10.12.13

सुनो सूरज तुम जा रहे हो.. मैं भी चलता हूं..

सुनो सूरज
तुम जा रहे हो..
मैं भी चलता हूं..
तुम्हारी मेरी
हर एक शाम
एक अनुबंधित शाम है
तुम भी घर लौटते हो
रोजिन्ना मैं भी घर लौटता हूं..!
धूल सना मैं..
लिपटते हैं बच्चे मुझसे
द्वारे से आवाज़ सुनाई देती है
मुन्नू बाबू आ गये...?
ज़वाब मैं देता हूं-"हां, हम आ गये !"
तब हाथ-पानी की सौंधी खुशबू वाली रोटीयां
सिंक रही होतीं हैं..
प्याज़.. नमक... वाली रोटीयां.. हरी-मिर्च के साथ
बहुत स्वादिष्ट होतीं हैं.
दिन भर की थकन मिट जाती है
भूख के साथ ..
अबके हाट से साग-भाजी ले आने का वादा
कर देता हूं कभी कभार
ले भी आया हूं कई बार .
पर वो कहती है...
खरच कम करो
बच्चों के लिये कुछ बचा लो
सिरपंच रात को बैठक में
रोजी के  नये रास्ते बताता है.
कर्ज़ के फ़ारम भरवाता है.
सरकार का संदेश सुनाता है.
ये सब कुछ समझ नहीं आता है..
लौटता हूं फ़ारम लेकर
मुन्नू-मुन्नी को दे देता हूं नाव-हवाई जहाज़-फ़िरकी बनाने
मुझे मालूम है कित्ते चक्कर लगाने पड़ते हैं कर्ज़ के लिये..
मिलता भी तो आधा-अधूरा
फ़िर कर्ज़ का क्या करूंगा
खेत में पसीना बोता हूं..
चैन से खाता-पीता और सोता हूं..
सूरज तुम शायद चैन से सो पाते हो या नहीं..
मेरी तरह... 

30.11.13

शुक्रिया दोस्तो जी चुका हूं आधी सदी..!

