14.11.15

"वेतन और मज़दूरी मत बढ़ाओ ?"

आज के भौतिकयुग में ऐसी मांग बेहूदा ही लगती होगी न । है ही बेहूदा भाई इस सोच को आप क्रांतिकारी सोच मानें भी तो क्यों ? भारतीय अर्थव्यवस्था के इर्दगिर्द जटिलताओं का जंजाल है । आज भी अर्थ व्यवस्था बची अवश्य है परंतु स्थिरता के तत्व इसमें शामिल नहीं हैं । देश का विकास व्यक्तिगत सेक्टर में सबसे अधिक असंतुलित एवं भयातुर है । वो पूंजी निर्माण में सहायक नहीं हो पा रहा इस बिंदु पर मैंने पूर्व में चिंता ज़ाहिर की थी । उसी बिंदु को विस्तार देने एक बार फिर आपके समक्ष हूँ 
मित्रो देश को अधिक मुद्राओं (भारतीय सन्दर्भ में रुपयों ) की  ज़रुरत नहीं है . उससे  अधिक "फूल प्रूफ मूल्यनियतन प्रणाली" को विकसित करने की ज़रुरत है । ताकि आम भारतीय का घरेलू बजट प्रभावित न हो । किन्तु ऐसा संभव शायद ही हो इस दिशा में सोचना भारतीय अर्थविज्ञानीयो ने शायद छोड़ ही दिया है । 
       बाज़ार ने लोगों की जीवन शैली के स्तर को उठाने कास्ट एनहान्स्मेंट को प्रमुखता दी है । तो कराधान की आहुति से भी कीमतों का ग्राफ में धनात्मक  बढ़ोत्तरी ही नज़र आई है । आपको एक उपयोगी खाद्य सामग्री को क्रय करने में अगर 10 रूपए खर्च करने होते हैं तो जानिये आप 4 रुपये मूल्य की वस्तु खरीद रहे होते हैं जो 6 रूपए आपने अतिरिक्त दिए वो उत्पादन  लाभ विज्ञापन कमीशन कर के रूप में देते हैं । इस  बाज़ार असंतुलित हो गया है । आपकी एक ज़रुरत आपको कंगाल बनाने की दिशा में उठाया एक कदम है । इसी क्रम में बीमार होना तो एक सामान्य जीवन को हिला के रख देता है . 

ऐसा इस लिये हो रहा है क्योंक़ि न तो अर्थशास्त्रियों के पास "फूल प्रूफ मूल्यनियतन प्रणाली" के लिए कोई तरीका है न ही आम आदमी के मन में आर्थिक समस्याओं से निज़ात पाने के लिए कोई एजेण्डा ही है । सरकार अगर मूल्य नियंत्रण की गारंटी देती है तो हम कहेंगे ही न "वेतन और मज़दूरी मत बढ़ाओ ?"     

13.11.15

ऐ शहर-ए-लखनऊ तुझे मेरा सलाम है.....-डॉ. भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी

