28.5.11

समापन किस्त : कुत्ते भौंकते क्यों हैं...?


मिसफ़िट पर पिछली पोस्ट में आपने बांचा 
(इस वाक़ये से एक चिंतन का दरवाज़ा खुलता है. वो दरवाज़ा जो हमारे मन में पनप रहे कुत्तावृत्ति का परिचय देगा सोचते रहिये यही सोचेंगे जो मै लिख रहा हूं)
चित्र क्रमांक 01
कुत्तावृत्ति का प्रमुख परिचय भौंक है, जिसका अर्थ आप सभी बेहतर तरीके से जानते हैं. जिसका क्रिया रूप "भौंकना" है. भौंक एक तरह से  आंतरिक-भयजन्य   आवेग का समानार्थी भाव है. जो आत्म-रक्षार्थ प्रसूतता है. अब बांये चित्र में ही देखिये ये चारों लोग जो मयकश जुआरी हैं नशा आते ही इनके चिंतन पर हावी होगा भय. कहीं मैं हार न जाऊं.और दूसरे को हारता देख खुश होंगे खुद को हारने का भय भी होगा.. फ़िर टुन्न होकर अचानक चिल्लाने लगेंगे ध्यान से सुनने पर आप को साफ़ तौर पर  कुत्तों के लड़ने की ही  आवाज़ आएगी. 
     जब आप कभी अपने आपको आसन्न खतरे से बचाना चाहते हैं तो आप बचाने के राह खोजने से पहले आप चीखेंगे अपना चेहरा देखना तब कुत्ते सा ही लगेगा आपको.मेरे एक परिचित हैं जिनकी आवाज़ वैसे ही गूंजती है जैसे  देर रात मोहल्ले में कुत्तों के सामूहिक भौंक काम्पिटिशन चलता है. 
चित्र क्रमांक 02
हां एक बात और हाथी के बहुत करीब आकर कुत्ते कभी नहीं भौंकते दूर से भौंकते हैं . कारण साफ़ है हाथी कद काठी ताकत वाकात में सबका बाप जो होता है. 
घरेलू किस्म के कुत्तों में सबसे कायर कुत्ता पामेरियन नस्ल का होता है ससुरा खतरे की ओर मुंह करके पीछे खिसक-खिसक के   भौंकता है. ऐसी वृत्ति सरकारी गैर सरकारी संस्थानों में कार्यरत व्यक्तियों में देखी जा सकती है. 
                   घरेलू कुत्तों में एक आदत ये होती है-कि उनके भोजन करते वक्त कोई भूल से भी उसके पास आए तो मानिए गुर्राहट तय है जो बाद में भौंक में बदल जाती है.उसे लगता है पास आने वाला उसके आहार को खाएगा .   
(सारे चित्रों के लिए गूगल बाबा का  आभार इन पर किसी का भी  कोई अधिकार हो तो बताएं)     

27.5.11

कुत्ते भौंकते क्यों हैं...?


