9.2.11

"भियाजी, काम की बड़ी-बड़ी मछली तो पानी क भित्तर मिलच !

जी देर शाम रविवार 6 फरवरी 2011 को हरदा  पहुंच सका . जहां से अगली सुबह मुझे सपत्नीक खिरकिया रवाना होना  था. जहां स्वर्गीय श्री शिवानन्द जी चौरे मेरे साढू भाई के  त्रयोदशी संस्कार में शामिल होना था.छोटी बहन के बेटों ने घेर लिया. बहुत देर तक सोने न दिया, दुनियां जहान की बातें हुईं. ये अपने निक्की राम थे जो मामा के एन सामने ख्ड़े हो गये बोले :-”मामाजी. लीजिये फ़ोटो "

निक्की
फ़िर अन्य दो बेटे लकी,विक्की नेट,ब्लाग, माया कैलेण्डर, आदि पर देर तक बतियाते रहे.
दूसरे दिन सोचे समय से एक घंटे बाद हम किरिकिया पंहुंचे.  

कैलाश स्वर्गीय पिता जी के पिंड इंदिरासागर परियोजना के बैकवाटर क्षेत्र  के ले आया समर्पित करने त्रयोदशी की पूजन के बाद माँ नर्मदा  के भीतर प्रवाहित करने इससे जलचर लाभान्वित होंगे . 
ये जो दूर तक आप अथाह जल राशि देख रहे हैं न यहीं बसा करते थे कोई 250 गांव जिनमें थी आबादी, आबादी की आंखों मे थे सपने, सपने जो किसान के सपने थे, मज़दूर के सपने थे, पंडित,लोहार,सुतार, धीवर,सोनार, मास्टर,पोस्ट-मैन, चपरासी, किसी के भी थे थे ज़रूर. पुरखों की विरासत सम्हालते थे कुछ,  जो जमीनें खोट (वार्षिक-किराये ) देकर   जबलपुर भोपाल,इन्दौर, मुम्बई ( जिसे गांव आकर बेधड़क बम्बई बोलते थे ) में रोजगार हासिल किया था  उनके भी  तो सपने थे हर गर्मियों में गांव आकर घर की खोल-बंदी, कुल-देवी के पूजन, की जी हां इसी अथाह जल राशी में समा गये किंतु उन के मन से न निकल सकने वाली पीर दे गये. विकास की प्राथमिक शर्त ही विनाश है. जी हां यही सत्य है. देखो न कितने पसीने बहा के बनी थी सड़क सीधे खण्डुये (खण्डवा) जाती थी. यहीं तो रेलवे- लाइन हुआ करती थी . पर अब वो सड़क  जाती है वहां तक जहां तक दो पहिया मालिक बाइक धोकर नर्मदा को गंदा करने और फ़िर हाथ जोड़कर झूठी आस्था  का प्रदर्शन कर रहा है. 
ये शम्भू सिंग जी हैं साथी का इन्तज़ार कर रहे हैं शाम का चार बज चुका है. मछलियां जाल में फ़ंसने आ जाएंगी. पर साथी न आया तो हमने कहा:-’भाई, तुम, पास की मछलियां क्यों नहीं पकड़ते ?
"भियाजी, कंईं काम की नी हईं..! काम की बड़ी-बड़ी मछली  तो पानी क भित्तर मिलच !
बड़ी गहरी बात कह दी शम्भूसिंग ने. पर शायद ही कोई इस पर ध्यान देगा. सच सोचिये तो ज़रा  शम्भू सिंग जी सही कह रहें हैं न ?
  ये क्या हलवाई ? 
 अरे क्या कर रहे  हो भैया.ब्लास्ट हो जाएगा तो .?
"हमारा तो रोज़ का काम है." एक टंकी से दूसरी टंकी में गैस यूं ही शिफ़्ट करता है वो. जान पर खेल कर क़ानून को धता बताते हुए मन में आया कि डपट दूं. कैलास क्या सोचेगा मौसा जी मुझे सांत्वना देने आये हैं कि सिस्टम सुधारने   सो बस चुप रहा . वैसे भी किधर देखिये किसे सोचिये . क्या क्य सोचिये . ?
आज़ सुबह मामा ससुर साहब के साथ उनकी बनावाई धरमशाला में गया. हण्डिया. नर्मदा जयंति के दो दिन पूर्व  अवसर का लाभ उठाना ही था. ये रही  तस्वीर जो  बतातीं  नर्मदा-जयंति हम सिर्फ़ ढोंग करते हैं "नर्मदा-जयंति" मनाने का.  मेरे आग्रह के बावज़ूद वे युवक न माने नर्मदा को प्रदूषित करने बाइक धोने घुस ही गये माई के पल्लू से धोयेंगें अपनी बाइक. 

