11.8.14

आत्मकथ्यात्मक कविता - मैं रक्त-बीज हूं.. जी उठता हूं...!!


तुम क्या जानो 
मैं रक्त-बीज हूं.. 
रोज़ तुम मारते हो...
मरता भी हूं.. 
किरचा किरचा जुड़ जाता हूं.. 
देह में समा कर अल्ल सुबह 
जी उठता हूं.. 
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मरता हूं इस लिये कि तुम्हारे
 

संधानित आयुध 
पमानित न हों..!
ज़हर बुझे तीर चुभते हैं.. 
शरीर में एक तड़पती सी दामिनी 
संचरित हो जाती है.. 
मर जाता हूं तत्क्षण.. फ़िर 
बेटी का फ़ोन आता है.. 
पापा, कैसे हो.. और 
प्रतिक्रियावश
पूछता हूं प्रतिप्रश्न...
बेटी, आफ़िस से लौट आई..
आज दिन कैसा रहा... 
बेटी के आसन्न
सुखमय कल की लालसा 
मुझे पूरी तरह मरने नहीं देती.. 
जी उठता हूं.. तत्क्षण.. 
मैं रक्त-बीज हूं.. 
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मां, तुम कहतीं थीं न ... 

जीवन आसान नहीं पर 
मरना उससे कठिन है.. 
जियो संकल्पों से युक्त
तुम्हारा  जीवन  किसी न किसी
खास वज़ह से तुमको हासिल है..
जियो शान से, पीर ज़ाहिर न करना..
तभी तो चमकोगे.. 
अनुगुंजित ध्वनियां 
अमृत-औषध सी ज़िंदा कर देतीं हैं.. 
जी उठता हूं.. 
मैं रक्त-बीज हूं.. 
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मुझे मालूम है कि कौन क्या कितना किससे और कब 
क्या-क्या कहता है..?
मुझे यह भी मालूम है कि... 
सुदूर आवाज़ सुनाई देती है
“आप को हारते देखना मुझे संबलहीन कर देगा..”
बस उसी आवाज़ से अक्षय-ऊर्ज़ा का संचार हो जाता है..
फ़िर जी उठता हूं.. 
मैं रक्त-बीज हूं.. 
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एक स्वप्न जो देखता हूं रोज़िन्ना 
जागते-सोते 
कोरें भिगोते.. 
एक भीड़ में अपराधी सा
बढ़ता जाता हूं.. 
सारे जाने पहचाने लो 
भूल जाते हैं.. 
और मैं भीड़ भरे निर्जन में 
एक बेलनाकार डब्बे सा 
ढलान की तरफ़ लुड़कता हूं
जब किसी सहारे से टिकता 
स्थायित्व से राहत महसूस करता हूं.. 
फ़िर कोई आकर 
मुझमें पतन-वेग भरता है.. 
चुभता हूं उनके पग में जो ठुकराते हैं 
अचानक नींद से जाग जाता हूं..
दु:स्वप्न विहीन 
निष्प्राण नहीं रह पाता.. 
फ़िर जी उठता हूं.. 
रक्त-बीज जो हूं..  
::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::
बाबूजी पूछते हैं.. कब लौटौगे..
उत्तर देता हूं.. जी, बस रास्ते में.. हूं.. 
जी उठता  हूं.. बाबूजी के लिये.. 
हौसलों उम्मीदों के साथ.. 
न हारता हूं 
न हराता हूं किसी को भी..
बस जी उठता हूं..
रक्त-बीज जो हूं..  
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थक चुके हैं उनके युद्धरत हाथ..
आयुध भी असरहीन रह गए हैं.. 
घबराओ मत ... मृत्यु मेरी अंतिम इच्छा है.. 
कभी न कभी मरूंगा.. 
पर तुम्हारे आयुध से ..?
शायद कभी नहीं.. 
रक्तबीज जो हूं..!! 
क्यों कि
मुझे मालूम है
मृत्यु अनिद्य सुंदरी है..
मेरी अंतिम प्रियतमा..हूं. 

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