15.5.23

शिक्षा परीक्षा, रुजल्ट पर पत्रकार श्री शम्भूनाथ शुक्ला जी



एक बार अपन ११वीं में लुढ़के और एक बार १२वीं में। क्योंकि साइंस और मैथ्स अपने पल्ले नहीं पड़ती थी। अगर आर्ट्स में होते तो अपन पक्का फर्स्ट क्लास निकल जाते। फिर साइंस से मन उचट गया। लेकिन घर में एक ही रट कि “साइंस नहीं पढ़ी तो क्या घंटा पढ़ा!” 
कुछ दिन पंक्चर जोड़ने की दूकान खोली। नाम रखा, पप्पू पंक्चर। हम गोविंद नगर में CTI के पास बैठते। वहाँ ढाल थी। लोग आते और पंप से हवा ख़ुद भर कर चले जाते। तीन दिन में एक चवन्नी कमाई वह भी खोटी निकली। फिर क़ुल्फ़ी बेची। कुछ में हम टका भरते और पाँच पैसे की बेचते लोगों से कहते कि क़ुल्फ़ी ख़ुद निकालो। दुर्भाग्य कि सारी टका वाली क़ुल्फ़ी ही निकल गईं। पास धेला नहीं आया। फिर बकरमंडी में कार की बैटरी रिचार्ज करने का काम सीखा पर एक दिन छुट्टन मियाँ, जो अपने उस्ताद थे, ने गरम-गरम तारकोल हाथ पर डाल दिया। चमड़ी जल गई। वह भी छोड़ दिया। वहाँ जितना वेतन मिला, उससे बाटा की एक सैंडल ख़रीदी, जो 1973 में 26.99 रुपए की आई थी। इसके बाद दैनिक जागरण में एक बाबू टाइप जॉब निकली, इंटरव्यू के बाद पाया कि किसी अग्र-बाल का चयन हो गया। वेतन 200 रुपए था। तीन साल बाद उसी दैनिक जागरण में मुझे बुला कर सब एडिटर की जॉब दी गई। वेतन 700 रुपए था। 
इसलिए भेड़ की तरह डिग्री लेने से कुछ नहीं होता, बच्चे पर दबाव मत डालो। उसे कुछ मन का करने दो। कम वेतन पाएगा, लेकिन ख़ुश तो रहेगा। हमारे दोस्त लाजपत सेठी के बेटे ने दो-तीन साल पहले एक स्टार्टअप खड़ा किया। आज की तारीख़ में उसका टर्न ओवर 2800 करोड़ का है।
जिनके बच्चे फेल हो गये हों, वे दुःखी न हों। वह हो सकता है उन टॉपर बच्चों से अधिक योग्य निकले, जिनके कल फ़ोटो छपेंगे। न भी निकला तो संतोष करो कि बुढ़ापे में वही श्रवण कुमार बन कर सेवा तो करेगा।

12.5.23

एक सच्चा इंसान : तारेक फतेह

एक सच्चा इंसान : तारेक फतेह
जन्म 20 नवम्बर 1949
कराची, सिंध, पाकिस्तान
मृत्यु 24 अप्रैल 2023 (उम्र 73)
राष्ट्रीयता: कनाडाई
जातीयता: पंजाबी
व्यवसाय- राजनैतिक कार्यकर्ता, लेखक, प्रसारक
तारिक फतेह जी से मेरी ट्विटर पर ही संक्षिप्त बातचीत कुछ ही दिनों पहले शुरू हुई थी अक्सर ट्विटर स्पेस पर उनका मिलना अच्छा लगता था। इतना तो स्पष्ट व्यक्ति कभी भी पाकिस्तान जैसे मुल्क में रह ही नहीं सकता।
वे धर्म के प्रति बेहद तत्व ज्ञानी की तरह थे। और विशेष रुप से पाकिस्तान की जनता के जीवन स्तर उठाने के लिए सतत कोशिशें करते रहे किंतु पाकिस्तान की प्रोआर्मी राज्य प्रबंधन ने उनको ही उठाने के लिए बंदोबस्त कर दिए।
मैं उन पर इसलिए आकर्षित नहीं था कि वे किसी धर्म विशेष के संदर्भ में बात करते हैं बल्कि इस कारण आकर्षित था, क्योंकि  कि वे चाहते थे सांस्कृतिक निरंतरता जब एक सी है तो हमें साथ साथ चलने में क्या आपत्ति है ? 
     सनातनी व्यवस्था के प्रति बेहद सकारात्मक रूप से संवेदनशील थे । 13 अप्रैल से 29 अप्रैल 2023 तक मैं स्वयं परेल मुंबई स्थित ग्लोबल  अस्पताल में आईसीयू में भर्ती था दुनिया में क्या चल रहा है इसकी जानकारी न मिल सकी। बेहद दुख हुआ यह जानकर....
    अनवरत श्रद्धांजलि ओम शांति शांति

