोशिश को ये देश याद रखेगा ।
अटल बिहारी वाजपेयी जी के जबलपुर आगमन पर हम युवा पीढ़ी के लोग अक्सर उस सभा में ज़रूर जाते थे । मैं तो उनकी मानवीय संवेदनाओं पर आधारित जीवन क्रम का प्रभाव देखना चाहता था । उनके वक्तव्यों में समकालीन परिस्थितियों के लिए सामाजिक सहिष्णुता के लिए जो भी कंटेंट्स होते थे सृजन के विद्यार्थी के रूप में मेरे अनंत तक उतरती थी । वक्तता के रूप में अपनी ओर सम्मोहित करने के मुद्दे पर विश्व के महान वक्ताओं में श्रीमती इंदिरा जी , ओपराह विनफ्रे मार्टिन लूथर किंग, के ऊपर रखता हूँ । क्योंकि वे जो कहते थे उसे जीते भी थे उनकी जिव्हा से निकली ध्वनि कोरे शब्द न थे उनमें सत्यबोधित हो जाने के सहज गुण मैने ही नहीं सभी ने महसूस किए ही होंगे । उनको सियासी नज़रिये से न देख पाऊंगा क्योंकि उनकी छवि अधिसंख्यक भारतीयों में साहित्यकारों की थी । उनकी कविताओं को ध्यान से समझा जाए तो वे मानवीय मूल्यों का पोषण करती नज़र आती हैं । वे हिंदू थे पर हिंदुत्व के समरसता वाले पहलू के पैरोकार थे यानी आध्यात्मिकता से भरे थे लबालब ।
1980 में जन्मी मुखर सियासी कवायद के पूर्व से ही उनका कद सांसद के रूप में बड़ा था ।
*अटलजी के जीवन मूल्यों को आत्मसात करके ही हम विश्व में आगे ला सकतें हैं अटल जी के जीवन दर्शन में समरसता उनकी सम्मोहन शक्ति का आधार है

*अटलजी को समर्पित कविता*
मस्तैला अलबेला कवि था
प्रखर मुखर नवयुग का रवि था
^^^^^^^^
नवचिंतन , अध्ययन के दिन थे
तबसे तुमसे है मिलना जारी ।
मस्ताने वक्ता तबसे ही अपनी
चली आ रही तुमसे यारी ।।
रिश्ता जाने क्या दुनियाँ वाले
इक कविता का अपने कवि का ।।
*****
न देखा छूकर ही है तुमको
न ही सनमुख संवाद किया है ।।
जितना अब तक बोला है मैंने -
तेरा सब कुछ हुआ दिया है ।।
दुश्मन से भी रार न पाली
असर पड़ा तुमसे प्रखर कवि का ।।
*******
वर्ष सतहत्तर याद है सबको
विश्व मंच पर अभिव्यक्ति का ।
लोहा मनवाया था तुमने तब
इस भारत की शक्ति का ।।
मुस्काए जब बुद्ध विश्व हतप्रभ
मरुथल में हुआ उदय नए रवि का
^^^^^^
संख्याबल को सम्मानित कर
तेरह दिन में दिल जीत लिए ।
दुश्मन के द्वारे जा पहुंचे-
साथ सनेही गीत लिए ।।
कुलघाती ने वार पीठ पर किया
छलनी हुआ मानस कवि का ।।
*******
बाँया हाथ उठाया बोले
अब हार नहीं मानूँगा मैं।
पथ पे छल बो दो कितने भी
अब रार नहीं पालूंगा मैं ।।
जिससे मेरा मन आलोकित
ये प्रकाश है अटल रवि का
*******
मृत्यु को औक़ात बताना
जीवन का संवाद सुनाना ।
तुमसे बेहतर किससे सम्भव
देशराग का बेहतर गाना ।।
कूच किया अब कब आओगे
क्या उत्तर है बोलो तुम कवि का ।।
*********
*गिरीश बिल्लोरे मुकुल*



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