11.1.13

बापूजी जो भाव से बलात्कारी हो उसे तो सगी बहन भी भाई कहने में झिझकेगी


आसाराम बापू ही क्यों सारे बड़बोलों के लिये एक सटीक सुझाव देना अब ज़रूरी है कि औरतें को शिक्षा देने के स्थान पर अब आत्म चिंतन का वक़्त आ गया है. कुछ दिनों से देख रहा हूं कि मीडिया के ज़रिये लोग बाग अनाप-शनाप कुछ भी बके जा रहें हैं बेक़ाबू हो चुकी है जुबाएं लोगों की . सच्चाई तो यह है कि हम सब बोलने की  बीमारी से ग्रसित हैं . क्योंकि  हमारा दिमाग  सूचनाओं से भरा पड़ा है  और हम उसे ही  अपनी  ज्ञान-मंजूषा मान बैठे हैं ..! और चमड़े की ज़ुबान लप्प से तालू पर लगा कर ध्वनि उत्पन्न करने की काय विज्ञानी क्रिया करते हैं । जो  वास्तव में यह एक सतही मामला है किसी को भी किसी सूचना से तत्व-बोध नहीं हो सकता. आज के मज़मा जमाऊ लोगों को तो कदापि नहीं. आसाराम जी ने जो भी कहा केवल सतही बात है. और जो भी जो कुछ कहे जा रहे हैं उसे भी वाग्विलास की श्रेणी में ही रखा जा सकता है. मेरे एक तत्कालीन कार्यालय प्रमुख ने किसी चर्चा में कहा था- "कमज़ोर की पराजय को कोई रोक  नहीं सकता "
                            उनका कथन आधी सचाई थी पूरी सचाई तो उनको तब समझ आती जबकि वे कछुआ और खरगोश की कथा याद रखते . वे भी क्या करें सूचनाएं इतनी हैं कि बेचारे को बालपन की बोध कथाएं याद नहीं शायद उनको दादी-नानी की गोद में बैठने का मौका न मिला हो.खैर जो भी हो मूल बात पर ही वार्ता जारी रहे तो उम्दा होगा मित्रो मुझे मेरा एक चपरासी अच्छी तरह से  है बात तब की है जब  वेतन बैंक के ज़रिये नहीं मिलता था  एक दिन मैं अपना वेतन ड्रावर में रख कर घर आते वक़्त वहीं भूल आया .  तीन दिन लगातार छुट्टी के चलते घर भागना हमारी आदत में शुमार था  हो हम भाग निकले. मोबाइल का दौर तो नहीं कि हम कुछ कर पाते . नरसिंहपुर से गाड़ी छूटते ही हमें अपनी भूल का एहसास हुआ. सो हमने अपने मित्र को बताया. मित्र ने कहा - अब मान लो कि चपरासी ऐश करेगा भूल जाओ वेतन .हमारा सफ़र तो सफ़र पूरी रात घर में करवट बदलते रहे. सवालों से जूझते हम बहुत देर तक सो न सके थे उस रात . अल्ल सुबह कोई हमारा दरवाज़ा खटखटा रहा था. दरवाजा खोला गया  चपरासी हमारा वेतन लेकर हाज़िर हुआ. -सा’ब, जे भूल आए थे आप..!
    ज्यों का त्यों नोट का बंडल चपरासी की नीयत की पवित्रता का एहसास करा गया. कम पढ़ा लिखा अयोध्या परसाद ने  ईमानदारी और नेकनीयत के सारे पाठ  पढ़े थे गोया. उसका चरित्र बलवान था बेटी दामिनी वाली घटना से तुलना करें तो स्पष्ट होता है कि -अब, बलवान चरित्रों की कमी सी आ गई है. इन कमज़ोर चरित्र वालों के सामने घुटने टेकने की सलाह देना आपकी विद्वता पर सवालिया निशान खड़े करता है बापू जी. .. प्रवचन कीजिये प्रपंच नहीं. 
 बापूजी जो भाव से बलात्कारी हो उसे तो सगी बहन भी भाई कहने में झिझकेगी आप इस सचाई को भी भूल गये ? 
              नारी के खिलाफ़ हमारी सोच को बदलना है. उसके दैहिक आकर्षण में बंधे हम अपनी ही पुरुष वादी मान्यताओं को सदा सही ठहरातें हैं. किसी भी तरह हम दामिनी वाली स्थिति को समझने की कोशिश में ही नहीं हैं. औरत के  खिलाफ़ है हमारी मानसिकता ये तो तय कर दिया बयानों नें.. औरतें को शिक्षा देने का समय नहीं आसाराम जी और उनके तरह के बयान बाज़ों अब समझने का दौर आ चुका है हर हालत में आपको नज़रिया बदलना होगा . हम कौन होते जो कि औरतों के कामकाज़ निर्धारित करें उनकी सीमाओं का निर्धारण भी करना हमारे अधिकार क्षेत्र में नहीं है.समाज को महिलाओं सामर्थ्यवान बनाने की सलाह दी जावे तो अच्छा लगेगा.
           मर्यादाओं में रहने भाई बना लेने की सलाह देने जैसी बातौं से काम पक चुके हैं अब तो इन बेहूदा बातों पर पाबंदी के क़ानून लाने की मांग करना ज़ायज है.  आप बोलिए  मगर बेक़ाबू होकर नहीं.. 
      नारी को ये करना है उसकी वो सीमाएं हों इसे कौन तय करेगा वो जो उसकी शक्ति का पूजन धर्मभीरू होने की वज़ह से करता तो है किंतु उसकी आंतरिक शक्ति को पहचाना नहीं चाहता अथवा पहचान कर भी उसे कमज़ोर साबित कर देता है ताकि उसका अपना वज़ूद कायम रहे. 
   