11.5.23

केदारनाथ मंदिर : अलौकिक स्थापत्य का नमूना लेखिका पूर्णिमा सनातनी


केदारनाथ मंदिर का निर्माण किसने करवाया था इसके बारे में बहुत कुछ कहा जाता है। पांडवों से लेकर आदि शंकराचार्य तक।
आज का विज्ञान बताता है कि केदारनाथ मंदिर शायद 8वीं शताब्दी में बना था।
यदि आप ना भी कहते हैं, तो भी यह मंदिर कम से कम 1200 वर्षों से अस्तित्व में है।
केदारनाथ की भूमि 21वीं सदी में भी बहुत प्रतिकूल है।
एक तरफ 22,000 फीट ऊंची केदारनाथ पहाड़ी, दूसरी तरफ 21,600 फीट ऊंची कराचकुंड और तीसरी तरफ 22,700 फीट ऊंचा भरतकुंड है।
इन तीन पर्वतों से होकर बहने वाली पांच नदियां हैं मंदाकिनी, मधुगंगा, चिरगंगा, सरस्वती और स्वरंदरी। इनमें से कुछ इस पुराण में लिखे गए हैं।
यह क्षेत्र "मंदाकिनी नदी" का एकमात्र जलसंग्रहण क्षेत्र है। यह मंदिर एक कलाकृति है I कितना बड़ा असम्भव कार्य रहा होगा ऐसी जगह पर कलाकृति जैसा मन्दिर बनाना जहां ठंड के दिन भारी मात्रा में बर्फ हो और बरसात के मौसम में बहुत तेज गति से पानी बहता हो। आज भी आप गाड़ी से उस स्थान तक नही जा सकते I
फिर इस मन्दिर को ऐसी जगह क्यों बनाया गया?
ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में 1200 साल से भी पहले ऐसा अप्रतिम मंदिर कैसे बन सकता है ?
1200 साल बाद, भी जहां उस क्षेत्र में सब कुछ हेलिकॉप्टर से ले जाया जाता है I JCB के बिना आज भी वहां एक भी ढांचा खड़ा नहीं होता है। यह मंदिर वहीं खड़ा है और न सिर्फ खड़ा है, बल्कि बहुत मजबूत है।
हम सभी को कम से कम एक बार यह सोचना चाहिए।
वैज्ञानिक अनुमान लगाते हैं कि यदि मंदिर 10वीं शताब्दी में पृथ्वी पर होता, तो यह "हिम युग" की एक छोटी अवधि में होता।
वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ जियोलॉजी, देहरादून ने केदारनाथ मंदिर की चट्टानों पर लिग्नोमैटिक डेटिंग का परीक्षण किया। यह "पत्थरों के जीवन" की पहचान करने के लिए किया जाता है। परीक्षण से पता चला कि मंदिर 14वीं सदी से लेकर 17वीं सदी के मध्य तक पूरी तरह से बर्फ में दब गया था। हालांकि, मंदिर के निर्माण में कोई नुकसान नहीं हुआ।
2013 में केदारनाथ में आई विनाशकारी बाढ़ को सभी ने देखा होगा। इस दौरान औसत से 375% अधिक बारिश हुई थी। आगामी बाढ़ में "5748 लोग" (सरकारी आंकड़े) मारे गए और 4200 गांवों को नुकसान पहुंचा। भारतीय वायुसेना ने 1 लाख 10 हजार से ज्यादा लोगों को एयरलिफ्ट किया। सब कुछ ले जाया गया। लेकिन इतनी भीषण बाढ़ में भी केदारनाथ मंदिर का पूरा ढांचा जरा भी प्रभावित नहीं हुआ।
भारतीय पुरातत्व सोसायटी के मुताबिक, बाढ़ के बाद भी मंदिर के पूरे ढांचे के ऑडिट में 99 फीसदी मंदिर पूरी तरह सुरक्षित है I 2013 की बाढ़ और इसकी वर्तमान स्थिति के दौरान निर्माण को कितना नुकसान हुआ था, इसका अध्ययन करने के लिए "आईआईटी मद्रास" ने मंदिर पर "एनडीटी परीक्षण" किया। साथ ही कहा कि मंदिर पूरी तरह से सुरक्षित और मजबूत है।
यदि मंदिर दो अलग-अलग संस्थानों द्वारा आयोजित एक बहुत ही "वैज्ञानिक और वैज्ञानिक परीक्षण" में उत्तीर्ण नहीं होता है, तो आज के समीक्षक आपको सबसे अच्छा क्या कहता ?
