आज स्तब्ध हो जाना लाज़िमी है जिसकी अवधारणा थी कि डेमोक्रेटिक सिस्टम में हिंसा और वैमनस्यता का कोई स्थान न नहीं । एक कवि के अतिरिक्त शायद ही कोई इतना नरम रुख रखता हो एक सियासी होने के बावज़ूद ।
हिंसा के विरुद्ध एक समरस वातावरण निर्माण की कोशिश को ये देश याद रखेगा ।
अटल बिहारी वाजपेयी जी के जबलपुर आगमन पर हम युवा पीढ़ी के लोग अक्सर उस सभा में ज़रूर जाते थे । मैं तो उनकी मानवीय संवेदनाओं पर आधारित जीवन क्रम का प्रभाव देखना चाहता था । उनके वक्तव्यों में समकालीन परिस्थितियों के लिए सामाजिक सहिष्णुता के लिए जो भी कंटेंट्स होते थे सृजन के विद्यार्थी के रूप में मेरे अनंत तक उतरती थी । वक्तता के रूप में अपनी ओर सम्मोहित करने के मुद्दे पर विश्व के महान वक्ताओं में श्रीमती इंदिरा जी , ओपराह विनफ्रे मार्टिन लूथर किंग, के ऊपर रखता हूँ । क्योंकि वे जो कहते थे उसे जीते भी थे उनकी जिव्हा से निकली ध्वनि कोरे शब्द न थे उनमें सत्यबोधित हो जाने के सहज गुण मैने ही नहीं सभी ने महसूस किए ही होंगे । उनको सियासी नज़रिये से न देख पाऊंगा क्योंकि उनकी छवि अधिसंख्यक भारतीयों में साहित्यकारों की थी । उनकी कविताओं को ध्यान से समझा जाए तो वे मानवीय मूल्यों का पोषण करती नज़र आती हैं । वे हिंदू थे पर हिंदुत्व के समरसता वाले पहलू के पैरोकार थे यानी आध्यात्मिकता से भरे थे लबालब ।
1980 में जन्मी मुखर सियासी कवायद के पूर्व से ही उनका कद सांसद के रूप में बड़ा था ।
*अटलजी के जीवन मूल्यों को आत्मसात करके ही हम विश्व में आगे ला सकतें हैं अटल जी के जीवन दर्शन में समरसता उनकी सम्मोहन शक्ति का आधार है
*अटलजी को समर्पित कविता*
मस्तैला अलबेला कवि था
प्रखर मुखर नवयुग का रवि था
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नवचिंतन , अध्ययन के दिन थे
तबसे तुमसे है मिलना जारी ।
मस्ताने वक्ता तबसे ही अपनी
चली आ रही तुमसे यारी ।।
रिश्ता जाने क्या दुनियाँ वाले
इक कविता का अपने कवि का ।।
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न देखा छूकर ही है तुमको
न ही सनमुख संवाद किया है ।।
जितना अब तक बोला है मैंने -
तेरा सब कुछ हुआ दिया है ।।
दुश्मन से भी रार न पाली
असर पड़ा तुमसे प्रखर कवि का ।।
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वर्ष सतहत्तर याद है सबको
विश्व मंच पर अभिव्यक्ति का ।
लोहा मनवाया था तुमने तब
इस भारत की शक्ति का ।।
मुस्काए जब बुद्ध विश्व हतप्रभ
मरुथल में हुआ उदय नए रवि का
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संख्याबल को सम्मानित कर
तेरह दिन में दिल जीत लिए ।
दुश्मन के द्वारे जा पहुंचे-
साथ सनेही गीत लिए ।।
कुलघाती ने वार पीठ पर किया
छलनी हुआ मानस कवि का ।।
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बाँया हाथ उठाया बोले
अब हार नहीं मानूँगा मैं।
पथ पे छल बो दो कितने भी
अब रार नहीं पालूंगा मैं ।।
जिससे मेरा मन आलोकित
ये प्रकाश है अटल रवि का
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मृत्यु को औक़ात बताना
जीवन का संवाद सुनाना ।
तुमसे बेहतर किससे सम्भव
देशराग का बेहतर गाना ।।
कूच किया अब कब आओगे
क्या उत्तर है बोलो तुम कवि का ।।
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*गिरीश बिल्लोरे मुकुल*