15.1.21

नेशनल न्यूज़ पर दहाड़ा जबलपुर का शेर

न्यू्ज नेशन से साभार
        आज मकर संक्रांति के दिन न्यूज नेशन राष्ट्रीय चैनल पर "N.C.E.R.T. की 12वीं की इतिहास की पुस्तक में षड्यंत्र पूर्वक शामिल किए गए तथ्य जिसमें मुगलों को मंदिरों के विनाशक के साथ पुनर्निर्माण कर्ता बताया गया है" विषय पर एक डिबेट का आयोजन किया गया । इस डिबेट मेंं एम यू के फिरोज साहब वामपंथी प्रोफेसर सतीश प्रकाश, प्रोफेसर बद्रीनारायण  मौलाना  अली कादरी  प्रोफ़ेसर संगीत रागी , शुबही खान प्रोफेसर बद्रीनारायण के साथ जबलपुुुर प्रोफेसर डॉ आनंद राणा ने भी हिस्सा लिया। बहस  के मुद्दे पर केवल सतीश प्रकाश को छोड़कर सभी नियंत्रित रहे । 

   वर्तमान में भारत के इतिहास को लेकर एक लंबी बहस छिड़ चुकी है। देश में यह स्वीकार आ गया कि आजादी के बाद जब इतिहास लिखने की बात आई तो तत्सम कालीन नीति नियंताओं इस भय से कि भविष्य में कहीं  धर्म एवं संप्रदाय को मानने वालों  के बीच में वैमनस्यता पैदा ना हो ऐसा इतिहास लिखा जाए। इस बिंदु पर जाकर मेरा मस्तिष्क अचानक बुद्धिहीनता पर चकित हो जाता है। मित्रों जैसे ही पत्रकार दीपक चौरसिया ने जो देश की बहस को संचालित कर रहे थे डॉ आनंद राणा को कनेक्ट किया आनंद राणा ने बतौर साक्ष्य प्रभाव कारी वक्तव्य में बताया कि मुगलों ने खास तौर पर औरंगजेब ने तो कभी भी उज्जैन के महाकाल की पूजा के लिए संसाधन या धन उपलब्ध नहीं कराया। एनसीईआरटी पुस्तकों में इस संबंध में जो भी लिखा है गलत है । महाकाल के पुजारी ने भी इस बात की पुष्टि कि आक्रांताओं से बचाव के उद्देश्य से महाकाल की प्रतिमा को गुफा में सुरक्षित कर दिया गया था। मित्रों सभी जानते हैं कि 16 अप्रैल 1669 को बाकायदा मंदिरों को ध्वस्त करने का आदेश मुगल बादशाह औरंगजेब ने दिया था। और वर्तमान में एनसीईआरटी की किताबों में अगर यह पढ़ाया जाता है कि औरंगजेब ने मंदिरों के प्रबंधन के लिए खास इंतजाम किए थे कुल मिलाकर यह झूठ है और इस झूठ को ज्ञान के हित में केवल किताबों से विलोपित कर देना चाहिए बल्कि ऐसी किताब लिखने वालों की किताबें ही प्रतिबंधित कर देनी चाहिए। पूरी बहस में जहां एक ओर मुस्लिम मत को मानने वाले औरंगजेब के कृत्य से असहमत थे वही  कुतर्क का पुलिंदा किए हुए प्रोफेसर सतीश प्रकाश उज्जैन के महाकाल मंदिर के पुजारी को भी नकार रहे थे ।  आयातित विचारधारा  मानने वाले और  अपने ही एजेंडे  को आगे रखने वाले प्रोफेसर सतीश प्रकाश को बेनकाब होता देख आश्चर्यचकित नहीं हूं बल्कि जबलपुर के शेर आनंद राणा की जबरदस्त अभिव्यक्ति के प्रति प्रफुल्लित अवश्य हूं।

 

12.1.21

बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड यू के फ़ॉर पोट्रेट में शामिल हुई स्वामी विवेकानंद की 8 हज़ार वर्ग फ़ीट अनाजों से बनी रंगोली