  मेरी पीड़ा देख मामा ससुर ने तय कर लिया कि इस बार वे कम से कम इस घाट पर तो बाइक का आना जाना रोकने बेरियर लगवा ही देंगे. पर साबुन से नहाने वाले उस दादा को वे रोक पाने में असमर्थ महसूस कर रहे हैं. 
हां एक बात और एक वानर सेना बना ली है सेना तट के पास का कूड़ा-प्लास्टिक-पन्नी बीनती है उसे जलाती भी है 
मामा जी की वानर-सेना
नर्मदा जयन्ति पर विषेश आलेख में विस्तार से विवरण तक के लिये विदा दीजिये 


5.2.11

पद-जात्रा


सर्किट-हाउस
अध्याय दो
 Novel By :-Girish Billore Mukul,969/A-II,Gate No.04 ,Jabalpur M.P.

                 जुगाड़,इंतज़ाम,व्यवस्था, कानून की ज़द में न हो तो भी क़ानून की ज़द में लाकर करो यही है सरकारी चाकरी का सूत्र हैं. इन सूत्रों का प्रयोग करते जाइये नौकरी करते जाइये. ये शिक्षा दे रहे थे तहसीलदार जो अपने समकक्ष अधिकारीयों को अधीनस्त समझते थे,राजस्व विभाग के ये साहब अपने आप को सरकार की सगी औलाद और अन्य विभाग के अफ़सरों और कर्मचारियों को सरकार की सौतेली औलाद मानने वाले ये तहसीलदार साब तो क्या इनका रीडर भी अपने इलाके के अन्य विभागों को अपनी जागीर मानता है .इसी बातचीत के दौरान टेबल पर रखा फ़ोन मरघुल्ली आवाज़ में कराहा. बड़े घमंड से फ़ोन उठाया गया यस सर ,जी सर, ओ के सर , और फ़िर सर सर ! जी इसके अलावा किसी ने कुछ नहीं सुना. फ़ोन बंद करके तहसीलदार बोला - सी०एम साब हैलीकाप्टर से इसी हफ़्ते भ्रमण पर हैं. एस०डी०एम० साब मीटिंग लेंगें आप आ जाना गुरुवार को .बी०डी०ओ० बोला : जी,ज़रूर बाकियों ने हां में हां मिलाई. चाय-पानी के बाद सभा बर्खास्त हो गई. पौने पांच बज चुके थे सबकी तन्ख्वाह जस्टीफ़ाईद हुई सब निकल पड़े अपने अपने बंगलों में. बंगले क्या बाहर से बूचड़ खाने नज़र आते थे. बरसों से उसी पीले रंग से रंगे जाते थे वो भी दीवाली के बाद. जब टेकेदार की बाल्टी-कूची से  जिला और सब डिवीजन लेबल तक को पीला किया जा चुका होता था.बचा खुचा रंग पावर के हिसाब से सबसे पहले तहसीलदार, फ़िर नायब, फ़िर बी०डी०ओ० फ़िर बचा तो बाक़ी सबके बंगलों में कूची फ़ेरने की रस्म अदा हो जाया करती थी.  
                  गुरुवार को खण्ड स्तर के सारे अधिकारी सरकार के दरबार में पहुंच गये. तहसीलदार यानी रुतबेदार के आफ़िस में एस०डी०एम० कलैक्टर  साब के नुमाइंदे के तौर पर पधारे. आई०ए०एस०थे सो डाक्टर,एस०डी०ओ०पी०,थाना प्रभारी, परियोजना अधिकारी, कृषि-अधिकारी, बी०ई०ओ० सब बिफ़ोर टाईम. गुरुवार को भी दाढ़ी बना के भागते चले आये. वरना गुरुवार को न तो नाई की दूकान की तरफ़ झांकते और न ही सेविंग किट की याद ही करते . डा०मिश्रा आते ही बोले :- गुरुवार, को सेविंग करना पड़ा बताओ. नौकरी में धरम-करम सब चट जाता है
गुप्ता बी०डी०ओ० बोला:-’अरे, जित्ते अधर्म हम करतें है, उसका प्रायश्चित, कर लेंगें रिटायर होकर..?
   इनको मालूम नहीं चित्रगुप्त ने इनकी जीवनी में सिर्फ़ पाप ही पाप लिखे हैं. ये बेचारे तो सात जन्म तक प्रायश्चित करें तो भी नहीं पाप कटेंगें . पल पल बोले झूठ का पाप, दण्डवत का पाप,झूठी दिलासा का पाप, कमीशन-खोरी का पाप, पता नहीं क्या क्या लिख मारा चित्रगुप्त महाराज़ ने. ऊपर से बीवी को बच्चों को, बाप को,भाई को जाने किस किस को मूर्ख बनाने का पाप सब कुछ दर्ज़ किये जा रहें हैं चित्रगुप्त जी महाराज़.
                     खैर, छोड़िये चित्रगुप्त जी को जो करना है सो उनको करने देते है हम इन लोगों पे आते हैं जो देश के लिये ज़रूरी भी हैं और देश की मज़बूरी भी. सो सी०एम० साब ले गांव गांव पद जात्रा निकलवाई. तपती धूप में जनता के बीच किताब पड़ने की ड्यूटी लगाई. ताकि़ आम आदमी जाने कि कि उनको कैसे आगे आना है और  कैसे लाभ उठाना है. एक अधिकारी के हाथ में सौंपी गई थी वो किताब जिसे बांचना था. दल के दल गांव गांव जाते किताब बांचते फ़िरते. तहसीलदार के साथ जब परियोजना अधिकारी गया तो भौंचक रह गया ग्राम पिचौर  में पहुंचते ही पटवारी से व्हाया आर०आई० नायब फ़िर तहसीलदार बने शर्मा ने गांव के अंदर आते ही कोटवार के ज़रिये सरपंच को बुलावा भेजा. तब मोबाइल फ़ोन नही थे वरना पटवारी भी आधा फ़र्लांग जाने की तक ज़हमत न उठाता, जाना पड़ा बेचारे को पाजामा सम्हाला तेज़ कदमों से बुलावे के लिये रवाना हुआ क्या आवाज़ थी कोटवार की. चार खेत दूर तक पहुंच गई  गांव से दूर उस खेत तक जहां कल्लू पटेल मोटर से पानी दे रहा था… पुकार ये थी..”ओ कल्लू रै सिरपंच, तहसील साब बुलात है रे………..” रे को ठीक उसी तरह खींचा जैसे सियासी पार्टियां किसी मुद्दे को बेइंतहां खींचतीं हैं  .