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            पचास वर्ष की आयु पूर्ण करने के 
                                         अवसर
                                    "आत्म-कथ्य" 
                      ___________________________ 
                      जी चुका हूं आधी सदी … मैं खुद से हिसाब मांगूं.. न ये ज़ायज़ बात नहीं. जो मिला वो कम न था.. जो खोया.. वो ज़्यादा भी तो नहीं खोया है न.. ! खोया पाया का हिसाब क्यों जोड़ूं . तुम चाहो तो मूल्यांकन के नाम पर ये सब करो . मुझे तुम्हारे नज़रिये से जीना नहीं . हार-जीत, सफ़ल-असफ़ल, मेरे शब्दकोष में नहीं हैं. न मैं कभी हारा न कभी जीता . जिसे तुमने मात दी थी सरे बाज़ार मुझे रुसवा किया था . लोग उसे तुम्हारे साथ भूल गए … हर ऐसी कथित हार के बाद मुझे रास्ते ही रास्ते नज़र आए और .. फ़िर मुझमें अनंत उत्साह भर आया . हर हार के बाद तेज़ हुई है जीने की आकांक्षा भरपूर जी रहा हूं. ग़ालिब ने सच ही तो कहा था शायद मेरा नज़रिया भी वही है – “बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे” आप सब खेलो बच्चों की मानिंद मैं आपको उसी नज़रिये से देखते रहना चाहता हूं.
मेरा तुम्हारा तेल – पानी का नाता है. जो कभी मिलते नहीं पर संग-साथ ज़रूर रहते हैं. मेरे लिये तुम जैसे भी उतने ही ज़रूरी है जितने वो लोग जिनको रंग लेता हूं.. या उनके रंग में रंग जाता हूं .. वो ज़्यादा हैं तुम एकाध ही तो हो भी सकता है दो-चार और होंगे तुम से . पर इससे मुझे कोई फ़र्क नहीं पड़ता मुझे आता है लम्बी लक़ीरें खीचना .
तुम्हारी ईर्षा मुझे ताक़त देतीं हैं तुम जितना सुलगते हो उतना राख होते हो और जानते हो न राख से कभी मज़बूत दीवारें.. बुर्ज़…या मकां नहीं बनते यक़ीन करो तब मैं हवा बन के तुमको कण-कण उड़ा ले जाता हूं.. छोड़ आता हूं वहां जहां ज़रा सा पानी होता है.. तुम्हारे बारे में ज़्यादा क्या कहूं उन हज़ारों शुभकामना देने वालों का सम्मान करने जा रहा हूं अब जो अक्सर स्नेह की खुशबू और स्निग्धता मुझ पर न्यौछावर कर रहें हैं.
मां तुम जो आंखें नम कर देतीं हो एहसासों में आकर, बाबूजी तुम जो मेरी बाट जोहते रहते हो.. मेरे बच्चो तुम जो मेरे सपनों को आकार दोगे.. मित्रो तुम सब जो मेरे क़रीब होते हो अक्सर .. मेरी सहचरी तुम जो अक्सर मेरी हर पीढा को बांचा करती हो .. प्रकृति तुम जो मुझे ऊर्ज़ा देती हो .. किसी न किसी रूप में इस जीवन प्रवाह में जड़-चेतन से सम्बल निरंतर मिलता है .और यही सम्बल हताशा को खत्म कर देने में मददगार होता है. जितना भी हासिल हुआ है अब तक उसे कम कह कर दाताओं का अपमान करना मेरी प्रकृति भी तो नहीं है. जब भी मुझे यश मिलता है.. नर्मदा में प्रवाहित कर आता हूं.. पास क्यों रखूं कीमती चीज़ है .. मां को सौंपना चाहिये सो सौंप आता हूं. मां के पास ऐसी मंजूषाएं हैं जिसमें मेरा यश सुरक्षित होता है . मेरे पास होगा तो अभिमान के दीमक उसे चट कर जाएंगें.. सच . हां हर अपयश और अपमान मेरे लिये अंवेषण का कारण होता है..
अपने आप भी ऐसा ही सोचिये.. मज़ेदार खेल है ये . ज़िंदगी

24.11.13

उपेक्षा का दंश : खून निकलता नहीं ……… खून सूखता है

चित्र जीवन महादर्शन ब्लॉग से साभार 
                    
      समय की तरह  जीवन पुस्तिका के पन्ने भी धीरे धीरे कब बदल जाते हैं इसका ज्ञान किसे और कब  हुआ  है  .  टिक टिक करती घड़ी को 
टुकटुक निहारती बूढ़ी काया के पास केवल एक खिलौना होता है टाइम 
पास करने के लिए वो है पुराने बीते दिनों की यादें …… !!
 झुर्रीदार  त्वचा  शक्कर कम वाली देह को अक्सर उपेक्षा के दंश चुभते हैं 
ये अलहदा बात है कि खून निकलता नहीं  ……… खून सूखता अवश्य 
 है  . समय के बदलाव के साथ दादाजी दादी जी नाना जी नानी जी , के 
 रुतबे  में भी  नकारात्मक बदलाव आया है  . यह सच है कि  नया दौर 
नए बदलाव लाता है  . पर आज का दौर बेहद तेज़ी से बदलाव लाता तो है
किंतु बहुधा बदलाव नकारात्मक ही होते  हैं  . समय के साथ  चिंतन का स्वरुप भी परिवर्तन शील  होने लगा है  .
 पीढ़ी  के पास अब आत्मकेंद्रित चिन्तन है  . 
"अपने- आज" को जी भर के जीने का "अपने-कल" को सुरक्षित ढांचा देने का    चिंतन   ……  नई पीढ़ी  घर 

