16.12.13

16 दिसम्बर क्या तुमने कभी सोचा था कि तुम इस तरह याद किये जाओगे


           पिंड दान कराने गये एक पंडित जी ने कहा - "तुम्हारे पिता को सरिता के मध्य में छोड़ना है ..वहां से सीधे स्वर्ग का रास्ता मिलेगा !"
नाविक ने कहा- "पंडिज्जी.. पिंड का चावल तो मछलियां खुद तट पर आ के खा लेंगी आप नाहक मध्य-में जाने को आमादा हैं. मध्य में तो भंवर है.. कुछ हुआ तो .."
पंडिज्जी- हे नास्तिक नाविक, तुम जन्म और कर्म दौनो से अभागे इसी कारण से हो क्योंकि तुमको न तो धर्म का ज्ञान है न ही जन्म जन्मांतर का बोध.. यजमान बोलो सच है कि नहीं..
शोकमग्न यजमान क्या कहता शांत था कुछ कहा न गया उससे .. नाविक ऐसे वक़्त में उस पर  अपनी राय थोंप कर मानसिक हिंसा नहीं करना चाहता था . चला दिया चप्पू उसने सरिता के मध्य की ओर.. मध्य भाग में वही हुआ जिसका भय था नाविक को नाव लड़खड़ाई.. जैसे-तैसे नाविक ने नाव को साधा वापस मोड़ ली नाव और कहा - पंडिज्जी, यदि मेरी वज़ह से आप दौनों अकाल मृत्यु का शिकार होते तो मुझे घोर पाप लगता.. अस्तु मैं सुरक्षित स्थान पर पिंडप्रवाह करा देता हूं. पंडिज्जी मौन थे... सारे ज्ञान चक्षु खुल गये थे उनके........ किसी के लिये मुक्ति का मार्ग कोई दूसरा व्यक्ति खोजे ये मानसिक दुर्बलता है. मेरी मुक्ति के लिये मेरी सदगति के लिये मैं स्वयं ज़िम्मेदार हूं. न कि कोई बिचौलिया.   