     सरपंच चिल्लाया :-”आत हौं रे तन्नक ठैर तो जा  रे कुटवार तैं चल मैं आ रओ , फ़िर खेत की झाड़ियों की ओट में बैठ के शंका निवारण की जो लघु थी . नया-नया सरपंच था डरा कि कोई अपराध तो नहीं हो गया . वैसे उसने पहली कमीशन खोरी कर ली थी . स्कूल में रंगाई-पुताई,शौचालय बनाने के लिये बी०डी०ओ० दफ़्तर से मिले पांच हज़ार के चैक से चालीस परसेंट का वारा न्यारा सी०ई०ओ० दफ़्तर के पंचायत साब के मार्गदर्शन में हुआ. साठ परसेंट में काम हुआ. उसे भय था कि शायद तहसीलदार को भनक लग गई. आज़ उसी की जांच तो नहीं. इसी भय के मारे शंका हुई शंका लघु थी सो उसका निवारण खेत में ही कर लिया, सबके सामने कैसे करता बेचारा बताओ भला ?  
                                                  
                                       (निरंतर)

4.2.11

छिप-छिप अश्रु बहाने वालों

साभार CM Q
गोपाल दास नीरज जी का गीत
छिप-छिप अश्रु बहाने वालों
- गोपालदास "नीरज" (Gopaldas Neeraj)

छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ बहाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से, जीवन नहीं मरा करता है |
सपना क्या है, नयन सेज पर
सोया हुआ आँख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों
जागे कच्ची नींद जवानी
गीली उमर बनाने वालों, डूबे बिना नहाने वालों
कुछ पानी के बह जाने से, सावन नहीं मरा करता है |

माला बिखर गयी तो क्या है
खुद ही हल हो गयी समस्या
आँसू गर नीलाम हुए तो
समझो पूरी हुई तपस्या
रूठे दिवस मनाने वालों, फटी कमीज़ सिलाने वालों
कुछ दीपों के बुझ जाने से, आँगन नहीं मरा करता है |

खोता कुछ भी नहीं यहाँ पर
केवल जिल्द बदलती पोथी
जैसे रात उतार चाँदनी
पहने सुबह धूप की धोती
वस्त्र बदलकर आने वालों, चाल बदलकर जाने वालों
चँद खिलौनों के खोने से, बचपन नहीं मरा करता है |

लाखों बार गगरियाँ फ़ूटी,
शिकन न आयी पर पनघट पर
लाखों बार किश्तियाँ डूबीं,
चहल पहल वो ही है तट पर
तम की उमर बढ़ाने वालों, लौ की आयु घटाने वालों,
लाख करे पतझड़ कोशिश पर, उपवन नहीं मरा करता है।

लूट लिया माली ने उपवन,
लुटी ना लेकिन गंध फ़ूल की
तूफ़ानों ने तक छेड़ा पर,
खिड़की बंद ना हुई धूल की
नफ़रत गले लगाने वालों, सब पर धूल उड़ाने वालों
कुछ मुखड़ों के की नाराज़ी से, दर्पण नहीं मरा करता है।

 




इस गीत को स्वरों में पिरोया है मिसफ़िट:सीधीबात की सहसंचालिका  पाडकास्टर अर्चना चावजी ने 