मुझे लखनउ भुलाए नहीं भूलता डा भूपेन्द्र ने जो लिक्खा वो मेरे एहसासों में ज़िंदा है 20 बरस बाद भी... बेशक ख़ूबसूरत शहर ......... है   
अमाँ मियाँ वह भी क्या जमाना था। जब हमारा हर छोटा बड़ा सिक्का चला करता था। आज तो चवन्नी, अठन्नी और एक रूपए के सिक्के की वकत ही नहीं रही। हम भी नखलऊ में पले-बढ़े, पढ़े, तहजीब तालीम हासिल किया। चवन्नी की एक कप चाय और तीन पत्ती पान की कीमत भी चवन्नी हुआ करती थी। एक रूपए जेब में फिर क्या था पूरा नखलऊ घूमते थे। चवन्नी में सिटी बस पूरे नउवाबी शहर का सैर करती थी, और एक कप चाय तीन पत्ती पान की गिलौरी मुँह में डाले रॉथमैन्स/ट्रिपलफाइव (555 स्टेट एक्सप्रेस) होंठों से लगाए धूआँ उड़ाने के बाद कुल एक रूपए का ही खर्च बैठता था। वाह क्या जमाना था वह भी।
आज तो चवन्नी/अठन्नी का नाम सुनते ही दुकानदार इस कदर घूरता है जैसे किसी भिखमंगे से सामना पड़ गया हो। कुल मिलाकर यह कहना ही बेहतर होगा कि वह जमाना लद गया जब हमारा हर सिक्का चलता था। लखनऊ शहर को सलाम किए अर्सा बीत गया, सुना है कि अब नउवाबों का शहर नखलऊ काफी तब्दील हो गया है। काश! हमने शहर-ए-लखनऊ से मुहब्बत न की होती यहीं अच्छा होता कम से कम आज यह दर्द भरा गीत तो न गाना पड़ता कि- ऐ मुहब्बत तेरे अंजाम (परिणाम) पे रोना आया।
बहरहाल अब न तो नखलऊ में रहता हूँ और न वह जमाना ही रहा जब चवन्नी की कनकइयाउड़ाकर हम भी नखलउवा खेल में शामिल हुआ करते थे। कित्ता मजा आता था जब हर शाम हजरतगंज की लवलेन (जो अब नहीं है) में गंजिंग करने के नाम पर मटरगश्ती करते थे। हिन्द काफी हाउस में एक रूपए की काफी और घण्टों बैठकर गप्पबाजी। हम फिदाए लखनऊ और लखनऊ फिदाए हम पर। हमारी जवानी के शुरूआती दिनों में मेरे महबूब, पालकी, मेरे हुजूर, गीत फिल्मों की शूटिंग चारबाग रेलवे स्टेशन, पोलोग्राउण्ड, इमाम बाड़ा, मंकीब्रिज (हनुमान सेतु), मेडिकल कालेज, कैसरबाग, अमीनाबाद, नजीराबाद में हुई थी, जिसे देखकर खूब लुत्फ उठाया था। राजेन्द्र कुमार, जितेन्द्र, राज कुमार, माला सिन्हा, साधना जैसी अदाकाराओं को काफी करीब से देखने का मौका हमें नखलऊ में ही मिला था। उसके लिए मुम्बई की मायानगरी तक का चक्कर नहीं लगाना पड़ा था।
पॉकेट में अधिकतम 5 रूपए हुआ करते थे और हमारे ठाट-बाट नउवाबों जैसे। क्या जमाना था जब हम मुख्यमंत्री निवास और राजभवन में बगैर रोकटोक के प्रवेश पा जाते थे। उस समय आटो/टैम्पो का प्रचलन कम ही था। हम लोग ताँगे या फिर रिक्शे पर बैठकर गंतव्य को आते-जाते थे । पैसे वाले चार पहिया टैक्सियों में और नवाब बग्घियों में, मोहनमीकिन्स के मालिकान इम्पाला, शेवरलेट से चलते थे । यह सब लखनऊ की शान-ओ-शौकत थी। भिखमंगे व टुटपुँजिए कम ही दिखते थे। यहाँ तो ऐसे ही लोग उद्यमी/व्यवसाई होकर हम पर ही रोब गालिब करते हैं।
हमारे जमाने में लखनऊ का वजूदमिटा नहीं था, और न ही उसकी ऐतिहासिकता को मिटाने का प्रयास लोकतंत्रीय शासकों द्वारा किया गया था । हमें पता चला है कि अब तो लखनऊ काफी विस्तारित एवं परिवर्तित हो चुका है। शायद यही वजह भी है कि अब पर्यटक और बालीवुड के फिल्मकारों ने लखनऊ से मुँह मोड़ लिया। हुसैनाबाद का घण्टाघर, चारबाग रेलवे स्टेशन, खम्मनपीर बाबा, ऐशबाग की फ्लोर मिल, यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री, मवइया, टेढ़ी पुलिया, आलमबाग का चौराहा, ब्लण्ट स्क्वायर, नत्था होटल, के0के0सी0, हुसैनगंज, बर्लिंग्टन चौराहा, विधान भवन, जी0पी00, हजरतगंज का इलाहाबाद बैंक, अशोक मार्ग, डी.एस. आफिस, कोतवाली, मैफेयर सिनेमा, रायल कैफे, चौधरी स्वीट्स, लालबाग नावेल्टी सिनेमा, झण्डे वाला पार्क, नजीराबाद के कबाब की दुकानें, यहियागंज के वर्तन भण्डार, राम आसरे की मिठाइयाँ, पान दरीबा, गन्दा नाला, नाका हिन्डोला, गणेशगंज, गड़बड़झाला, दिलकुशा, ला मार्टीनियर, गोमती नदी, लखनऊ यूनिवर्सिटी, आई.टी.आई चौराहा, रेजीडेन्सी-बारादरी, इमाम बाड़े, रूमी दरवाजा की बहुत याद आती है। डालीगंज का हनुमान मन्दिर, लखनऊ की छत्तर मंजिल, शहीद स्मारक को भूल नहीं पा रहा हूँ, ग्लोब पार्क, रविन्द्रालय सभी मेरी जेहन में हैं।