अवधिया जी ने आलेख के लिये भेजा है इसे 
उस्ताद – जमूरे, ये क्या है..?
जमूरा-    कुत्ता... उस्ताद...कुत्ता...!
उस्ताद – कुत्ता हूं ?  नमकहराम
जमूरा -   न उस्ताद वो कुत्ता  है पर आप नमक...
 उस्ताद – क्या कहा ?
जमूरा -   पर आप नमक दाता !
उस्ताद – हां, तो बता कुत्ता क्या करता है..?
जमूरा -   ... खाता है..?
उस्ताद –  क्या खाता है ?
जमूरा -    उस्ताद , हड्डी  और और क्या..!
उस्ताद –  मालिक के आगे पीछे क्या करता है
जमूरा -   टांग उठाता के
उस्ताद –  क्या बोल  बोल जल्दी बोल
जमूरा -   सू सू और क्या ?
उस्ताद – गंवार रखवाली  करता है, और क्या  
जमूरा -   पर उस्ताद, ये भौंकता क्यों है.......
उस्ताद :- जब भी इसे मालिक औक़ात समझ में आ जाती है तो भौंकने लगता है.
जमूरा  :- न उस्ताद, ऐसी बात नही है..
 उस्ताद :- तो फ़िर कैसी है ?
जमूरा  :-  उस्ताद तो आप हो आपई बताओ
उस्ताद :-  हां, तो जमूरे कान खोल के सुन – जब उसके मालिक पर खतरा आता है  तब भौंकता है
जमूरा  :-   न, कल आप खुर्राटे मार रए थे तब ये भौंका  
उस्ताद :-   तो,
जमूरा  :-  तो ये साबित हुआ कि उसकी भौंक इस कारण नहीं निकलती  
उस्ताद :- तो किस वज़ह से निकलती है. कोई वो खबरिया चैनल है जो जबरिया  
             ही ?
जमूरा  :- वेब कास्टर  भी तो नहीं है जो दिन भर ?
उस्ताद :- तो तू ही बता काहे भौंकता है कुत्ता बता
जमूरा  :-  सही बताऊंगा तो
उस्ताद :-  तो क्या होगा ?
जमूरा  :-  तुम मेरी बात अपने मूं से उगलोगे !
उस्ताद :-   तो क्या , उस बात की रायल्टी लेगा,
जमूरा  :-   न, तुमको ऐलानिया बोलना होगा कि ये बात “जमूरे” ने बताई है.
उस्ताद :-  बोलूंगा
जमूरा  :-  तो सुनो जब कुत्ता डरता है तब वो भौंकता है समझे उस्ताद !
उस्ताद :-  हां,समझा
          उस्ताद और जमूरे के बीच का संवाद में दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक  तत्व के शामिल होते ही सम्पूर्ण कुत्ता-जात में तहलका मच  गया. इधर ब्लॉगजगत ने त्वरित आलेखन चालू किया अवधिया जी की राय है कि :-"
संसार में भला ऐसा कौन है जिसके भीतर कभी बदले की भावना न उपजी हो ? मनुष्य तो क्या पशु-पक्षी तक के भीतर बदले की भावना उपजती है। यही कारण है कि कुत्ता तक कुत्ते पर और कभी कभी इन्सान पर भी गुर्राने लगता है।"   

प्रवक्ता पर  गिरीश पंकज जी से साभार 
                उधर अखिल भारतीय कुत्ता परिषद में उनके नेता ने कहा :- वीर कुत्तो, हमारी प्रज़ाती को एक मक्कार  ज़मूरे ने "डरपोक" कहा है.  धर्मेंदर की उमर देख के हमने माफ़ किया , पर न केवल जमूरा वरन  हम सब इन्सानों को बता देना चाहते हैं कि अब हम किसी भी इन्सान को अपना मुंह न चाटने देंगे. 
एक एक आदमी को इतना काटेंगे कि सारे रैबीज खत्म हो जाएं 