2.2.11

कुछ चुनिन्दा वेबकास्ट


e

1.2.11

ललित शर्मा और विवेक रस्तोगी जी से बात चीत

                                                    कल का दिन भारी व्यस्तताओं से परिपूर्ण रहा. ललित शर्मा शाम से ही कैमरा लगाए बैठे थे. अभनपुर से रायपुर फ़िर रायपुर से अभनपुर का रोजिया जात्री ललित शर्मा को गूगल महाराज़ ने सुंदर सी टी-शर्ट भेजी. कह तो रहे थे कि  वे कह तो रहे थे कि संयोग है किंतु मुझे ऐसा लगता है ये कास्ट्यूम खास तौर पर इसी वज़ह से पहनी गई है बहरहाल जो भी बात चीत मज़ेदार थी. बीच में नेट महाराज़ हो गये नाराज़ तो मौके का लाभ उठाने हमने कैमरा मोड़  दिया बैंगलोर की तरफ़ जहां सैण्डो बनियान पर उपलब्ध थे भाई विवेक रस्तोगी सो उनको भी टी-शर्ट पहनवा के बतियाते रहे चलिये आप भी सुन लीजिये मज़ेदार चर्चा
  1. श्री ललित शर्मा जी से बात चीत 
  2. श्री ललित शर्मा जी से बात चीत
  •      

29.1.11

टुकड़े-टुकड़े दिन बीता, धज्‍जी-धज्‍जी रात मिली



रेडियोवाणी पर मिली इस प्रस्तुति के लिये भाई युनुस का आभार ही कहूंगा
मीना  कुमारी के सुर  खैयाम साहब के संगीत संयोजना में
टुकड़े-टुकड़े दिन बीता, धज्‍जी-धज्‍जी रात मिली
जिसका जितना आंचल था, उतनी ही सौग़ात मिली ।
जब चाहा दिल को समझें, हंसने की आवाज़ सुनी
जैसे कोई कहता हो, ले फिर तुझको मात मिली ।
मातें कैसी, घातें क्‍या, चलते रहना आठ पहर
दिल-सा साथी जब पाया, बेचैनी फिर साथ मिली ।

और अब एक पेशक़श यहां भी 
खैयाम साहब 

आज़ शाम खैयाम साहब को सुनने जाना है तरंग हाल में बिखरेंगी सुर लहरियां हम भी होंगे तरंगित तरंग में और फ़िर देर रात आपसे मुलाक़ात कराना है रात दस बजे प्रोफ़ेसर मटुकनाथ से

26.1.11

जी यशवंत सोनवाने को व्यवस्था ने मारा है

       आत्म केंद्रित सोच स्वार्थ और आतंक का साम्राज्य है.चारों ओर छा चुका है  अब तो वो सब घट रहा है जो  इस जनतंत्र में कभी नहीं घटना था.  कभी चुनाव के दौरान अधिकारी/कर्मचारी  की हत्या तो कभी कर्तव्य परायण होने पर . भारतीय प्रजातंत्र में निष्ठुर एवम दमनकारी तत्व की ज़हरीली लक़ीरें साफ़ तौर पर नज़र आ रहीं हैं.. ब्यूरोक्रेसी की लाचार स्थिति, हिंसक होती मानसिकता, हम किस ओर ले जा रहे हैं विकास का रथ. कभी आप गांवों में गये हैं. ज़रूर गये होंगे   जनता की भावनाओं से कितना खिलवाड़ होता है देखा ही होगा. लोगों की नज़र में सरकारी-तंत्र को भ्रष्ट माना जाता है यह सामान्य दृष्टिकोण है.किंतु सभी को एक सा साबित करना गलत है. सामान्य रूप से सफ़ल अधिकारी उसे मानतें हैं जो येन केन प्रकारेण नियमों को ताक़ पर रख जनता के उन लोगों का काम करे जो स्वम के हित साधने अथवा बिचौलिए के पेशे में संलग्न है. यदि अधिकारी यह नही करे तो उसके चरित्र हनन ,मानसिक हिंसा, प्रताड़ना और हत्या तक पर उतारू होते हैं.  
  खबर ये है कि "मालेगांव के एडीएम यशवंत सोवानणे को तेल माफिआओं ने जिंदा जला दिया है। एडीएम का कसूर सिर्फ इतना था कि वो पैट्रोल में कैरोसिन की मिलावट रोक रहे थे ।"
                        ए डी एम साहब लोक कल्याण ही कर रहे थे उनको  उनके काम से रोकने का जो तरीका अपनाया गया भारतीय कानून-व्यवस्था को सरे आम चिंदी-चिंदी करना है. देश में सैकड़ों अधिकारीयों/कर्मचारियों  को रोज़  मारपीट, उनका अपमान, उनको अपना नौकर मानना , नियम विरुद्ध काम न करने या कि नानुकुर करने पर चरित्र हनन करना. बैठकों में   ज़लील करना और ज़लील करवाना फूहड़ समाचारों का प्रकाशन एवं प्रसारण करवाना जैसी स्थितियों का सामना करना होता है. 
ऐसी परिस्थियों में ही तो हो रहा है ब्रेन-ड्रेन क्या कभी आपने सोचा भारत में सरकारी सेवाओं के प्रति वितृष्णा के कारणों में ये भी एक कारण तो नहीं है ? पूछिये अपनी युवा संतान से .