लखनऊ को वहाँ के वासिन्दे नखलऊ बोलते हैं, अब शायद ऐसा न होता हो, लेकिन बड़ा मजा आता था, जब दो नखलउवा आपस में बातें करते भौकाल मारते और एक से एक धाँसू लन्तरानियाँ मारते। ताँगों से चलने वाले नवाबों के एक हाथ में छड़ी और दूसरे में छाता हुआ करता था। शेरवानी, अचकन वल्लाह क्या खूब जमते थे इन परिधानों में वे लोग। एक जेब में भूने चने, दूसरी में सूखे मेवे और तीसरी जेब में इलायची, लौंग तथा चौथी में कन्नौज का इत्तर रखने वाले ये पुराने नवाब जब भी किसी से मिलते थे तब बाद दुआ-सलाम खैर सल्लाह के सूखे मेवे रखे पाकेट में हाथ डालकर उसे प्रस्तुत करते थे। यह भी कहते थे कि भाई नवाबी भले ही चली गई, लेकिन हम है तो खानदानी नवाब.. और इस तरह अपनी प्रशंसा स्वयं करते थे .  फिर इत्र लगाकर अलविदा कहते थे। हमें उनकी यह अदा काफी पसन्द आती थी।
हम लखनऊ शहर के तमाम ऐसे हिस्सों का भ्रमण करते थे, जहाँ अमीर लोग मौज-मस्ती के लिए जाया करते थे। खाला बाजार, चावल वाली गली, नक्खास, नादान महल रोड, पुराना चौक लखनऊ..........आदि। अब तो बस उन्हें याद करके ही सन्तोष करता हूँ। कुल मिलाकर लखनऊ में हमारा हर सिक्का चलता था और हम उस नवाबी शहर को याद करके यह गुन गुनाते हैं- ऐ शहर-ए-लखनऊ तुझे मेरा सलाम है, तेरा ही नाम दूसरा जन्नत का नाम है। फिलहाल बस ।

अकबरपुर, अम्बेडकरनगर (उ.प्र.)

11.11.15

मोमबत्ती से रहें सावधान : सरफ़राज़ ख़ान

पैराफिन वैक्स मोमबत्ती  जो रोमांस, फ्रैग्रेंस और रोशनी के लिए इस्तेमाल की जाती हैं, इनसे घर के अंदर वायु प्रदूषण होता है, जो कैंडिल पेट्रोलियम से तैयार की जाती हैं, उनको मानव कार्सिनोजेंस और इनडोर पॉल्यूशन के तौर पर जाना जाता है.  

 

दिवाली आने को है इस्लिए हमें मोमबत्ती के प्रदूषण से अपने आप को दूर रखना चाहिए. जो लोग परफैक्ट हेल्थ मेला में आएगें उन्हें पैराफिन वैक्स मोमबत्ती के प्रदूषण के बारे में बताया जाएगा। बीसवैक्स या सोय से तैयार की गई कैंडिल, भले ही वे कितनी महंगी हो उनको सुरक्षित कहा जा सकता है क्योंकि इनसे नुकसानपरक प्रदूषण नहीं होता है.

किसी मौके पर पैराफिन कैंडिल और इसके उत्सर्जन से नुकसान नहीं होता है, लेकिन सालों तक पैराफिन की कैंडिल की रोशनी जो बाथरूम या टब पर इस्तेमाल की जाती है तो यह समस्या का सबब बन सकती है. वेंटिलेशन से बंद कमरों के प्रदूषण के स्तर को कम किया जा सकता है. जलती हुई कैंडिल से होने वाले प्रदूषण से भी सांस संबंधी समस्या या एलर्जी हो सकती है।

3.11.15

“लाल टोपी फैंक दी बंदरों ने ...!!”


लाल-टोपी बेचने वाले थके व्यापारी को पेड़ की छांह भा गई थी उसने लट्टे में बंधे 4 रोट में से दो रोट सूते और ठंडे पानी से प्यास बुझाई ... एक झपकी लेने की गरज से गठरी सिरहाना बनाया और लगा ख़ुर्र-ख़ुर्र खुर्राटे भरने. तब तक बन्दरों के मुखिया टोपी पहन कर चेलों को भी टोपी पहना दी . जागते ही व्यापारी ने अपने अपने सर की टोपी फैंकी सारे बंदरों ने वही किया अपने सर की लाल-टोपियाँ ज़मीन पर फैंक दी .
सदियों से नानी दादी की इस कहानी का अर्थ हर हिन्दुस्तानी के रक्त में बह रहा है. ........
रक्त जो ज़ेहन तक जाता है
जेहन जो उसे साफ़ करता है
जो मान्यताएं बदलता है...
ज़ेहन जो संवादी है ... उसे साफ़ रखो
जोड़ लो पुर्जा पुर्ज़ा
जिनको ज़रुरत है जोड़ने की ...!!    

