16.8.14

इनसाइडर विज़न आफ़ आउट साइडर :: 01 ( नरेंद्र मोदी के भाषण पर बी.पी गौतम का आलेख )

स्वतंत्र भारत में 15 अगस्त 1947 को प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में लाल
किले से भाषण देने की परंपरा जवाहर लाल नेहरू ने शुरू की थी, जो गुलजारी
लाल नंदा, लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, मोरारजी देसाई, चरण सिंह,
राजीव गांधी, विश्व नाथ प्रताप सिंह, चन्द्रशेखर, पी.वी. नरसिम्हाराव,
अटल बिहारी वाजपेई, एच. डी. देवगौड़ा, इंद्र कुमार गुजराल और मनमोहन सिंह
तक की यात्रा करते हुए नरेंद्र मोदी तक आ गई है। 26 मई 2014 को शपथ लेने
वाले नरेंद्र मोदी भारत के 18वें प्रधानमंत्री हैं। स्वतंत्रता दिवस की
वर्षगाँठ के अवसर पर लाल किले से उन्होंने अपना पहला भाषण दिया।

स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर लाल किले से प्रधानमंत्री द्वारा दिये जाने
वाले भाषण को देशवासी प्रति वर्ष ही पूरी गंभीरता से सुनते रहे हैं,
लेकिन इस बार लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण को लेकर आम
जनता में एक अलग तरह का ही रोमांच था। दिल्ली से दूर अन्य शहरों, कस्बों
और गाँवों में रहने वाले लोग भाषण सुनने को लेकर एक सीमा से अधिक उत्सुक
नज़र आ रहे थे। ध्वजारोहण का एक ही समय होता है, जिससे तमाम लोग नरेंद्र
मोदी के भाषण का टीवी पर लाइव प्रसारण नहीं देख पाये, ऐसे लोग अफ़सोस
व्यक्त करते नज़र आये। हाल के वर्षों में प्रधानमंत्री के भाषण को सुनने
को लेकर ऐसा दृश्य देखने को नहीं मिला है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी देश की जनता को निराश नहीं किया। अपनी
मनमोहक शैली में ही आम आदमी को संबोधित करते हुए उन्होंने विश्व स्तरीय
भाषण दिया। उन्होंने दावे और वादे नहीं किये और न ही आम आदमी को सपने
दिखाये। वह आम आदमी से जुड़े मुददों पर बोले ही नहीं, बल्कि प्रत्येक
व्यक्ति से विकास के आंदोलन में जुड़ने का आह्वान किया। उनका आशय था कि
सरकार विहीन जनता जब अंग्रेजों से राज वापस छीन सकती है, तो विकास करना
तो जनता के लिए और भी आसान है। उन्होंने विकास को आंदोलन का रूप देने की
पृष्ठभूमि तैयार की।

ऐसे अवसरों पर स्वतंत्रता से जुड़े आंदोलन में भाग लेने वाले महापुरुषों
और शहीदों को याद करने की औपचारिकता निभाई जाती रही है, लेकिन नरेंद्र
मोदी अंग्रेजी शासन से भी बहुत पीछे तक गये। उन्होंने स्पष्ट कहा कि "यह
देश राजनेताओं ने नहीं बनाया है, यह देश शासकों ने नहीं बनाया है, यह देश
सरकारों ने भी नहीं बनाया है, यह देश हमारे किसानों ने बनाया है, हमारे
मजदूरों ने बनाया है, हमारी माताओं और बहनों ने बनाया है, हमारे नौजवानों
ने बनाया है, हमारे देश के ऋषियों ने, मुनियों ने, आचार्यों ने, शिक्षकों
ने, वैज्ञानिकों ने, समाजसेवकों ने, पीढ़ी-दर-पीढ़ी कोटि-कोटि जनों की
तपस्या से आज राष्ट्र यहाँ पहुँचा है।"

नरेंद्र मोदी यहीं नहीं रुके। उन्होंने आगे कहा कि "देश निर्माण में इस
देश के सभी प्रधान मंत्रियों का योगदान है, इस देश की सभी सरकारों का
योगदान है, इस देश के सभी राज्यों की सरकारों का भी योगदान है। मैं
वर्तमान भारत को उस ऊँचाई पर ले जाने का प्रयास करने वाली सभी पूर्व
सरकारों को, सभी पूर्व प्रधान मंत्रियों को, उनके सभी कामों को, जिनके
कारण राष्ट्र का गौरव बढ़ा है, उन सबके प्रति इस पल आदर का भाव व्यक्त
करना चाहता हूँ, मैं आभार की अभिव्यक्ति करना चाहता हूं। उन्होंने विपक्ष
ही नहीं, बल्कि प्रत्येक सांसद को भी याद किया।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने छोटी से छोटी बात को भी बड़े ही प्रभावी ढंग
से रखा। उन्होंने कहा कि "मैं दिल्ली के लिए आउट साइडर हूं, मैं दिल्ली
की दुनिया का इंसान नहीं हूं। मैं यहां के राज-काज को भी नहीं जानता।
यहां की एलीट क्लास से तो मैं बहुत अछूता रहा हूं, लेकिन एक बाहर के
व्यक्ति ने, एक आउट साइडर ने दिल्ली आ कर के पिछले दो महीने में, एक इन
साइडर व्यू लिया, तो मैं चौंक गया! बोले- यह मंच राजनीति का नहीं है,
राष्ट्रनीति का मंच है और इसलिए मेरी बात को राजनीति के तराजू से न तौला
जाए। आगे कहा कि ऐसा लगा जैसे एक सरकार के अंदर भी दर्जनों अलग-अलग
सरकारें चल रही हैं। हरेक की जैसे अपनी-अपनी जागीरें बनी हुई हैं। मुझे
बिखराव नज़र आया, मुझे टकराव नज़र आया। एक डिपार्टमेंट दूसरे डिपार्टमेंट
से भिड़ रहा है और यहां तक‍ भिड़ रहा है कि सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे
खट-खटाकर एक ही सरकार के दो डिपार्टमेंट आपस में लड़ाई लड़ रहे हैं। यह
बिखराव, यह टकराव, एक ही देश के लोग! हम देश को कैसे आगे बढ़ा सकते हैं?"

उन्होंने कहा कि "इन दिनों अखबारों में चर्चा चलती है कि मोदी जी की
सरकार आ गई, अफसर लोग समय पर ऑफिस जाते हैं, समय पर ऑफिस खुल जाते हैं,
लोग पहुंच जाते हैं। मैं देख रहा था, हिन्दुस्तान के नैशनल न्यूज़ पेपर
कहे जाएं, टीवी मीडिया कहा जाए, प्रमुख रूप से ये खबरें छप रही थीं।
सरकार के मुखिया के नाते तो मुझे आनंद आ सकता है कि देखो भाई, सब समय पर
चलना शुरू हो गया, सफाई होने लगी, लेकिन मुझे आनंद नहीं आ रहा था, मुझे
पीड़ा हो रही थी। वह बात मैं आज पब्लिक में कहना चाहता हूं। इसलिए कहना
चाहता हूं कि इस देश में सरकारी अफसर समय पर दफ्तर जाएं, यह कोई न्यूज़
होती है क्या? और अगर वह न्यूज़ बनती है, तो हम कितने नीचे गए हैं, कितने
गिरे हैं, इसका वह सबूत बन जाती है।"

उन्होंने सरकारी सेवा में कार्य करने वालों को जगाने की बात कही, उन्हें
कर्तव्यपरायढ़ बनाने की बात कही। इन सब बातों को प्रधानमंत्री के स्तर का
नहीं माना जाता है, जिससे अभी तक ऐसे बातें प्रधानमंत्री के मुंह से
लोगों को सुनने को भी नहीं मिली।