मंदिर के अक्षुण खड़े रहने के पीछे :
जिस दिशा में इस मंदिर का निर्माण किया गया है व जिस स्थान का चयन किया गया है I
ये ही प्रमुख कारण हैं I 
दूसरी बात यह है कि इसमें इस्तेमाल किया गया पत्थर बहुत सख्त और टिकाऊ होता है। खास बात यह है कि इस मंदिर के निर्माण के लिए इस्तेमाल किया गया पत्थर वहां उपलब्ध नहीं है, तो जरा सोचिए कि उस पत्थर को वहां कैसे ले जाया जा सकता था। उस समय इतने बड़े पत्थर को ढोने के लिए इतने उपकरण भी उपलब्ध नहीं थे। इस पत्थर की विशेषता यह है कि 400 साल तक बर्फ के नीचे रहने के बाद भी इसके "गुणों" में कोई अंतर नहीं है।
आज विज्ञान कहता है कि मंदिर के निर्माण में जिस पत्थर और संरचना का इस्तेमाल किया गया है, तथा जिस दिशा में बना है उसी की वजह से यह मंदिर इस बाढ़ में बच पाया।
केदारनाथ मंदिर "उत्तर-दक्षिण" के रूप में बनाया गया है। जबकि भारत में लगभग सभी मंदिर "पूर्व-पश्चिम" हैं। विशेषज्ञों के अनुसार, यदि मंदिर "पूर्व-पश्चिम" होता तो पहले ही नष्ट हो चुका होता। या कम से कम 2013 की बाढ़ में तबाह हो जाता। लेकिन इस दिशा की वजह से केदारनाथ मंदिर बच गया है।
इसलिए, मंदिर ने प्रकृति के चक्र में ही अपनी ताकत बनाए रखी है। मंदिर के इन मजबूत पत्थरों को बिना किसी सीमेंट के "एशलर" तरीके से एक साथ चिपका दिया गया है। इसलिए पत्थर के जोड़ पर तापमान परिवर्तन के किसी भी प्रभाव के बिना मंदिर की ताकत अभेद्य है।
टाइटैनिक के डूबने के बाद, पश्चिमी लोगों ने महसूस किया कि कैसे "एनडीटी परीक्षण" और "तापमान" ज्वार को मोड़ सकते हैं। 
लेकिन भारतीय लोगों ने यह सोचा और यह 1200 साल पहले परीक्षण किया I
क्या केदारनाथ उन्नत भारतीय वास्तु कला का ज्वलंत उदाहरण नहीं है?
2013 में, मंदिर के पिछले हिस्से में एक बड़ी चट्टान फंस गई और पानी की धार विभाजित हो गई I मंदिर के दोनों किनारों का तेज पानी अपने साथ सब कुछ ले गया लेकिन मंदिर और मंदिर में शरण लेने वाले लोग सुरक्षित रहे I जिन्हें अगले दिन भारतीय वायुसेना ने एयरलिफ्ट किया था।
सवाल यह नहीं है कि आस्था पर विश्वास किया जाए या नहीं। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि मंदिर के निर्माण के लिए स्थल, उसकी दिशा, वही निर्माण सामग्री और यहां तक ​​कि प्रकृति को भी ध्यान से विचार किया गया था जो 1200 वर्षों तक अपनी संस्कृति और ताकत को बनाए रखेगा।
हम पुरातन भारतीय विज्ञान की भारी यत्न के बारे में सोचकर दंग रह गए हैं I शिला जिसका उपयोग 6 फुट ऊंचे मंच के निर्माण के लिए किया गया है कैसे मन्दिर स्थल तक लायी गयी I
आज तमाम बाढ़ों के बाद हम एक बार फिर केदारनाथ के उन वैज्ञानिकों के निर्माण के आगे नतमस्तक हैं, जिन्हें उसी भव्यता के साथ 12 ज्योतिर्लिंगों में सबसे ऊंचा होने का सम्मान मिलेगा।
यह एक उदाहरण है कि वैदिक हिंदू धर्म और संस्कृति कितनी उन्नत थी। उस समय हमारे ऋषि-मुनियों यानी वैज्ञानिकों ने वास्तुकला, मौसम विज्ञान, अंतरिक्ष विज्ञान, आयुर्वेद में काफी तरक्की की थी।