24.5.11

अभिव्यक्ति ने छापा मेरा व्यंग्य : उफ ! ये चुगलखोरियाँ


मुझे उन चुगली पसन्द लोगों से भले वो जानवर लगतें हैं
जो चुगलखोरी के शगल से खुद को बचा लेते हैं। इसके बदले वे जुगाली करते हैं। अपने आप को श्रेष्ठ साबित करने वालों को आप किसी तरह की सजा दें न दें कृपया उनके सामने केवल ऐसे जानवरों की तारीफ जरूर कीजिये। कम-से-कम इंसानी नस्ल किसी बहाने तो सुधर जाए। आप सोच रहे होंगेंमैं भी किसी की चुगली कर रहा हूँसो सच है परन्तु अर्ध-सत्य है !
मैं तो ये चुगली करने वालों की नस्ल से चुगली के समूल विनिष्टीकरण की दिशा में किया गया एक प्रयास करने में जुटा हूँ। अगर मैं किसी का नाम लेकर कुछ कहूँ तो चुगली समझिये। यहाँ उन कान से देखने वाले लोगों को भी जीते जी श्रद्धांजलि अर्पित करना चाहूँगा जो गांधारी बन पति धृतराष्ट्र का अनुकरण करते हुए आज भी अपनी आँखे पट्टी से बांध के कौरवों का पालन-पोषण कर रहें हैं। सचमुच उनकी ''चतुरी जिन्दगी`` में मेरा कोई हस्तक्षेप कतई नहीं है और होना भी नहीं चाहिए ! पर एक फिल्म की कल्पना कीजिएजिसमें विलेन नहीं होहुजूर फिल्म को कौन फिल्म मानेगा अपने आप को हीरो-साबित करने के लिए मुझे या मुझ जैसों को विलेन बना के पहले पेश करते हैं। फिर अपनी जोधागिरी का एकाध नमूना बताते हुये यश अर्जित करने के मरे जाते हैं।
ऐसा हर जगह हो रहा है हम-आप में ऐसे अर्जुनों की तलाश हैजो सटीक एवं समय पे निशाना साधे हमें चुगलखोरी को दुनियां से नेस्तनाबूत जो करना है आईए हम सब एकजुट हो जाएँ- इन चुगलखोरों के खिलाफ!
''चुगलीका बीजारोपण माँ-बाप करते हैं- अपनी औलादों में बचपने से-एक उदाहरण देखें, ''क्यों बिटियाशर्मा आंटी के घर गई थी``, ''हाँ मम्मी शर्मा आंटी के घर कोई अंकल बैठे थे``
अब 'अंकल और शर्मा आंटीके बीच फ्रायडी-विजन से देखती मैडम अपनी पुत्री से और अधिक जानकारी जुटाने प्रेरित किया जाओ अंकल का इतिहासउनकी नागरिकताउनका भूगोल पता लगाओ और यहीं से शुरू होता है चुगलखोरी का पहला पाठ।
इसमें केवल माँ ही उत्तरदायित्व निभाती है- ये भी एक अर्द्धसत्य है। पूर्ण सत्य यह है कि ''चुगलखोरी के कीड़े के वाहक पिता भी हुआ करते हैं``
हमें ''पल्स पोलियो`` अभियानों की तरह ''चुगलखोरी उन्मूलन अभियान`` चलाने चाहिए।
शासकीय कार्यालयों में इस अभियान के चलाने की बेहद जरूरत है।
मेरे दृष्टिकोण से आप सभी एकजुट होकर इस राष्ट्रीय अभियान को अपना लीजिए। अभियान के लिये-उन एन.जी.ओ. का सहयोग जुटाना न भूलेंजो अपने संगठनों के कार्यो की श्रेष्ठता सिद्ध करने दूसरों की (विशेषकर सरकारी सिस्टम की) चुगली करते हर फोरम पे नज़र आते हैं।
मित्रों! साहित्यसंस्कृतिकलाव्यापाररोजिया चैनलआदि सभी क्षेत्रों को लक्ष्य बनाकर हमें चुगली से निज़ात पानी है। और हाँ जो चुगलियाँ गाँव से शहर के दफ्तरों में साहबों के पास लाई जातीं हैं। उनके वाहक भी हमारे प्रमुख लक्ष्य होने चाहिए।
मेरे दफ्त़र में आकर चुगली करने वाला पवित्र धवल लिबास में आया वो व्यक्ति मुझे अच्छी तरह याद हैजो मेरे मातहत गाँव में काम करने वाली कर्मचारी से रूष्ट था।
उसकी विजय हुई यह जानकार कि मैं उसकी ''शिकायत उर्फ चुगली`` पर ध्यान दूँगा।
स्वयं गाँव का भ्रमण करने पर पाया कि 'धवल से पवित्र वस्त्र पहनने वाले व्यक्ति के अलावा सारा गांव उस विधवा महिला को देवी की तरह पूजता है और यही उसकी चुगली का मूल कारण है। कारण जो भी हो- चुगली एक खतरनाक रोग है। यदि इसे आप पनपने नहीं देना चाहते ''एण्टी-चुगली-ड्राप`` की दो बूंदे अवश्य देनी होगी।
कैसे पिलाएँ चुगली की दो बूंदे-''सबसे पहले लक्ष्य को पहचानेंउसे कांफिडेन्स में लें`` और उसका मुँह खुलवाएँ। बेहतर ढंग से सुने। जिसकी चुगली की जा रही है-उसे उसके सामने ले आएँ। फिर हौले से चुगलखोर की कही बातों में से दो बातें बूँदों की तरह सार्वजनिक करने की शुरूआत करें।``
इससे चुगलखोर के वस्त्र स्वयम् ही ढीले पड़ने लगेंगें। हाथ पाँव का फूलनासर झुका लेनामाथा पकड़ना या हड़बड़ाकर ''हाँ...हाँ...हाँ....नहीं...नहीं..`` की रट लगाना बीमारी की समाप्ति के सहज लक्षण होते हैं।
मित्रोंदफ्तरों मेंबैठकों मेंफोरमस् मेंइस प्रयोग को करने से बड़े-बड़े की चुगलखोरों की चुगलखोरी का अंत सहज ही हो जाता है। चुगली कमीने पन गुप का जीवाणु हैजिसने कईयों को तख्त से उठा फेंका है। इसका वाहक बेहद मीठाआकर्षकप्रभावशाली व्यतित्व वाली मानवीय काया का धारक हो सकता है। चुगली को कानूनी जामा भी पहनाया गया है।
सियासत का तो मूलाधार है ये। जहाँ सौभाग्यशाली लोगों को इससे बच सकने का मौका मिलता है। क़मोबेस सभी इस ''चुगली`` के शिकार हो ही जाते हैं। उधर समाजी रिवायतों की तो मत पूछिए - ''चुगली के बिना संबंध बनते ही नहीं। रहा तंत्र का सवाल सो - ''चुगली को शासन के हित में जारी सूचना की शक्ल में पेश करने वाले अधिकारी कर्मचारीसफल एवं श्रेष्ठ समझे जाते हैं।
सुधिजनोंअगर एक बार हिम्मत दिखा दी जावे तो सैकड़ों चुगली से प्रभावित ''जीव`` सुरक्षित हो जाऐगें।
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यह आलेख उन चुगलखोर अधिकारीयों कर्मचारियों को समर्पित है जिनका गुज़ारा चुगलियों के बिना नहीं हो पाता .
  1.  