के कमरे में कैद बुढ़ापा पर गाहे बगाहे इलज़ाम थोपती नज़र आती है .... -"क्या दिया तुमने हमें  ?"
तब सबके बारे में सोचने  कृषकाय सब के लिए अपने व्यापक नज़रिए  को बदलने तैयार नहीं होता  . भले ही उसे कुछ हासिल न हुआ हो परोपकारी जीवन से  . आज  का युवा "जीवन के जमाखर्च" का मूल्यांकन सबसे पहले करता है  . जबकि पुराना दौर ऐसा  न था  .  अब तो आयोजनों में आमंत्रित करते समय बूढ़े परिजनों की मंशा को ध्यान में नहीं रखा जाता  . व्यवसायिकता इस कदर हावी है मानस पर कि हम  निकटतम नातों को भी भूल जाते हैं  . मुझे अच्छी तरह याद है मेरी माँ ने मुझे एहसास कराया था कि -"प्रेम से अभेद्य दुर्ग भी जीते जा सकते हैं " भावनाएं आत्मकेंद्रित न हों इसकी कोशिश होती रहे  . कार्य में सार्वभौमिक स्निग्धता का एहसास दिलाते रहिये  . पर क्या कहें समय ही सदा नफे-नुकसान के आंकलन का आ चुका है  . अब तो बूढ़े माँ बाप को किटी-पार्टी के अवसर  घर के आख़िरी कमरे में या नेपथ्य में रहने के निर्देश  पुत्र भी दे देता है  ताकि उसकी शरीक - ए -हयात को कोई तकलीफ़ पेश न आये  .  ऐसा नहीं है कि सिर्फ आज का दौर ही ऐसा है  प्रेमचन्द ने बूढ़ी काकी  समकालीन सामाजिक परिस्थियों को देख कर ही लिखी थी  पर तब कहानी कहानी लगती थी पर अब अब ऐसी घटनाएं  सामान्य सी लगतीं  हैं  .
हम शायद ही सोचते हैं कि जब हमें  माँ बाप की छाया ज़रूरी थी तब वे हमको नहीं छोड़ते थे एक पल को भी और जब उनको हमारी अधिक ज़रुरत है तब हम टेक-केयर कह अपना फ़र्ज़ निभाते हैं....!
       


18.11.13

एक मदालस शाम एक अप्रतिम वापसी


गोधूलि के चित्र मत लेना.. किसी ने कहा था एक बार .... सूर्यास्त की तस्वीरें मत लेना ...क्यों ?
किसी के कहने से क्या मैं डूबते सूरज का आभार न कहूं.. क्यों न कहूं.. एहसान फ़रामोश नहीं हूं.. 
अदभुत तस्वीरें देती एक शाम की
जी हां  कल घर वापस आते वक़्त 
इस अनोखी शाम ने.... 
मनमोहक और मदालस शाम ने 
अप्रतिम सौंदर्यानुभूति करा दिया 
रूमानियत से पोर पोर भर दिया .....!!
 
इस बीच मेरी नज़र पड़ी  एक मज़दूर घर वापस आता दिखा मैने पूछा -भाई किधर से आ रहे हो  
उसने तपाक से ज़वाब दिया - घर जात हौं..!!

घर जाने का उछाह गोया इस मज़दूर की मानिंद सूरज में भी है. तभी तो बादलों के शामियाने पर चढ़ कूंदता फ़ांदता पश्चिम की तरफ़ जा रहा है.. 
ये कोई शहरी बच्चा नहीं जो स्कूल से सीधा घर जाने में कतराता है.. सूरज है भाई.. उसे समय पर आना मालूम है.. समय पर जाना भी... जानता है.. 



            महानगर का बच्चा नहीं है वो जिसका बचपन असमय ही छिन जाता है .. उसे मां के हाथों की सौंधी सौंधी रोटियां बुला रहीं है.. गुड़ की डली वाह.. मिर्च न भी लगे तो भी गुड़ के लिये झूठ मूट अम्मा मिर्ची बहुत है कह चीखता होगा .. मां मुस्कुरा कर मटके से गुड़ निकाल के दे देती होगी

 मेरी तरफ़ पूरा पूरा बचपन जिया जा रहा है.. सूरज.. कभी झाड़ियों के पीछे जा छिपता तो कभी किसी दरख्त के ..
छुपनछुपाई का खेल वाह क्या बात है ..
 पता नहीं मेरी बातों का क्या अर्थ लगाते हैं..





