संघर्ष का कथानक जीवन का पर उद्देश्य होना चाहिये ऐसा मैं महसूस करता हूं.. आप भी यही
सोचते
होगे
न.. सोचिये अगर न सोचा हो तो . इन दिनों मन अपने इर्द-गिर्द एवं समाज़ में घट रही
घटनाओं से सीखने की चेष्टा में हूं.. अपने इर्द गिर्द देखता हूं लोग सारे जतन करते
दिखाई देते हैं स्वयं को सही साबित करने के. घटनाएं कुछ भी हों कहानियां कुछ भी हों पर एक एक बात तय है कि अब लोग आत्मकेंद्रित अधिक हैं. मैं मेरा,
मुझे, मेरे लिए, जैसे
शब्दों के बीच जीवन का प्रवाह जारी है.. समाप्त भी इन्हीं शब्दों के बीच
होता है. ज़रूरी है पर एक सीमा तक. उसके बाद सामष्टिक सोच आवश्यक होनी चाहिये. सब जानतें हैं स्टीफ़न हाकिंग को किसी से छिपा नहीं है ये नाम . वो इन बंधनों से मुक्त जी रहा है.. जियेगा भी अपनी मृत्यु के बाद निरंतर .. कबीर, सूर, यानी सब के सब ऐसे असाधारण उदाहरण हैं.. ब्रेल को भी मत भूलिये.. मैं ये सचाई उज़ागर करना चाहता हूं कि -"संघर्ष का कथानक : जीवन का उद्देश्य हो "..
संघर्ष का अर्थ पारस्परिक द्वंद्व क़दापि नहीं बल्कि तपस्या है.. संघर्ष आत्मिक संबल का स्रोत भी है.. !
पता नहीं क्यों विश्व का मौलिक चिंतन किधर तिरोहित हो रहा है .. लोग इतने आत्ममुग्ध एवं स्वचिंतन मग्न हैं कि अच्छा स्तर पाकर भी दूषित होते जा रहे हैं . जहां तक धर्मों का सवाल है उनके मूल पाठों में व्यक्त अवधारणाओं से किसी को कोई लेना देना नहीं .. बस प्रयोग के नाम पर कुछ भी बेहूदा करने को आतुर .. सफ़लता के लिये सटीक , स्वच्छ पवित्र विकल्प खोजने चाहिये. ताक़ि उससे मिली सफ़लता यानी अभीष्ट परिणाम पवित्र हो. हथकंडों के सहारे हासिल सफ़लता को सफ़लता की श्रेणी में रखना बेमानी है. कुछ लोग अपनी सफ़लता के लिये भेदक-शस्त्रों का संधान करते हैं. वो अक्सर वर्गभेद,वर्णभेद, अर्थभेद, स्तरभेद, के रूप में सामने आता है.. इससे वर्ग-संघर्ष जन्म लेता है.. जो वर्तमान परिवेश में रक्तिम और वैमनस्वी युद्ध का स्वरूप ले रहा है.
मुझे तो आश्चर्य होता है लोग पंथ की रक्षार्थ सत्ता की रक्षा हेतु अपनाए जाने वाले हथकंडे अपनाते है. धर्म मरते नहीं, खत्म नहीं होते.. धर्मों की रक्षार्थ मनुष्य का ज़ेहादी होना अज़ीब सी स्थिति है. लोग मौलिक चिंतन हीनता के अभाव में मरे हुए से लगते हैं जो समझते हैं कि अमुक उनके धर्म की रक्षा करेगा. धर्म आत्मा का विषय है.. युद्ध का नहीं. इसे न तो ज़ेहाद से बचा सकते न ही रक्तिम आंदोलन से .. जो अमर है उसे बचाने की चिंता करना सर्वथा मूर्खता है. जो खत्म होता है वो धर्म नहीं वो पंथ है विचारधारा है.. जिसमें समकालीन परिस्थितिगत परिवर्तनों के साथ बदलाव स्वभाविक रूप से आते हैं. आलेख के प्रारंभ में मैने व्यक्तियों के उदाहरण देते हुये वैयक्तिक-उत्कर्ष के लिये संघर्ष की ज़रूरत की बात की थी.. आगे में धर्म पर चर्चा कर रहा हूं.. तो निश्चित आप आश्चर्य कर रहे होंगे. चकित न हों पंथ, धर्म, और उससे आगे आध्यात्मिक-चैतन्य तक सब आत्मा के विषय हैं.. मानस के विषय हैं. ये युद्ध या हिंसक संघर्ष से परे हैं. व्यक्तिगत उत्कर्ष के लिये विचारधारा, धर्म, एवम आध्यात्मिक चैतन्य के साथ बाधाओं से जूझना ही संघर्ष है.. जो जीवन का उद्देश्य है. विचारधारा, धर्म, एवम आध्यात्मिक चैतन्य देश ही नही वरन समूचे ब्रह्माण्ड को अभूतपूर्व शांति देगा यह तय है. क्योंकि व्यष्टि एवं समष्टि में विचारधारा, धर्म, एवम आध्यात्मिक चैतन्य की उपलब्धता सदैव मौज़ूद रहती है. हमें खुद को एवम सभ्यता को बचाना है तो हमें रचनात्मक विचारधारा, धर्म, एवम आध्यात्मिक चैतन्य के मूल तत्वों का सहारा चाहिये. यही तो हमारे जीवन का उद्देश्य है.