22.5.11

किसी को धोखा देते वक़्त अक्सर विजेता होते हैं...धोखेबाज़


साभार : जागरण जंक्शन

           अक्सर धोखा देने षड़यंत्र के जाल बुनने वाले अचानक किसी से धोखा खाते हैं तब मढ़ा करते हैं दूसरों पर धोखे बाज़ी के इल्ज़ाम . इन्सानी  फ़ितरत अज़ीब है मेरा एक मित्र कहता है :-"प्राकृतिक-न्याय से कोई नहीं बचता" धोखा देना क्रूरता का पर्याय ही तो है. सियासत कुछ इस तरह हावी है हमारे जीवन क्रम पर कि हम हमेशा दूसरों को हराने की प्रवृत्ति के भाव से भरे पड़े हैं. किसी की जीत को नकारात्मक भाव से देखना या यूं कहूं कि किसी की जीत में अपनी पराजय का एहसास करना आज़ का  जीवन-दर्शन बन चुका है. सभ्य समाज समय के उस मोड़ पर आ चुका है जहां से अध्यात्मिक-चेतनाएं असर हीन हो गईं हैं .गाहे बगाहे सभी किसी न किसी  धोखे का शिकार होते हैं.कौन कितना पावन है कहना मुश्किल है. मुझे तो मालूम है कि मेरी आस्तीनों में धोखे़बाज़ भरे पड़े हैं आप भी इस मुग़ालते में न रहना कि आप के इर्द गिर्द वाले सभी अपने हैं.
    ईसा मसीह सबसे अच्छा उदाहरण हैं , सियासत में तो अटे पड़े हैं उदाहरण पर इनका ज़िक्र ज़रूरी नहीं क्यों कि धोखा सियासत का मूलभूत तत्व है. 
   हां चलते चलते एक बात याद आ रही है  आमजीवन को धोखा देते लोग हमेशा ज़रूरत मंद हों यह ज़रूरी नहीं आप जानते हो आपको धोका दे रही है सियासत,व्यवसायिकता,और धर्म के स्वयम्भू अगुए... ये सारे के सारे आपके पीछे अदृश्य सलीब लिये फ़िर रहें हैं कभी कभार इनको गौर से देखना ज़रूरी है.         
          

21.5.11

क्या करें हो ही गई ललित शर्मा जी से मुठभेड़


_________________________


कार्यक्रम वाले दिन यानी 30 अप्रैल 2011  अल्ल सुबह घर  से निकला किंगफ़िशर जनता फ़्लाईट में नाश्ता-वास्ता लिये  बिना सोचा था कि   उधर यान बालाएं खाने पीने को पूछेंगी ही सो  श्रीमति जी की एक न मानी. अब ताज़ा हसीन ताज़ा तरीन चेहरे वाली व्योम बालाओं  के हाथों से खाऊंगा सोचकर सतफ़ेरी अर्धांगिनी की न मानना महंगा पडेगा इस बात का मुझे इल्म न था. 