28.10.15

भस्म आरती

अंतस में खौलता लावा
चेहरे पर मुस्कान का ढक्कन
धैर्य की सरेस से चिपका
तुम से मिलता हूँ ....!!
तब जब तुम्हारी बातों की सुई
मेरे भाव मनकों के छेदती
तब रिसने लगती है अंतस पीर
भीतर की आग –
तब पीढ़ा का ईंधन पाकर
तब युवा हो जाता है यकायक “लावा”
तब अचानक ज़ेहन में या सच में सामने आते हो
तब
चेहरे पर मुस्कान का ढक्कन
धैर्य की सरेस से चिपका
तुम से मिलता हूँ ....!!
मुस्कुराकर ....... अक्सर .........
मुझे ग़मगीन न देख
तुम धधकते हो अंतस से
पर तुम्हें नहीं आता –
चेहरे पर मुस्कान का ढक्कन
धैर्य की सरेस से चिपकाना ....!!
तुममें –मुझसे बस यही अलहदा है .
तुम आक्रामक होते हो
मैं मूर्खों की तरह टकटकी लगा
अपलक तुमको निहारता हूँ ...
और तुम तुम हो वही करते हो जो मैं चाहता हूँ ......
धधक- धधक कर खुद राख हो जाते हो
फूंक कर मैं ........
फिर उड़ा देता हूँ .........
तुम्हारी राख को
अपने दिलो-दिमाग से
हटा देता हूँ
तुम्हारी देह-भस्म
जो काबिल नहीं होती
गिरीश की भस्म आरती के ...
‪#‎गिरीश‬ बिल्लोरे “मुकुल”

25.10.15

“सूक्ष्म-पूंजी निर्माण में विफलताएं :कुछ कारण कुछ निदान ”