           

             

9.1.13

फ़ुर्षोत्तम-जीव



किस किस को सोचिए किस किस को रोइए
आराम बड़ी चीज है ,मुंह ढँक के सोइए ....!!
"जीवन के सम्पूर्ण सत्य को अर्थों में संजोए इन पंक्ति के निर्माता को मेरा विनत प्रणाम ...!!''
साभार http://manojiofs.blogspot.in/2011/11/blog-post_26.html
साभार नभाटा 

आपको नहीं लगता कि जो लोग फुर्सत में रहने के आदि हैं वे परम पिता परमेश्वर का सानिध्य सहज ही पाए हुए होते हैं। ईश्वर से साक्षात्कार के लिए चाहिए तपस्या जैसी क्रिया उसके लिए ज़रूरी है वक़्त आज किसके पास है वक़्त पूरा समय प्रात: जागने से सोने तक जीवन भर हमारा दिमाग,शरीर,और दिल जाने किस गुन्ताड़े में बिजी होता है। परमपिता परमेश्वर से साक्षात्कार का समय किसके पास है...?
लेकिन कुछ लोगों के पास समय विपुल मात्रा में उपलब्ध होता है समाधिष्ठ होने का ।
इस के लिए आपको एक पौराणिक कथा सुनाता हूँ ध्यान से सुनिए
एकदा -नहीं वन्स अपान अ टाइम न ऐसे भी नहीं हाँ ऐसे

"कुछ दिनों पहले की ही बात है नए युग के सूत जी वन में अपने सद शिष्यों को जीवन के सार से परिचित करा रहे थे नेट पर विक्की पेडिया से सर्चित पाठ्य सामग्री के सन्दर्भों सहित जानकारी दे रहे थे " सो हुआ यूँ कि शौनकादी मुनियों ने पूछा -"हे ऋषिवर,इस कलयुग में का सारभूत तत्व क्या है.....?

ऋषिवर:-"फुर्सत"
मुनिगण:- "कैसे ?"
ऋषिवर :- फुरसत या फुर्सत जीवन का एक ऐसा तत्व है जिसकी तलाश में महाकवि गुलजार की व्यथा से आप परिचित ही हैं आपने उनके गीत "दिल ढूँढता फ़िर वही " का कईयों बार पाठ किया है .
मुनिगण:- हाँ,ऋषिवर सत्य है, तभी एक मुनि बोल पड़े "अर्थात पप्पू डांस इस वज़ह से नहीं कर सका क्योंकि उसे फुरसत नहीं मिली और लोगों ने उसे गा गाकर अपमानित किया जा रहा है ...?"
ऋषिवर:-"बड़े ही विपुल ज्ञान का भण्डार भरा है आपके मष्तिस्क में सत्य है फुर्सत के अभाव में पप्पू नृत्य न सीख सका और उसके नृत्य न सीखने के कारण यह गीत उपजा है संवेदन शील कवि की कलम से लेकिन ज्यों ही पप्पू को फुरसत मिलेगी डांस सीखेगा तथा हमेशा की तरह पप्पू पास हो जाएगा सब चीख चीख के कहेंगे कि-"पप्पू ....!! पास होगया ......"
मुनिगण:-ये अफसर प्रजाति के लोग फुरसत में मिलतें है .... अक्सर ...........?
ऋषिवर:-" हाँ, ये वे लोग हैं जिनको पूर्व जन्म के कर्मों के फलस्वरूप फुरसत का वर विधाता ने दिया है
मुनिगण:-"लेकिन इन लोगों की व्यस्तता के सम्बन्ध में भी काफी सुनने को मिलता है ?
ऋषिवर:-"इसे भ्रम कहा जा सकता है मुनिवर सच तो यह है कि इस प्रजाति के जीव व्यस्त होने का विज्ञापन कर फुरसत में होतें है, "
मुनिगण:-कैसे...? तनिक विस्तार से कहें ऋषिवर