16.11.13

बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया है मेरे आगे

डुमारू यूं ही भैंसों को चराता रहेगा
सोचिये कब तलक ये ज़ारी रहेगा ?
                    चचा ग़ालिब आपने जो लिक्खा था सच में एक गै़रतमंद शायर का नज़रिया है . ज़नाब  आपका कहा सियासी अपना कहा समझने हैं. इंशा-अल्लाह इनको समझदार बीनाई दे वरना वरना क्या ? लोग मंगल पे कालोनी बना लेंगे और अपना ये डुमारू यूं ही भैंसों को चराता रहेगा. और मौज़ में आके कभी कभार उसकी पीठ पे लद के  यूं ही अपनी  बादशाहत का नज़ारा पेश करेगा .  इसे ही विकास कहते हैं.… लोग तो कहें और कहते रहें  मुझे तो झुनझुनों से इतर कुछ भी नहीं लगता . आखिर उनके नज़रिये में दुनियां  "बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल" ही तो है ये दुनियां.  आप हम और ये समूचा हिंदुस्तान जिस दिन अपने नज़रिये से से सोचने लगा तो यक़ीनन इस जम्हूरियत का मज़मून और लिफ़ाफ़ा दौनों ही बदले बदले नज़र आएंगे. सियासत की दीवार पर विचारधाराओं की खूंटियों पर टंगी ज़म्हूरियत बेशक सबसे बड़ी तो है पर उस दीवार  और खूंटियों की मज़बूती पर सोचना ज़रूरी है. वरना बकौल आप चचा ग़ालिब आवाम कहेगी जो शायद दर्दीला हो सकता 
"गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है
रहने दो अभी सागर-ओ-मीना मेरे आगे।
  भले खतीब-ए-शहर ये कहते फ़िरें  
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया है मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे..।
   दोस्तो, चचा गालिब से मेरी बात अक्सर इसी तरह होती रहती है.. चचा हैं कि चुप की गोली खाए बैठे हैं. ज़वाब में कुछ नहीं कहते कहें भी क्या कहने वाले लगातार कहते ज़ा रहे हैं.  जिसे देखिये लगातार कहे जा रहे हैं. गाली गुफ़्तार तक पे उतारू हैं कई उफ़्फ़ 
उधर आवाम भी दर्द में कुछ यूं कहती सुनी जाती है.. 
होता है निहाँ गर्द में सहरा मेरे होते
घिसता है जबीं ख़ाक पे दरिया मेरे आगे ।
देश भक्ति के मानी बदले बदले नज़र आने लगे हैं.. उसपे सब साबित करते फ़िरते हैं कि -"वे असली वतन परस्त हैं "
इंतिखाबों के वक़्त वतन परस्ती साबित करने का मौसम बनता है.. इलेक्शन खत्म होते ही मौसम खत्म हो जाता है.पर मज़ूरों रिक्शेवालों, खोमचेवालों, कुलियों के लिये ये मौसम कभी खत्म नहीं होता. मेरी नज़र में वे भी सच्चे वतन परस्त हैं... आप सियासी जान लीजिये चचा ने अपने इस शेर में आपकी हक़ीक़त बखूबी बयां जो की है......

मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तेरे पीछे
तू देख कि क्या रंग है तेरा मेरे आगे ।


                          बहरहाल चलता हूं वापस उसी सड़क पर जिधर डुमारू भैंस पर चढ़ा हुआ... प्रकृति के अप्रतिम सौन्दर्य विहार को निकला होगा .......


10.11.13

इन ऊंटों पर क्यों बैठूं सुना है इन पर बैठ कर भी कुत्ता काट लेता है कभी कभी !!