ट्राली लेकर पधारीं  दो लावण्य मयी व्योम-बालाओं  में से एक बोली : आप मीनू अनुसार आर्डर कीजिये 
वेज़ सेण्डविच..?
न, नहीं है सर 
तो साल्टी काज़ू ही दे दो काफ़ी भी देना, काफ़ी के साथ दो जोड़ा बिस्किट फ़्री मिले. 
नाश्ता आते आते पड़ोसी से दोस्ती हो गई थी. उनको गुज़रात जाना था. समीपस्थ  सिवनी नगर  के व्यापारी थे जो अपने जीजा जी के अत्यधिक बीमार होने की खबर सुन के रातों रात जबलपुर आए थे. यात्रा के दौरान पनपी मित्रता का आधार उनका पहली बार का विमान यात्री होना तो था मेरा आकर्षण वो इस कारण बने क्योंकि उनके पास तम्बाखू मिश्रित जबलपुरिया गुटखे का भण्डार पर्याप्त था. न भी होता तो मै मित्र अवश्य बना लेता ... बात चीत तो करनी ही थी.  
          नाश्ता करकुरा के हम दौनों ने पारस्परिक यात्रा प्रयोजनों के कारण की एक दूजे से पता साजी की फ़िर  सामयिक विषयों विषयों जैसे भ्रष्टाचार,मंहगाई, आदि पर संवाद किये. तभी एक संदेश गूंजा जिससे साबित हुआ दिल्ली दूर नहीं. 
       एयर पोर्ट पर वादा करके मियां महफ़ूज़ न आ सके कारण जो भी हो ललित बाबू की बात सही निकली कि "यात्रा में खुद पे भरोसा करो वादों पे नहीं !!" 

 
        (आगे इधर से यानी भारत-ब्रिगेड पर )

19.5.11

विधवाओं के सामाजिक धार्मिक सांस्कृतिक अधिकारों को मत छीनो


एडवोकेट दिनेश राय द्विवेदी जी के ब्लाग
तीसरा खम्बा से आभार सहित  
साभार "जो कह न सके ब्लाग से "

                   विधवा होना कोई औरत के द्वारा किया संगीन अपराध तो नहीं कि उसके सामाजिक और धार्मिक अधिकारों से वंचित किया जाए.अक्सर शादी विवाहों में देखा जाता है कि विधवा की स्थिति उस व्यक्ति  जैसी हो जाती है जिसने कोई गम्भीर अपराध किया हो. जैसे तैसे अपने हौसलों से अपने बच्चों को पाल पोस के सुयोग्य बनाती मां को शादी के मंडप में निभाई जाने वाली रस्मों से जब वंचित किया जाता है तब तो स्थिति और भी निर्दयी सी लगती है. किसी भी औरत का विधवा होना उसे उतना रिक्त नहीं करता जितना उसके अधिकारों के हनन से वो रिक्त हो जाती है. मेरी परिचय दीर्घा में कई ऐसी महिलाएं हैं जिनने अपने नन्हें बच्चों की देखभाल में खुद को अस्तित्व हीन कर दिया. उन महिलाओं का एक ही लक्ष्य था कि किसी भी तरह उसकी संतान सुयोग्य बने. आखिर एक भारतीय  मां को इससे अधिक खुशी मिलेगी भी किस बात से.  दिवंगत पति के सपनों को पूरा करती विधवाएं जब अपने ही बच्चों का विवाह करतीं हैं तब बेहूदी सामाजिक रूढि़यां उसे मंडप में जाने से रोक देतीं हैं. जब बच्चों को वो सदाचार का पाठ पढ़ाते हुए योग्य बना रही होतीं हैं ये विधवा माताएं तब कहां होते हैं सामाजिक क़ानून के निर्माता जो ये देख सकें कि एक नारी पिता और माता दौनों के ही रूप में कितना सराहनीय काम कर रही है. वे औरतें जो "सधवा" होने के नाम पर विधवा माताओं को मंडप से परे ढकेलतीं हैं क्या कभी उनकी सोच में आता है कि किसी "नारी" के प्रति अपराध कर रहीं हैं वो..? नहीं ऐसा शायद ही कोई सोचती होगी. 
                               पाखण्ड भीरू समाज के पुरुष विधवा नारी को जिस नज़रिये से देखतें हैं इस बात पर गौर कीजिये तो पाएंगे कि बस शोषण के लिये तत्पर कोई भयावह रूप नज़र आएगा आपको. कम ही लोग होंगे जो विधवा नारी के सम्मान को बनाए रखने सहयोगी हों, कम ही होंगे जो उसके सामाजिक धार्मिक सांस्कृतिक अधिकारों को बचाना चाहते हैं. हम में से कई तो ऐसे भी हैं जो आज़ के बदलते परिवेश में विधवा को सफ़ेद कपड़ों में  ही देखना चाहते हैं. मेरी दादी मेरी समझ विकसित होने से पहले चल बसी वरना उस दौर में उनके बाल मुंडवाने का विरोध अवश्य करता. शायद नाई को लताड़ता भी. मुझे कुछ कुछ याद है सत्तर पचहत्तर बरस की बूड़ी दादी मां के सर से बाल मुंडवाए जाते थे . दादी मां खुद भी ऐसा चाहतीं थीं. परंतु अब ऐसी  स्थिति कम ही देखने को मिलती है. सामाजिक परिस्थितियों में  बदलाव आ रहा है  पर सामाजिक-सोच में बदलाव नहीं आया है. आज़ भी विधवा के अधिकारों के मामले में सामाजिक स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया है. खासकर मध्य वर्ग जिस अधकचरे चिंतन से गुंथा है उससे निकलना ही होगा. 
     मुझे नहीं लगता भारतीय सामाजिक व्यवस्था में तब तक विधवा महिला को उसके सामाजिक धार्मिक सांस्कृतिक अधिकार हासिल नहीं होंगे जब तक कि घर के बच्चे खुद पूरी ताक़त से इस अधिकारों की रक्षा के लिये आगे न आएंगें .     