ऋषिवर:-"भाई किससे मिलना है किससे नहीं कौन उपयोगी है कौन अनुपयोगी इस बात की सुविज्ञता के लिए इनको विधाता नें विशेष गुण दिया है वरदान स्वरुप इनकी घ्राण-शक्ति युधिष्ठिर के अनुचर से भी तीव्र होती है मुनिवर कक्ष के बाहर खडा द्वारपाल इनको जो कागज़ लाकर देता है उसे पड़कर नहीं सूंघ कर अनुमान लगातें हैं कि इस आगंतुक के लिए फुरसत के समय में से समय देना है या नहीं ? "
    मुनिगण बोले तो ऋषिवर, क्लर्क नामक जीव ही है जो सदैव व्यस्त दिखाई देता है. कार्यालयों में बहुधा..?
 ऋषिवर :- ये भी दृष्टि भ्रम है मुनियो, कुटिया की इस भित्ती पर देखो अभी मैं वेबकास्टिंग प्रणाली से एक दफ़्तर का चलचित्र प्रस्तुत करता हूं.. 
   मुनियों ने दीवारावलोकन प्रारम्भ किया, नट्टू मुनि लम्बू मुनि को लगभग डपट कर न हिलने की सलाह दे रहे थे भित्ती पर एक LED SCREEN अवतरित हुआ ऋषिवर ने हाथ में CPU को मंत्र शक्ति से उत्पन्न किया. दृश्य कुछ यूं था -
    "एक दफ़्तर में बाबू साब एक फ़ाईल की तलाशी में व्यस्त थे तभी अधिकारी का दूत आया बोला-"पुसऊ जी ...पुसऊ जी"
पुसऊ :- का है दिमाग न खाओ देखते नहीं ज़रूरी काम में लगा हूं..!
दूत :- "सा’ब, बुलाय रै हैं..."
पुसऊ :-हओ, बोल दो आत हैं, फ़ाईल निकाल के.. 
दूत :- हओ, जल्दी आईयो.. भोपाल से डाक आई है.. साब बोलत थे 
पुसऊ :- बोल दओ न कि आ रहे हैं .. भोपाल वारे जान लै लैं हैं का.. स्टाफ़ के नाम पै हम अकेले काम   
              झौआ भर . कहूं की फ़ाइल कहूं रख देत हो तुम .. हमाओ पूरो दिन फ़ाइल ढूड़त ढूड़त लग जात है.. फ़ुरसत कहां मिलत है इतै.. जो सा’ब भी एक पे एक ग्यारा .. हर कागज़ आतई टेर लगात है पुसऊ पुसऊ... 
ऋषिवर :- मुनिगण, ये   पुसऊ दिन भर में अफ़सर की मार्क की हुई डाक को सही फ़ाईल में नत्थी करता है एक भी कागज़ इधर के उधर न हो पाए उसका मूल कार्य दायित्व है. रोजिन्ना दफ़्तर में जब इसे फ़ुरसत मिलेगी तो पहली फ़ुरसत में हरे कव्हर वाली फ़ाईल निपटाता है. ये फ़ाईलें जानते हो कौन सी हैं..
मुनिगण अवाक थे तभी ऋषि बोले- "मुनियो, ये फ़ाईलें जेब और वातावरण को हरा भरा बनातीं हैं. इन फ़ाईलों पर फ़ुरसत से काम किया जाता है. बहुधा कार्यालय के बंद होने के बाद "
   यानी देश इसी तरह चलता है ऋषिवर ? मुनियों का सवाल था .
हां, देश चल कहां रहा है..? फ़ाईलों में बंद है जैसे परसाई दादा वाले भोला राम का जीव . 
मुनिगण :- तो महाराज ये देश चल कैसे रहा है..?
ऋषिवर :- यही वो सवाल है जिसके उत्तर आपको परमेश्वर के अस्तित्व का एहसास होगा  ?
मुनिगण :- यानी गुरुदेव..?
 ऋषिवर :- यानी भारत को केवल भगवान पर भरोसा है सच भी यही है जो भी चल रहा है सब उसके भरोसे ही तो चल रहा है..    
मुनिगण:-वाह गुरुदेव वाह आपने तो परम ज्ञान दे ही दिया ये बताएं कि क्या कोई फुरसत में रहने के रास्ते खोज लेता है सहजता से ...?
कुछ ही क्षणों उपरांत सारे मुनि कोई न कोई बहाना बना के सटक लिए फुरसत पा गए और बन गए ""फ़ुरुषोत्तम -जीव "
गुरुदेव सूत जी ने एकांत में मुनियों से फुरसत पा कर वृक्षों को जो कहा वो कुछ इस तरह था
फुर्सत और उत्तम शब्द के संयोजन से प्रसूता यह शब्द आत्म कल्याण के लिए बेहद आवश्यक और तात्विक-अर्थ लेकर धरातल पर जन्मां है   इस शब्द का जन्मदिन जो नर नारी पूरी फुर्सत से मनाएंगें वे स्वर्ग में सीधे इन्द्र के बगल वाली कुर्सी पर विराजेंगे । इस पर शिवानन्द स्वामी एक आरती तैयार करने जा रहें हैं आप यदि कवि गुन से लबालब हैं तो आरती लिख लीजिए अंत में लिखना ज़रूरी होगा : कहत "शिवानन्द स्वामी जपत हरा हर स्वामी " पंक्ति का होना ज़रूरी है।