दाहिने मुड़िये 
गड्ढे में जाईये 

सड़कों पर लगे संकेतकों को देखिये उनका अनुशरण कीजिये.....
और सीधे.... ऊपर पंहुचिये...
सड़कों पर लगे इन संकेतकों की असलबयानी मेरे कैमरे की जुबानी... !!
सच है भारत में हम अपने घर और सड़कों पर कितने सुरक्षित हैं ये आप देख ही रहे हैं.. देश किधर जा रहा है ?  कभी सोचा आपने !! शायद सोचा होगा न भी सोचा हो तो कौन सा पहाड़ टूट जाएगा.. 
फ़िर सीधे ऊपर 
संकेतकों की मानें तो हम जिधर जा रहे वो रास्ता सिर्फ़ ऊपर ही जाता है . सच कहूं भारत ही नहीं समूचा विश्व भ्रामक संकेतकों से भ्रमित है..  मैं कोई ट्रेवलाग नहीं लिख रहा हूं मित्रो..! सिर्फ़ एक एहसास शेयर कर रहा हूं.. सच भी ये है कि हम सारे लोग किसी न किसी भ्रामक संकेतक से अत्यधिक प्रभावित हैं. यक़ीनन हर संकेतक सही है यह समझना ही मुश्किल है. जीवन-जात्रा में आप दिन भर टी.वी. पर समाचार देखिये .. आप की आंखों पर अंधेरा तारी होगा. जो एंकर तय करेगा उसे आप सच मानने लगेंगें....कदाचित...!
इन ऊंटों पर क्यों बैठूं
सुना है इन पर बैठ कर
भी कुत्ता काट लेता है
कभी कभी 
       जब लोगों का सारा जीवन-दर्शन, सियासती-तेवर, सामाजिक स्थिति , तंत्र का व्यवस्थापन यानी सब कुछ मीडिया तय करता है. तब  तो बहुत ज़रूरी हो गया है कि मीडिया अपनी इस प्रभावशीलता के साथ साथ न्याशीलता और नैतिकता की ज़िम्मेदारी भी स्वीकारें. कहे गये वाक्यों के शाब्दिक प्रभावों बनाम प्रतिक्रियात्मक आतंक के विस्तारण को भी रोकने की ज़िम्मेदारी भी लेनी होगी अपने सर...!
       मीडिया की ज़वाबदारी सचाई के प्रकटन के साथ साथ विध्वंस रोकने की भी है. टी.आर.पी. के चक्कर में पर बेलगाम होते संवादों पर लगाम लगा कर स्वायत्व-अनुशासन की मिसाल कायम कर सकता है मीडिया .
 चलिये हम कौन होते हैं प्रज़ातंत्र के इस स्तम्भ को सलाह देने वाले पर याद रहे अगर किसी एक उक्ति है.. "अति सर्वत्र वर्जयेत.." क्यों दीपक चौरसिया जी सही कहा न हमने..         

मित्रो आज़कल अपने राम अपने शहर से 145 किलोमीटर दूर जाकर रोटी कमा रहे हैं.. बच्चे पाल रहे हैं. जब अपने शहर आतें हैं शहर से वापस जाते हैं तो रास्ते भर कुछ न कुछ लिखने का अवसर मिल ही जाता है. तीन घंटे की यात्रा में कुछ न कुछ मिल ही जाता कै आपके लिये -
"रास्ते में ऊंट में दिखे सोचा कार से उतरकर ऊंट की सवारी ले लूं.. फ़िर सोचा न न ऐसा न कर पाऊंगा 
इन ऊंटों पर क्यों बैठूं सुना है इन पर बैठ कर  भी कुत्ता काट लेता है  कभी कभी !!