16.5.11

बुद्ध मुस्कुराए थे उस दिन याद है न ?

जी ऐसी ही  मृदुल मुस्कान रही होगी
बुद्ध की 

अटल जी बोले होंगे- कमाल कर दिया आपने 
जवाब में कलाम साहब ने ये कहा होगा :-
 श्रीमान बुद्ध की मुस्कान देखिये 

        बुद्ध मुस्कुराए थे उस दिन 11 मई 1998 को दशकों से बस्ते में बंधा संकल्प अचानक आकार ले लेगा इसका इल्म न था किसी को भी न ही यहां तक कि विश्व के "दादा" को भी नहीं. पोखरण में ये भारत का 18 मई 1974 के 24 बरस बाद  दूसरा परीक्षण था.  फ़िर 13 मई 1998 को पांचवां परीक्षण होते ही भारत परमाणु शक्ति सम्पन्न देश बन चुका था. उस दिन यानी 
 11 मई 1998 को बुद्ध-पूर्णिमा थी.
एक बार बुद्ध के दर्शन को विश्व ने चकित हो स्वीकारा था . चकित तो उस बुद्ध पूर्णिमा पर भी था जब भारत ने पोखरण में परीक्षण किया. कलाम साहब के चेहरे का ओज अटल जी में आत्म विश्वास देखते ही बन रहा था. भारत का एक एक नागरिक जो इस बात को समझता था इतना खुश था गोया उसे कोई खजाना मिल गया हो.  खुश हों भी क्यों न भारत का भाल उजारते इन आईकान्स ने जो भी किया था उस दिन उससे विश्व में भारत नये रूप में उभरने वाला जो था. हुआ भी यही आप देख रहें हैं. जी वो दिन कितना सकारात्मक भाव से भरा था आपको याद होगा ही. तब मन में मलाल न थे ... ज़ेहनों में फ़िज़ूल के सवाल न थे... बस कलाम के कमाल थे . बुद्ध पूर्णिमा थी उस दिन भी. मां भारती का आंचल नेह रस छलका रहा था. वातावरण एक दूसरे पर विश्वासी सम्मान बरसा रहा था. वाह क्या दिन था वो. कब आएगा वापस वैसा दिन पता नहीं पर मै मुस्कुरा रहा हूं उस दिन की याद कर जब बुद्ध मुस्कुराए थे.
बुद्ध जयंती पर हार्दिक शुभकामानाओं सहित 
____________________________________________
अब एक पाडकास्ट जी अर्चना चावजी पूरी तरह स्वस्थ्य हैं इस बात का सबूत देती हुई प्रस्तुति 