                 दूरस्थ एक गांव के ये ज्ञानी पुरुष  डोंगल से युक्त लेपटाप के ज़रिये दुनियां से जुड़े हैं . इनकी व्यवसायिक बुद्धि की दाद देनी होगी . किसी के आग्रह पर हमने इन से मुलाक़ात की जीवन के आसन्न कष्टों के उपचार का दावा करते हैं ये.. मुझे विश्वास नहीं कि मेरे अनन्त कष्टों.. अनन्त सुखद क्षणों में ये किसी भी साधना के ज़रिये हस्तक्षेप कर सकते हैं. क्योंकि हर हस्तक्षेप धन कमाने का एक अवसर है उनके लिये. ठीक इसी तरह जैसे एक नेता आता है हमारे सामने मुद्दे उछालता है हम मोहित हो जाते हैं उसको वोट टाईप की शक्ति अर्पित कर देते हैं.. वो आसन पर बैठ जाता है.. वो उसका व्ववसायिक वैशिष्ठय है क्योंकि हम नहीं जानते कि हम छले जा रहे हैं.. छले न भी गये तो हमारे पास विकल्प कम ही होते हैं जिन विकल्पों को हम स्वीकारते हैं वो लोकसंचार के बाज़ीगरों द्वारा हमारे मानस में डाले गये हैं. मेरी दुर्बल बुद्धि से मुझे न तो अन्ना न ही केजरी बाबू समझ आ रहे . एक मज़दूर को एक क्लर्क को एक मास्टर एक कुली को एक सामान्य आदमी को मूल्यांकन में सबसे पीछे छोड़ने वाले हम लोग केवल सतही ज्ञान जो बहुधा सूचनाओं का पुलिंदा होता है के आधार पर अच्छा-बुरा का श्रेणीकरण कर अपना निर्णय देते हैं. मुझे आज एक मौलिक निर्णय देखने को मिला सोशल साईट पर शायद आप भी पसंद करेंगे स्नेहा के निर्णय को स्नेहा चौहान कहती हैं निर्भया मामले को लेकर जब सारा देश गुस्‍से से उबल रहा था, तकरीबन उसी दौरान दिल्‍ली से दो घंटे की दूरी पर एक गांव की 15 वर्षीय लड़की गैंगरेप की शिकार हुई। लेकिन उसकी कराह सुनने वाला, उसे इंसाफ दिलाने वाला कोई नहीं था। छह माह तक वह इंसाफ के लिए लड़ती रही। बाद में उसे खुद पर केरोसीन उड़ेलकर खुदकुशी कर ली । अभी भी 70 फीसदी से ज्‍यादा ग्रामीण महिलाओं को अपने कानूनी अधिकारों का पता नहीं है । उन्‍हें तो अपमान, अत्‍याचार और उत्‍पीड़न को चुपचाप सहना सिखाया जाता है। क्‍या महिला अधिकारों की वकालत करने वाली शहरी महिलाएं अपनी साथिनों को उनके कानूनी अधिकार सिखाने आगे आएंगी
स्नेहा  का एक सवाल समय से भी है- "16 दिसम्बर क्या तुमने कभी सोचा था कि तुम इस तरह याद किये जाओगे ???? न जाने कितने दोगले चरित्रों के बेरहम शब्दो से गड़े जाओगे ,न जाने कितने कैमरो कि जगमगाती चुंधिया देने वाली रौशनी के बीच तुम्हारा भी जनाज़ा हर साल कुछ बे दिल ,पत्थर दिल अपने कंधे पे लादेंगे ,और तुमको शाम होते होते सब भूल जायेंगे।" स्नेहा से मैं सहमत या असहमत हूं ये इतर मसला है पर प्रभावित हूं कि  "स्नेहा के अपने विचार हैं पर मौलिक विचार हैं विचार मौलिक होने चाहिये पाज़िटिव होने चाहियें.. वरना आप की जिव्हा हिंसक पशु की मानिंद लपलपाती नज़र आएगी . आप क्या नज़र आएंगे आप स्वयं समझ सकते हैं"..
                                        बात आपको मिसफ़िट लग सकती है पर सचाई यही है कि हम बोलते तो हैं पर मौलिक चिंतन विहीन हैं कभी सोचना ज़रूर इस मसले पर...!!

14.12.13

भैया बहुतई अच्छे हैं इसई लिये तो....


                भैया बहुतई अच्छे हैं इसई लिये तो....बस भैया की अच्छाईयों का डिंडोरा जो बरसों से पिट रहा था लोग बेसुध गोपियों के मानिंद मोहित से  भैया की बंसी के पीछे दीवाने से झूम उठते हैं . हमने पूछा भैया की अच्छाईयां गिनाओ तो मौन साध गए कुछ और कुछेक तो दूसरों की निंदा का पिटारा खोल बैठे. लोग बाग भी अजीब हैं हो सकता है कि मेरी सोच ही मिसफ़िट हो.. ? अरे भाई मिसफ़िट हो क्या है ही.... मिसफ़िट मेरी विचार शैली .
                  मुझमें वो दिव्य दृष्टि लगाई ही नहीं है भगवान ने जिससे में भैया को आईकान मान सकूं. ये मेरा मैन्यूफ़ेक्चरिंग डिफ़ेक्ट है. मुझे ऐसा एहसास हुआ . सो बस    शेव कराते वक्त ज्यों ही भैया की याद आई कि मेरे बाल भर जाड़े में कांटे से खड़े हो गये . कर्तनालय मंत्री को दाढ़ी साफ़ करने में कम मुश्किल पेश आई. 
            बाल कटवाते समय मुझे बुद्ध की तरह ज्ञान हुआ कि हिंदुस्तान में  के पास बात करने के विषय तय शुदा हैं.… सियासत, और निंदा  . जहां तक सियासत का सवाल है लोग खबरिया चैनल पर जारी बहसों को भी पीछे छोड़ देते हैं. और निंदा बाप रे बाप  जिसे वो जानते भी नहीं उसमें वे लाख बुराईयां गिना देते हैं. बाल कट ही रहे थे कि एक सज्जन ने भैया की तारीफ़ में सुर छेड़ा.. हमने पूछा भैया वाकई अच्छे हैं ... तुम साबित करो कि क्यों अच्छे हैं.. एकाध उदाहरण बता दो भैया..?
     