9.11.13

तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में...:फ़िरदौस ख़ान

फ़िरदौस ख़ान
हज़ारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा
उर्दू और फ़ारसी शायरी के चमन का यह दीदावर यानी मोहम्मद अल्लामा इक़बाल 9 नवंबर, 1877 को पाकिस्तान के स्यालकोट में पैदा हुआ. उनके पूर्वज कश्मीरी ब्राह्मण थे, लेकिन क़रीब तीन सौ साल पहले उन्होंने इस्लाम क़ुबूल कर लिया था और कश्मीर से पंजाब जाकर बस गए थे. उनके पिता शे़ख नूर मुहम्मद कारोबारी थे. इक़बाल की शुरुआती तालीम मदरसे में हुई. बाद में उन्होंने मिशनरी स्कूल से प्राइमरी स्तर की शिक्षा शुरू की. लाहौर से स्नातक और स्नातकोत्तर की पढ़ाई करने के बाद उन्होंने अध्यापन कार्य भी किया. 1905 में दर्शनशास्त्र की उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए वह इंग्लैंड चले गए. उन्होंने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से डिग्री हासिल की. इसके बाद वह ईरान चले गए, जहां से लौटकर उन्होंने द डेवलपमेंट ऑफ मेटाफ़िज़िक्स इन पर्शियन नामक एक किताब भी लिखी. इसी को आधार बनाकर बाद में जर्मनी के म्युनिख विश्वविद्यालय ने उन्हें डॉक्टरेट की उपाधि दी. इक़बाल की तालीम हासिल करने की फ़ितरत ने उन्हें चैन नहीं लेने दिया. बाद में उन्होंने वकालत की भी पढ़ाई की. वह लंदन विश्वविद्यालय में छह माह तक अरबी के शिक्षक भी रहे. 1908 में वह स्वदेश लौटे. लाहौर के गवर्नमेंट कॉलेज में बतौर प्रोफ़ेसर उनकी नियुक्ति हो गई. इस नौकरी के साथ वह वकालत भी कर रहे थे, लेकिन कुछ वक़्त बाद उन्होंने नौकरी छोड़ दी, वकालत को ही अपना पेशा बना लिया.

यूं तो इक़बाल को बचपन से ही शायरी का शौक़ था और वह अपनी रचनाएं डाक के ज़रिये उर्दू के मशहूर शायर एवं उस्ताद दाग़ देहलवी को भेजा करते थे, लेकिन उनकी शायरी की विधिवत शुरुआत लाहौर आकर हुई. उस वक़्त उनकी उम्र बाईस साल थी. अपने दोस्तों के कहने पर उन्होंने वहां एक मुशायरे में अपनी ग़ज़ल पढ़ी. इस मुशायरे में मिर्ज़ा अरशद गोरगानी भी थे, जिनकी गिनती उन दिनों चोटी के शायरों में होती थी. जब इक़बाल ने ग़ज़ल का यह शेअर पढ़ा-
मोती समझ के शाने-करीमी ने चुन लिए
क़तरे जो थे मेरे अर्क़-इंफ़आल के...

यह शेअर सुनकर मिर्ज़ा अरशद साहब तड़प उठे. उन्होंने इक़बाल की प्रशंसा करते हुए कहा, मियां साहबज़ादे! सुब्हान अल्लाह, इस उम्र में यह शेअर!

उसी उम्र में मिर्ज़ा दाग़ ने भी इक़बाल की रचनाएं यह कहकर वापस करनी शुरू कर दीं कि उनकी रचनाएं संशोधन की मोहताज नहीं हैं. उस वक़्त की मशहूर उर्दू पत्रिका म़खज़न के संपादक शे़ख अब्दुल क़ादिर अंजुमन-ए-हिमायत-ए-इस्लाम के जलसों में इक़बाल को नज़्में पढ़ते देख चुके थे और वह इक़बाल से बहुत प्रभावित हुए. उन्होंने इक़बाल की नज़्में मख़ज़न में प्रकाशित करनी शुरू कर दीं. मख़ज़न के अप्रैल 1901 के अंक में प्रकाशित उनकी पहली नज़्म हिमालय ने उनकी ख्याति दूर-दूर तक पहुंचा दी. शेख़ अब्दुल क़ादिर इक़बाल के बारे में कहते थे, अगर मैं तनासख़ (आवागमन) का क़ायल होता तो ज़रूर कहता कि ग़ालिब को उर्दू और फ़ारसी से जो इश्क़ था, उसने उनकी रूह को अदम (परलोक) में जाकर भी चैन नहीं लेने दिया और मजबूर किया कि वह फिर किसी इंसानी जिस्म में पहुंच कर शायरी के चमन की सिंचाई करें और उन्होंने पंजाब के एक गोशे में जिसे स्यालकोट कहते हैं, दोबारा जन्म लिया और मोहम्मद इक़बाल नाम पाया.