7.1.13

कबाड़खाना ब्लाग की अनूठी प्रस्तुति

आज मन चाह रहा था कुमार गंधर्व को सुनूं सुनने को तलाश की गई तो 
कबाड़खाना ब्लाग की इस पोस्ट पर ठहर गया 


माया महाठगिनी हम जानी

निरगुन फांस लिए कर डोलै, बोलै मधुरी बानी.


केसव के कमला व्है बैठी, सिव के भवन भवानी.


पंडा के मूरत व्है बैठी, तीरथ में भई पानी.


जोगि के जोगिन व्है बैठी, राजा के घर रानी.


काहू के हीरा व्है बैठी, काहू के कौड़ी कानी.


भक्तन के भक्ति व्है बैठी, ब्रह्मा के बह्मानी.


कहै कबीर सुनो भाई साधो, वह सब अकथ कहानी



और अब सुनिये ये 

1.1.13

और शारदा महाराज खच्च खच्च खचा खच बाल काटने लगे बिना पानी मारे....

रायपुर के सैलून में प्रसिद्ध
लेखक ललित शर्मा 

सैलून में कटवाते कटवाते  जेब कटवाना अब हमें रास न आ रहा था। आज़कल सैलून वाले लड़के बड़ी स्टाइल से बाल काटतेजेब काटने की हुनर आज़माइश करने लगे हैं. हमारे टाइप के अर्ध बुढ़ऊ में अमिताभी भाव जगा देते है.. सर फ़ेसियल भी कर दूं..?, फ़ेसमसाज़  करूं ? स्क्रब  कर दूं ब्लीच   करूं.. किसी एक पे आपकी हां हुई कि आपकी जेब कटी.. किस्सा चार-पांच सौ पे सेट होता है. अपन ठहरे आग्रह के कच्चे इसी कच्चेपन से  मंथली बज़ट बिगड़ने लगा तो हमने भी एकदम तय कर लिया कि बाल तो घर में ही कटवाएंगे वो भी क्लासिक स्टाईल में. हम ने फ़ैमिली-बारबर शारदा परसाद जी से कटिंग कराएंगे वो भी अपने घर में. खजरी वाले खवास दादा की यादैं भी उचक उचक कर कहतीं भई, कटिंग घर में शारदा सेईच्च बनवाओ. सो हम ने शारदा जी को हुकुम दे डाला- हर पंद्राक दिन में हमाई कटिंग करना !
वो बोले न जी हम औजार लेके किधर किधर घूमेंगे वो तो मालिश वालिश तक ठीक है. 
 बिलकुल डिक्टेटर बन हमने फ़ैमिली-बारबर को हिदायत दी - शारदा तुम अस्तुरा-फ़स्तुरा, कैंची-वैंची" लेके आना अगले संडे .  
सा’ब जी-"जे काम न कहो अब , जमाना बदल गया  आप किस जमाने में हो. ?
हम हैं तो इसी जमाने में पर हमाई आदतें पुरानी हैं.. पटे पे बैठ के बनवाने की. 
शारदा बोले- हम बैठ के न बना पाँ  हैं.. ..पटा पै.. आ  तो जैं हैं हपता पंद्रा दिन मैं  मनौ कुरसी मंगा लय करौ  यानी  शारदा जी सशर्त हमसे  सहमत हो ही गए वैसे हमाई हजामत कई लोग बनाने का शौक रखते हैं कुछ अधीनस्त, कुछ वरिष्ट कुछ अशिष्ठ तो कुछ अपषिष्ठ.. लोग आजकल पता नई क्यों हज़्ज़ामी पे उतारूं हैं.पर हम बनवाना तो शारदा महाराज से चाहते हैं.     अब वे हर पखवाड़े हमारी हजामत बनाने आ जाते हैं.