बलात्कार की घटनाओं पर भी वे चिंतित नज़र आये, लेकिन उन्होंने सीधे
माता-पिता से सवाल किया। उन्हें झकझोरा कि "हर मां-बाप से पूछना चाहता
हूं कि आपके घर में बेटी 10 साल की होती है, 12 साल की होती है, मां और
बाप चौकन्ने रहते हैं, हर बात पूछते हैं कि कहां जा रही हो, कब आओगी,
पहुंचने के बाद फोन करना। बेटी को तो सैकड़ों सवाल मां-बाप पूछते हैं,
लेकिन क्या कभी मां-बाप ने अपने बेटे को पूछने की हिम्मत की है कि कहां
जा रहे हो, क्यों जा रहे हो, कौन दोस्त है? आखिर बलात्कार करने वाला किसी
न किसी का बेटा तो है। उसके भी तो कोई न कोई मां-बाप हैं। क्या मां-बाप
के नाते, हमने अपने बेटे को पूछा कि तुम क्या कर रहे हो, कहां जा रहे हो?
अगर हर मां-बाप तय करे कि हमने बेटियों पर जितने बंधन डाले हैं, कभी
बेटों पर भी डाल कर के देखो तो सही, उसे कभी पूछो तो सही।"

वे हिंसा पर भी बोले और कहा कि "कानून अपना काम करेगा, कठोरता से करेगा,
लेकिन समाज के नाते भी, हर मां-बाप के नाते हमारा दायित्व है। कोई मुझे
कहे, यह जो बंदूक कंधे पर उठाकर निर्दोषों को मौत के घाट उतारने वाले लोग
कोई माओवादी होंगे, कोई आतंकवादी होंगे, वे किसी न किसी के तो बेटे हैं।
मैं उन मां-बाप से पूछना चाहता हूं कि अपने बेटे से कभी इस रास्ते पर
जाने से पहले पूछा था आपने? हर मां-बाप जिम्मेवारी ले, इस गलत रास्ते पर
गया हुआ आपका बेटा निर्दोषों की जान लेने पर उतारू है। न वह अपना भला कर
पा रहा है, न परिवार का भला कर पा रहा है और न ही देश का भला कर पा रहा
है और मैं हिंसा के रास्ते पर गए हुए, उन नौजवानों से कहना चाहता हूं कि
आप जो भी आज हैं, कुछ न कुछ तो भारत माता ने आपको दिया है, तब पहुंचे
हैं। आप जो भी हैं, आपके मां-बाप ने आपको कुछ तो दिया है, तब हैं। मैं
आपसे पूछना चाहता हूं, कंधे पर बंदूक ले करके आप धरती को लाल तो कर सकते
हो, लेकिन कभी सोचो, अगर कंधे पर हल होगा, तो धरती पर हरियाली होगी,
कितनी प्यारी लगेगी। कब तक हम इस धरती को लहूलुहान करते रहेंगे? और हमने
पाया क्या है? हिंसा के रास्ते ने हमें कुछ नहीं दिया है।"

उन्होंने नेपाल का उदाहरण देते हुए कहा कि "मैं पिछले दिनों नेपाल गया
था। मैंने नेपाल में सार्वजनिक रूप से पूरे विश्व को आकर्षित करने वाली
एक बात कही थी। एक ज़माना था, सम्राट अशोक जिन्होंने युद्ध का रास्ता लिया
था, लेकिन हिंसा को देख कर के युद्ध छोड़, बुद्ध के रास्ते पर चले गए। मैं
देख रहा हूं कि नेपाल में कोई एक समय था, जब नौजवान हिंसा के रास्ते पर
चल पड़े थे, लेकिन आज वही नौजवान संविधान की प्रतीक्षा कर रहे हैं। उन्हीं
के साथ जुड़े लोग संविधान के निर्माण में लगे हैं और मैंने कहा था, शस्त्र
छोड़कर शास्त्र के रास्ते पर चलने का अगर नेपाल एक उत्तम उदाहरण देता है,
तो विश्व में हिंसा के रास्ते पर गए हुए नौजवानों को वापस आने की प्रेरणा
दे सकता है। उन्होंने सवाल किया कि बुद्ध की भूमि, नेपाल अगर संदेश दे
सकती है, तो क्या भारत की भूमि दुनिया को संदेश नहीं दे सकती है?"

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शांति और भाईचारे की बात करते हुए जातिवाद
और सम्पद्रायवाद को मिटाने की बात कही। उन्होंने बिगड़ते लिंगानुपात की
बात करते हुए कहा कि "एक हजार लड़कों पर 940 बेटियाँ पैदा होती हैं। समाज
में यह असंतुलन कौन पैदा कर रहा है? ईश्वर तो नहीं कर रहा है। मैं उन
डॉक्टरों से अनुरोध करना चाहता हूं कि अपनी तिजोरी भरने के लिए किसी माँ
के गर्भ में पल रही बेटी को मत मारिए। मैं उन माताओं, बहनों से कहता हूं
कि आप बेटे की आस में बेटियों को बलि मत चढ़ाइए। कभी-कभी माँ-बाप को लगता
है कि बेटा होगा, तो बुढ़ापे में काम आएगा। मैं सामाजिक जीवन में काम करने
वाला इंसान हूं। मैंने ऐसे परिवार देखे हैं कि पाँच बेटे हों, पाँचों के
पास बंगले हों, घर में दस-दस गाड़ियाँ हों, लेकिन बूढ़े माँ-बाप ओल्ड एज
होम में रहते हैं, वृद्धाश्रम में रहते हैं। मैंने ऐसे परिवार देखे हैं।
मैंने ऐसे परिवार भी देखे हैं, जहाँ संतान के रूप में अकेली बेटी हो, वह
बेटी अपने सपनों की बलि चढ़ाती है, शादी नहीं करती और बूढ़े माँ-बाप की
सेवा के लिए अपने जीवन को खपा देती है। यह असमानता, माँ के गर्भ में
बेटियों की हत्या, इस 21वीं सदी के मानव का मन कितना कलुषित, कलंकित,
कितना दाग भरा है, उसका प्रदर्शन कर रहा है। हमें इससे मुक्ति लेनी होगी
और यही तो आज़ादी के पर्व का हमारे लिए संदेश है।"

उन्होंने हाल ही में हुए राष्ट्रमंडल खेलों का उदाहरण देते हुए कहा कि
"हमारे करीब 64 खिलाड़ी जीते हैं। हमारे 64 खिलाड़ी मेडल लेकर आए हैं,
लेकिन उनमें 29 बेटियाँ हैं। इस पर गर्व करें और उन बेटियों के लिए ताली
बजाएं। भारत की आन-बान-शान में हमारी बेटियों का भी योगदान है, हम इसको
स्वीकार करें और उन्हें भी कंधे से कंधा मिलाकर साथ लेकर चलें, तो
सामाजिक जीवन में जो बुराइयाँ आई हैं, हम उन बुराइयों से मुक्ति पा सकते
हैं। इसलिए एक सामाजिक चरित्र के नाते, एक राष्ट्रीय चरित्र के नाते हमें
उस दिशा में जाना है। देश को आगे बढ़ाना है।"

उन्होंने सवाल किया कि "क्या देश के नागरिकों को राष्ट्र के कल्याण के
लिए कदम उठाना चाहिए या नहीं उठाना चाहिए? आप कल्पना कीजिए, सवा सौ करोड़
देशवासी एक कदम चलें, तो यह देश सवा सौ करोड़ कदम आगे चला जाएगा।
लोकतंत्र, यह सिर्फ सरकार चुनने का सीमित मायना नहीं है। लोकतंत्र में
सवा सौ करोड़ नागरिक और सरकार कंधे से कंधा मिला कर देश की आशा-आकांक्षाओं
की पूर्ति के लिए काम करें, यह लोकतंत्र का मायना है। हमें जन-भागीदारी
करनी है। पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के साथ आगे बढ़ना है। हमें जनता को
जोड़कर आगे बढ़ना है। उसे जोड़ने में आगे बढ़ने के लिए, आप मुझे बताइए कि आज
हमारा किसान आत्महत्या क्यों करता है? वह साहूकार से कर्ज़ लेता है,
कर्ज़ दे नहीं सकता है, मर जाता है। बेटी की शादी है, गरीब आदमी साहूकार
से कर्ज़ लेता है, कर्ज़ वापस दे नहीं पाता है, जीवन भर मुसीबतों से
गुज़रता है। मेरे उन गरीब परिवारों की रक्षा कौन करेगा?