 विकासशीलता का सबसे बड़ा संकट “आय अर्जक का उत्पादकता में सहभाग न करना सकना ” है . अर्थात औसत आय अर्जित करने वाला कोई भी व्यक्ति अपने धन को पूंजी का स्वरुप देकर स्वयं के स्वामित्व में रखने असमर्थ है. जबकि भारतीय मान्यताओं के प्रभाव से उसकी अपेक्षा बचत के लिए प्रेरित तो करती है परन्तु परिस्थितियाँ आय-अर्जक के सर्वथा विपरीत होती है .
     “भारतीय वैदिक जीवन प्रणाली में जीवन में “अर्थ-धर्म-काम-मोक्ष” का भौतिक अर्थ !”
अर्थ को सर्वोपरी रखते हुए जीवन के प्रारम्भ में ही नागरिक को अर्जन करने का संकेत स्पष्ट रूप से दिया गया है ... कि आप अपनी युक्तियों, साधनों, एवं पराक्रम (क्षमताओं  एवं स्किल ) से धन अर्जन कीजिये . जो आपके धर्म अर्थात सामाजिक-दायित्वों के निर्वहन जैसे परिवार-पोषण, सामाजिक दायित्वों के निर्वहन – दान, राजकीय लेनदारियों जैसे कर (टेक्स) , लगान  आदि का निपटान कीजिये . काम अर्थात अपनी आकांक्षाओं एवं ज़रूरतों  की प्रतिपूर्ति पर व्यय कीजिये, शेष धन को संग्रहीत कीजिये भविष्य की आसन्न ज़रूरतों के लिए और मुक्त रहिये किसी भी ऐसे भय से मोक्ष का भौतिक तात्पर्य सिर्फ यही  है.
यहाँ अध्यात्म एवं धर्म से इतर मैं अलग दृष्टि से सोच एवं लिख रहा हूँ  सुधिजन सच कितना है इसका निष्कर्ष आप पर छोड़ता हूँ....!
आप विनिमय प्रणाली के बाद के आर्थिक एवं व्यावसायिक विकास पर गौर कीजिये तो पाएंगे कि सामाजिक विकास में “वैयक्तिक सेक्टर” जिसका ज़िक्र प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने अक्टूबर 2015 को  अमेरिकी यात्रा में किया की है की  सबसे बड़ी भूमिका रही . “वैयक्तिक सेक्टर”  ही आधार रहा है प्राचीन  भारतीय अर्थ व्यवस्था का . “वैयक्तिक सेक्टर” कहीं न कहीं सूक्ष्मपूंजी निर्माण की ओर इशारा है . स्वतन्त्रता के उपरांत नेहरू माडल बेशक एक अच्छी व्यवस्था कही जा सकती है वरना विश्व में भारत अल्प विकसित देशों की फेहरिस्त में शामिल रहता . किन्तु बाज़ार ने स्थानीय उत्पादों तक को हाई जैक कर “वैयक्तिक सेक्टर” को बेहद नुकसान पहुंचाया तो एकीकृत ग्रामीण विकास का कांसेप्ट लाकर सरकारी पहल ने स्थानीय उत्पादों को पुन: प्रतिष्ठित करने की कोशिश की यह भी किया गया कि की लघु-पूंजी सरकार ही देने लगी परन्तु स्थानीय उत्पादन में सकारात्मक प्रगति नहीं हुई कारण थे
1.     फैक्टरियों में बने बाज़ार के उत्पादों सापेक्ष मूल्य अधिक था
2.     फैक्टरियों में बने बाज़ार के उत्पादों सापेक्ष गुणवत्ता की दृष्टि से पीछे होना.
3.     कुटीर उत्पादकों में मार्केटिंग स्किल के ज्ञान का अभाव अथवा कमी
4.     कुटीर उत्पादकों द्वारा सामाजिक परम्पराओं के लिए उपलब्ध कराई गई पूंजी का विनियोग करना .
सन उन्नीस सौ नब्बे के बाद सरकारों ने स्वयं-सहायता-समूह आधारित आर्थिक कार्यक्रमों को आकार देने के प्रयास किये जो अप्रत्याशित रूप से सफल रहे हैं . न केवल पुरुष बल्कि महिलाओं को व्यावसायिकता एवं आर्थिक विकास का सामान रूप से मौका मिला . यहाँ इस तथ्य का ज़िक्र इस लिए किया गया कि “वैयक्तिक सेक्टर” के महत्व को समझा जा सके .
“वैयक्तिक सेक्टर” क्या है”
“वैयक्तिक सेक्टर” सूक्ष्म पूंजी निर्माण का साधन है . एक परिवार जिसमें 4-6 सदस्य हों तथा जितनी एक अथवा कुछेक मिलकर जो आय अर्जित करे तथा आय से पारिवारिक-पोषण के साथ बचत से सूक्ष्म पूंजी का निर्माण करें तथा  उसे विनिवेश करे . जो तात्कालिक अथवा दीर्घ अवधी के लिए हो परन्तु अब वो यह कर नहीं सकता क्योंकि –
1.     बदलते परिवेश में आवश्यकताएं अधिक हो रहीं है.
2.     आय का कम होना
3.     कीमतों में लगातार बढ़ोत्तरी के साथ बदलाव
4.     उत्पादों के उत्पादन मूल्य में अनावश्यक राशियों ( जैसे विज्ञापन व्यय, अत्यधिक कराधान लगाम-हीन लाभ की व्यवसायिक वृत्ति )  का जुड़ना
5.     चिकित्सा शिक्षा तथा अन्य सेवाओं के प्रबंधन के ऋण लेना
6.     बीमा एवं बैंकिंग सिस्टम अर्थ-संग्रहण करने प्रवृति से मुक्त न हो पाना हालांकि भारत सरकार ने इन दौनों बीमा एवं बैंकिंग सिस्टमस पर लगाम लगाईं है . जो बेशक सराहनीय भी है .
7.     भ्रष्टाचार     
हम आप जो सामान्य परिवारों के सदस्य हैं इस वज़ह से जहां एक ओर पूंजी निर्माता नहीं बन पाते वहीं दूसरी ओर आर्थिक रूप से सहज-संपन्न नहीं बन पाते जब तक कि कोई विशेष परिस्थिति न बन पाए. जब तक राज्य (अर्थ-व्यवस्था-नियंत्रक ईकाई) का हस्तक्षेप नहीं होता तब तक हम कर सकते लघु-पूंजी निर्माण की कोशिशें .
“तो फिर कैसे करें पूंजी निर्माण”
हम आपसे अनुत्पादक व्यय पर नियंत्रण का अनुरोध कर सकते हैं साथ ही  हमें विज्ञापनों से मोहित न रहने की शिक्षा बच्चों को देते  रहें .
पडौसी अथवा नातेदारों की आर्थिक सम्पन्नता जनित प्रतिश्पर्धा  से मुक्त रहें. मंहगी शादियाँ रोंके, आवश्यकतानुरूप साजो-सामान कपडे-लत्तों, पर व्यय करें, अनावश्यक संपन्न दिखने की कोशिशों से बचें . भ्रष्टाचार के समक्ष न झुकें . बचत की कोशिश करना तीन साल की आयु के बच्चों को सिखाने के लिए गुल्लक अवश्य खरीदें .
                         “निर्मित पूंजी का क्या करें ?”
हर कोई व्यक्ति किसी न किसी सेवा व्यवसाय के योग्य होता है अथवा निकटवर्ती समुदाय को अथवा धन की ज़रुरत पर अल्प-कालिक ऋण सुविधा मुहैया कराएं . किसी भी स्थिति में जितना संभव हो उत्पादकता आधारित व्ययों  के लिए सूक्ष्म-पूंजी का विनियोग करें . सेवा-आधारित व्यवसाय का दौर है . कोशिश हो सेवा-आधारित व्यवसाय जो कम पूंजी एवं श्रम से आरम्भ किये जा सकतें हैं में विनियोग करें .  