15.5.11

बिना छींटॆ-बौछार के रवि रतलामी जी एक समारोह में मुख्य अतिथि जबलपुर आए

अविनाश वाचस्पति
जे का हो गया कह रहे थे कि आप कनाट-प्लेस पे दूकान लेंगें
यह चित्र  राजे_शा  जी के ब्लाग पर है
उनका ब्लाग है "कौन कहता है हंसना मना है..?"
हैं  
मित्रो, मित्राणियो.. 
                 सब को हमारी राम राम वंचना जी . कल रात जब नेट खोला तो रवि रतलामी जी का मेल बांच के खुशी हुई.. समझ तो हम सवेरे ही गये थे जब गौर दादा जी ने अपनी मुंडेर वाला कौआ जो उनके घर की तरफ़ मुंह करके कांव कांव किये जा रहा था को डपट के भगा दिया. और वो कौआ हमारे घर पे आय के कांव कांव करने लगा. हम बोले श्रीमति जी से -’देखो, तुम्हारे मैके का संदेशा लेके आ गया ..!
श्रीमति जी किचिन से बोलीं- ”न, वो आपके किसी ब्लागर मित्र के आने की खबर लाया है. चाय पिओगे, नहा धो लो शनिवार की छुट्टी है हफ़्ते भर की....
अब बताओ भला , ऐसा बो्ल गईं गोया नहाना मेरा साप्ताहिक कार्यक्रम हो. हम चुप रहे सोचा सुबह से उलझे तो शाम तक पता नहीं का गत बने...?
खैर कन्फ़र्म हुआ कि रवि रतलामी ही की गाड़ी विलम्ब से किंतु जबलपुर आ ही गई. उस गाडी़ में बिना छींटॆ-बौछार के रवि भैया  एक समारोह में बतौर प्रशिक्षक एवम मुख्य अतिथि पधार चुके हैं. आपस में कानाफ़ूसी कर हमने टाईम सेट किया शाम चार बजे से साढ़े छै: बजे तक चले कार्यक्रम में हम शहीद-स्मारक प्रेक्षागार में  डाक्टर विजय तिवारी "किसलय" के साथ शामिल हुए जिसे  विजय जी ने अपने थ्री जी सेल फ़ोन से लाइव किया
और प्रोग्राम से फ़ारिग होके हम रवि जी का अपहरण आयोजकों की अनुमति सहमति से कर लिया. और फ़िर देखिये ये सब हुआ यहां

जबलपुर के अखबारों में छाए  रवि रतलामी जी "गिरीश बिल्लोरे का ब्लाग "पर कतरनें मौज़ूद हैं.

डॉ अ कीर्तिवर्धन की कविता : आँख का पानी

आँख का पानी
होने लगा है कम अब आँख का पानी,
छलकता नहीं है अब आँख का पानी|
कम हो गया लिहाज,बुजुर्गों का जब से,
मरने लगा है अब आँख का पानी|
सिमटने लगे हैं जब से नदी,ताल,सरोवर
सूख गया है तब से आँख का पानी|
पर पीड़ा मे बहता था दरिया तूफानी
आता नहीं नजर कतरा ,आँख का पानी|
स्वार्थों कि चर्बी जब आँखों पर छाई
भूल गया बहना,आँख का पानी|
उड़ गई नींद माँ-बाप कि आजकल
उतरा है जब से बच्चों कि आँख का पानी|
फैशन के दौर कि सबसे बुरी खबर
मर गया है औरत कि आँख का पानी|
देख कर नंगे जिस्म और लरजते होंठ
पलकों मे सिमट गया आँख का पानी|
लूटा है जिन्होंने मुल्क का अमन ओ चैन
उतरा हुआ है जिस्म से आँख का पानी|
नेता जो बनते आजकल,भ्रष्ट,बे ईमान हैं
बनने से पहले उतारते आँख का पानी|



डॉ अ कीर्तिवर्धन 09911323732डॉ अ कीर्तिवर्धन, की कविता : आँख का पानी
डा० अ कीर्तिवर्धन


अ कीर्तिवर्धन के ब्लाग :-   
संवाद एवम समंदर  

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धर्म और संप्रदाय

What is the difference The between Dharm & Religion ?     English language has its own compulsions.. This language has a lot of difficu...