बोले- इस आज़ादी के पर्व पर मैं एक योजना को आगे बढ़ाने का संकल्प करने के
लिए आपके पास आया हूँ– ‘प्रधान मंत्री जनधन योजना। इस प्रधान मंत्री
जनधन योजनाके माध्यम से हम देश के गरीब से गरीब लोगों को बैंक अकाउंट
की सुविधा से जोड़ना चाहते हैं। आज करोड़ों-करोड़ परिवार हैं, जिनके पास
मोबाइल फोन तो हैं, लेकिन बैंक अकाउंट नहीं हैं। यह स्थिति हमें बदलनी
है। देश के आर्थिक संसाधन गरीब के काम आएँ, इसकी शुरुआत यहीं से होती है।
यही तो है, जो खिड़की खोलता है। इसलिए प्रधान मंत्री जनधन योजनाके तहत
जो अकाउंट खुलेगा, उसको डेबिट कार्ड दिया जाएगा। उस डेबिट कार्ड के साथ
हर गरीब परिवार को एक लाख रुपए का बीमा सुनिश्चित कर दिया जाएगा, ताकि
अगर उसके जीवन में कोई संकट आया, तो उसके परिवारजनों को एक लाख रुपए का
बीमा मिल सकता है।"

उन्होंने कहा कि "यह देश नौजवानों का देश है। 65 प्रतिशत देश की जनसंख्या
35 वर्ष से कम आयु की है। हमारा देश विश्व का सबसे बड़ा नौजवान देश है।

क्या हमने कभी इसका फायदा उठाने के लिए सोचा है? आज दुनिया को स्किल्ड
वर्क फोर्स की जरूरत है।" बोले- स्किल डेवलपमेंटऔर स्किल्ड इंडिया
यह हमारा मिशन है।"

उन्होंने इम्पोर्ट और एक्सपोर्ट में संतुलन पैदा करने की बात करते हुए
अप्रवासी भारतीयों से आह्वान करते हुए कहा कि कम, मेक इन इंडिया,” “आइए,
हिन्दुस्तान में निर्माण कीजिए।दुनिया के किसी भी देश में जाकर बेचिए,
लेकिन निर्माण यहाँ कीजिए, मैन्युफैक्चर यहाँ कीजिए। हमारे पास स्किल है,
टेलेंट है, डिसिप्लिन है, कुछ कर गुज़रने का इरादा है। हम विश्व को एक
सानुकूल अवसर देना चाहते हैं कि आइए, “कम, मेक इन इंडियाऔर हम विश्व को
कहें, इलेक्ट्रिकल से ले करके इलेक्ट्रॉनिक्स तक कम, मेक इन इंडिया”,
केमिकल्स से ले करके फार्मास्युटिकल्स तक कम, मेक इन इंडिया”,
ऑटोमोबाइल्स से ले करके ऐग्रो वैल्यू एडीशन तक कम, मेक इन इंडिया”, पेपर
हो या प्लास्टिक कम, मेक इन इंडिया”, सैटेलाइट हो या सबमेरीन कम, मेक
इन इंडिया। ताकत है हमारे देश में! आइए, मैं निमंत्रण देता हूं।"

उन्होंने सवाल किया कि "देश के नौजवानों को देश-सेवा करने के लिए सिर्फ
भगत सिंह की तरह फांसी पर लटकना ही अनिवार्य है? लालबहादुर शास्त्री जी
ने जय जवान, जय किसानएक साथ मंत्र दिया था। जवान, जो सीमा पर अपना सिर
दे देता है, उसी की बराबरी में जय किसानकहा था। क्यों? क्योंकि अन्न
के भंडार भर कर के मेरा किसान भारत मां की उतनी ही सेवा करता है, जैसे
जवान भारत मां की रक्षा करता है।"

उन्होंने कहा कि "पूरे विश्व में हमारे देश के नौजवानों ने भारत की पहचान
को बदल दिया है। विश्व भारत को क्या जानता था? ज्यादा नहीं, अभी 25-30
साल पहले तक दुनिया के कई कोने ऐसे थे, जो हिन्दुस्तान के लिए यही सोचते
थे कि ये तो सपेरों का देशहै। ये सांप का खेल करने वाला देश है, काले
जादू वाला देश है। भारत की सच्ची पहचान दुनिया तक पहुंची नहीं थी, लेकिन
हमारे 20-22-23 साल के नौजवान, जिन्होंने कम्प्यूटर पर अंगुलियां
घुमाते-घुमाते दुनिया को चकित कर दिया। विश्व में भारत की एक नई पहचान
बनाने का रास्ता हमारे आई.टी. प्रोफेशन के नौजवानों ने कर दिया। अगर यह
ताकत हमारे देश में है, तो क्या देश के लिए हम कुछ सोच सकते हैं? इसलिए
हमारा सपना डिजिटल इंडियाहै। जब मैं डिजिटल इंडियाकहता हूं, तब ये
बड़े लोगों की बात नहीं है, यह गरीब के लिए है। अगर ब्रॉडबेंड कनेक्टिविटी
से हिन्दुस्तान के गांव जुड़ते हैं और गांव के आखिरी छोर के स्कूल में अगर
हम लॉन्ग डिस्टेंस एजुकेशन दे सकते हैं, तो आप कल्पना कर सकते हैं कि
हमारे उन गांवों के बच्चों को कितनी अच्छी शिक्षा मिलेगी। जहां डाक्टर
नहीं पहुंच पाते, अगर हम टेलिमेडिसिन का नेटवर्क खड़ा करें, तो वहां पर
बैठे हुए गरीब व्यक्ति को भी, किस प्रकार की दवाई की दिशा में जाना है,
उसका स्पष्ट मार्गदर्शन मिल सकता है।"

प्रधानमंत्री ने कहा कि "हम टूरिज्म को बढ़ावा देना चाहते हैं। टूरिज्म से
गरीब से गरीब व्यक्ति को रोजगार मिलता है। चना बेचने वाला भी कमाता है,
ऑटो-रिक्शा वाला भी कमाता है, पकौड़े बेचने वाला भी कमाता है और एक चाय
बेचने वाला भी कमाता है। जब चाय बेचने वाले की बात आती है, तो मुझे ज़रा
अपनापन महसूस होता है। टूरिज्म के कारण गरीब से गरीब व्यक्ति को रोज़गार
मिलता है। लेकिन टूरिज्म के अंदर बढ़ावा देने में भी और एक राष्ट्रीय
चरित्र के रूप में भी हमारे सामने सबसे बड़ी रुकावट है हमारे चारों तरफ
दिखाई दे रही गंदगी । क्या आज़ादी के बाद, आज़ादी के इतने सालों के बाद, जब
हम 21वीं सदी के डेढ़ दशक के दरवाजे पर खड़े हैं, तब क्या अब भी हम गंदगी
में जीना चाहते हैं? मैंने यहाँ सरकार में आकर पहला काम सफाई का शुरू
किया है। लोगों को आश्चर्य हुआ कि क्या यह प्रधानमंत्री का काम है? लोगों
को लगता होगा कि यह प्रधानमंत्री के लिए छोटा काम होगा, मेरे लिए बहुत
बड़ा काम है। सफाई करना बहुत बड़ा काम है। क्या हमारा देश स्वच्छ नहीं हो
सकता है? अगर सवा सौ करोड़ देशवासी तय कर लें कि मैं कभी गंदगी नहीं
करूंगा तो दुनिया की कौन-सी ताकत है, जो हमारे शहर, गाँव को आकर गंदा कर
सके? क्या हम इतना-सा संकल्प नहीं कर सकते हैं?"