कभी खुद को देखिये
छवि श्री असीम दुबे 
 भाई को मानो सांप सूंघ गया वो भैया के समानांतर वाले व्यक्ति की निंदा करने लगे . हमने कहा भाई, ये भी सही है कि कल्लू का पूरा खानदान ही बुरा है.. पर बताओ "भैया में अच्छाईयां क्या हैं..?"
  वास्तव में नई संचार क्रांति का यही सबसे दुविधा जनक पहलू है कि लोग अक्सर अच्छी पाज़िटिव खबरों से दूर हैं.  आम आदमी (केज़री बाबू वाला नहीं वास्तविक आम आदमी ) अपने अलावा दूसरों को भ्रष्ट मानते हुए खुद को व्यवस्था से पीढ़ित मानता है किंतु जब उसकी बारी आती है तो अपना ऊल्लू सीधा करने कोई भी रास्ता अपनाने में हेटी नहीं खाता. 
     एक सज्जन पेशे से कलमकार हैं सच उनसे मेरा दूर तक कोई नता नहीं वे मुझे जानते भी नहीं एक बार संयोगवश मिले मुझे एक खास समूह से जुड़ा होने की खबर सुनते ही बोले -"भाई, आपके संस्थान में फ़लां आदमी (मेरा नाम लेकर ) बहुत बदमाश है." हम मौज में आ गये परिचय कराने वाला मित्र अपना पसीना पौंछ रहा था .और हमने मौज लेते हुए पूछा-"भाई कभी उस बदमाश से मिले हो ?"
महानुभाव बोले- ऐसे लोगों से मिलना खुद की बेईज्जती करवाना है भाई सा’ब.. !
हम - एकाध बार मिल लेते तो अच्छा होता . आप उसकी अकल ठिकाने लगा देते आप जैसे महानुभावों की वज़ह से उनमें शायद कोई सुधार आ जाता !
महानुभाव बोले-"अरे भाई क्या दुनिया भर को सुधारने का ठेका हम लिये हैं..?"
हम - "लेकिन अनजाने व्यक्ति की निंदा अथवा किसी की बुराई करने का हक किसे होता है..?
"
           महानुभाव के पास ज़वाब न था उनके चारों खाने चित्त होते ही हमने फ़ट से अपना सरकारी आई.कार्ड निकाला . भाई भौंचक अवाक से हमारा मुंह तकते रह गये. उनकी तरह "दर्ज़ा-ए-लाचारी" भगवान किसी को भी न दे हमने उनके जाते समय बस एक बात कही मित्र .. जितनी नकारात्मक्ता होती है उतना ही हम असलियत से भागते हैं.. सचाई को जानिये फ़िर राय कायम कीजिये. 
                        मित्रो, सच तो ये है कि दुनिया अब मौलिक चिंतन और  मौलिक सोच से दूर होती जा रही है.  जो आप पढ़ते या सुनते हैं वो सूचनाएं हैं जिसको सत्य मानना या न मानना आपकी बौद्धिक कसौटी की गुणवत्ता पर निर्भर करता है.. किसी के प्रति यकायक सकारात्मक  अथवा नकारात्मक राय बनाने से पेश्तर बुद्धि की का स्तेमाल करिये वरना अनर्गल वक्तव्य जारी मत कीजिये ... तब तय कीजिये कि भैया अच्छे हैं या बुरे .. अच्छे हों तो उनके प्रवक्ता बनना ज़रूरी नहीं बुरे हों तो उनको गरियाना मूर्ख होने का संकेत है.. कुल मिला कर शांत किंतु प्रखर सौम्यता आपके लिये आत्मोत्कर्ष का मार्ग खोलेगा आपके बच्चे विद्वान होंगे..और आप यशश्वी ... वरना वरना आप में और ज़ाहिल-गंवार में कोई फ़र्क रहेगा क्या..?    क्योंकि हर बुरे व्यक्ति में कुछ न कुछ अच्छाई और हर अच्छे व्यक्ति में कुछ न कुछ बुराई अवश्य होती है.. जिनके साथ हमको गुज़ारा करना होता है.. अस्तु .. शांति शांति          