  दुनियां जहान  को गरियाते रहे पुराने दिनों की याद दिलाई उनको.. बाम्हन-नाई के अंतर्संबंधों पर एक अच्छा सा भाषण पिलाया कि भाई राजी हो गये. बोले ठीक है सा’ब आऊंगा  . अब पखवाड़े के पखवाड़े शारदा परसाद उसरेठे जी हमाई हजामत बनाने आते हैं. दुनियाँ  जहान के समाचार हम हासिल कर लेते हैं. वैसे शारदा हरीराम नहीं हैं. पर जो दुनियां-जहान में चल रहा है उन सारी खबरों पर शारदा जी की पैनी नज़र होती है. उनका अपना नज़रिया भी होता है जैसे मोदी सा’ब के लिये पी एम की कुर्सी फ़िट है कि उनको बड़ी होगी या छोटी पड़ेगी अन्ना के बिना केज़रीवाल का क्या होगा. क्रेन बेदी की हैसियत क्या होगी.. अमिताभ को सन्यास के लिये न उकसाया जाना उनके मन को खल रहा है. .. बोल रहे थे-"सचिन ने क्या बिगाड़ा लता जी आशा जी आड़वानी (वे आडवानी को आड़वानी जी बोलते हैं. ) और खासकर अमिताभ बच्चन (जो उनकी नज़र में  खूब कमा रहे है) को हटने की नही बोलते बेचारे सचिन को सचिन के पीछे फ़ालतुक में पड़ी है जनता  " यह कहते उनके चेहरे पर काटजू भाई सा’ब वाला भाव था.कुछ ऐसी ही बाते  बाक़ायदा हमसे शेयर करते हैं.
                  हमारे बाल कुछ ज़्यादा कड़े थे. पानी लगाने से भी नर्म न पड़े सो शारदा ने युक्ति निकाली . वो विषय छेड़े कि हमको गुस्सा आए और गुस्सा इतना कि हमारे रोयें स्टैंडअप हों........और  उनका
काम सरल हो जाए.
बोले "सा’ब सुना है गैस की कीमत सरकार गिराने वाली है..?"
उनका सरकार बोलना था कि हमारा रोयां-रोयां  खड़ा हो गया और भाई शारदा ने खच्चखच्च खचाक दाईं तरफ़ के बालों को निपटा कर दिया.
शारदा दाई बाजू के बाल काटते हुए..
    अब बारी थी बाईं तरफ़ के बालों की. इस बार भाई ने फ़िर शहर में बढ़ती अराजक यातायात व्यवस्था को निशाना बनाया मुये रोयों पर कोई असरईच्च न हुआ.
शारदा - साब जी जे बाल और गीले करूं..?
हम- क्यों.. इत्ती ठंड में गीले पे गीला किये जा रहे हो ? मरवाना है क्या... शारदा हमाई हालत ठंड में जानते हो अस्थमा का दौरा पड़ जाएगा समझे ....?
शारदा- "बाल कड़े हैं.."
हम- ’वो तो जनम जात कड़े हैं..
शारदा बाएं बाजू के बाल काटते हुए..
शारदा-"..............?"(बिन बोले मानो कह गया - सुअर के जैसे..! )
उसकी अनकही बात को हम ताड़ गये थे हमने प्रति प्रश्न किया - दाईं तरफ़ के काटे थे वो कैसे कट गये ?
शारदा-"वो कड़े थे पर खड़े थे .. !"
हम- "तो ?"
शारदा-"सा’ब, का बताएं.."
     तभी श्रीमति जी घर के भीतर से चिल्लाईं - बच्चों की फ़ीस भरना है, बिजली का बिल देना है कल तुम रुक जाना डिंडोरी न जाना .. इसी बीच बास का फ़ोन आ गया ... कल पहुंच रहे हो न आफ़िस.... ?
 बस क्या था हमारे रोयें रोयें में तनाव भर गया......... और शारदा महाराज खच्च खच्च खचा खच बाल काटने लगे बिना पानी मारे...........

