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30.9.08

युद्ध ज़रूरी है.....

"कुरान " में गीता में रामायण में
सभी में लिखा है -युद्ध ज़रूरी है ?
जी हाँ युद्ध ज़रूरी है लगातार ज़रूरी है
कितनी भी संकरीं क्यों न हो
इस ज़रूरी जंग में
विचारों की सेना इन्हीं गलियों से निकलें
यहीं से शुरू होगा युद्ध
दिलों को जीतने का
हताशा के रीतने का
"कबीर" से पूछो युद्ध के लिए
साखियाँ कितनी ज़रूरी हैं
युद्ध के लिए कितना ज़रूरी है जुड़ना
सारथि भी कृष्ण का सा सर्वहारा हो
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कुछ भी अन्तिम सत्य नहीं है
तो युद्ध ही क्यों .....?
धर्म-युद्ध,
युद्ध-धर्म
की परिभाषा जाने बगैर हम युद्ध रत क्यों
युद्ध ही ज़रूरी है
तो चलो बचपन
किसी बचपन के आँसू पौंछें
किसी जवानी की सिसकन को रोकें

16.9.08

चलो इश्क की इक कहानी बुनें


हंसी आपकी आपका बालपन
देख के दुनिया पशीमान क्यो...?

रूप भी आपका,रंग भी आपका
फ़िर दिल हमारा पशीमान क्यों।

निगाहों की ताकत तुम्हारी ही है
इस पे मेरी ये आँखें निगाहबान क्यों..?
तुम यकीनन मेरी हो शाम-ए-ग़ज़ल
इस हकीकत पे इतने अनुमान क्यों ?
चलो इश्क की इक कहानी बुनें
जान के एक दूजे को अंजान क्यों ?

14.9.08

अमिय पात्र सब भरे भरे से ,नागों को पहरेदारी











अमिय पात्र सब भरे भरे से ,नागों को पहरेदारी
गली गली को छान रहें हैं ,देखो विष के व्यापारी,
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मुखर-वक्तता,प्रखर ओज ले भरमाने कल आएँगे
मेरे तेरे सबके मन में , झूठी आस जगाएंगे
फ़िर सत्ता के मद में ये ही,बन जाएंगे अभिसारी
..................................देखो विष के व्यापारी,
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कैसे कह दूँ प्रिया मैं ,कब-तक लौटूंगा अब शाम ढले
बम से अटी हुई हैं सड़कें,फैला है विष गले-गले.
बस गहरा चिंतन प्रिय करना,खबरें हुईं हैं अंगारी
..................................देखो विष के व्यापारी,
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लिप्सा मानस में सबके देखो अपने हिस्से पाने की
देखो उसने जिद्द पकड़ ली अपनी ही धुन गाने की,
पार्थ विकल है युद्ध अटल है छोड़ रूप अब श्रृंगारी
..................................देखो विष के व्यापारी,

12.9.08

आस्तीन के साँपों को भी सूंघ गए साँप

तस्वीर उसने मेरी बनाई कुछ इस तरह
हर आदमी मेरे शहर मुझसे दूर था
आस्तीन के साँपों को भी सूंघ गए साँप
उनको भी मुझसे ज़ल्द छिटकना कुबूल था
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वो मुझसे दौड़ में हारा हुआ जो था
वो हार की चुभन का मारा हुआ जो था
वो शख्स जो आइना दिखाता रहा मुझे
मुझको उसका ऐसा बालपन कुबूल था
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2.9.08

सुबह,-"सुबह" उदास सी

जो जिया वो प्रीत थी ,अनजिया वो रीत है
शब्द भरम को तोड़ दे ,वोही तो मेरा गीत है
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प्रीत के प्रतीक पुष्प -माल मन है गूंथता
भ्रमर बागवान से -"कहाँ है पुष्प ?" पूछता !
तितलियाँ थीं खोजतीं पराग कण
पुष्प वेणी पे सजा उसी ही क्षण ,!
कहो ये क्या प्रीत है या तितलियों पे जीत है…….?
शब्द भरम को तोड़ दे ,वोही तो मेरा गीत है !
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सुबह,-"सुबह" उदास सी,उठी विकल पलाश सी
चुभ रही थी वो सुबह,ओस हीन घास सी
हाँ उस सुबह की रात का पथ भ्रमित सा मीत है
शब्द भरम को तोड़ दे ,वोही तो मेरा गीत है !
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तभी तो हम हैं हम ज़बाँ को रात में तलाशते
मिल गए तो खुश हुए,मिले न तो उदास से
यही तो जग की रीत है हारने में जीत है
शब्द भरम को तोड़ दे ,वोही तो मेरा गीत है !
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27.7.08

तुमको सोने का हार दिला दूँ










सुनो प्रिया मैं गाँव गया था
भईयाजी के साथ गया था
बनके मैं सौगात गया था
घर को हम दौनों ने मिलकर
दो भागों मैं बाँट लिया था
अपना हिस्सा छाँट लिया था
पटवारी को गाँव बुलाकर
सौ-सौ हथकंडे आजमाकर
खेत बराबर बांटे हमने
पुस्तैनी पीतल के बरतन
आपस मैं ही छांटे हमने
फ़िर खवास से ख़बर बताई
होगी खेत घर सबकी बिकवाई
अगले दिन सब बेच बांच के
हम लौटे इतिहास ताप के
हाथों में नोट हमारे
सपन भरे से नयन तुम्हारे
प्लाट कार सब आ जाएगी
मुनिया भी परिणी जाएगी
सिंटू की फीस की ख़ातिर
अब तंगी कैसे आएगी ?
अपने छोटे छोटे सपने
बाबूजी की मेहनत से पूरे
पतला खाके मोटा पहना
माँ ने कभी न पहना गहना
चलो घर में मैं खुशियाँ ला दूँ
तुमको सोने का हार दिला दूँ

=>गिरीश बिल्लोरे मुकुल

[निवेदन:इस कविता के साथ लगी फोटो पर जिस किसी को भी आपत्ति सत्व के कारण हो तो कृपया तत्काल बताइए ताकी वैकल्पिक व्यवस्था की जावे सादर:मुकुल ]

12.3.08

"माँ,मैं तेरी सोनचिरैया...!"

जबलपुर की कवयत्री प्रभा पांडे"पुरनम" की कृति,माँ मैं तेरी सोनचिरैया


का
विमोचन,09।02.2008. को होम साइंस कालेज , जबलपुर में हुआ

10.2.08

इस सप्ताह वसंत के अवसर पर मेरी भेंट स्वीकारिए

पूर्णिमा वर्मन ने अनुभूति में सूचीबद्ध कर लिया है है उनका आभारी हूँ । अनुभूति अभिव्यक्ति वेब की बेहतरीन पत्रिकाएँ है इस बार के अंक में भी हें मेरी उपस्थिति इस तरह दोहों में-
डॉ. गोपाल बाबू शर्मा
राजनारायण चौधरी
गिरीश बिल्लोरे मुकुल बस एक चटका लगाने की देर है॥
नीचे चटका लगा के मुझ से मिलिए
गिरीश बिल्लोरे ''मुकुल''

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