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रविवार, नवंबर 24, 2013

उपेक्षा का दंश : खून निकलता नहीं ……… खून सूखता है

चित्र जीवन महादर्शन ब्लॉग से साभार 
                    
      समय की तरह  जीवन पुस्तिका के पन्ने भी धीरे धीरे कब बदल जाते हैं इसका ज्ञान किसे और कब  हुआ  है  .  टिक टिक करती घड़ी को 
टुकटुक निहारती बूढ़ी काया के पास केवल एक खिलौना होता है टाइम 
पास करने के लिए वो है पुराने बीते दिनों की यादें …… !!
 झुर्रीदार  त्वचा  शक्कर कम वाली देह को अक्सर उपेक्षा के दंश चुभते हैं 
ये अलहदा बात है कि खून निकलता नहीं  ……… खून सूखता अवश्य 
 है  . समय के बदलाव के साथ दादाजी दादी जी नाना जी नानी जी , के 
 रुतबे  में भी  नकारात्मक बदलाव आया है  . यह सच है कि  नया दौर 
नए बदलाव लाता है  . पर आज का दौर बेहद तेज़ी से बदलाव लाता तो है
किंतु बहुधा बदलाव नकारात्मक ही होते  हैं  . समय के साथ  चिंतन का स्वरुप भी परिवर्तन शील  होने लगा है  .
 पीढ़ी  के पास अब आत्मकेंद्रित चिन्तन है  . 
"अपने- आज" को जी भर के जीने का "अपने-कल" को सुरक्षित ढांचा देने का    चिंतन   ……  नई पीढ़ी  घर 

के कमरे में कैद बुढ़ापा पर गाहे बगाहे इलज़ाम थोपती नज़र आती है .... -"क्या दिया तुमने हमें  ?"
तब सबके बारे में सोचने  कृषकाय सब के लिए अपने व्यापक नज़रिए  को बदलने तैयार नहीं होता  . भले ही उसे कुछ हासिल न हुआ हो परोपकारी जीवन से  . आज  का युवा "जीवन के जमाखर्च" का मूल्यांकन सबसे पहले करता है  . जबकि पुराना दौर ऐसा  न था  .  अब तो आयोजनों में आमंत्रित करते समय बूढ़े परिजनों की मंशा को ध्यान में नहीं रखा जाता  . व्यवसायिकता इस कदर हावी है मानस पर कि हम  निकटतम नातों को भी भूल जाते हैं  . मुझे अच्छी तरह याद है मेरी माँ ने मुझे एहसास कराया था कि -"प्रेम से अभेद्य दुर्ग भी जीते जा सकते हैं " भावनाएं आत्मकेंद्रित न हों इसकी कोशिश होती रहे  . कार्य में सार्वभौमिक स्निग्धता का एहसास दिलाते रहिये  . पर क्या कहें समय ही सदा नफे-नुकसान के आंकलन का आ चुका है  . अब तो बूढ़े माँ बाप को किटी-पार्टी के अवसर  घर के आख़िरी कमरे में या नेपथ्य में रहने के निर्देश  पुत्र भी दे देता है  ताकि उसकी शरीक - ए -हयात को कोई तकलीफ़ पेश न आये  .  ऐसा नहीं है कि सिर्फ आज का दौर ही ऐसा है  प्रेमचन्द ने बूढ़ी काकी  समकालीन सामाजिक परिस्थियों को देख कर ही लिखी थी  पर तब कहानी कहानी लगती थी पर अब अब ऐसी घटनाएं  सामान्य सी लगतीं  हैं  .
हम शायद ही सोचते हैं कि जब हमें  माँ बाप की छाया ज़रूरी थी तब वे हमको नहीं छोड़ते थे एक पल को भी और जब उनको हमारी अधिक ज़रुरत है तब हम टेक-केयर कह अपना फ़र्ज़ निभाते हैं....!
       


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