बदल दो व्यवस्था की बयार फिर मनाओ हर बरस ये त्यौहार

  अर्चना जी के स्वर में  प्रेरक गीत  =>                                                              
 भारतीय जन
तुम प्रभावों से हटकर                                                           
अभावों से  डटकर
करो  मुक़ाबला.
उन्हैं लगाने दो मेले
करने दो व्यक्ति पूजा
ये उनका पेशा है
तुमने कभी कोई ज़िन्दा-इन्सान देखा है ?
मैं तुमको इस पर्व की शुभ कामनाएं कैसे दूं
मुर्दों से
संवादों  की ज़ादूगरी से अनभिज्ञ
पर यह जानता हूं कि
तुम इनके नहीं
शहीदों के ऋणी हो
ये भिक्षुक तुम इनसे धनी हो
बदल दो व्यवस्था की बयार
फिर मनाओ हर बरस ये त्यौहार
इनके पीछे मत भागो
जागो समय आ गया है
जागने का जगाने का 
ज़िंदा हो इस बात का आभास दिलाओ     
मैं शुभकामना की मंजूषा लिए  खड़ा
शायद तुमको ही
दे दूं  " शुभकामनाएं"
अभी तो शोक मना लूं
यशवंत सोनवाने का


24.1.11

विनत श्रद्धांजली पंडित भीमसेन गुरुराज जोशी जन्म 4 फरवरी 1922 महानिर्वाण 24 जनवरी 2011

फ़त्ते जी को तलाक की राह मिल गई

शीला जी
फत्ते जी मेरे अभिन्न मित्र हैं कई दिनों के बाद मुलाक़ात हुई सो बस चुहल की गरज से अपने राम ने छेड़ दिया उनको . पूछ लिया उनकी नई प्रेमिका के बारे में. पूछा क्या बता कि मिस शीला सच बहुत प्यार करतीं हैं आपसे !
 '' जी सच है उनको मुझसे बहुत प्रेम है हो भी क्यों न हम भी तो उनसे बहुत प्रेम करते है , विपरीत के बीच आकर्षण तो विज्ञान ने भी सिद्ध कर दिया अब आप ही बताएं. कोई झूठ तो नहीं होगी मेरी बात ?
जी सही है ....! आप झूठ बोलते ही कहाँ हैं ? तो अब बताएं ज़नाब कब मिले थे उनसे ?
''क्या बताऊँ भाई, बीबी से अनबन क्या हुई हमने बहाना किया कि सरकारी टूर पे जाना है और बस चले गए उनके नशेमन में ''
फ़त्ते जी का स्वप्न
कल रात से उनके पास ही थे हम . ?
खूब आदर सत्कार हुआ होगा ?
जी, बहुत.. मेरा ख़ास ख़याल रखा उनने . खूब बातें हुईं . ग़ज़ल शायरी सब कुछ सुनी सुनाएँ हमने उनको और उनने हमको.
जी ये तो हुआ ही होगा. बताएं कुछ खिला-पिलाया के बस भूखे टल्ला रहे हो..?
''अरे मुकुल भाई , क्या बात करते हो, लज़ीज़ खाना था और हाँ मालूम है डिनर पर लंच में,सुबह शाम के नाश्ते के दौरान वे हमें बड़ी मंहगी चीज़ सुन्घातीं रहीं  पता नहीं कितने जतन से से सम्हाल के रखीं हुईं थी कबसे सम्हाल के रखा था उनने वो प्याज जिसकी खुशबू ने हमारी मुलाक़ात को कुछ अधिक रूमानी बना दिया मुकुल भाई सच वे तो हमारी राधा हैं राधा ''
''पर भाभी से झगड़ा काहे हुआ ..जो शीला ओह राधा रानी के पहलू में जाना हुआ कन्हाई का ?''
''बस इसी बात को लेकर कि गुप्ता जी शर्मा जी वगैरा सब तीज त्योहारों में प्याज ले आते हैं और एक आप हैं नामुराद कितने  बेरहम पत्थर दिल पति हैं बस हमारी गैरत ने ललकारा और हम निकल पड़े प्याज खरीदने कि हमारी राधा से बाज़ार में भेंट हो गई . बस उनने हमको न्यौता  हम कल दिए राधा जी के पीछे पीछे .
हमने पूछा - तो फत्ते साब, अभी किधर जा रहें हैं ?
कुछ नहीं उकील साब के यहाँ ?
क्यों,?
तलाक लेंगे तुम्हारी भाभी से ?
इस आधार पे तलाक मिल जाएगा कि वे सदा प्याज की मांग करतीं हैं ?
"किस दुनियाँ में रहते हो मुकुल भाई ! मालूम नहीं आपको, सुना है कि आज जब श्री ....... जी की अदालत में एकतरफा तलाक मिलतें हैं अगर पति या पत्नी के बीच प्याज को लेकर कोई तनाव हो जाए. अखबार में देखा नहीं आपने जज साब ने आर्त भाव से गिलाबिल वर्सेज़ श्रीमती..... वाले मामले में फैसला दिया था कि सुखद दाम्पत्य के लिए सब कुछ स्वीकार्य है सिर्फ प्याज की मांग को छोड़ कर
नोट - इस पोस्ट में उपयोग किये गये चित्र गूगल के ज़रिए क्रमश: भास्कर एवम तीसरा खम्बा ब्लाग ब्लाग से साभार लिया है आपत्ति की दशा में सूचित कीजिये ताक़ि चित्र और आभार अपने अपने स्थान पर पहुंच जाएं 
 