"महाराणा के स्व के लिए भीषण संग्राम और पूर्णाहुति : महाबली हाथी रामप्रसाद"


 इतिहास में प्रचलित पंचांग के अनुसार महा महारथी महाराणा प्रताप की जयंती 9 मई को है परंतु तिथि के अनुसार इस वर्ष 22 मई को मनाई जाएगी।मुगलों के लिए यमराज और हिंदुत्व के सूर्य महाराणा की जयंती के पूर्व आज हल्दीघाटी के युद्ध के एक महायोद्धा - विश्व के सर्वश्रेष्ठ हाथी - महारथी "रामप्रसाद" की याद आ गई। भारतवर्ष सदा से वीरों और वीरांगनाओं की पवित्र भूमि रही है जिसमें विभिन्न प्राणियों ने भी अपनी वीरता के जौहर दिखाए हैं। चतुष्पादों में राणा कर्ण सिंह का घोड़ा शुभ्रक,रानी दुर्गावती का हाथी सरमन, महाराणा प्रताप का हाथी रामप्रसाद और घोड़ा चेतक प्रसिद्ध हैं। यूं तो रामप्रसाद ने महाराणा प्रताप के साथ अनेक युद्ध लड़े थे परंतु हल्दीघाटी का युद्ध रामप्रसाद वीरता का चरमोत्कर्ष था, जो चिरकाल तक अविस्मरणीय रहेगा। 
18 जून को प्रातः हल्दीघाटी में भयंकर मोर्चा खुल गया महाराणा प्रताप के अग्रिम दस्ते ने मुगलों को खमनौर तक खदेड़ा मुगलों में अफरा-तफरी मच गई। पुन:शहजादा सलीम, मान सिंह, सैय्यद बारहा और आसफ खान ने मोर्चा संभाला। शहजादा सलीम और मान सिंह की रक्षार्थ 20 हाथियों ने घेराबंदी कर रखी थी। घेराबंदी तोड़ने के लिए राणा प्रताप ने रामप्रसाद को आगे बढ़ाया अपरान्ह लगभग 12.30 बजे हाथियों का घमासान युद्ध हुआ। शस्त्रों से सुसज्जित रामप्रसाद ने भयंकर रौद्र रुप धारण किया अकबर के 13 हाथियों को अकेले रामप्रसाद ने मार डाला और 7 हाथियों को मोर्चे से हटा दिया गया। इस तरह राणा प्रताप के लिए रामप्रसाद ने शहजादा सलीम और मानसिंह तक पहुंचने का मार्ग खोल दिया। महाराणा प्रताप ने शहजादा सलीम पर भयंकर आक्रमण किया, महावत मारा गया और हौदे पर जबरदस्त भाले का प्रहार किया, शहजादा सलीम नीचे गिर गया जिसे बचाने मान सिंह आया परिणाम स्वरूप मान सिंह की भी वही दुर्गति हुई। शहजादा सलीम और मान सिंह युद्ध भूमि से पलायन कर गए। सैय्यद बारहा और आसफ खां पर राणा पूंजा (पूंजा भील) ने घात लगाकर हमला किया। मुगल सेना हल्दीघाटी से पलायन कर गई और महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी का युद्ध जीत लिया। परंतु दूसरी ओर रामप्रसाद ने शेष हाथियों का पीछा किया और आगे निकल गया परंतु थकान अधिक हो गई थी और महावत भी मारा गया तब 7  हाथियों और 14 महावतों की सहायता से पकड़ा गया। अकबर के इस युद्ध का एक कारण रामप्रसाद हाथी की प्राप्ति भी करना था, परंतु सब व्यर्थ गया अकबर ने इसका नाम पीरप्रसाद रखा और हर प्रकार के मनपसंद खाद्यान्न प्रस्तुत किए परंतु रामप्रसाद ने ग्रहण नहीं किया और इसी अवस्था में 18 दिन बाद रामप्रसाद ने प्राणोत्सर्ग किया। धूर्त अकबर ने स्वयं रामप्रसाद की मृत्यु पर कहा कि "जिसके हाथी को मैं नहीं झुका सका.. उसके स्वामी को क्या झुका सकूंगा"। अंत में यह सत्य ही है कि धन और संपत्ति आएगी भी - जाएगी भी - फिर आएगी, परंतु आत्म सम्मान जाने के बाद कभी लौट कर नहीं आता है। महाराणा प्रताप के स्व के लिए पूर्णाहुति देने वाले महारथी हाथी रामप्रसाद को शत् शत् नमन है
 🙏 🙏 🙏 🙏 🙏
डॉ. आनंद सिंह राणा,श्रीजानकीरमण महाविद्यालय एवं इतिहास संकलन समिति महाकोशल प्रांत 🙏🙏