23.10.15

अब बॉलीवुड की तैयारी में नंदा


मॉडल और खादी के प्रमोटर के रूप में अलग पहचान बना चुकीं जानी मानी मॉडल नंदा यादव अब बॉलीवुड फिल्मों में खुद को आजमाने जा रही हैं। उन्हें इस दिशा में अच्छा रिस्पांस मिल रहा है। भोपाल यात्रा पर आईं नंदा यादव ने बताया कि वे फिलहाल सिर्फ इतना बता सकती हैं कि एक फिल्म में वे लीड रोल कर रही हैं। उन्होंने कहा कि फिल्म की आधिकारिक घोषणा और स्टार कास्ट के बारे में जल्द ही मुंबई में प्रेस कॉफ्रेंस होगी। उन्होंने कहा कि इस समय का बहुत दिनों से इंतजार था। इसके लिए उन्होंने डांस, एक्टिंग और डॉयलॉग डिलेवरी पर बहुत काम किया है। कई तरह की अन्य ट्रेनिंग भी ली है। नंदा यादव ऐसे तो दिल्ली यूनिवर्सिटी की छात्रा रही हैं जहां उन्होंने स्पेनिश सहित भाषाओं में डिग्री हासिल की, लेकिन कुछ सालों से वे मॉडलिंग कर रही हैं। देश और विदेश में कई शोज कर चुकीं नंदा ने अपनी कंपनी ‘रेड सिस्टर ब्लू’ के जरिए खादी को कई शहरों में प्रमोट किया है। उन्होंने अपने खास इंटरव्यू में कहा कि अब उनका फोकस बॉलीवुड फिल्में हैं। इससे पहले वे कई फैशन शोज, टीवी सीरियल और इवेंट्स में हिस्सा ले चुकी हैं।
सुमित वर्मा 

18.10.15

“ भारतीय बौद्धिक संपदा को छीनने की कोशिश रावण के अंत की मुख्य वज़ह थी...? ”