31.12.12

महिलाओं को ही करने होंगे खुद के सम्मान के प्रयास: बी.पी.गौतम

बी.पी.गौतम
स्वतंत्र पत्रकार
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सृष्टि का विस्तार हुआ, तो पहले स्त्री आई और बाद में पुरुष। सर्वाधिक सम्मान देने का अवसर आया, तो मां के रूप में एक स्त्री को ही सर्वाधिक सम्मान दिया गया। ईश्वर का कोई रूप नहीं होता, पर जब ईश्वर की आराधना की गयी, तो ईश्वर को भी पहले स्त्री ही माना, तभी कहा गया त्वमेव माता, बाद में च पिता त्वमेव। सुर-असुर में अमृत को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया, तो श्रीहरि को स्त्री का ही रूप धारण कर आना पड़ा और उन्होंने अपने तरीके से विवाद समाप्त कर दिया, मतलब घोर संकट की घड़ी में स्त्री रूप ही काम आया। देवताओं को मनोरंजन की आवश्यकता महसूस हुई, तो भी उनके मन में मेनका व उर्वशी जैसी स्त्रीयों की ही आकृति उभरी। रामायण काल में गलती लक्ष्मण ने की, पर रावण उठा कर सीता को ले गया, क्योंकि स्त्री प्रारंभ से ही प्रतिष्ठा का विषय रही है, इसी तरह महाभारत काल में द्रोपदी के व्यंग्य को लेकर दुर्योधन ने शपथ ली और द्रोपदी की शपथ को लेकर पांडवों ने अपनी संपूर्ण शक्ति लगा दी, जिसका परिणाम या दुष्परिणाम सबको पता ही है, इसी तरह धरती की उपयोगिता समझ में आने पर, धरती को सम्मान देने की बारी आई, तो उसे भी स्त्री (मां) माना गया। भाषा को सम्मान दिया गया, तो उसे भी स्त्री (मात्र भाषा) माना गया। आशय यही है कि सृष्टि के प्रारंभ से ही देवता और पुरुष, दोनों के लिए ही स्त्री महत्वपूर्ण रही है। स्त्री के बिना जीवन की कल्पना तक नहीं की जा सकती। मां, पत्नी, बहन या किसी भी भूमिका में एक स्त्री का किसी भी पुरुष के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान होता है। बात पूजा करने की हो या मनोरंजन की, ध्यान में पहली आकृति एक स्त्री की ही उभरती है, इसलिए विकल्प स्त्री को ही चुनना होगा कि वह किस तरह के विचारों में आना पसंद करेगी। वह लक्ष्मी, सरस्वती, पार्वती, सीता, अनसुइया, दुर्गा, काली की तरह सम्मान चाहती है या मुन्नी की बदनामी और शीला की जवानी पर थिरकते हुए मनोरंजन का साधन मात्र बन कर रहना चाहती है। 
पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित पढ़ी-लिखी या इक्कीसवीं सदी की अति बुद्धिमान स्त्रीयों को यह भ्रम ही है कि उनके किसी तरह के क्रियाकलाप से पुरुष को कोई आपत्ति होती है। पुरुष को न कोई आपत्ति थी और न है, क्योंकि उसका तो स्वभाव ही मनोरंजन है, वह तो चाहेगा ही कि ऐसी स्त्रीयों की भरमार हो, जो उसे आनंद देती रहें, मदहोश कर सकें। खैर, समस्या यह है कि विचार और व्यवहार से स्त्री पाश्चात्य संस्कृति को आत्मसात करना चाहती है और बदले में पुरुष से प्राचीन काल की भारतीय स्त्री जैसा सम्मान चाहती है। परंपरा और संस्कृति से भटकी आज की स्त्री चाहती है कि शॉर्ट टी शर्ट और कैपरी में लच्छेदार बाल उड़ाते हुए तितली की तरह उड़ती फिरे, तो उस पर कोई किसी तरह का अंकुश न लगाये। पुरुषों जैसे ही वह हर दुष्कर्म करे। सिगरेट में कश लगाये, बार में जाये और देर रात तक मस्ती करे, लेकिन पुरुष बदले में सावित्री जैसा सम्मान भी दे। क्या यह संभव है? 
