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शनिवार, नवंबर 30, 2013

शुक्रिया दोस्तो जी चुका हूं आधी सदी..!

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            पचास वर्ष की आयु पूर्ण करने के 
                                         अवसर
                                    "आत्म-कथ्य" 
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                      जी चुका हूं आधी सदी … मैं खुद से हिसाब मांगूं.. न ये ज़ायज़ बात नहीं. जो मिला वो कम न था.. जो खोया.. वो ज़्यादा भी तो नहीं खोया है न.. ! खोया पाया का हिसाब क्यों जोड़ूं . तुम चाहो तो मूल्यांकन के नाम पर ये सब करो . मुझे तुम्हारे नज़रिये से जीना नहीं . हार-जीत, सफ़ल-असफ़ल, मेरे शब्दकोष में नहीं हैं. न मैं कभी हारा न कभी जीता . जिसे तुमने मात दी थी सरे बाज़ार मुझे रुसवा किया था . लोग उसे तुम्हारे साथ भूल गए … हर ऐसी कथित हार के बाद मुझे रास्ते ही रास्ते नज़र आए और .. फ़िर मुझमें अनंत उत्साह भर आया . हर हार के बाद तेज़ हुई है जीने की आकांक्षा भरपूर जी रहा हूं. ग़ालिब ने सच ही तो कहा था शायद मेरा नज़रिया भी वही है – “बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे” आप सब खेलो बच्चों की मानिंद मैं आपको उसी नज़रिये से देखते रहना चाहता हूं.
मेरा तुम्हारा तेल – पानी का नाता है. जो कभी मिलते नहीं पर संग-साथ ज़रूर रहते हैं. मेरे लिये तुम जैसे भी उतने ही ज़रूरी है जितने वो लोग जिनको रंग लेता हूं.. या उनके रंग में रंग जाता हूं .. वो ज़्यादा हैं तुम एकाध ही तो हो भी सकता है दो-चार और होंगे तुम से . पर इससे मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता मुझे आता है लम्बी लक़ीरें खीचना .
तुम्हारी ईर्षा मुझे ताक़त देतीं हैं तुम जितना सुलगते हो उतना राख होते हो और जानते हो न राख से कभी मज़बूत दीवारें.. बुर्ज़…या मकां नहीं बनते यक़ीन करो तब मैं हवा बन के तुमको कण-कण उड़ा ले जाता हूं.. छोड़ आता हूं वहां जहां ज़रा सा पानी होता है.. तुम्हारे बारे में ज़्यादा क्या कहूं उन हज़ारों शुभकामना देने वालों का सम्मान करने जा रहा हूं अब जो अक्सर स्नेह की खुशबू और स्निग्धता मुझ पर न्यौछावर कर रहें हैं.
मां तुम जो आंखें नम कर देतीं हो एहसासों में आकर, बाबूजी तुम जो मेरी बाट जोहते रहते हो.. मेरे बच्चो तुम जो मेरे सपनों को आकार दोगे.. मित्रो तुम सब जो मेरे क़रीब होते हो अक्सर .. मेरी सहचरी तुम जो अक्सर मेरी हर पीढा को बांचा करती हो .. प्रकृति तुम जो मुझे ऊर्ज़ा देती हो .. किसी न किसी रूप में इस जीवन प्रवाह में जड़-चेतन से सम्बल निरंतर मिलता है .और यही सम्बल हताशा को खत्म कर देने में मददगार होता है. जितना भी हासिल हुआ है अब तक उसे कम कह कर दाताओं का अपमान करना मेरी प्रकृति भी तो नहीं है. जब भी मुझे यश मिलता है.. नर्मदा में प्रवाहित कर आता हूं.. पास क्यों रखूं कीमती चीज़ है .. मां को सौंपना चाहिये सो सौंप आता हूं. मां के पास ऐसी मंजूषाएं हैं जिसमें मेरा यश सुरक्षित होता है . मेरे पास होगा तो अभिमान के दीमक उसे चट कर जाएंगें.. सच . हां हर अपयश और अपमान मेरे लिये अंवेषण का कारण होता है..
अपने आप भी ऐसा ही सोचिये.. मज़ेदार खेल है ये . ज़िंदगी

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