उन्होंने कहा कि 2019 में महात्मा गाँधी की 150वीं जयंती आ रही है।
महात्मा गांधी की 150वीं जयंती हम कैसे मनाएँ? महात्मा गाँधी, जिन्होंने
हमें आज़ादी दी, जिन्होंने इतने बड़े देश को दुनिया के अंदर इतना सम्मान
दिलाया, उन महात्मा गाँधी को हम क्या दें? महात्मा गाँधी को सबसे प्रिय
थीसफाई, स्वच्छता। क्या हम तय करें कि सन् 2019 में जब हम महात्मा
गाँधी की 150वीं जयंती मनाएँगे, तो हमारा गाँव, हमारा शहर, हमारी गली,
हमारा मोहल्ला, हमारे स्कूल, हमारे मंदिर, हमारे अस्पताल, सभी क्षेत्रों
में हम गंदगी का नामोनिशान नहीं रहने देंगे? यह सरकार से नहीं होता है,
जन-भागीदारी से होता है, इसलिए यह काम हम सबको मिल कर करना है।"

उन्होंने फिर सवाल किया कि हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं, क्या कभी
हमारे मन को पीड़ा हुई कि आज भी हमारी माताओं और बहनों को खुले में शौच के
लिए जाना पड़ता है? डिग्निटी ऑफ विमेन, क्या यह हम सबका दायित्व नहीं है?
बेचारी गाँव की माँ-बहनें अँधेरे का इंतजार करती हैं, जब तक अँधेरा नहीं
आता है, वे शौच के लिए नहीं जा पाती हैं। उसके शरीर को कितनी पीड़ा होती
होगी, कितनी बीमारियों की जड़ें उसमें से शुरू होती होंगी! क्या हमारी
माँ-बहनों की इज्ज़त के लिए हम कम-से-कम शौचालय का प्रबन्ध नहीं कर सकते
हैं?"

स्वच्छ भारतका एक अभियान 2 अक्टूबर से चलाने की बात करते हुए उन्होंने

कहा कि हिन्दुस्तान के सभी स्कूलों में टॉयलेट हो, बच्चियों के लिए अलग
टॉयलेट हो, तभी तो हमारी बच्चियाँ स्कूल छोड़ कर भागेंगी नहीं। उन्होंने
सांसदों से कहा कि एमपीलैड फंड का उपयोग स्कूलों में टॉयलेट बनाने के लिए
खर्च कीजिए। उन्होंने कॉरपोरेट सेक्टर्स का भी आह्वान किया कि वे सोशल
रिस्पांसिबिलिटी के तहत स्कूलों में टॉयलेट बनाने को प्राथमिकता दें।

उन्होंने सांसद आदर्श ग्राम योजनाचलाने की बात कही, जिसके तहत सांसद
एक गांव पसंद करेंगे और उसे आदर्श बनायेंगे। उन्होंने जयप्रकाश नारायण की
जयंती के दिन 11 अक्टूबर को इस योजना को शुभारंभ करने का आश्वासन दिया,
साथ ही अपनी गरिमा खो चुके प्लानिंग कमीशन को बंद करने का इशारा किया।

उन्होंने लाल किले से भाषण देते हुए महर्षि अरविंद को भी याद किया। 15
अगस्त को उनकी जयंती होती है। उन्होंने स्वामी विवेकानन्द को भी याद
किया, जो अप्रत्याशित कहा जा सकता है।

15 अगस्त का दिन भारत के प्रधानमंत्री के लिए अहंकार का भाव उत्पन्न करने

का होता है, लेकिन नरेंद्र मोदी ने स्वयं को प्रधान सेवक कहा और कहा कि
अगर, आप 12 घंटे काम करोगे, तो मैं 13 घंटे करूंगा। अगर आप 14 घंटे कर्म
करोगे, तो मैं 15 घंटे करूंगा। क्यों? क्योंकि मैं प्रधानमंत्री नहीं,
प्रधान सेवक के रूप में आपके बीच आया हूं। मैं शासक के रूप में नहीं,
सेवक के रूप में सरकार लेकर आया हूं।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण ऐतिहासिक सिर्फ इसलिए नहीं कहा जायेगा
कि उन्होंने आम आदमी से जुड़े मुददों पर बात की। उनका भाषण इसलिए भी याद
किया जायेगा कि उनका एक-एक शब्द भारतवासी ने गंभीरता से सुना और राष्ट्र
निर्माण में आम आदमी के अंदर सरकार का साथ देने की एक सोच पैदा की। यह
सोच कितने दिनों तक ठहर पाती है और कर्म में कितना परिवर्तित हो पाती है,
यह तो भविष्य में ही पता चल सकेगा।


13.8.14

कुछ मठों से मठा सींचते वृक्षों में-, कुछ बजाते रहे हैं सदा तालियाँ।।

गीत गीले हुए अबके बरसात में,
हाँ! ठिठुरते रहे जाड़ों की रात में।।


गीत गीले हुए, ये जो कुंठा भरे।
और ठिठुरे वही, जो रहे सिरफिरे।
उसका दावा बिखर के, सेमल बना,
कोई आगे फरेबी न दावा करे।।
राई के भाव बदले हैं इक रात में।।
कुछ सुदृढ़, कुछ प्रखर, कुछ मुखर बानियाँ।
थी, सदा ही चलाती रहीं घानियाँ।
कुछ मठों से मठा सींचते वृक्षों में-,
कुछ बजाते रहे हैं सदा तालियाँ।।
बिंब देखें सदी का मेरी बात में।।
सूत कट न सके भोंथरी धार से,
सो गले गस दिए फूलों के हार से।
बोलिए किससे जाके शिकायत करें-
घूस लेने लगे फूल कचनार के।
आँख सावन-सी झरती इसी बात में।

12.8.14

भारत-रत्न :अक़्लवरों का आपसी मल्लयुद्ध का आसन्न है

 न जाने क्यों डर लगता है..मुझको अब सम्मानो से
डर के घर में छिप जाता हूं, अक्ल लगाने वालों से.
    जी हां ये पंक्तियां तब से ज़ेहन में घूम रहीं थीं जब से मैने भारत रतन के नाम पर बवाल होते देखा सुना. मन बेहद दु:खी और इन अक़्लवरों की समझ को लेकर आश्चर्यचकित है. देश को आगे ले जाने की क़वायद में जो अक़्ल लगनी चाहिये वो अक़्ल "भारत-रतन" पर लगाई जा रही है. बहुत अज़ीब-ओ-ग़रीब स्थिति है. श्रेष्ठता को लेकर विवाद कराती अक़्लें.. उस स्थिति की तरफ़ ले जा रहीं हैं.. जिधर कि अक़्लवरों के आपसी मल्लयुद्ध का रसास्वादन करेंगें..! 
 मेरी मानें भाई जी तो साफ़ साफ़ बता दूं कि श्रेष्ठता का कोई स्केल नहीं हो सकता .. 
श्रेष्ठता..
अनन्तिम है..
अनवरत है... 
सर्वत्र प्रशंसा की अभिलाषी नहीं ....
नाहक हम अक़्ल लगाए जा रहें हैं.. मित्रो एक शायर ने साफ़ साफ़ कह तो दिया था कि- अक़्ल हर चीज़ को ज़ुर्म बना देती है..! सच है क्या यक़ीन नहीं आ रहा कि अक़्ल वाक़ई यही परिणाम देती है तो लगाके देखिये. मेरा बेअक़्ल प्रस्ताव है कि क्यों न हम सभी भारतीय बेघर बेसहारा बच्चों को गोद लें उनको नाम दें भारत-रत्न या भारत-रत्ना   बस भारतरत्न सम्मान और अधिक प्रतिष्ठित हो जाएगा. 
चलिये सोचिये..मत अक़्ल भी मत लगाईये.. भारत के भाल को अनावश्यक न झुकाईये.. कुल मिला कर भारत के भाल को चमकाना हमारी ज़िम्मेदारी है.. अक़्लवालों की .. न जी न कभी नही नहीं..  