10.12.13

प्रदेश के तीसवें जननायक से उम्मीदें

क्रमांक
नाम
अवधि
1
श्री रविशंकर शुक्ल
01.11.1956 to 31.12.1956
2
श्री भगवन्त राव मण्डलोई
01.01.1957 to 30.01.1957
3
श्री कैलाश नाथ काटजु
31.01.1957 to 14.04.1957
4
श्री कैलाश नाथ काटजु
15.04.1957 to 11.03.1962
5
श्री भगवन्त राव मण्डलोई
12.03.1962 to 29.09.1963
6
श्री द्वारका प्रसाद मिश्रा
30.09.1963 to 08.03.1967
7
श्री द्वारका प्रसाद मिश्रा
09.03.1967 to 29.07.1967
8
श्री गोविन्द नारायण सिंह
30.07.1967 to 12.03.1969
9
श्री राजा नरेशचन्द्र सिंह
13.03.1969 to 25.03.1969
10
श्री श्यामाचरण शुक्ल
26.03.1969 to 28.01.1972
11
श्री प्रकाश चन्द्र सेठी
29.01.1972 to 22.03.1972
12
श्री प्रकाश चन्द्र सेठी
23.03.1972 to 22.12.1975
13
श्री श्यामाचरण शुक्ल
23.12.1975 to 29.04.1977
राष्ट्रपति शासन
30.04.1977 to 25.06.1977
14
श्री कैलाश चन्द्र जोशी
26.06.1977 to 17.01.1978
15
श्री विरेन्द्र कुमार सखलेचा
18.01.1978 to 19.01.1980
16
श्री सुन्दरलाल पटवा
20.01.1980 to 17.02.1980
राष्ट्रपति शासन
18.02.1980 to 08.06.1980
17
श्री अर्जुन सिंह
09.06.1980 to 10.03.1985
18
श्री अर्जुन सिंह
11.03.1985 to 12.03.1985
19
श्री मोती लाल वोरा
13.03.1985 to 13.02.1988
20
श्री अर्जुन सिंह
14.02.1988 to 24.01.1989
21
श्री मोती लाल वोरा
25.01.1989 to 08.12.1989
22
श्री श्यामाचरण शुक्ल
09.12.1989 to 04.03.1990
23
श्री सुन्दरलाल पटवा
05.03.1990 to 15.12.1992
राष्ट्रपति शासन
16.12.1992 to 06.12.1993
24
श्री दिग्विजय सिंह
07.12.1993 to 01.12.1998
25
श्री दिग्विजय सिंह
01.12.1998 to 08.12.2003
26
सुश्री उमा भारती
08.12.2003 to 23.08.2004
27
श्री बाबूलाल गौर
23.08.2004 to 29.11.2005
28
श्री शिवराज सिंह चौहान
29.11.2005 to 12.12.2008
29
श्री शिवराज सिंह चौहान
12.12.2008 to continuing
  मध्यप्रदेश के तीसवें जननायक से उम्मीदें बहुत हैं.. जब भी उम्मीदें बढ़तीं तो जवाबदेही भी आनुपातिक रूप से दो से तीन गुनी हो जाती है.मध्य-प्रदेश के विकास का अर्थ सम्पूर्ण देश के विकासगत समंकों को धनात्मक दिशा देना है साथ ही  विकास का वास्तविक अर्थ देती है सुदूर ग्रामीण क्षेत्र की जनता के चेहरों की मुस्कानें. थोड़ा सा साहित्यिक होकर कहना चाहूंगा कि – “ऐसी मुस्कुराहटों  को संवैधानिक अधिकार देने की ज़रूरत है अब ”
