विधवाओं के सामाजिक धार्मिक सांस्कृतिक अधिकारों को मत छीनो


एडवोकेट दिनेश राय द्विवेदी जी के ब्लाग
तीसरा खम्बा से आभार सहित  
साभार "जो कह न सके ब्लाग से "

                   विधवा होना कोई औरत के द्वारा किया संगीन अपराध तो नहीं कि उसके सामाजिक और धार्मिक अधिकारों से वंचित किया जाए.अक्सर शादी विवाहों में देखा जाता है कि विधवा की स्थिति उस व्यक्ति  जैसी हो जाती है जिसने कोई गम्भीर अपराध किया हो. जैसे तैसे अपने हौसलों से अपने बच्चों को पाल पोस के सुयोग्य बनाती मां को शादी के मंडप में निभाई जाने वाली रस्मों से जब वंचित किया जाता है तब तो स्थिति और भी निर्दयी सी लगती है. किसी भी औरत का विधवा होना उसे उतना रिक्त नहीं करता जितना उसके अधिकारों के हनन से वो रिक्त हो जाती है. मेरी परिचय दीर्घा में कई ऐसी महिलाएं हैं जिनने अपने नन्हें बच्चों की देखभाल में खुद को अस्तित्व हीन कर दिया. उन महिलाओं का एक ही लक्ष्य था कि किसी भी तरह उसकी संतान सुयोग्य बने. आखिर एक भारतीय  मां को इससे अधिक खुशी मिलेगी भी किस बात से.  दिवंगत पति के सपनों को पूरा करती विधवाएं जब अपने ही बच्चों का विवाह करतीं हैं तब बेहूदी सामाजिक रूढि़यां उसे मंडप में जाने से रोक देतीं हैं. जब बच्चों को वो सदाचार का पाठ पढ़ाते हुए योग्य बना रही होतीं हैं ये विधवा माताएं तब कहां होते हैं सामाजिक क़ानून के निर्माता जो ये देख सकें कि एक नारी पिता और माता दौनों के ही रूप में कितना सराहनीय काम कर रही है. वे औरतें जो "सधवा" होने के नाम पर विधवा माताओं को मंडप से परे ढकेलतीं हैं क्या कभी उनकी सोच में आता है कि किसी "नारी" के प्रति अपराध कर रहीं हैं वो..? नहीं ऐसा शायद ही कोई सोचती होगी. 
                               पाखण्ड भीरू समाज के पुरुष विधवा नारी को जिस नज़रिये से देखतें हैं इस बात पर गौर कीजिये तो पाएंगे कि बस शोषण के लिये तत्पर कोई भयावह रूप नज़र आएगा आपको. कम ही लोग होंगे जो विधवा नारी के सम्मान को बनाए रखने सहयोगी हों, कम ही होंगे जो उसके सामाजिक धार्मिक सांस्कृतिक अधिकारों को बचाना चाहते हैं. हम में से कई तो ऐसे भी हैं जो आज़ के बदलते परिवेश में विधवा को सफ़ेद कपड़ों में  ही देखना चाहते हैं. मेरी दादी मेरी समझ विकसित होने से पहले चल बसी वरना उस दौर में उनके बाल मुंडवाने का विरोध अवश्य करता. शायद नाई को लताड़ता भी. मुझे कुछ कुछ याद है सत्तर पचहत्तर बरस की बूड़ी दादी मां के सर से बाल मुंडवाए जाते थे . दादी मां खुद भी ऐसा चाहतीं थीं. परंतु अब ऐसी  स्थिति कम ही देखने को मिलती है. सामाजिक परिस्थितियों में  बदलाव आ रहा है  पर सामाजिक-सोच में बदलाव नहीं आया है. आज़ भी विधवा के अधिकारों के मामले में सामाजिक स्थिति में कोई खास बदलाव नहीं आया है. खासकर मध्य वर्ग जिस अधकचरे चिंतन से गुंथा है उससे निकलना ही होगा. 
     मुझे नहीं लगता भारतीय सामाजिक व्यवस्था में तब तक विधवा महिला को उसके सामाजिक धार्मिक सांस्कृतिक अधिकार हासिल नहीं होंगे जब तक कि घर के बच्चे खुद पूरी ताक़त से इस अधिकारों की रक्षा के लिये आगे न आएंगें .     

टिप्पणियाँ

Ab pahle jaisi sthiti nahi samajik jagarn huaa hai. nahi ot pahale vidhvayen banaras-mathura me hi apna pura jivan kat deti thi.
सही है ललित जी
पर मेरा इशारा है इतने से काम न चलेगा
उसके उसके सामाजिक धार्मिक सांस्कृतिक अधिकार बहाल रहें
मुझे नहीं लगता भारतीय सामाजिक व्यवस्था में तब तक विधवा महिला को उसके सामाजिक धार्मिक सांस्कृतिक अधिकार हासिल नहीं होंगे जब तक कि घर के बच्चे खुद पूरी ताक़त से इस अधिकारों की रक्षा के लिये आगे न आएंगें .
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यही तो है निचोड़ इस पोस्ट का!
समाधान भी यही है!
परिस्थितियां बदल रही हैं, लेकिन अभी बहुत सुधार आवश्‍यक है। धीरे-धीरे यह भी होगा।
Unknown ने कहा…
आपका यह आलेख साधारण पोस्ट नहीं है इसलिए साधारण टिप्पणी और बधाई वगैरह से काम पूरा नहीं होगा.............आपने एक ऐसे मर्मान्तक विषय को छुआ है जिसकी कसक अनेक बार मेरे मन में भी उठी है .

प्रयास ये होना चाहिए कि ऐसी कुरीतियों और घृणित परम्पराओं के विरुद्ध आपके इस आलेख को ध्वजा बना कर एक वृहत अभियान ब्लॉग जगत द्वारा छेड़ा जाये...........और तब तक आन्दोलन जारी रहे जब तक कि ये जंगली रवायत बन्द न हो जाये.

वैधव्य कोई महिला स्वेच्छा से तो प्राप्त नहीं करती, तो फिर उसका दण्ड उसे क्यों मिले ? दण्ड तो उसे मिलना चाहिए जो उसे विधवा करके चला गया एकाकी जीवन में दुःख पाने के लिए छोड़ कर..........और फिर विधवा ही क्यों ? समाज में विधुर भी तो हैं ...उन्हें कोई मांगलिक कार्यों से दूर क्यों नहीं रखता ?

क्या पुरूष होना कोई ऐसी विलक्षण घटना है जिसका दण्ड सिर्फ़ नारी भोगे...........

चूँकि टिप्पणी ज़्यादा लम्बी हो नहीं सकती इसलिए अभी तो चुप रहूँगा लेकिन आपकी पोस्ट के समर्थन में एक विस्तृत आलेख अवश्य लिखूंगा

आपको बहुत बहुत धन्यवाद इस आलेख के लिए......

-अलबेला खत्री
राज भाटिय़ा ने कहा…
आज भी ऎसा देखने को मिलता हे, यह पढ कर हेरान हुं, वैसे हमारे खानदान मे ऎसा नही एक दो विधवा हे ओर वो पुरे मान सम्मान से रहती हे क्योकि उन का क्या कसूर...धन्यवाद

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