11.8.14

आत्मकथ्यात्मक कविता - मैं रक्त-बीज हूं.. जी उठता हूं...!!


तुम क्या जानो 
मैं रक्त-बीज हूं.. 
रोज़ तुम मारते हो...
मरता भी हूं.. 
किरचा किरचा जुड़ जाता हूं.. 
देह में समा कर अल्ल सुबह 
जी उठता हूं.. 
::::::::::::::::::::::::::::

मरता हूं इस लिये कि तुम्हारे
 

संधानित आयुध 
पमानित न हों..!
ज़हर बुझे तीर चुभते हैं.. 
शरीर में एक तड़पती सी दामिनी 
संचरित हो जाती है.. 
मर जाता हूं तत्क्षण.. फ़िर 
बेटी का फ़ोन आता है.. 
पापा, कैसे हो.. और 
प्रतिक्रियावश
पूछता हूं प्रतिप्रश्न...
बेटी, आफ़िस से लौट आई..
आज दिन कैसा रहा... 
बेटी के आसन्न
सुखमय कल की लालसा 
मुझे पूरी तरह मरने नहीं देती.. 
जी उठता हूं.. तत्क्षण.. 
मैं रक्त-बीज हूं.. 
:::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::
मां, तुम कहतीं थीं न ... 

जीवन आसान नहीं पर 
मरना उससे कठिन है.. 
जियो संकल्पों से युक्त
तुम्हारा  जीवन  किसी न किसी
खास वज़ह से तुमको हासिल है..
जियो शान से, पीर ज़ाहिर न करना..
तभी तो चमकोगे.. 
अनुगुंजित ध्वनियां 
अमृत-औषध सी ज़िंदा कर देतीं हैं.. 
जी उठता हूं.. 
मैं रक्त-बीज हूं.. 
:::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::
मुझे मालूम है कि कौन क्या कितना किससे और कब 
क्या-क्या कहता है..?
मुझे यह भी मालूम है कि... 
सुदूर आवाज़ सुनाई देती है
“आप को हारते देखना मुझे संबलहीन कर देगा..”
बस उसी आवाज़ से अक्षय-ऊर्ज़ा का संचार हो जाता है..
फ़िर जी उठता हूं.. 
मैं रक्त-बीज हूं.. 
:::::::::::::::::::::
एक स्वप्न जो देखता हूं रोज़िन्ना 
जागते-सोते 
कोरें भिगोते.. 
एक भीड़ में अपराधी सा
बढ़ता जाता हूं.. 
सारे जाने पहचाने लो 
भूल जाते हैं.. 
और मैं भीड़ भरे निर्जन में 
एक बेलनाकार डब्बे सा 
ढलान की तरफ़ लुड़कता हूं
जब किसी सहारे से टिकता 
स्थायित्व से राहत महसूस करता हूं.. 
फ़िर कोई आकर 
मुझमें पतन-वेग भरता है.. 
चुभता हूं उनके पग में जो ठुकराते हैं 
अचानक नींद से जाग जाता हूं..
दु:स्वप्न विहीन 
निष्प्राण नहीं रह पाता.. 
फ़िर जी उठता हूं.. 
रक्त-बीज जो हूं..  
::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::
बाबूजी पूछते हैं.. कब लौटौगे..
उत्तर देता हूं.. जी, बस रास्ते में.. हूं.. 
जी उठता  हूं.. बाबूजी के लिये.. 
हौसलों उम्मीदों के साथ.. 
न हारता हूं 
न हराता हूं किसी को भी..
बस जी उठता हूं..
रक्त-बीज जो हूं..  
:::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::
थक चुके हैं उनके युद्धरत हाथ..
आयुध भी असरहीन रह गए हैं.. 
घबराओ मत ... मृत्यु मेरी अंतिम इच्छा है.. 
कभी न कभी मरूंगा.. 
पर तुम्हारे आयुध से ..?
शायद कभी नहीं.. 
रक्तबीज जो हूं..!! 
क्यों कि
मुझे मालूम है
मृत्यु अनिद्य सुंदरी है..
मेरी अंतिम प्रियतमा..हूं. 

10.8.14

बदतमीज़ भाईयों की कलाई पर राखी मत बांधना बेटियो..

                     
        " दण्ड का प्रावधान उम्र आधारित न होकर अपराध की क्रूरता आधारित हो !" शायद आपको याद होगा ये आलेख . दिनांक 13 सितंबर 2013 को अपने मिसफ़िट ब्लाग पर इस आलेख को प्रकाशित किया था . वास्तव में क़ानून में बदलाव की ज़रूरत थी. हज़ारों मामलों में न्याय मिलेगा.  बाल-अपराधी को दंड मिलेगा हमें उम्मीद है. पर अब इससे आगे सामाजिक बदलाव के लिये  अब बालिकाओं के लिये संरक्षक क़ानून की ज़रूरत को नक़ारा नहीं जा सकता.

                       सामाजिक संरचना इतनी अधोगत हो चुकी है कि हम सामाजिक मूल्यों को स्तर नहीं दे पा रहे हैं. आज़ शाम रक्षा-बंधन की खरीदी के लिये मैंनें बहुत सी बेटियों को समूह में खरीददारी करते देखा . मन न केवल खुश था बल्कि अच्छा भी लगा  हम चर्चा ही कर रहे थे कि बेटियां अब खुद निर्णय ले रहीं हैं . देखो कितने साहस से भरी आज पावन त्यौहार की तैयारी में व्यस्त हैं. बात खत्म हुई ही थी कि कुछ शोहदे तो नहीं थे पर हाई-स्कूल + के किशोर लग रहे थे.. बेटियों पर छींटाकशी करते नज़र आए . ड्रायवर को वाहन धीमा चलाने का निर्देश देने पर उसने गाड़ी धीमी क्या लगभग  रोक ही दी. मेरा उन किशोरों को घूरना बस था कि वे तितर-बितर हो गये. गुस्सा इतना भरा था कि  मेरी कायिक भाषा प्रभावकारी बन गई थी. यह घटना इतने अंदर तक समा गई कि इन किशोर शोहदों के घर जाकर इनकी बहनों से कह दूं इन  बदतमीज़ भाईयों की की कलाई पर राखी मत बांधना बेटियो..!!

   वास्तव में यही एक उम्र होती है जब बच्चों को अनुसाशित रखा जा सकता है किंतु बच्चों से लगातार सदसंवादों के अभाव से किशोर वय की पुरुष संताने अपराध की ओर क़दमताल करती नज़र आती है. सरकार को चाहिये छेड़छाड़ छीटाक़शी को भी संगीन अपराध की श्रेणी में रखा जाकर दंड देने का प्रावधान तय कर दे. मेरा  यह प्रस्ताव  मेरे भावातिरेक का परिणाम है. तो फ़िर क्या तरीक़ा होगा ताक़ि ऐसी घटनाओं पर नियंत्रण रखा जावे..

 तरीक़ा कोई भी किशोरों को महिलाओं विशेषरूप से किशोरीयों के विरुद्ध कायिक हिंसा के प्रयासों पर कठोर दांडिक कार्रवाई के प्रावधान अवश्य हों. सार्वजनिक स्थानों को सी.सी कैमरों की ज़द में बेहद आसानी से लाया जा सकता है. साथ ही सतत-वेबकास्टिंग के प्रयोग से भी ऐसे कुत्सित प्रयासों पर रोक लग सकती है. आम नागरिक अपने किशोर होते बच्चों को अपने रडार पर रखें. आप सोचेंगे कि यह कैसे संभव है.. ? वास्तव में सतत संवाद एवं उनकी मित्रमंडली का बैकग्राऊंड जानना अत्यंत आवश्यक होगा . इससे उनकी गतिविधियां सहज समझी जा सकतीं हैं.  वरना बाल-अपराध खासकर यौन आधारित बाल अपराध नहीं रुक सकते . मेरी राय में ये सर्व प्राथमिक ज़रूरत है वरना  बाल-अपराध के लिये बने क़ानून से राहत तो मिली पर अभी दिल्ली दूर है भाई... 