  तीसवां जननायक जो भी होगा बेशक उसके सामने बेहद जटिल सवाल होगें जिनको हल तो करना ही होगा उन सवालों को जो कठिन और जटिल होने के साथ साथ ऐसे प्रतीत हो रहें हैं जिनका हल निकालते वक़्त कुछ कठोर निर्णय (जो अपनों को कष्ट प्रद लग सकते हैं) लेने ही होंगें. क्योंकि विकास के लिये विपरीत बल की आवश्यकता कदापि नहीं होती. एक एक पैसे का सही-सही और परिणाम मूलक स्तेमाल ज़रूरी है . आखिर स्वाधीनता के मायने भी तो यहीं हैं.. जनतंत्र में जनधन के सदुपयोग को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी आवश्यक है. उम्मीद है तीसवें जननायक के मानस में यह बिंदू समाहित ही होगा.
 कहीं लोकप्रियता सादगी ओर सहजता को खत्म न कर दे   जननायक को सादगी सहजता बनानी होगी . अगर यह नहीं होता तो है तो अंतराल बढ़ता जाता है ... फ़िर जननायक और जन के बीच एक दूरी कायम हो ही जाती है. यहां ये बिंदू समझना होगा कि यश अक्सर मानस को भ्रमित कर देता है .. “अपना यश” सरिता में प्रवाह के योग्य ही  होता है. अपने मानस को एक ऐसा बाक्स मानना चाहिये जिसमें केवल लोक-सेवा की अवधारणा को रखा जा सके . शेष मुद्दों जैसे आत्मकेंद्रित सोच, जय,यश, लोकसेवा का गर्व - के लिये स्थान रखना युक्तिसंगत नहीं .इन को मानस में रख लेने से "लोकसेवा" की अवधारणा के लिये स्थान नहीं बचता. कई राजघराने और राजा इसी के शिकार हुए हैं.  इन तथ्य को सदैव ध्यान में रखना ज़रूरी है.
         वीतरागी सम्राठ या कहिये जननायक को "ऊर्ध्वरैता" यानी एक नैष्ठिक ब्रह्मचारी की काया धारण कर लेने से जननायक युगों तक भुलाए नहीं भूलने वाला व्यक्ति बन जाता है. पर आज़ के दौर में ये कल्पना अतिरंजित सी लगती है. क्या ये सम्भव है. बकौल शेक्सपियर :-"असम्भव शब्द मूर्खों के शब्द कोष का शब्द है ... !" हो क्यों नहीं सकता ऐसा मित्र जब अजीवातजीवोत्पत्ति सम्भव है.. दिन रात सम्भव हैं.. सौर मंडल सम्भव है तो मानवीय आचरणों में "विशुद्ध लोकसेवा का भाव" असम्भव क्यों ..? 
          अक्सर सियासत मानवीयता के पथ से विचलन कराते पथों का दर्शन कराती है. किंतु देश के इतिवृत में उन व्यक्तियों का उल्लेख आता है जो लोक-सेवा को सर्वोपरि मानते थे..
         भारतीय जनतंत्र में जनादेश सर्वोपरि है. तो उसके भी ऊपर है जनादेश का सम्मान . किसी भी जनादेश प्राप्त व्यक्ति की सफ़लता एवम उसकी सर्वमान्यता उसकी अपनी क्रिएटिविटी पर आधारित होती है. कभी कभी एक नारा देश को दिशा दे देता है तो कभी कई नारों से शोरगुल का आभास होता है. अतएव ज़रूरी है रचनात्मक सोच जो विकास के वास्त्विक लक्ष्य को साध सके . तभी तो राजा से अपेक्षा की जाती है कि -"Do not be king like king be king like creator "
          अंत में संकेत स्पष्ट है  लोक-सेवा अतंस को छू लेने वाली मानवीय प्रक्रिया है.. न कि यश के नगाड़े बजाने का अवसर देने वाली प्रक्रिया....
स्वस्ति                           स्वस्ति                         स्वस्ति  

सुनो सूरज तुम जा रहे हो.. मैं भी चलता हूं..