10.5.23

स्मृतियों के गलियारों दैनिक पुलका महोत्सव


हमें नहीं मालूम था कि डाइनिंग टेबल क्या होता है। परमिशन से ही मिलती थी बिस्तर पर बैठकर खाने की जो बुखार से पीड़ित होता था। और वह भी एक गहन देखरेख में। केवल दो तरह की दवाई चलती थी कम्युनिटी मेडिसिन के नाम पर एपीसी एवं सल्फर बेस्ड ड्रग #सल्फा_डायजिन फिर बीमार हुए जाता तो पहुंच गए अस्पताल।
फल वालों के यहां वही जाते थे जिनके घर में कोई मरीज होता था। दीवान साहब के यहां शाम कुछ लोग चले आए और पूछने लगे:- सुबह जब मैं अदालत जा रहा था तब आपको मैंने साइकिल पर फल वाले से फल लेते हुए देखा कोई बीमार है क्या दादा जी तो ठीक है न?
   हां भाई सब ठीक है पर दादाजी को डॉक्टर ने बताया है की जरा एप्पल वगैरह खिलाओ। 
एप्पल कैसे खिलाते हो छिलके निकाल के?
जी हां बिल्कुल, ठीक है जैसा डॉक्टर कहीं वैसा चलेगा। दादा जी से मिल लिया जाए बहुत समय तक दादा जी के साथ वकील साहब ने वार्तालाप की और फिर इसके बाद शाम के रात में परिवर्तित होने का अनुभव हुआ।
  स्मृतियों के गलियारों में आपको याद होगा स्कूल के लिए निकलने से पहले मां सब बच्चों को एक लाइन से बिठाकर भोजन कराती। एक घर में कम से कम चार से पांच बच्चे हुआ करते थे हम तो 6 भाई-बहन थे। बड़ी बहन सबसे ज्यादा जिम्मेदार और बड़ा भाई सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण माना जाता था इन दोनों की आज्ञा का पालन करना शेष सभी की बाध्यता थी ।
  हां तुम्हें बता रहा था कि हमारे यहां रोज पुलका महोत्सव मनता था। आपके यहां भी मनता होगा है न..?
कटोरियां थालियों और क्रमबद्ध बैठने की नियमावली एवं व्यवस्था  सबको मालूम हुआ करती थी सबसे छोटा बच्चा मां के सबसे नजदीक होता था।
   तब किचन के पास डाइनिंग हॉल का कोई कॉलम नहीं था । सुविधा की दृष्टि से चल फिर की जगह छोड़कर बच्चों को बराबर संख्या में बांट दिया जाता था। बैठक में भोजन पट्टी और  लकड़ी के पाट मान्य थे। हाथ धोना अनिवार्य था घरेलू वस्त्र पहनना अनिवार्य था बाहर के वस्त्र पहनकर कोई खाना नहीं खा सकता था। अपने आराध्य को स्मरण कर भोजन करने की परंपरा वहीं से सीखी है। 
हमारे घर सुबह का रोटी महोत्सव बेहद जोरदार हुआ करता था। 9:30 तक मां बच्चों को आवाज देने लगती थी। कब उठती थी कब सोती होगी इसका हमें कोई अंदाज ना था। यह जब रोटियां यानी पुलके चूल्हे में नाचते थे न बहुत प्यारे लगते थे। तवों पर भी इनका नृत्य अनोखा हुआ करता था।