7.8.14

राजेश पाठक जी की फेसबुक पोस्ट

साथियों
हिन्दू धर्म के प्रमुख त्यौहारों में से एक रक्षाबन्धन का त्यौहार आने वाला है।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारतीय न्यूज ट्रेडर्स के साथ मिलकर षड्यंत्र रचा है।
अगले 8-10 दिनों में हर न्यूज चैनल भारतीय बाजार में मिलने वाली हर मिठाई को दूध और मावा की मिलावट का प्रदर्शन करेंगे और साथ साथ ही कैडबरी चोकलेट और कोका कोला पेप्सी कंपनियां रिश्तों के भावनात्मक विझापन दिन रात हर चैनल पर प्रसारित करेंगी ।

मेरा हर भारतीय से निवेदन है कि रक्षाबन्धन के लेन देन में ऐसी वस्तुओं का प्रयोग करें जिनसे सीधा फायदा भारतीय उत्पादकों को हो जैसे फल, बिस्कुट,बेकरी प्रोडक्ट तथा अन्य स्थानीय उत्पाद
साथियों चलो इस बार हम सभी भारतीय मिलकर कैडबरी और कोका कोला-पेप्सी को जबरदस्त व्यापार घाटा और अपने भारतीय किसान और स्थानीय व्यापरियों को व्यापारिक फायदा पहुंचाए।
Ab apna bhartiye hone ka farz nibhao or is msg ko jyada se jyada share karo...

6.8.14

आमिर खान साब -यूं तो हमाम में सब नंगे होते हैं पर भारत तुम्हारा हमाम नहीं बर्खुरदार

डिस्क्लैमर
सुधि पाठको.. प्रस्तुत कथा सत्यघटना पर आधारित है.. इसका किसी भी मृत व्यक्ति से अथवा उसकी भटकती आत्मा से कोई सरोकार नहीं. जिन जीवित व्यक्तियों से इसका संबंध है..भी तो कोई संयोग नहीं.. जानबूझकर मैं लिख रहा हूं ताकि सनद रहे वक़्त पर आम आए.. लेखक

             समय समय पर  हथकण्डे बाज़ लोगों की  हरक़तें मंज़र-ए-आम हो जाया करतीं हैं. यक़ीनन लोग अपने किये को अमृत दूसरे के किये को विष्ठा ही मानते हैं. मुझे बेहद पसंद हैं आमिर खान उनकी अदद एक पिक्चर की बरस भर प्रतीक्षा करता हूं . ट्रांजिस्टर से अपनी लाज़ बचाते नज़र आए तो अपनी आस्था के किरचे किरचे मानस में घनीभूत हो गए . हमको लगा गोया हम नंगे फ़िर रहे हैं. अब भाई सल्लू मियां की छोड़ो वो तो सिल्वर स्क्रीन पर न जाने कितने बार बेहूदा दृश्य दिखा चुके हैं. वर्जनाओं के ख़िलाफ़ लामबंद होते ये कलाकार गोया इनके पास मौलिक रचनात्मकता समाप्त प्राय: हो चुकी है. जैसा प्रगतिशील आलोचक कहा करते हैं- "बाबा नागार्जुन के बाद विषय चुक गए हैं." 
         मित्रो, सर्जक को जान लेना चाहिये कि सृजन के विषय समाप्त कदापि नहीं होते. इन नंगों को कालजयी ओर महान कलाकार कहा जाएगा उसकी पुष्टि होगी हज़ारों नज़ीरें पेश की जावेंगी. लोग शोध करेंगे. आदि आदि ... इस सबसे मेरा आपका सबका सरोकार है.. ये वो ज़मात है जिसका दी-ओ-धरम चुक गया है न कि विषय चुके हैं . विषय सदा मौज़ूद थे हैं और रहेंगे भी. आमिर भाई नंगे मत हो ... तुम्हारी अदाकारी से मैं बेहद प्रभावित था पर अब ..आपके इस रूप को देख कर अपने स्नेह से आपको वंचित करते हुए दु:ख हो रहा है. वास्तव में आपको अपनी पब्लिसिटी के लिये ये हथकंडा अपना शोभा नहीं देता. बकौल अशोक बाजपेई 
फूल झरता है 
फूल शब्द नहीं!
बच्चा गेंद उछालता है,
सदियों के पार 
लोकती है उसे एक बच्ची!
बूढ़ा गाता है एक पद्य,
दुहराता है दूसरा बूढ़ा,
भूगोल और इतिहास से परे 
किसी दालान में बैठा हुआ!
न बच्चा रहेगा
न बूढ़ा,
न गेंद, न फूल, न दालान 
रहेंगे फिर भी शब्द 
भाषा एकमात्र अनन्त है! 
आमिर आप बच्चे नहीं हैं ... मेरी बात समझ गए होगें.. न समझो तो भी आप जैसों से अपेक्षा भी क्या करें.. आप को "निशान-ए-पाकिस्तान" से नवाज़ा जाए या कोळ्ड ड्रिंक्स से नहलाया जावे हम तो आम लोग हैं.. हमें क्या.. "यूं तो हमाम में सब नंगे होते हैं पर भारत तुम्हारा हमाम नहीं बर्खुरदार"

स्कूल से घर तक पीटे जा रहे कान्हा – जुवेनाइल जस्टिस एक्ट में बदलाव की पहल :संजय स्वदेश