उन्होंने उर्दू की बजाय फ़ारसी में ज़्यादा लिखा. फ़ारसी की वजह से उनका कलाम न सिर्फ़ हिंदुस्तान, बल्कि ईरान, अफ़ग़ानिस्तान, टर्की और मिस्र तक पहुंचा. 1915 में प्रकाशित उनके काव्य संग्रह असरारे-ख़ुदी के अंग्रेज़ी अनुवाद ने उन्हें अमेरिका और यूरोप में भी विख्यात कर दिया. ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें सर की उपाधि से भी नवाज़ा था. रवींद्र नाथ टैगोर के बाद इक़बाल ही वह दूसरे व्यक्ति थे, जिन्हें यह उपाधि मिली.

उन्होंने अपनी क़ौम को बुलंदी का सबक़ दिया और हर उस बात का विरोध किया, जो बुलंदी की राह में रुकावट बने. वह क़िस्मत के आगे हार नहीं मानते और हालात का म़ुकाबला करने का संदेश देते हैं-
ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे, बता तेरी रज़ा क्या है...

उनकी शायरी इस बात की गवाह है कि वह ताउम्र अपने कर्तव्यों का पालन करते रहे. उनके गीत पर सारा देश झूम उठता है और मन में देशभक्ति की भावना हिलोरें लेने लगती हैं-
सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा
हम बुलबुले हैं इसकी ये गुलिस्तां हमारा
मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
हिंदी हैं हम, वतन है हिंदोस्तां हमारा...

उन्होंने प्रकृति के नैसर्गिक सौंदर्य को भी अपनी नज़्मों में जगह दी. पहाड़ों, झरनों, नदियों, लहलहाते हुए फूलों की डालियों और ज़िंदगी के हर उस रंग को उन्होंने अपने कलाम में शामिल किया, जो इंसानी ज़िंदगी को मुतासिर करता है. उनकी नज़्म आज भी स्कूलों में बच्चे गाते हैं-
लब पे आती है दुआ बन के तमन्ना मेरी
ज़िंदगी शमा की सूरत हो ख़ुदाया मेरी
दूर दुनिया का मेरे दम से अंधेरा हो जाए
हर जगह मेरे चमकने से उजाला हो जाए...

वह साहित्य में प्रयोगवाद के विरोधी थे. विचारों के बिना सुंदर शब्दों का कोई महत्व नहीं है. उन्होंने अपनी भाषा शैली की बजाय अपने विचारों को बेहद पुख्ता तरीक़े से पेश किया. बानगी देखिए-
अज़ान अज़ल से तेरे इश्क़ का तराना बनी
नमाज़ उसके नज़ारे का इक बहाना बनी
अदा-ए-दीदे-सरापा नयाज़ है तेरी
किसी को देखते रहना नमाज़ है...

उनके कलाम में दर्शन-चिंतन मिलता है. उन पर इस्लाम का गहरा प्रभाव रहा. उन्होंने अतीत के महिमा गान के ज़रिये मुसलमानों को जागरूकता का संदेश दिया-
कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र, नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में
कि हज़ारों सज्दे तड़प रहे हैं तेरी जबीन-ए-नियाज़ में
तरब आशना-ए-ख़रोश हो तू नवा है महरम-ए-गोश हो
वो सरूद क्या के छिपा हुआ हो सुकूत-ए-पर्दा-ओ-साज़ में
तू बचा-बचा के न रख इसे तेरा आईना है वो आईना
कि शिकस्ता हो तो अज़ीज़तर है निगाह-ए-आईना-साज़ में
न कहीं जहां में अमां मिली, जो अमां मिली तो कहां मिली
मेरे जुर्म-ए-ख़ानाख़राब को तेरे उफ़्वे-ए-बंदा-नवाज़ में
न वो इश्क़ में रहीं गर्मियां न वो हुस्न में रहीं शोख़ियां
न वो ग़ज़नवी में तड़प रही न वो ख़म है ज़ुल्फ़-ए-अयाज़ में
मैं जो सर-ब-सज्दा कभी हुआ तो ज़मीं से आने लगी सदा
तेरा दिल तो है सनम-आशना तुझे क्या मिलेगा नमाज़ में…