सुनो सूरज
तुम जा रहे हो..
मैं भी चलता हूं..
तुम्हारी मेरी
हर एक शाम
एक अनुबंधित शाम है
तुम भी घर लौटते हो
रोजिन्ना मैं भी घर लौटता हूं..!
धूल सना मैं..
लिपटते हैं बच्चे मुझसे
द्वारे से आवाज़ सुनाई देती है
मुन्नू बाबू आ गये...?
ज़वाब मैं देता हूं-"हां, हम आ गये !"
तब हाथ-पानी की सौंधी खुशबू वाली रोटीयां
सिंक रही होतीं हैं..
प्याज़.. नमक... वाली रोटीयां.. हरी-मिर्च के साथ
बहुत स्वादिष्ट होतीं हैं.
दिन भर की थकन मिट जाती है
भूख के साथ ..
अबके हाट से साग-भाजी ले आने का वादा
कर देता हूं कभी कभार
ले भी आया हूं कई बार .
पर वो कहती है...
खरच कम करो
बच्चों के लिये कुछ बचा लो
सिरपंच रात को बैठक में
रोजी के  नये रास्ते बताता है.
कर्ज़ के फ़ारम भरवाता है.
सरकार का संदेश सुनाता है.
ये सब कुछ समझ नहीं आता है..
लौटता हूं फ़ारम लेकर
मुन्नू-मुन्नी को दे देता हूं नाव-हवाई जहाज़-फ़िरकी बनाने
मुझे मालूम है कित्ते चक्कर लगाने पड़ते हैं कर्ज़ के लिये..
मिलता भी तो आधा-अधूरा
फ़िर कर्ज़ का क्या करूंगा
खेत में पसीना बोता हूं..
चैन से खाता-पीता और सोता हूं..
सूरज तुम शायद चैन से सो पाते हो या नहीं..
मेरी तरह... 

30.11.13

शुक्रिया दोस्तो जी चुका हूं आधी सदी..!