   घर में लगी हुई या बाजार से मंगाई गई सब्जियां बड़ी स्वादिष्ट हुआ करती थी। मजेदार माहौल तो जब गोभी का सीजन आता था तब बनता था। रसेदार गोभी की सब्जी गोभी की अपनी खुशबू मां के हाथ की अपनी खुशबू अद्भुत वाह खुशबू का विवरण में लिख नहीं सकता। क्योंकि शब्द हीन हो गया हूं। गुड़ तो मेरी कमजोरी थी जैसे खानपान में सबकी अपनी अपनी कमजोरियां । हां एक ऐलान मैंने जरूर किया था अब इस घर में अगर मूंग की दाल बनी तो मैं बिल्कुल घर से भाग जाऊंगा..!
कहां भागोगे?
वहां जहां अच्छी सब्जी बनती हो।
अच्छा तुम कोई बड़े अफसर बन गए या कोई प्रधानमंत्री बन गए तो क्या करोगे मूंग की दाल कभी किसी ने दी तो नहीं खाओगे क्या ?
माता जी मैं प्रधानमंत्री बना तो मूंग की दाल पर प्रतिबंध लगा दूंगा। और फिर सब के ठहाके गूंज उठे। मैं समझ ना पाया क्या कह गया और फिर मैं भी उनकी हंसी में शामिल हो गया।
  सुबह शाम के *पुलका महोत्सव* मनाती वक्त इस बात का माता जी को विशेष ख्याल रहता था कि कौन कितना खाएगा?
   अपनी छोटी बहन से बोला मैंने बिंदु- मैंने आज एक रोटी और लेनी है।
मां ने जब यह सुना तो कहा- रोज थाली में खाना छोड़ना गलत बात है। खाना मत छोड़ा करो।
मुझे उस दिन उतनी ही रोटियां मिली जितनी में खा सकता था। लेकिन मां तो मां होती है न !
  सब्यसाची मां ने मेरे टिफिन में रोटी की संख्या बढ़ा दी। पता नहीं उन लोगों को डाइटिशियन का कोर्स कौन कराता था।
   स्कूल में पहुंचते ही दो की जगह 3 रोटी देखकर बांछें खिल गई। अब मैं रोटी की कीमत समझने लगा था।
   भारत में हजारों लोग शास्त्री जी के आह्वान को अपने मस्तिष्क में बैठा कर रखते थे जिन्होंने दिया था जय जवान जय किसान का नारा। मां भी अन्न की बर्बादी के लिए बेहद दुखी होती थी अंततः मुझ में वह आदत आ ही गई कि कम से कम थाली में कुछ न छोड़ा जाए।
  1966 में ताशकंद समझौते के बाद एक दिन बाबूजी मां सभी बेहद उदास थे वे बहुत देर बाद समझ में आया कि - मितव्ययिता  पाठ पढ़ाने वाले प्रधानमंत्री जी के निधन के कारण वे दुखी हैं।
     यह तब समझ में आया जब लगभग 10 वर्ष के हो गए।
    हमारा दैनिक पुलका महोत्सव जय किसान के बिना संभव न था। कुल मिलाकर सुबह-शाम के पुलका में मिलने वाले आहार की श्रेष्ठता और खुशबू भले ही अभिव्यक्त करना मुश्किल हो मस्तिष्क में रची बसी है। कैसी लगी मेरी स्मृतियां? टिप्पणी जरूर कीजिए
*गिरीश बिल्लौरे मुकुल*