उनकी नज़्मों और ग़ज़लों में सांस्कृतिक एकता की भावना झलकती है-
सच कह दूं ऐ ब्रह्मन गर तू बुरा न माने
तेरे सनम क़दों के बुत हो गए पुराने
अपनों से बैर रखना तूने बुतों से सीखा
जंग-ओ-जदल सिखाया वाइज़ को भी ख़ुदा ने
तंग आके आख़िर मैंने दैर-ओ-हरम को छोड़ा
वाइज़ का वाज़ छोड़ा, छोड़े तेरे फ़साने
पत्थर की मूरतों में समझा है तू ख़ुदा है
ख़ाक-ए-वतन का मुझको हर ज़र्रा देवता है
आ ग़ैरत के पर्दे इक बार फिर उठा दें
बिछड़ों को फिर मिला दें नक़्श-ए-दुई मिटा दें
सूनी पड़ी हुई है मुद्दत से दिल की बस्ती
आ इक नया शिला इस देस में बना दें
दुनिया के तीरथों से ऊंचा हो अपना तीरथ
दामान-ए-आस्मां से इसका कलश मिला दें
हर सुबह मिलके गाएं मंतर वो मीठे-मीठे
सारे पुजारियों को मय प्रीत की पिला दें
शक्ति भी शांति भी भक्तों के गीत में है
धरती के बासियों की मुक्ति प्रीत में है… 

उनके कई काव्य संग्रह हैं, जिनमें फारसी का 1917 में प्रकाशित रुमुज़े-बे़खुदी, 1923 में पयामे-मशरिक़, 1927 में ज़बूरे-अजम, 1932 में जावेदनामा, 1936 में पास चेह बायद कर्द ए अक़वामे-शर्क़ 1938 में अरमुग़ाने-हिजाज़, 1924 में उर्दू काव्य संग्रह बांगे-दरा, 1935 में बाले-जिब्राइल और 1936 में ज़र्बे-कलीम शामिल हैं. इक़बाल मर्दे-मोमिन खुदा के मुक़ाबले में अपनी श्रेष्ठता जताने में भी गुरेज़ नहीं करते. उनकी फारसी की नज़्म खुदा और इंसान को ही लीजिए-
ख़ुदा इंसान से-
मैंने मिट्टी और पानी से एक संसार बनाया
तूने मिस्र, तुर्की, ईरान और तातार बना लिए
मैंने धरती की छाती से लोहा पैदा किया
तूने उससे तीर, ख़ंजर, तलवारें और नेज़े ढाल लिए
तूने हरी शा़खाएं काट डालीं और फैलते हुए पेड़ तोड़ गिराए
गाते हुए पक्षियों के लिए तूने पिंजरे बना डाले...

इंसान ख़ुदा से-
तूने ऐ मेरे मालिक! रात बनाई, मैंने दीए जलाए
तूने मिट्टी पैदा की, उससे प्याले बनाए
तूने धरती को वन, पर्वत और मरुस्थल प्रदान किए
मैंने उनमें रंगीन फूल खिलाए, हंसती हुई वाटिकाएं सजाईं
मैं विष से तिरयाक़ बनाता हूं और पत्थर से आईनाश
ऐ मालिक! सच-सच बता, तू बड़ा है या मैं?

21 अप्रैल, 1938 को यह महान शायर हमारे बीच से चला गया. उनकी मौत के बाद दिल्ली की जौहर पत्रिका के इक़बाल विशेषांक में महात्मा गांधी का एक पत्र छपा था, जिसमें उन्होंने लिखा था, डॉ. इक़बाल मरहूम के बारे में क्या लिखूं, लेकिन मैं इतना तो कह सकता हूं कि जब उनकी मशहूर नज़्म हिंदोस्तां हमारा पढ़ी तो मेरा दिल भर आया और मैंने बड़ौदा जेल में तो सैकड़ों बार इस नज़्म को गाया होगा. बेशक, इक़बाल का कलाम शायरों और आने वाली पीढ़ियों का मार्गदर्शन करता रहेगा.

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धर्म और संप्रदाय

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