23.1.11

सबने कहा ज़िगरे वाले इंसान हैं समीर लाल


पूरब का जात्री
पश्चिम की रात्री
’देख लूँ तो चलूँ’ के विमोचन समारोह : दिनांक18/01/२०११
आधिकारिक रपट 
(देर के लिये माफ़ी नामा सहित )
             उस दिन किसी ने कहा  देश विदेश में ख्याति अर्जित करेगी किताब,तो किसी ने माना जिगरा है समीर में ज़मीन से जुड़े रहने का, तो कोई कह रहा था वाह अपनी तरह का अनोखा प्रवाह है. किसी को किताब बनाम उपन्यासिका- ’ट्रेवलागलगी तो किसी को रपट का औपन्यासिक स्वरूप किंतु एक बात सभी ने स्वीकारी है कि: ’समीरलाल एक ज़िगरे वाला यानि करेज़ियस व्यक्ति तो है ही लेखक भी उतना ही ज़िगरा वाला है…!’
       जी हां, यही तो हुआ समीरलाल की कृति ’देख लूँ तो चलूँ’ के विमोचन समारोह के दौरान  दिनांक 18/01/2011 के दिन कार्यक्रम के औपचारिक शुभारम्भ में अथितियों स्वागत पुष्पमालाओं से किया गया फ़िर शुरु हुआ क्रमश: अभिव्यक्तियों का सिलसिला सबसे पहले आहूत किये गये समीर जी के पिता श्रीयुत पी०के०लाल जिन्हौंने बता दिया कि-’हां पूत के पांव पालने में नज़र आ गये थे जब बालपन में समीर ने इंजिनियर्स पर एक तंज लिखा था.
श्रीमति साधना लाल को जब आहूत किया तो पता चला कि वे इस बात के लिये तैयार तो न थीं फ़िर भी उनने सभी के प्रति कृतज्ञता  अंत:करण से व्यक्त की.
समीर स्वयम कम ही बोले मुझे लग रहा था कि समीरलाल काफ़ी कुछ कहेंगेकिताब पर, उड़नतश्तरी पर, किंतु समीर जी बस सबके प्रति आभारी ही नज़र आये. संचालक के तौर पर मेरी सोच पहली बार गफ़लत में थी. समीर भावुक थे उनने अपनी अभिव्यक्ति में कहा –“किसी रचना कार के लिये उसकी कृति का विमोचन रोमांचित कर देने वाला अवसर होता है जब संपादक श्री ज्ञानरंजन जी डा० हरिशंकर दुबे सहित विद्वतजन उपस्थित हों तब वे क्या कहें और कैसे कहें कितना कहें आभारी व्यक्त करते रहे अपनी अभिव्यक्ति में ” 
श्रीयुत श्रवण कुमार दीपावरे का कथन कोट करना ज़रूरी है यहां :-”मुझे नहीं मालूम ब्लाग क्या है, समीर लाल किस ऊंचाई पर है. मुझे तो वो पिंटू याद है जो आज़ भी पिंटू ही है पिंटू ही रहेगा.भोला भाला स्रजनशील हमारा पिंटू.यानी सभी जैसे  समीर जी के बचपन के मित्र  , राकेश कथूरिया लाल परिवार के समधी दम्पत्ति श्रीमति-श्री दीवान सहित सभी उपस्थित जन  बेहद आत्मिक रूप से आयोजन से जुड़ गये थे

