11.9.12

सत्य




ओह सत्य
जब जब तुम 
बन जाते लकीर 
तब बेड़ियों से जकड़ लेते हैं
तुमको...
जकड़ने वाले...!!
हां सच.. जब तुम गीत बन के 
गूंजते हो तब
हां.. तब भी 
लोग 
कानों में फ़ाहे 
ठूंसकर
खुर्द-बुर्द होने के गुंताड़े में 
लग जाते हैं.
हां सत्य 
जब भी तुमने मुखर होना चाहा
तब तब 
ये 
बिखरने से भयातुर 
दैत्याकार 
नाक़ाम कोशिशें करतें 
जब जब तुम प्रखर होते तब तब ये 
अपने अपने आकाशों से 
से आ रही तेजस्वी धूप को 
टेंट-कनातों से रोकते 
कितने मूर्ख लगते है न ..
सत्य ..!!  


1 टिप्पणी:

दिगम्बर नासवा ने कहा…

सत्य का तेज ... उसकी महक ... उसकी चमक सहना आसान नहीं होता ... बहुत ही प्रभावी रचना ...

Wow.....New

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