महाभारत काल में कान्हा रस्सी से बांधे गए हैं। बच्चों को घरों में बांध कर रखने, उन्हें मारने-पीटने की घटनाएं आज भी जारी है। एकल परिवारों में बच्चों की स्वछंदता समाप्त हो चुकी है। उनसे हर क्षेत्र में अव्वल होने अपेक्षा बढ़ गई है। थोड़ी-थोड़ी बात पर मानसिक व शारीरिक प्रताड़ना घर-घर की बात हो चुकी है।
               शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने के बाद यहे बेहद जरूरी है कि बच्चों को हिंसा से संरक्षण का भी मौलिक अधिकार मिले। इसके अभाव में भोले मन वाला बचपन घर और स्कूल में मानसिक व शारीरिक रूप से पीड़ित है। देश दुनिया का कौन सा ऐसा देश है जहां बच्चों पर नियंत्रण के लिए हिंसा का उपयोग नहीं किया गया है। भारत के पौराणिक कथाओं में तो इसके उदाहरण है। भगवान श्रीकृष्ण अपनी नटखट कारनामों से माता यशोदा को इतना तंग करते हैं कि मां कभी कान्हा को रस्सियों से बांध देती हैं, तो कभी ओखली में बांध कर अनुशासित करने का प्रयास करती है। बच्चों को घरों में बांध कर रखने, उन्हें मारने-पीटने की घटनाएं आज भी जारी है। पर चंचल बाल मन की शरारत भला कहां छुटती है। बच्चों की सहज पृवृत्तियां जब माता-पिता या शिक्षक के लिए भारी लगने लगती है तो उनका धैर्य टूट जाता है। वे बच्चों की बाल मनोवृत्ति समझने के इतर उस पर नियंत्रण के लिए हिंसा का रुख अख्तियार कर लेते हैं। जैसे-जैसे समाज विकसित हुआ, एकल परिवार बढ़े। बच्चे एकल परिवार में ही सीमित रहने लगे। उनकी स्वछंदता समाप्त हो गई है। माता-पिता की अपेक्षाओं ने सब कुछ कठोर अनुशासन में बांध दिया है। हर क्षेत्र में बच्चों से परिणाम अव्वल होने अपेक्षा बढ़ गई है। अपेक्षाओं के विपरित होने पर बच्चों के साथ हिंसा आम हो चुकी है। मतलब घर-घर में कान्हा के कान मरोड़ जा रहे हैं। वे पीटे जा रहे हैं। आधुनिक भारत के स्कूलों में अनुशासन का पाठ मार से ही शुरू होती थी।हालांकि जागरूकता बढ़ने के बाद भी हाल के वर्षों में स्कूल में बच्चों को पिटने की घटनाएं कम हुई हैं, लेकिन इससे प्रकरण थाने तक पहुंचने लगे हैं। लिहाजा, शिक्षकों में दंड का भय बढ़ा है। पहले ये मामले थाने तक पहुंचते ही नहीं थे। बच्चों को पीटना शिक्षकों का अघोषित अधिकार था। पीटे जाने के बाद भी बच्चे माता-पिता से इसकी शिकायत नहीं करते थे। उल्टे उनके मन में इस बात का भय होता था कि कहीं शिकायत पर घर में फिर पिटाई न हो जाए। घर की चाहरदिवारी में अपनों से हिंसा के शिकार होने वाले मामले विशेष स्थितियों में ही थाने तक पहुंचते हैं। घर के अपने बच्चों को पिटते हैं तो यह अनुशासन की सीख होती है, और स्कूल में शिक्षक यही कदम उठाता है तो यह अपराध होने लगा है। पर घर हो या स्कूल, बच्चों पर कहीं भी हिंसा है तो अपराध ही। इसी हिंसा को रोकने के लिए सरकार कड़े कानूनों का नया खाका तैयार कर रही है। यह निश्चय ही सराहनीय और स्वागत योग्य कदम है। सरकार जुवेनाइल जस्टिस एक्ट 2000 की जगह नए कानून पर काम कर रही है। पुराने कानूनों के स्थान पर सरकार जुवेनाइल जस्टिस (केयर ऐंड प्रोटेक्शन आॅफ चिल्ड्रन) बिल 2014 पेश करने की तैयारी है। नए कानूनों को सरकार ने बच्चों के अधिकारों और अंतरराष्टÑीय कानूनों को ध्यान में रखकर तैयार किया है। माता-पिता या अभिभावकों या शिक्षकों को अब बच्चों को पीटना या उनकी गलतियों के लिए कोई सजा देना या किसी तरह से प्रताड़ित करना भारी पड़ेगा। बच्चों के खिलाफ ऐसा व्यवहार करने पर आने वाले सालों में पांच साल तक के लिए जेल की सजा हो सकती है।
करीब दो वर्ष पहले आई यूनिसेफ के एक अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार दुनिया के तमाम विकासशील देशों में बच्चों को अनुशासित करने के लिए हिंसा का सहारा लिया जाता है। ऐसा उनके अपने ही घरों में होता है। यह हिंसा शारीरिक, मानसिक या भावनात्मक किसी भी तरह की हो सकती है। दुनिया भर में 2 से 14 साल के आयुवर्ग के हर चार में तीन बच्चों को अनुशासित करने के लिए किसी न किसी तरह की हिंसा का सहारा लिया जाता है। इसी तरह हर चार में तीन बच्चे मनोवैज्ञानिक हिंसा या आक्रामकता के शिकार होते हैं, जबकि हर चार में से दो बच्चों को अनुशासन का पाठ पढ़ाने के लिए शारीरिक सजा दी जाती है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि दुनिया के 33 देशों के निम्न व मध्यम आय वर्ग वाले परिवारों में 2 से 14 साल की आयुवर्ग के बच्चों पर ऐसी हिंसा हुई,  जिसमें उनके माता-पिता या अभिभावक शामिल थे। भारत में यही हालात है। यहां घर से लेकर स्कूल तक बच्चे हिंसा से पीड़ित हैं।
भारत के शिक्षा दर्शन में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले चिंतक महर्षि अरविंद अपने एक लेख में कहते हैं कि शिक्षक राष्टÑ निर्माण के वे माली हैं जो अपनी मेहनत से इसकी नींव को सींचते हैं। दुर्भाग्य देखिए, आज 21वीं सदी में न ऐसे मेहनत व धैर्य वाले शिक्षक हैं और न गुरुकुल जैसी शिक्षा परंपरा। सब कुछ बदला-बदला। अंतराष्टÑीय स्तर के स्कूल और शिक्षा पद्धति। इसके बाद भी राष्टÑीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के आंकड़ों के अनुसार हाल के वर्षों में बच्चों के साथ स्कूलों में होने वाले दुर्व्यवहार, यौन शोषण, शारीरिक प्रताड़ना के मामलों में तीन गुना बढ़ोतरी हुई है।

करीब सात साल पहले 2007 में केंद्रीय महिला व बाल विकास मंत्रालय ने अपने एक सर्वेक्षण रिपोर्ट में बताया था कि स्कूल जाने वाला हर दूसरा बच्चा किसी ने किसी तरह से शारीरिक या मानसिक हिंसा का शिकार हो रहा है। करीब दो दशक पहले बच्चों को स्कूल छोड़ने का सबसे बड़ा कारण शिक्षकों द्वारा पीटे जाने का भय होता था। जब स्कूल से बाहर रहने वाले बच्चों केआंकड़ें बढ़े तो सरकार ने मिड डे मिल के माध्यम से भीड़ बढ़ा दी। सरकारी स्कूलों में शिक्षकों को नई पीढ़ी आ चुकी है, उसने पुराने शिक्षकों की तरह मारपीट कर पढ़ाना छोड़ पढ़ाने से ही मुंह मोड़ लिया है। इसके बाद भी आए दिन किसी स्कूल में बच्चों के पीटे जाने की घटनाएं आ ही जाती है। ऐसी घटनाएं अधिकतर ग्रामीण क्षेत्रों से आती हैं। ऐसे मामलों में प्रकरण भी वहीं दर्ज हुए हैं। जब मारपीट से बच्चे की हालत ज्यादा खराब हुई और अभिभावकों ने इसकी सुध ली। निजी स्कूलों में बेहतर शिक्षा के लिए मोटी फीस देकर बच्चों को पढ़ाने वाले अभिभावक सचेत हैं। लिहाजा, निजी स्कूलों में काफी हद तक शारीरिक हिंसा की घटनाएं कम हुर्इं है। लेकिन सरकारी स्कूलों में हालत सरकार भरोसे ही है।

आलेख मूल रूप से यहां प्रकाशित है 
"स्कूल से घर तक पीटे जा रहे कान्हा – जुवेनाइल जस्टिस एक्ट में बदलाव की पहल :संजय स्वदेश "
संजय स्वदेश वरिष्ट पत्रकार हैं और दैनिक अखबार हरी भूमि में कार्यरत हैं ! मोबाइल-09691578252 

28.7.14

काग दही के कारने वृथा जीवन गंवाय..!