एक  था रावण बहुत बड़ा प्रतापी यशस्वी राज़ा, विश्व को ही नहीं अन्य ग्रहों तक विस्तारित उसका साम्राज्य वयं-रक्षाम का उदघोष करता . यह तथ्य किशोरावस्था में मैंने  आचार्य चतुरसेन शास्त्री के ज़रिये  जाना था .  रावण के पराक्रम उसकी साम्राज्य व्यवस्था को. ये अलग बात है कि उन दिनों मुझमें उतनी सियासी व्यवस्था की समझ न थी. पर एक सवाल सदा खुद  पूछता रहा- क्या वज़ह थी कि राम ने रावण को मारा राम   को हम भारतीय जो  आध्यात्मिक धार्मिक भाव से देखते हैं  राम को मैने कभी भी एक राजा के रूप में आम भारतीय की तरह मन में नहीं बसाया. मुझे उनका करुणानिधान स्वरूप ही पसंद है. किंतु जो अधिसंख्यक आबादी के लिये करुणानिधान हो वो किसी को मार कैसे सकता है ? और जब एक सम्राठ के रूप में राम को देखा तो सहज दृष्टिगोचर होती गईं सारी रामायण कालीन स्थितियां राजा रामचंद्र की रघुवीर तस्वीर साफ़ होने लगी 
                                        रामायण-कालीन वैश्विक व्यवस्था का दृश्य 
रावण के संदर्भ में  हिंदी विकीपीडिया  में दर्ज़ विवरण को देखें जहां बाल्मीकि के हवाले से (श्लोक सहित ) विवरण दर्ज़ है- 
अहो रूपमहो धैर्यमहोत्सवमहो द्युति:।
अहो राक्षसराजस्य सर्वलक्षणयुक्तता॥
आगे वे लिखते हैं "रावण को देखते ही राम मुग्ध हो जाते हैं और कहते हैं कि रूप, सौन्दर्य, धैर्य, कान्ति तथा सर्वलक्षणयुक्त होने पर भी यदि इस रावण में अधर्म बलवान न होता तो यह देवलोक का भी स्वामी बन जाता।"
                रावण जहाँ दुष्ट था और पापी था वहीं उसमें शिष्टाचार और ऊँचे आदर्श वाली मर्यादायें भी थीं । राम के वियोग में दुःखी सीता से रावण ने कहा है, "हे सीते! यदि तुम मेरे प्रति कामभाव नहीं रखती तो मैं तुझे स्पर्श नहीं कर सकता ।" शास्त्रों के अनुसार वन्ध्या, रजस्वला, अकामा आदि स्त्री को स्पर्श करने का निषेध है अतः अपने प्रति अकामा सीता को स्पर्श न करके रावण मर्यादा का ही आचरण करता है।
चूंकि इतनी अधिक विशेषताएं थीं तो बेशक कोई और वज़ह रही होगी जो राम ने रावण को मारा मेरी व्यक्तिगत  सोच है कि रावण विश्व में एक छत्र राज्य की स्थापना एवम "रक्ष-संस्कृति" के विस्तार के लिये बज़िद था. जबकि त्रेता-युग का रामायण-काल के अधिकतर साम्राज्य सात्विकता एवम सरलतम आध्यात्मिक सामाजिक समरसता युक्त राज्यों की स्थापना चाहते थे. सामाजिक व्यवस्था को बनाने का अधिकार  उनका पालन करने कराने का अधिकार जनता को ही था. सम्राठ तब भी जनता के अधीन ही थे केवल "देश की भौगोलिक सीमाओं की रक्षा, शिक्षा केंद्रों को सहयोग, अंतर्राष्ट्रीय-संबंधों का निर्वाह, " जैसे दायित्व राज्य के थे. जबकि रावण की रक्षकुल संस्कृति में अपेक्षा कृत अधिक उन्नमुक्तता एवम सत्ता के पास सामाजिक नियंत्रण नियम  बनाने एवम उसको पालन कराने के अधिकार थे. जो वैदिक व्यवस्था के विपरीत बात थी. वेदों के व्याख्याकार के रूप में महर्षिगण राज्य और समाज सभी के नियमों को रेग्यूलेट करते थे. इतना ही नहीं वे शिक्षा स्वास्थ्य के अनुसंधानों के अधिष्ठाता भी थे .   
                          इसके विपरीत  रावण , रामायण कालीन अंतर्राष्ट्रीय  राजनैतिक व्यवस्था का दूसरा सबसे ताक़तवर नियंता  एवम रहा है. रावण का सामरिक-आक्रान्ता उस काल की वैश्विक-सामाजिक,एवम आर्थिक व्यवस्था को बेहद हानि पहुंचा रही थी. कल्याणकारी-गणतंत्रीय राज्यों को रावण के सामरिक सैन्य-बल के कारण रावण राज्य की अधीन होने के अतिरिक्त कोई दूसरा मार्ग शेष नहीं होता. लगभग आधे विश्व में उसकी सत्ता थी. यानि रावण के अलावा अन्य किसी सत्ता को कोई स्थान न था.वर्तमान भारत ही एकमात्र ऐसा देश था जहां कि रावण को स्वीकारा नहीं गया और न ही उसे भारतीय व्यवस्था के भीतर प्रवेश मिल सका .
क्या, भारतीय व्यवस्था तब भी गणतांत्रिक रही..?
          रामायण कालीन भारत का सत्ता केंद्र उत्तर-भारत में था. यह वो केंद्र था जहां से सम्पूर्ण भारत  रूस, अफगानिस्तान, ब्रह्मदेश, जावा, सुमात्रा, मलाया, थाई, आदि क्षेत्रों तक  व्यवस्थाएं विस्तारित थीं .  प्रत्येक राज्य अथवा उपनिवेश किसी न किसी के अधीन था जो रघुवंश के नियमों से संचालित होते थे. हर व्यवस्था ततसमकालीन-राजधर्म के अनुरूप तब तक  चलती थी जब तक उसमें बदलाव प्रजातांत्रिक तरीके से न हो .
   रघुवंश-काल में राम के द्वारा शम्बूक की हत्या एवं सीता को वनगमन के आदेश भी आज की परिस्थियों के सापेक्ष गंभीर त्रुटियाँ हैं इसे स्वीकारना होगा . परन्तु यह ऐसी स्थिति है जैसे किसी क़ानून की रचना के लिए  संख्या-बल के आगे प्रयासों का बेकार हो जाना . राम का जीवन राजा के रूप में रियाया के लिए अपेक्षाकृत अधिक जवाब-देह रहा है .    