                      ___________________________
                     
             
            पचास वर्ष की आयु पूर्ण करने के 
                                         अवसर
                                    "आत्म-कथ्य" 
                      ___________________________ 
                      जी चुका हूं आधी सदी … मैं खुद से हिसाब मांगूं.. न ये ज़ायज़ बात नहीं. जो मिला वो कम न था.. जो खोया.. वो ज़्यादा भी तो नहीं खोया है न.. ! खोया पाया का हिसाब क्यों जोड़ूं . तुम चाहो तो मूल्यांकन के नाम पर ये सब करो . मुझे तुम्हारे नज़रिये से जीना नहीं . हार-जीत, सफ़ल-असफ़ल, मेरे शब्दकोष में नहीं हैं. न मैं कभी हारा न कभी जीता . जिसे तुमने मात दी थी सरे बाज़ार मुझे रुसवा किया था . लोग उसे तुम्हारे साथ भूल गए … हर ऐसी कथित हार के बाद मुझे रास्ते ही रास्ते नज़र आए और .. फ़िर मुझमें अनंत उत्साह भर आया . हर हार के बाद तेज़ हुई है जीने की आकांक्षा भरपूर जी रहा हूं. ग़ालिब ने सच ही तो कहा था शायद मेरा नज़रिया भी वही है – “बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे” आप सब खेलो बच्चों की मानिंद मैं आपको उसी नज़रिये से देखते रहना चाहता हूं.
मेरा तुम्हारा तेल – पानी का नाता है. जो कभी मिलते नहीं पर संग-साथ ज़रूर रहते हैं. मेरे लिये तुम जैसे भी उतने ही ज़रूरी है जितने वो लोग जिनको रंग लेता हूं.. या उनके रंग में रंग जाता हूं .. वो ज़्यादा हैं तुम एकाध ही तो हो भी सकता है दो-चार और होंगे तुम से . पर इससे मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता मुझे आता है लम्बी लक़ीरें खीचना .
तुम्हारी ईर्षा मुझे ताक़त देतीं हैं तुम जितना सुलगते हो उतना राख होते हो और जानते हो न राख से कभी मज़बूत दीवारें.. बुर्ज़…या मकां नहीं बनते यक़ीन करो तब मैं हवा बन के तुमको कण-कण उड़ा ले जाता हूं.. छोड़ आता हूं वहां जहां ज़रा सा पानी होता है.. तुम्हारे बारे में ज़्यादा क्या कहूं उन हज़ारों शुभकामना देने वालों का सम्मान करने जा रहा हूं अब जो अक्सर स्नेह की खुशबू और स्निग्धता मुझ पर न्यौछावर कर रहें हैं.
मां तुम जो आंखें नम कर देतीं हो एहसासों में आकर, बाबूजी तुम जो मेरी बाट जोहते रहते हो.. मेरे बच्चो तुम जो मेरे सपनों को आकार दोगे.. मित्रो तुम सब जो मेरे क़रीब होते हो अक्सर .. मेरी सहचरी तुम जो अक्सर मेरी हर पीढा को बांचा करती हो .. प्रकृति तुम जो मुझे ऊर्ज़ा देती हो .. किसी न किसी रूप में इस जीवन प्रवाह में जड़-चेतन से सम्बल निरंतर मिलता है .और यही सम्बल हताशा को खत्म कर देने में मददगार होता है. जितना भी हासिल हुआ है अब तक उसे कम कह कर दाताओं का अपमान करना मेरी प्रकृति भी तो नहीं है. जब भी मुझे यश मिलता है.. नर्मदा में प्रवाहित कर आता हूं.. पास क्यों रखूं कीमती चीज़ है .. मां को सौंपना चाहिये सो सौंप आता हूं. मां के पास ऐसी मंजूषाएं हैं जिसमें मेरा यश सुरक्षित होता है . मेरे पास होगा तो अभिमान के दीमक उसे चट कर जाएंगें.. सच . हां हर अपयश और अपमान मेरे लिये अंवेषण का कारण होता है..
अपने आप भी ऐसा ही सोचिये.. मज़ेदार खेल है ये . ज़िंदगी

24.11.13

उपेक्षा का दंश : खून निकलता नहीं ……… खून सूखता है

चित्र जीवन महादर्शन ब्लॉग से साभार 
                    
      समय की तरह  जीवन पुस्तिका के पन्ने भी धीरे धीरे कब बदल जाते हैं इसका ज्ञान किसे और कब  हुआ  है  .  टिक टिक करती घड़ी को 
टुकटुक निहारती बूढ़ी काया के पास केवल एक खिलौना होता है टाइम 
पास करने के लिए वो है पुराने बीते दिनों की यादें …… !!
 झुर्रीदार  त्वचा  शक्कर कम वाली देह को अक्सर उपेक्षा के दंश चुभते हैं 
ये अलहदा बात है कि खून निकलता नहीं  ……… खून सूखता अवश्य 
 है  . समय के बदलाव के साथ दादाजी दादी जी नाना जी नानी जी , के 
 रुतबे  में भी  नकारात्मक बदलाव आया है  . यह सच है कि  नया दौर 
नए बदलाव लाता है  . पर आज का दौर बेहद तेज़ी से बदलाव लाता तो है
किंतु बहुधा बदलाव नकारात्मक ही होते  हैं  . समय के साथ  चिंतन का स्वरुप भी परिवर्तन शील  होने लगा है  .
 पीढ़ी  के पास अब आत्मकेंद्रित चिन्तन है  . 
"अपने- आज" को जी भर के जीने का "अपने-कल" को सुरक्षित ढांचा देने का    चिंतन   ……  नई पीढ़ी  घर 