धार्मिक सिद्धांतों व नीतियों का दायरा पूरी तरह समाप्त हो गया है और अब हम लोकतांत्रिक प्रणाली के दायरे में रह रहे हैं, जहां सभी को समानता का अधिकार मिला हुआ है, जिससे स्त्री या पुरुष अपने अनुसार जीवन जीने को स्वतंत्र हैं, पर स्त्रीयों को यह विचार करना ही चाहिए कि इस स्वतंत्रता ने उन्हें क्या से क्या बना दिया? सम्मान की प्रतीक स्त्री आज सिर्फ भोग का साधन मात्र बन कर रह गयी है, जिसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण विज्ञापन कहे जा सकते हैं। आवश्यकता नहीं है, तो भी प्रत्येक विज्ञापन में अर्धनग्न स्त्री नजर आ ही जाती है, क्योंकि उसे ही कोई आपत्ति नहीं है और वह भी स्वयं को ऐसे ही दिखाना चाहती है, तो एक पुरुष जब उस स्थिति में आपको देख रहा है या भोग रहा है, तो आपके बारे में मानसिकता भी वैसी बन ही जायेगी, इसीलिए स्त्री का सम्मान घट रहा है और निरंतर घटता ही रहेगा, तभी सृष्टि के प्रारंभ में ही स्त्री के लिए सामाजिक स्तर पर नीतियों और सिद्धांतों का कठोर दायरा बनाया गया था, क्योंकि स्त्री जितनी श्रेष्ठ विचारों वाली होगी, उसके संपर्क वाला पुरुष स्वत: ही श्रेष्ठ विचारों वाला हो जायेगा। यही बात है कि स्त्री के आचरण में समय के साथ जैसे-जैसे परिवर्तन आता गया, वैसे-वैसे पुरुष के विचारों में विकृति आती चली गयी, जो आज सर्वोच्च शिखर की ओर अग्रसर होती नजर आ रही है।
इसलिए अपने सम्मान के साथ अपना अस्तित्व बनाये और बचाये रखने के लिए स्त्री को ही पहल करनी होगी। अपने विचार और आचरण में गुणवत्ता लानी ही होगी, अन्यथा सिर्फ और सिर्फ भोग की एक वस्तु मात्र बन कर रह जायेगी। पुरुष की बात की जाये, तो उसे तो भोगने में सदैव आनंद की अनुभूति हुई है और होती भी रहेगी, क्योंकि उसके विचारों में गुणवत्ता पैदा करने वाली मां अब कम ही दिखाई देती है। इच्छाओं को सीमित करने वाली सुनीति जैसी पत्नी भी चाहिए, पर अधिकांशत: सुरुचि जैसी पत्नियां नजर आने लगी हैं, जिनके संपर्क में आया पुरुष राजा उत्तानपात की तरह ही भटकता जा रहा है और दुष्कर्म को भी शान से कर रहा है। ईमानदारी, सच और न्याय की स्थापना के साथ, अपने स्वाभिमान व अस्तित्व लिए भी स्त्री को परंपरा और संस्कृति की ओर लौटना ही होगा, क्योंकि निरंतर गर्त में जा रहे, इस समाज को अन्य कोई रोक भी नहीं सकता।
दिल्ली में हाल-फिलहाल हुई बलात्कार की घटना और पीड़ित लड़की के निधन को लेकर देश भर में आक्रोश का वातावरण बना हुआ है। व्यवस्था को निर्दोष करार नहीं दिया जा सकता, लेकिन सिर्फ व्यवस्था को ही दोषी ठहराने और व्यवस्था को कोसने से ही कुछ ठीक नहीं होने वाला। महिलाओं को सामाजिक स्थिति मजबूत करने की दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे। वस्तु वाली छवि से बाहर निकल कर स्वयं को प्रभावशाली नागरिक बनाना होगा। महिलाओं को भोग की वस्तु बनाए रखने वाले माध्यमों के विरुद्ध महिलाओं को ही आवाज उठानी होगी, क्योंकि पुरुष लिंग भेद मिटाने की दिशा में स्वयं कभी प्रयास नहीं करेगा, इसलिए व्यवस्था और पुरुष प्रधान समाज को कोसने की बजाये, स्वयं के चरित्र निर्माण की दिशा में महिलाओं को ही गंभीरता से कार्य करना होगा। महिलायें स्वयं को वस्तु के दायरे से बाहर निकालने में सफल हो गईं, तो उनकी सामजिक स्थिति में स्वतः सुधार हो जायेगा। 