                        समकालीन विश्व-विद्यालयों ( ऋषि-आश्रमों,गुरुकुलों) को रावण नष्ट कर देना चाहता था ताक़ि भारतगणराज्य जो अयोध्या के अधीन है वह लंका अधीनता स्वीकार  ले . इससे उसके सामरिक-सामर्थ्य में अचानक वृद्धि अवश्यम्भावी थी.  कुबेर उसके नियंत्रण में थी यानी विश्व की अर्थव्यवस्था पर उसका पूरा पूरा नियंत्रण था. यद्यपि रामायण कालीन भौगोलिक स्थिति  का किसी को ज्ञान नहीं है जिससे एक मानचित्र तैयार करा के  आलेख में लगाया जा सकता ताक़ि स्थिति  और अधिक-सुस्पष्ट हो जाती फ़िर भी आप यह जान लें कि यदि लंका श्री लंका ही है तो भी भारतीय-उपमहादीपीय क्षेत्र में भारत एक ऐसी सामरिक महत्व की भूमि थी है जहां से सम्पूर्ण विश्व पर रावण अपनी "विमानन-क्षमता" से दवाब बना सकता था. 
समकालीन विश्व-विद्यालयों ( ऋषि-आश्रमों,गुरुकुलों) को रावण नष्ट क्यों करना चाहता था..?
           रावण के अधीन सब कुछ था केवल "विद्वानों" को छोड़कर जो उसके साम्राज्य की श्री-वृद्धि के लिये  उसके (रावण के) नियंत्रण रहकर काम करें. जबकि भारत में ऐसा न था वे आज की तरह ही स्वतंत्र थे उनके अपने अपने आश्रम थे जहां "यज्ञ" अर्थात "अनुसंधान" (प्रयोग) करने  की स्वतन्त्रता थी. तभी ऋषियों .के आश्रमों पर रावण की आतंकी गतिविधियां सदैव होती रहतीं थीं. यहां एक और  तथ्य की ओर ध्यान  दिलाना चाहता हूं कि रावण के सैनिकों ने  कभी भी किसी नगर अथवा गांवों में घुसपैठ नहीं कि किसी भी रामायण में इसका ज़िक्र नहीं है. तो फ़िर  ऋषियों .के आश्रमों पर हमले..क्यों होते थे ?
            उसके मूल में रावण की बौद्धिक-संपदाओं पर नियंत्रण की आकांक्षा मात्र थी. वो यह जानता था कि 
1.     यदि ऋषियों पर नियंत्रण पा लिया तो भारत की सत्ता पर नियंत्रण सहज ही संभव है.
2.     साथ ही  उसकी सामरिक शक्ति के समतुल्य बनने  के प्रयासों से रघुवंश को रोकना ....... अर्थात कहीं न कहीं उसे "रक्षकुल" की आसन्न समाप्ति दिखाई दे रही थी. 
        राम  के गणराज्य में प्रज़ातांत्रिक  व्यवस्था को सर्वोच्च स्थान था. सामाजिक व्यवस्था स्वायत्त-अनुशाषित थी. अतएव बिना किसी राजकीय दबाव के देश का आम नागरिक सुखी था. 
    रावण ने राम से  युद्ध के लिये कभी पहल न की तो राम को खुद वन जाना पड़ा. रावण भी सीता पर आसक्त न था वो तो इस मुगालते में थी कि राम सीता के बहाने लंका आएं और वो उनको बंदी बना कर अयोध्या से संचालित आधे विश्व से बलात संधि कर अपनी शक्ति को और अधिक बढ़ाए  पर उसे राम की संगठनात्मक-कुशाग्रता का कदाचित ज्ञान न था 
वानर-सेना :- राम ने वनवासियों के युवा नरों की सेना बनाई  लक्ष्मण की सहायता से उनको योग्यतानुसार  युद्ध कौशल सिखाया . राम की युवा-सैन्य शक्ति अभियंताओं , वैज्ञानिकों से भरी पड़ी थी . जबकि “रक्ष-कुल” के संस्थापक रावण का सैन्य-बल प्रमादी भोग-विलासी अधिक था . उस  सैन्य-बल युद्ध के अभ्यास तथा अभ्यास कराने वालों का अभाव रावण के राज्य की सामरिक शक्ति को कमजोर कर गया.   
          रावण को  लगा कि राम द्वारा जुटाई गई  बनाई गई  वानर-सेना (वन के नर ) लंका के लिये  कोई खतरा नहीं है बस यही एक भ्रम रावण के अंत का कारण था .  
           राम ने रावण का अंत किया क्योंकि रावण  एक ऐसी शक्ति के रूप में उभरा था  जो विश्व को अपने तरीक़े से संचालित करना चाहता था . इस अभियान में वह भारत-वर्ष के विद्वानों की मदद लेना चाहता था . जो रावण के कर्मचारी होते और सबके सब ऐय्याश रक्ष-कुलीन जिनको राक्षस कहा गया है के हित-संवर्धन में कार्य करते .
           रावण के खात्में के लिए अयोध्या ने एक रणनीति बनाई . रणनीति के अनुरूप राम को वन भेजा गया .  जिससे रावण को लगे कि भारत को कभी भी अधीन किया जा सकता है .
वन में पूरी चतुराई से लो-प्रोफाइल में राम ने जहां निषाद से मैत्री एवं शबरी से बेर खाकर जननायकत्व का दर्ज़ा हासिल वहीं ऋषियों से युद्ध एवं नीतियों का विस्तार से ज्ञान प्राप्त किया. रावण वध की पूरी परियोजना पर काम करते हुए चौदह साल लगे. यानी लगभग तीन संसदीय चुनावों के अंतराल के बराबर समय लिया  . 
राम की सामरिक नीति में मैत्री-सम्बन्ध, लघु राज्यों के  सह-अस्तित्व, एवं तत्समकालीन अयोध्या राज संचालन नीति का विस्तार महत्वपूर्ण बिंदु थे.
युद्ध में एक विजेता को यही सब चाहिए . राम ने रावण के अंत के लिए ये सबसे ज़रूरी उपाय किये और अंत सब जानते ही हैं .
   


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