8.3.23

राजनेताओं के लिए गधे कम पड़ गए थे


जबलपुर में रसरंग बरात का अपना 30 साल पुराना इतिहास है। हम भी नए-नए युवा होने का एहसास दिलाते थे। कार्यक्रमों में येन केन प्रकारेण उपस्थिति और उपस्थिति के साथ अधकचरी कविताएं कभी-कभी सुनाने का जुगाड़ हो जाता था।

देखा देखी हमने भी राजनीति पर व्यंग करना शुरू कर दिया.... सफल नहीं रहे....कहां परसाई जी कहां हम.... कहाँ राजा-भोज कहाँ गंगू तेली,,,!

 हमने अपनी कविताएं जेब में रख ली और अभय तिवारी इरफान झांसी सुमित्र जी  मोहन दादा यानी अपने मोहन शशि भैया की राह पकड़ ली। गीत लिखने लगे शशि जी के गीत गीत गीले नहीं होते बरसात में की तर्ज पर अपनी हताशा दर्ज करती गीत मिले हुए अब के बरसात में और ठिठुरते रहे सावनी रात में..! अथवा सुमित्र जी का गीत “मैं पाधा का राज कुंवर हूं...!”

पूर्णिमा दीदी के गीत अमर दीदी के गीत गहरा असर छोड़ते थे और अभी भी भुलाए नहीं भूलते। बड़े गजब के गीत लिखते हैं सुकुमार से कवि चौरसिया बंधु हमारे अग्रज उस दौर की कविताएं बिल्कुल घटिया न थी।

छंद मर्मज्ञ भाई आचार्य संजीव वर्मा सलिल ने तो गीत रचना में छंद की प्रतिष्ठा को रेखांकित कर दिया था।

जी हां 30-35  बरस पुराना साहित्यिक एनवायरमेंट जबलपुर में वापस नहीं लौटेगा,  कारण क्या है, मुझे नहीं मालूम पर यूनुस अदीब,  पथिक जी रसिक जी कमाल के गीतकार हैं।

आज आप जिनको पत्रकार कहते हैं वह पत्रकार नहीं कवि और गीतकार भी थे जी हां मैं जिक्र कर रहा हूं गंगा पाठक जी का। फैक्ट्री से लौटकर मानसेवी पत्रकार के रूप में गंगा भैया की कविता प्रभावित करने के लिए काफी हुआ करती थी।

पूज्य रामनाथ अग्रवाल जी के घर की गोष्ठी हो या सुमित्र जी के ठिकाने पर आनंद का अनुभव होता था भले ही घर देर से लौटने पर यानी लगभग रात 3 बजे तक लौटने पर कितनी फटकार न मिली हो।