के कमरे में कैद बुढ़ापा पर गाहे बगाहे इलज़ाम थोपती नज़र आती है .... -"क्या दिया तुमने हमें  ?"
तब सबके बारे में सोचने  कृषकाय सब के लिए अपने व्यापक नज़रिए  को बदलने तैयार नहीं होता  . भले ही उसे कुछ हासिल न हुआ हो परोपकारी जीवन से  . आज  का युवा "जीवन के जमाखर्च" का मूल्यांकन सबसे पहले करता है  . जबकि पुराना दौर ऐसा  न था  .  अब तो आयोजनों में आमंत्रित करते समय बूढ़े परिजनों की मंशा को ध्यान में नहीं रखा जाता  . व्यवसायिकता इस कदर हावी है मानस पर कि हम  निकटतम नातों को भी भूल जाते हैं  . मुझे अच्छी तरह याद है मेरी माँ ने मुझे एहसास कराया था कि -"प्रेम से अभेद्य दुर्ग भी जीते जा सकते हैं " भावनाएं आत्मकेंद्रित न हों इसकी कोशिश होती रहे  . कार्य में सार्वभौमिक स्निग्धता का एहसास दिलाते रहिये  . पर क्या कहें समय ही सदा नफे-नुकसान के आंकलन का आ चुका है  . अब तो बूढ़े माँ बाप को किटी-पार्टी के अवसर  घर के आख़िरी कमरे में या नेपथ्य में रहने के निर्देश  पुत्र भी दे देता है  ताकि उसकी शरीक - ए -हयात को कोई तकलीफ़ पेश न आये  .  ऐसा नहीं है कि सिर्फ आज का दौर ही ऐसा है  प्रेमचन्द ने बूढ़ी काकी  समकालीन सामाजिक परिस्थियों को देख कर ही लिखी थी  पर तब कहानी कहानी लगती थी पर अब अब ऐसी घटनाएं  सामान्य सी लगतीं  हैं  .
हम शायद ही सोचते हैं कि जब हमें  माँ बाप की छाया ज़रूरी थी तब वे हमको नहीं छोड़ते थे एक पल को भी और जब उनको हमारी अधिक ज़रुरत है तब हम टेक-केयर कह अपना फ़र्ज़ निभाते हैं....!
       


18.11.13

एक मदालस शाम एक अप्रतिम वापसी


गोधूलि के चित्र मत लेना.. किसी ने कहा था एक बार .... सूर्यास्त की तस्वीरें मत लेना ...क्यों ?
किसी के कहने से क्या मैं डूबते सूरज का आभार न कहूं.. क्यों न कहूं.. एहसान फ़रामोश नहीं हूं.. 
अदभुत तस्वीरें देती एक शाम की
जी हां  कल घर वापस आते वक़्त 
इस अनोखी शाम ने.... 
मनमोहक और मदालस शाम ने 
अप्रतिम सौंदर्यानुभूति करा दिया 
रूमानियत से पोर पोर भर दिया .....!!
 
इस बीच मेरी नज़र पड़ी  एक मज़दूर घर वापस आता दिखा मैने पूछा -भाई किधर से आ रहे हो  
उसने तपाक से ज़वाब दिया - घर जात हौं..!!

घर जाने का उछाह गोया इस मज़दूर की मानिंद सूरज में भी है. तभी तो बादलों के शामियाने पर चढ़ कूंदता फ़ांदता पश्चिम की तरफ़ जा रहा है.. 
ये कोई शहरी बच्चा नहीं जो स्कूल से सीधा घर जाने में कतराता है.. सूरज है भाई.. उसे समय पर आना मालूम है.. समय पर जाना भी... जानता है.. 



            महानगर का बच्चा नहीं है वो जिसका बचपन असमय ही छिन जाता है .. उसे मां के हाथों की सौंधी सौंधी रोटियां बुला रहीं है.. गुड़ की डली वाह.. मिर्च न भी लगे तो भी गुड़ के लिये झूठ मूट अम्मा मिर्ची बहुत है कह चीखता होगा .. मां मुस्कुरा कर मटके से गुड़ निकाल के दे देती होगी

 मेरी तरफ़ पूरा पूरा बचपन जिया जा रहा है.. सूरज.. कभी झाड़ियों के पीछे जा छिपता तो कभी किसी दरख्त के ..
छुपनछुपाई का खेल वाह क्या बात है ..
 पता नहीं मेरी बातों का क्या अर्थ लगाते हैं..





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