कवि-लेखक एवम ब्लागर डा० विजय तिवारी ’किसलय’के शब्दों में  
                  भाई समीर लाल समीरकी पुस्तक देख लूँ तो चलूँपर बात करने के पूर्व उनके बारे में बताना भी आवश्यक है क्योंकि कृति और कृतिकार, संतान और जनक जैसे होते हैं. जनक का प्रभाव अपनी संतान पर स्पष्ट रुप से देखा जाता है.
अड़तालीस वर्षीय भाई समीर जी पैदा तो हुए थे रतलाम में, परन्तु अध्ययन एवं संस्कार संस्कारधानी में प्राप्त किये. आप म.प्र. विद्युत मंडल के पूर्व कार्य पालन निर्देशक इंजी श्री पी.के.लाल जी के सुपुत्र हैं. चार्टर्ड एकाउन्टेन्सी भारत में एवं मेनेजमेन्ट एकाउन्टेन्सी अमेरीका से की. सन 1999 के बाद आप कनाडा के ओन्टारियो में निवास करने लगे. कनाडा के एक प्रतिष्ठित बैंक में तकनीकी सलाहकार होने के साथ साथ आप टेक्नोलाजी पर नियमित लेखन करते हैं.
आपका एक लघुकथा संग्रह मोहे बेटवा न कीजोके साथ ही वर्ष 2009 में चर्चित एवं लोकप्रिय काव्य संग्रह बिखरे मोतीभी हिन्दी साहित्य धरोहर में शामिल हो चुके है. इसमें गीत, छंदमुक्त कविताएँ, गज़लें, मुक्तक एवं क्षणिकाएँ समाहित हैं. एक ही पुस्तक में पाँच विधाओं की ये अनूठी पुस्तक भाई समीर के चिन्तन का प्रमाणिक दस्तावेज की तरह है.
                  मित्र के गृह प्रवेश की पूजा में अपने घर से 110 किलोमीटर दूर कनाडा की ओन्टारियो झील के किनारे बसे गाँव ब्राईटन तक कार ड्राईव करते वक्त हाईवे पर घटित घटनाओं, कल्पनाओं एवं चिन्तन श्रृंखला हीदेख लूँ तो चलूँहै. यह महज यात्रा वृतांत न होकर समीर जी के अन्दर की उथल पुथल, समाज के प्रति एक साहित्यकार के उत्तरदायित्व का भी सबूत है. अवमूल्यित समाज के प्रति चिन्ता भाव हैं. हम यह भी कह सकते हैं कि इस किताब के माध्यम से मानव मानव से पाठक पाठक से सीधा सम्बन्ध बनाने की कोशिश है क्योंकि कहीं न कहीं कोशिशें कामयाब होती ही है.
              लेखक की बाल सुलभ संवेदनायें जागृत होती हैं और हाई वे पर बच्चों द्वारा कॉफी सर्व करने पर भारत और कनाडा में बेतुका फर्क पाठकों के सामने प्रस्तुत करते हैं. भारतीय बच्चों का काम करना बाल शोषण और कनेडियन बच्चों का काम करना पर्सनालिटी डेवेलपमेंट कहा जाता है. उनका मानना है कि बच्चों से उनका बचपन छीन लेने की बात भला कैसे पर्सनालिटी डेवेलपमेंट हो सकती है.
 युवा विचारक एवम सृजन धर्मी श्री पंकज स्वामी ’गुलुश’(पब्लिक-रिलेशन-आफ़िसर म०प्र० पूर्व-क्षेत्र विद्युत वितरण कंपनी) की  अभिव्यक्ति सुनिए 