दूसरे दिन अखबारों में अपने नाम को तलाशना हमारा शौक बन गया था। शशि जी ने खूब छापा कवि बना दिया। एक गोष्ठी में शायद वह गोष्टी सुमित्र जी के जन्मदिन पर थी। मेडिकल निवासी गेंदालाल जी सुमित्रा जी को जरी शॉपी उपहार स्वरूप। और कहने लगे माला काहे से बनती है जरी से और फूल से - तो गेंदा हम हैं जा जरी लै लो कमरा उन्मुक्त खिलखिला हट से गूंज गया। तभी  पूज्य मां गायत्री ने खीर खिला दी। सुमित्र जी और शशि जी ने बताया था कि-" कवि गोष्ठियों को कार्यशाला समझा जाना चाहिए।"

 सच में अब कार्यशालाएं नहीं होती। अनेकांत को छोड़कर कोई भी संस्था निरंतर कवि गोष्ठी नहीं करती। मध्यप्रदेश लेखक संघ ने कुछ दिन तक मोर्चा संभाला पर कवियों में भी राजनेता के गुण आ ही जाते हैं कोई बात नहीं मध्य प्रदेश लेखिका संघ ने बहुत दिनों तक इस परंपरा को आगे बढ़ाया।

सूरज भैया का पढ़ने का तरीका और मानवीय संवेदना ओं को उभार कर लिखने की प्रवृत्ति अद्भुत है अद्वितीय है।

गणेश नामदेव जी का डायरी खोलने का स्टाइल अभी तक आंखों के सामने घूमता है। कुछ दिनों बाद तो यह लगने लगा था कि जबलपुर में पुष्प वर्षा करो तो हर तीसरा फूल किसी ना किसी कवि के माथे पर ही लगता है। फिर धीरे-धीरे कहानी मंच मिलन मित्र संघ की यादें ताजा हो रही है।

हिंदी मंच भारती ने भी नए स्वर नए गीत कार्यक्रमों का सिलसिला जारी रखा था। अखंड कवि सम्मेलन इसी जबलपुर में हुआ है। गजब की बात है कि कवियों का टोटा नहीं पड़ा।

उस दौर में समाचार पत्र भी गजब काम करते थे। तब साहित्यकार पत्रकार भी हुआ करते थे अब यदा-कदा अरुण श्रीवास्तव जैसे साहित्यकार पत्रकार की तरह नजर आते हैं।

माटी की गागरिया जैसी कविता लिखने वाले भवानी दादा को कौन भूलेगा। पूजनीय सुभद्रा जी केशव पाठक पन्नालाल श्रीवास्तव नूर के इस शहर में कविता अब कराह रही है ।

ऐसा नहीं है कि बसंत मिश्रा यशोवर्धन पाठक विनोद नयन कोई कोशिश नहीं कर रहे हैं या राजेश पाठक प्रवीण ने कोर कसर छोड़ रखी हो। पर पता नहीं क्या हो गया है वह कार्यशाला नहीं होती जिसे हम गोष्ठी कहते थे। मणि मुकुल जी को भूलना गलत होगा। साधारण सा व्यक्तित्व साधारण सी कविता मणि मुकुल के अलावा बहन गीता गीत भी लिखती हैं तो डॉ संध्या जैन श्रुति ने कभी भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। विनीता पैगवार, रजनी कोठारी

सवाल गंगाचरण से भी है जब लिखते हैं तो अटेंशन पाते हैं जब पढ़ते हैं तो गहरा असर छोड़ते हैं। यूनुस अदीब, संतोष नेमा अभी की कोशिश कर रहे हैं।

    राजनेताओं के लिए गधे कम पड़ गए थे के लिए इंतज़ार कीजिये 



 

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विश्व का सबसे खतरनाक बुजुर्ग : जॉर्ज सोरोस

                जॉर्ज सोरोस (जॉर्ज सोरस पर आरोप है कि वह भारत में धार्मिक वैमनस्यता फैलाने में सबसे आगे है इसके लिए उसने कुछ फंड...