पता नहीं क्यों विश्व का मौलिक चिंतन किधर तिरोहित हो रहा है .. लोग इतने आत्ममुग्ध एवं स्वचिंतन मग्न हैं कि अच्छा स्तर पाकर भी दूषित होते जा रहे हैं . जहां तक धर्मों का सवाल है उनके मूल पाठों में व्यक्त अवधारणाओं से किसी को कोई लेना देना नहीं .. बस प्रयोग के नाम पर कुछ भी बेहूदा करने को आतुर .. सफ़लता के लिये सटीक , स्वच्छ पवित्र विकल्प खोजने चाहिये. ताक़ि उससे मिली सफ़लता यानी अभीष्ट परिणाम पवित्र हो. हथकंडों के सहारे हासिल सफ़लता को सफ़लता की श्रेणी में रखना बेमानी है. कुछ लोग अपनी सफ़लता के लिये भेदक-शस्त्रों का संधान करते हैं. वो अक्सर वर्गभेद,वर्णभेद, अर्थभेद, स्तरभेद, के रूप में सामने आता है.. इससे वर्ग-संघर्ष जन्म लेता है.. जो वर्तमान परिवेश में रक्तिम और वैमनस्वी युद्ध का स्वरूप ले रहा है.
मुझे तो आश्चर्य होता है लोग पंथ की रक्षार्थ सत्ता की रक्षा हेतु अपनाए जाने वाले हथकंडे अपनाते है. धर्म मरते नहीं, खत्म नहीं होते.. धर्मों की रक्षार्थ मनुष्य का ज़ेहादी होना अज़ीब सी स्थिति है. लोग मौलिक चिंतन हीनता के अभाव में मरे हुए से लगते हैं जो समझते हैं कि अमुक उनके धर्म की रक्षा करेगा. धर्म आत्मा का विषय है.. युद्ध का नहीं. इसे न तो ज़ेहाद से बचा सकते न ही रक्तिम आंदोलन से .. जो अमर है उसे बचाने की चिंता करना सर्वथा मूर्खता है. जो खत्म होता है वो धर्म नहीं वो पंथ है विचारधारा है.. जिसमें समकालीन परिस्थितिगत परिवर्तनों के साथ बदलाव स्वभाविक रूप से आते हैं. आलेख के प्रारंभ में मैने व्यक्तियों के उदाहरण देते हुये वैयक्तिक-उत्कर्ष के लिये संघर्ष की ज़रूरत की बात की थी.. आगे में धर्म पर चर्चा कर रहा हूं.. तो निश्चित आप आश्चर्य कर रहे होंगे. चकित न हों पंथ, धर्म, और उससे आगे आध्यात्मिक-चैतन्य तक सब आत्मा के विषय हैं.. मानस के विषय हैं. ये युद्ध या हिंसक संघर्ष से परे हैं. व्यक्तिगत उत्कर्ष के लिये विचारधारा, धर्म, एवम आध्यात्मिक चैतन्य के साथ बाधाओं से जूझना ही संघर्ष है.. जो जीवन का उद्देश्य है. विचारधारा, धर्म, एवम आध्यात्मिक चैतन्य देश ही नही वरन समूचे ब्रह्माण्ड को अभूतपूर्व शांति देगा यह तय है. क्योंकि व्यष्टि एवं समष्टि में विचारधारा, धर्म, एवम आध्यात्मिक चैतन्य की उपलब्धता सदैव मौज़ूद रहती है. हमें खुद को एवम सभ्यता को बचाना है तो हमें रचनात्मक विचारधारा, धर्म, एवम आध्यात्मिक चैतन्य के मूल तत्वों का सहारा चाहिये. यही तो हमारे जीवन का उद्देश्य है.