समीक्षक इंजिनियर ब्लागर :- श्री विवेकरंजन श्रीवास्तव
         एक ऐसा संस्मरण जो कहीं कहीं ट्रेवेलाग है, कहीं डायरी के पृष्ठ, कहीं कविता और कहीं उसमें कहानी के तत्व है। कहीं वह एक शिक्षाप्रद लेख है, दरअसल समीर लाल की नई कृति ‘‘देख लॅू तो चलूं‘‘ उपन्यासिका टाइप का संस्मरण है। समीर लाल हिन्दी ब्लाग जगत के पुराने,  सुपरिचित और लोकप्रिय लेखक व हर ब्लाग पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने वाले चर्चित टिप्पणीकार है। उनका स्वंय का जीवन भी किसी उपन्यास से कम नहीं है। ‘‘जब वी मेट‘‘ के रतलाम से शुरू उनका सफर सारी दुनियां के ढेरो चक्र लगाता हुआ निरंतर जारी है। उनकी हृष्ट पुष्ट कद काठी के भीतर एक अत्यंत संवेदनशील मन है और दुनियादारी को समझने वाली कुषाग्रता भी उनमें कूट-कूट कर भरी हुई है। अपने मनोभावों को पाठक तक चित्रमय प्रस्तुत कर सकने की क्षमता वाली भाषाई कुशलता भी उनमें है। इस सबका ही परिणाम है कि जब मैं उनकी नई पुस्तक ‘‘देख लूँ  तो चलूँ ‘‘ पढने बैठा तो बस पढ़ लूँ  तो उठुं  वाली शैली में पूरा ही पढ गया। 
सुप्रसिद्ध साहित्यकार, अग्रणी कथाकार और पहल के यशस्वी संपादक श्री ज्ञानरंजन जी (मुख्य अतिथि ) 
देख लूँ तो चलूँ में इसको लेकर नायक ऊबा हुआ है. हमारे आधुनिक कवि रघुबीर सहाय ने इसे मुहावरा दिया है, ऊबे हुए सुखी का. इस चलते चलते पन में आगे के भेद, जो बड़े सारे भेद हैं, खोजने का प्रयास होना है. धरती का आधा चन्द्रमा तो सुन्दर है, उसकी तरफ प्रवासी नहीं जाता. देख लूँ तो चलूँ का मतलब ही है चलते चलते. इस ट्रेवलॉग रुपी उपन्यासिका में हमें आधुनिक संसार की कदम कदम पर झलक मिलती है. 50 वर्ष पहले महान ब्रिटिश कवि और एनकाउन्टर के संपादक स्टीफन स्पेंडर ने कहा था कि आधुनिकता धाराशाही हो रही है- माडर्न मूवमेंट हैज़ फेल्ड. भारत में ही देखें, बंगाल, केरल, तामिलनाडु, कर्नाटक, उत्तरपूर्व, महाराष्ट्र और गुजरात में क्लैसिकल और आधुनिकता का एक धीर संतुलन है. जीवन में, कविता में, साहित्य में.यही दृष्य यूरोप में है. समीर लाल भी अपनी जड़ों से प्यार करते हैं पर ऐसा करते हुए लगता है कि जड़ें गांठ की तरह कड़ी और धूसरित हो रही हैं. हमारा देश भी वही हो रहा है धीरे धीरे जैसा प्रवासी का प्रवासी स्थलों पर लगता है.
        समीर लाल ने अपनी यात्रा में एक जगह लिखा है- हमसफरों का रिश्ता! भारत में भी अब रिश्ता हमसफरों के रिश्ते में बदल रहा है. फर्क इतना ही है कि कोई आगे है कोई पीछे. मेरा अनुमान है कि प्रवासी भारतीय विदेश में जिन चीजों को बचाते हैं वो दकियानूस और सतही हैं. वो जो सीखते है वो मात्र मेनरिज़्म हैबलात सीखी हुई दैनिक चीजें. वो संस्कृति प्यार का स्थायी तत्व नहीं है.
             निर्मल वर्मा जो स्वयं कभी काफी समय यूरोप में रहे कहते हैं कि प्रवासी कई बार लम्बा जीवन टूरिस्ट की तरह बिताते हैं. वे दो देशों, अपने और प्रवासित की मुख्यधारा के बीच जबरदस्त द्वंद में तो रहते हैं पर निर्णायक भूमिका अदा नहीं कर पाते. इसलिए अपनी अधेड़ा अवस्था तक आते आते अपने देश प्रेम, परिवार प्रेम और व्यस्क बच्चों के बीच उखड़े हुए लगते हैं
समीर लाल का उपन्यास पठनीय है, उसमें गंभीर बिंदु हैं और वास्तविक बिंदु हैं. मैं उन्हें अच्छा शैलीकार मानता हूँ. यह शैली भविष्य में बड़ी रचना को जन्म देगी. उन्हें मेरी हार्दिक बधाई एवं शुभकामना.
इसी क्रम में अध्यक्षीय उदबोधन में डा० हरिशंकर दुबे ने कहा   
                      ऐसी कौन सी जगह है जहाँ समीर का अबाध प्रवाह नहीं है, इस बात को प्रमाणित करती है यह कृति ’देख लूँ तो चलूँ’. कहा जाता है जह मन पवन न संचरइ रवि शशि नाह प्रवेश- ऐसी कोई सी जगह है जहाँ पवन का संचरण न हो, जहाँ समीर न हो अब समीर इसके बाद यहाँ से कनाडा तक और कनाडा से भारत तक अबाध रुप से प्रवाहित हो रही है और उस निर्वाध प्रवाह में निश्चित रुप से यह उपन्यासिका  ’देख लूँ तो चलूँ’ आपके सामने है. 
कार्यक्रम के संचालन की जोखिम भरी ज़वाबदारी मुझे मिली थी खरा था खोटा था मुझे नहीं मालूम पर किसी भी कमी के लिये समीर लाल जी सहित उन सबसे माफ़ी ही नहीं विनत निवेदन भी करता हूं कि कमियां ज़रूर बताएं सुधार लूं स्वयम को !!
पत्रिका जबलपुर 19.01.2011
कार्यक्रम के दूसरे चरण में लज़ीज़ व्यंजनों  के साथ चाय काफ़ी के साथ भी किताब,ब्लाग, और समकालीन सहित्यिक विमर्श जारी रहा. भाई आनंदकृष्ण का सबसे मिलना जुलना मुझे आकर्षित करता रहा. तो बवाल आदि का खेमा बदल बदल के सबसे मिलना भी बरबस अंतिम चरण को रोचक बनाता रहा. हल्की-फ़ुल्की समीक्षा आयोजन पर होनी थी सो शुरु ही हो गई.थी और इस बीच  मौका मिलते ही विदा ली हमने भी सबसे . जैसा कि अब आपसे विदा लेता हूं अगली पोस्ट तक के लिये. 

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