30.12.12

मीडिया कुरीतियों से समाज को सजग करे :गोपाल प्रसाद

गोपाल प्रसाद
                मीडिया का नैतिक कर्तव्य है की समाज में फैली हुई कुरीतियों से समाज को सजग करे, देश और समाज के हित के लिए जनता को जागरूक करे ; परन्तु ऐसा लगता है की धन कमाने की अंधी दौड़ में लोकतंत्र का यह चौथा स्तंभ अपनी सभी मर्यादाओं को लाँघ रहा है। सभी समाचार पत्रों में संपादक प्रतिदिन बड़ी-बड़ी पांडित्यपूर्ण सम्पादकीय लिख कर जनमानस को अपनी लेखनी की शक्ति से अवगत करते हैं परन्तु व्यावहारिक रूप में ऐसा लगता है की पैसा कमाने के लिए सभी कायदे कानूनों को तक पर रख दिया गया है . सभी समाचारपत्रों में अश्लील एवं अनैतिक विज्ञापनों की भरमार है , जिससे समाज के लोग गुमराह होते हैं . समाचारपत्र केवल एक लाइन लिखकर लाभान्वित हो जाता है . क्या कभी किसी समाचारपत्र ने ऐसे विज्ञापनों की सत्यता को जांचने की कोशिश की ? क्या ऐसे अश्लील और अनैतिक विज्ञापनों को समाचारपत्रों में छपने भर से वह अपनी जिम्मेवारी से मुक्त हो सकता है? 
ऐसे बहुत से विज्ञापन हैं जिनमें कोई पता नहीं होता , केवल मोबाईल नंबर दे दिया जाता है क्योंकि लाख कोशिश करने के बाबजूद भी ऐसे विज्ञापनदाताओं ने अपना पता नहीं बताया। इस तरह की कई शिकायतें थाने में दर्ज भी कराई गई है , परंतु उस पर कारवाई नहीं के बराबर होता है। ऐसे विज्ञापनदाता जनता से धन ऐंठकर चम्पत हो जाते हैं। क्या इनके दुराचार में मीडिया भी बराबर का भागीदार नहीं है? संपादक को चरित्रवान एवं देश व समाज के प्रति जिम्मेदार होना चाहिए , तभी उनके सम्पादकीय की गरिमा का आभास जनमानस को हो सकेगा और उनके विद्वता का लाभ देश और समाज को मिल सकेगा। 
आज सामाजिक पतन के लिए काफी हद तक मीडिया भी जिम्मेदार है . यदि इन्टरनेट की बात छोड़ दें तो, इस प्रकार के गुमराह करने वाले विज्ञापनों से की जाने वाली कमाई से देश में और खासकर महानगरों में बलात्कार जैसी घटनाएँ नहीं होंगी तो और क्या होगा? 
पच्चीस बर्ष पहले भी जब पंजाब केसरी समाचारपत्र में विदेशी महिलाओं के अश्लील फोटो छपते थे तो कई सजग पाठकों ने इसका विरोध भी किया था परन्तु यह आज तक जारी है। खास बात यह है कि बहुत से लोग केवल इसी कारण इस समाचारपत्र को पसंद करते हैं . अब तो प्रायः सभी अखबार यही कर रहे हैं। खेद की बात है कि हर आदमी धनवान बनना चाहता है , चाहे उसके लिए समाज और देश को कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े। जब हम निर्मल बाबा और दूसरे धर्म के ठेकेदारों , भ्रष्ट नेताओं को कोसते हैं ,तो संपादक मंडल को भी अपने गिरेबान में झांकने की जरूरत है कि हम क्यों पेड़ न्यूज़ और भ्रामक विज्ञापन के द्वारा चंद लोगों के लाभ के लिए 
समाज के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं? समाज के कई भद्र कुलीन व्यक्ति इन धोखेबाज लोगों के शिकार होते हैं, परन्तु अपनी बदनामी से बचने के लिए आवाज नहीं उठाते, आवश्यकता है कि जनहित में छद्म ग्राहक बनकर इनकी गतिविधियाँ जानकर उसका भंडाफोड़ करने के लिए सजग लोग अग्रसर हों। क्या संपादक मंडल राष्ट्रहित में लिंगवर्धन , मसाज पार्लर , महिलाओं से दोस्ती जैसे भ्रामक विज्ञापनों पर रोक लगाने का भरसक प्रयास करेगे?

 गोपाल प्रसाद स्वतंत्र पत्रकार एवं आरटीआई एक्टिविस्ट उनसे सम्पर्क हेतु मेल कीजिये  gopalprasadrtiactivist@gmail.com sampoornkranti@gmail.com 

29.12.12

क्यों कि मर चुका हूं बेटी लोग कहते हैं मैं आज़ाद हूं

तुम कौन हो
क्या हो
जानता नहीं फ़िर भी
आज तुम्हारे लिये
मेरे अश्रु मेरे बे़बस चेहरे पर
अचानक हौले हौले
सरकते-सरकते   सूख जाते हैं
एक लक़ीर सी खिंचती है हृदय पर
जब सोचता हूं कि
उस निर्दयी सुबह ने
तुमको अचानक क्यों दिया था ये दर्द
शायद बेबस तब भी था ..
दूर खड़ा निहारता तुमको
नि:शब्द तब भी शोक मग्न था
आज भी शोकमग्न हूं ...!!

शोकाकुल बने रहना मेरी नियति है
बेटी करूं भी क्या........
अपने ही देश में समझौतों की खुली दुकानों में जा  मैने भी
किये हैं.....
चुपचाप सहने के
चुप रहने के सौदे
व्यवस्था के खिलाफ़ कुछ भी बोलना
मेरे बस में क्यों नहीं है
क्यों कि मर चुका हूं बेटी
लोग कहते हैं मैं आज़ाद हूं
पर अर्ध-सत्य है..
सत्य तुम जानती हो बेटी
क्योंकि मैं सिर्फ़ शोक मग्न हूं
शायद इस बार न मना सकूं..
नये वर्ष का हर्ष..
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                  दामिनी के लिये श्रृद्धांजलियां 
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