तुमको सोने का हार दिला दूँ










सुनो प्रिया मैं गाँव गया था
भईयाजी के साथ गया था
बनके मैं सौगात गया था
घर को हम दौनों ने मिलकर
दो भागों मैं बाँट लिया था
अपना हिस्सा छाँट लिया था
पटवारी को गाँव बुलाकर
सौ-सौ हथकंडे आजमाकर
खेत बराबर बांटे हमने
पुस्तैनी पीतल के बरतन
आपस मैं ही छांटे हमने
फ़िर खवास से ख़बर बताई
होगी खेत घर सबकी बिकवाई
अगले दिन सब बेच बांच के
हम लौटे इतिहास ताप के
हाथों में नोट हमारे
सपन भरे से नयन तुम्हारे
प्लाट कार सब आ जाएगी
मुनिया भी परिणी जाएगी
सिंटू की फीस की ख़ातिर
अब तंगी कैसे आएगी ?
अपने छोटे छोटे सपने
बाबूजी की मेहनत से पूरे
पतला खाके मोटा पहना
माँ ने कभी न पहना गहना
चलो घर में मैं खुशियाँ ला दूँ
तुमको सोने का हार दिला दूँ

=>गिरीश बिल्लोरे मुकुल

[निवेदन:इस कविता के साथ लगी फोटो पर जिस किसी को भी आपत्ति सत्व के कारण हो तो कृपया तत्काल बताइए ताकी वैकल्पिक व्यवस्था की जावे सादर:मुकुल ]

टिप्पणियाँ

रचना बहुत सत्यता के धरातल पर रची रचना बौत सुन्दर बन पढी है।बधाई।
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Anil Pusadkar ने कहा…
badhayi.bahut saadgi se sach kah diya aapne.bantwaare ko likhne ki maine bhi koshish ki par wo itni prabhavi nahi.kabhi fursat mile to aayeiga mere blog par.gaon ke sach ko samne laane ka pryaas tha
शोभा ने कहा…
बहुत सुन्दर लिखा है। एक भावपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए बधाई।
राज भाटिय़ा ने कहा…
मां बाप कॊ नही बाटां, दोनो के आधे आधे टुकडे कर लॊ या फ़िर एक मां को ले ले एक बाप को,
आप की कविता ने मुझे एक सच्ची कहानी याद दिला दी,
हम ओर हमारी भावनये दिन पर दिन क्यो मर रही हे, बहुत सुन्दर कविता हे, धन्यवाद
परमजीत बाली जी ,अनिल पुसदकर जी ,शोभा दी ,राज भाटिय़ा साहब
सबका शुक्रिया

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