मृत काग
काग दही के कारने वृथा जीवन गंवाय..!
            छोटी बिटिया श्रृद्धा ने स्कूल से लौटकर मुझसे पूछा.. पापा- “कागद ही के कारने वृथा जीवन गंवाय..!” का अर्थ विन्यास कीजिये.. मैने दार्शनिक भाव से कहा – बेटी यहां कागज के कारण जीवन व्यर्थ गंवाने की बात है.. शायद कागज रुपए के लिये प्रयोग किया गया है.. ?
बेटी ने फ़िर पूछा- “काग दही के कारने वृथा जीवन गंवाय..!” अब फ़िर से बोलिये.. इसका अर्थ क्या हुआ..
हतप्रभ सा मैं बोल पड़ा – किसी ऐसी घटना का विवरण है जिसमें कौआ दही के कारण जीवन खो देता है..
गदही
बेटी ने बताया कि आज़ स्कूल में एक कहानी सुना कर टीचर जी ने इस काव्य पंक्ति की व्याख्या की. कहानी कुछ यूं थी कि एक दही बेचने वाली के दही वाले घड़े में लालची कौआ गिर के मर गया. महिला निरक्षर थी पर कविता करना जानती थी सो उसने अपने मन की बात  कवित्त में कही- “काग दही के कारने वृथा जीवन गंवाय..!” इस पंक्ति को दुहराने लगी . फ़िर राह पर किसी पढ़े लिखे व्यक्ति से उक्त पंक्ति लिपिबद्ध कराई..
         पढ़े लिखे व्यक्ति ने कुछ यूं लिखा – “कागद ही के कारने वृथा जीवन गंवाय..!”
                        फ़िर राह में एक अन्य पढ़े लिखे व्यक्ति से भेंट हुई, जिससे उसने लिखवाया , दूसरे व्यक्ति ने यूं लिखा.. “का गदही के कारने वृथा जीवन गंवाय..? ”

 कागद 

समय की वास्तविकता यही है..विचार मौलिक नहीं रह पाते हैं. सब अपने अपने नज़रिये से विचार करते हैं.. जिसके पास मौलिक विचार हैं वो उनको विस्तार देने में असफ़ल है और जिनके पास मौलिक चिंतन ही नहीं है वे किसी ज़रिये से भी प्राप्त विचारों को अपने तरीके से गढ़ कर विस्तार दे रहे हैं. यही है   आज़ के दौर का यथार्थ. जिसे देखिये वो अपनी दुम्दुभी बज़ाने के चक्कर नें मन चाहे विचार परोस रहा है. बस शब्दों हेर फ़ेर वाला मामला है. अर्थ बदल दीजिये.. लोगों को ग़ुमराह कर अपना उल्लू सीधा कर लीजिये .. सब के सब  जाने किस जुगाड़ में हैं.   क्या हो गया है युग को  जिसे देखिये वो कुतर्कों की ठठरी पर अमौलिक चिंतन की बेजान देह ढोने को आमादा हैं. न तो समाज न ही तंत्र के स्तंभ.. सब के सब एक्सपोज़ भी हो रहे हैं कोई ज़रा कम तो कोई सुर्खियों में . मित्रो.. दुनिया अब "गदही" सी लगने लगी है.. 
ऐसी गदही में  मैं क्यों क्यों इनवाल्व होने चला मिसफ़िट हूं क्यों न कहूं.. - “का गदही के कारने वृथा जीवन गंवाय..? ” 

26.7.14

संघर्ष का कथानक : जीवन का उद्देश्य


संघर्ष का कथानक जीवन का पर उद्देश्य होना चाहिये ऐसा मैं महसूस करता हूं.. आप भी यही सोचते 
होगे न.. सोचिये अगर न सोचा हो तो . इन दिनों मन अपने इर्द-गिर्द एवं समाज़ में घट रही घटनाओं से सीखने की चेष्टा में हूं.. अपने इर्द गिर्द देखता हूं लोग सारे जतन करते दिखाई देते हैं स्वयं को सही साबित करने के. घटनाएं कुछ भी हों कहानियां  कुछ भी हों पर एक एक बात तय है कि अब लोग आत्मकेंद्रित अधिक हैं. मैं मेरा, मुझे, मेरे लिए, जैसे शब्दों के बीच जीवन का प्रवाह जारी है.. समाप्त भी  इन्हीं शब्दों के बीच होता है.   ज़रूरी है पर एक सीमा तक. उसके बाद सामष्टिक सोच आवश्यक होनी चाहिये. सब जानतें हैं स्टीफ़न हाकिंग को किसी से छिपा नहीं है ये नाम . वो इन बंधनों से मुक्त जी रहा है.. जियेगा भी अपनी मृत्यु के बाद निरंतर .. कबीर, सूर, यानी सब के सब ऐसे असाधारण उदाहरण हैं.. ब्रेल को भी मत भूलिये.. मैं ये सचाई उज़ागर करना  चाहता हूं कि -"संघर्ष का कथानक : जीवन का उद्देश्य हो "..
 संघर्ष का अर्थ पारस्परिक द्वंद्व क़दापि नहीं   बल्कि तपस्या है.. संघर्ष आत्मिक संबल का स्रोत भी है.. !
              पता नहीं क्यों विश्व का मौलिक चिंतन किधर तिरोहित हो रहा है .. लोग इतने आत्ममुग्ध एवं स्वचिंतन मग्न हैं कि अच्छा स्तर पाकर भी दूषित होते जा रहे हैं  . जहां तक धर्मों का सवाल है उनके मूल पाठों में व्यक्त अवधारणाओं से किसी को कोई लेना देना नहीं .. बस प्रयोग के नाम पर कुछ भी बेहूदा करने को आतुर .. सफ़लता के लिये सटीक , स्वच्छ   पवित्र विकल्प खोजने चाहिये. ताक़ि उससे  मिली सफ़लता यानी अभीष्ट परिणाम पवित्र हो. हथकंडों के सहारे हासिल सफ़लता को सफ़लता की श्रेणी में रखना बेमानी है. कुछ लोग अपनी सफ़लता के लिये भेदक-शस्त्रों का संधान करते हैं. वो   अक्सर वर्गभेद,वर्णभेद, अर्थभेद, स्तरभेद, के रूप में सामने आता है.. इससे वर्ग-संघर्ष जन्म लेता है.. जो वर्तमान परिवेश में रक्तिम और वैमनस्वी युद्ध का स्वरूप ले रहा है.
            मुझे तो आश्चर्य होता है लोग पंथ की रक्षार्थ सत्ता की रक्षा हेतु अपनाए जाने वाले हथकंडे अपनाते है. धर्म मरते नहीं, खत्म नहीं होते.. धर्मों की रक्षार्थ मनुष्य का ज़ेहादी होना अज़ीब सी स्थिति है. लोग मौलिक चिंतन हीनता के अभाव में मरे हुए से लगते  हैं जो समझते हैं  कि अमुक उनके धर्म की रक्षा करेगा. धर्म आत्मा का विषय है.. युद्ध का नहीं. इसे न तो ज़ेहाद से बचा सकते न ही रक्तिम आंदोलन से .. जो अमर है उसे बचाने की चिंता करना सर्वथा मूर्खता है. जो खत्म होता है वो धर्म नहीं वो पंथ है विचारधारा है.. जिसमें समकालीन परिस्थितिगत परिवर्तनों के साथ बदलाव स्वभाविक रूप से आते हैं. आलेख के प्रारंभ में मैने व्यक्तियों के उदाहरण देते हुये वैयक्तिक-उत्कर्ष के लिये संघर्ष की ज़रूरत की बात की थी.. आगे में धर्म पर चर्चा कर रहा हूं.. तो निश्चित आप आश्चर्य कर रहे होंगे. चकित न हों पंथ, धर्म, और उससे आगे आध्यात्मिक-चैतन्य तक सब आत्मा के विषय हैं.. मानस के विषय हैं.   ये युद्ध या हिंसक संघर्ष से परे हैं. व्यक्तिगत उत्कर्ष के लिये विचारधारा, धर्म, एवम आध्यात्मिक चैतन्य के साथ बाधाओं से जूझना ही संघर्ष है.. जो जीवन का उद्देश्य है. विचारधारा, धर्म, एवम आध्यात्मिक चैतन्य देश ही नही वरन समूचे ब्रह्माण्ड को अभूतपूर्व शांति देगा यह तय है. क्योंकि व्यष्टि एवं समष्टि में विचारधारा, धर्म, एवम आध्यात्मिक चैतन्य की उपलब्धता सदैव मौज़ूद रहती है. हमें खुद को एवम सभ्यता को बचाना है तो हमें रचनात्मक विचारधारा, धर्म, एवम आध्यात्मिक चैतन्य के मूल तत्वों का सहारा चाहिये. यही तो हमारे जीवन का उद्देश्य है. 
              

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