ग्रामीण कलाकार सतीश गुर्जर ग्राम कुकराबद जिला हरदा  एक ऐसे लोग कलाकार हैं जो अनाज का उपयोग कर विशालकाय पोट्रेट बनाते हैं। विगत सप्ताह उन्होंने अपनी 60 सदस्यीय टीम के साथ स्वामी विवेकानंद की तस्वीर रंगोली के माध्यम से हरदा डिग्री कॉलेज कंपाउंड में बनाई। इस कलाकृति के निर्माण में टीम को 3 दिन लगे। बनाई गई कृति में लगभग 50 क्विंटल अनाज का उपयोग किया गया। प्रत्यक्षदर्शी श्रीमती शुभा पारे एवं श्री राजेन्द्र गुहे बताया कि इस अनाज से बनी रंगोली को देखने विवेकानंद जयंती यानी आज 12 जनवरी 2021 से 13 जनवरी 2021 तक का समय निर्धारित है।  बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड फ़ॉर पोट्रेट यू के  में अब तक इस श्रेणी में 8000 वर्ग फीट की कृति नहीं बनी थी जिसे श्री सतीश गुर्जर एवं उनके साथियों ने बनाया। कलेक्टर हरदा तथा हरदा की विधायक उद्घाटन के मौके पर विशेष रूप से उपस्थित रहे हैं।
इस कलाकृति में 10 सदस्य के रूप में
बिल्लोरे परिवार की की एक बेटी का नाम भी दर्ज हो गया है ।   नार्मदीय ब्राह्मण समाज  की बिटिया कु. सलोनी बिल्लौरे  टिमरनी पिता स्व. श्री कृष्ण कांत बिल्लौरे निवासी टिमरनी भी इस में सदस्य के रूप में सम्मिलित है।

10.1.21

कन्फ्यूज़्ड बचपन (हास्य व्यंग्य)

*1960 से 1980 तक जन्मे*
इस श्रेणी के बच्चे कन्फ्यूजन की सीमाओं से आगे तक कन्फ्यूज़ड थे। पिटने के बाद पता चलता था कि हम क्यों पीटे गए थे । हमारे गाल पिटते पिटते *गलवान* तथा पीठ  पिटते पिटते *शक्ति पीठ* बन गईं हैं ।
हमाये शरीर मैं भगवान ने सुनने के लिए कान दिए हैं। लेकिन हमारे पेरेंट्स ने इन्हें दवा दबाकर विकासशील बना दिया है अभी तक पूर्ण विकसित नहीं हो पाए हैं।
गदेलियां तो मास्साब ने छड़ी पड़े छम छम विद्या एक घमघम  के सूत्र वाक्य को प्रूफ करने में प्रयोग में लाई गई । हम 1960 से लेकर 1980 तक की पैदाइशें पप्पू गुड्डू टिंकू मुन्ना छोटे गुड्डू बड़े गुड्डू छोटा पप्पू बड़ा पप्पू आदि नाम से अलंकृत हो जाते थे । 
  कई बार तो भ्रम होता था हम मनुष्य प्रजाति में हैं या गधा प्रजाति के प्राणी है क्योंकि जिसे देखो वह हमें गधा घोषित करने पर पूरी ताकत लगा देता था।
    हमारे दौर में ट्यूशन सिर्फ गधे बच्चे पढ़ने जाते थे। अपने आप को होशियार बताने के चक्कर में 19 का पहाड़ा आज तक याद नहीं कर पाए पर रट्टा बकायदा मारा करते थे।
  हमारी एक बुआ जी थी उन्हें तो ऐलान कर दिया था कि पढ़ेगा लिखेगा नहीं तो इसकी शादी भैंस से कर देंगे । अब भैंस से शादी ना हो इस डर से रट्टा जोर से मारते थे । 
  कंचा भंवरा गपनी  और बेवजह आवारागर्दी करते अगर बाबूजी ने देख लिया तो समझो कयामत का दिन वही था। बाद में जाकर पता चला कि कयामत का दिन इतनी जल्दी नहीं आने वाला। कयामत का दिन अल्लाह ताला डिसाइड करेंगे। असलम ने बताया था तब फिर अपन थोड़ा निडर होने लगे।
   हम क्या देखेंगे क्या नहीं देखेंगे हमें क्या करना है हमें क्या खाना है इसका डिसीजन हमें नहीं करना चाहिए यह हमें सख्त हिदायत थी। फिर भी हमने बड़े भाई साहब कहानी को बड़े ध्यान से पढ़ा अरे हां वही कहानी जिसमें बड़े भाई साहब बाद में कनकव्वा उड़ाने चल पड़ते हैं। कहानी पढ़ने के बाद हमने महसूस किया कि हमसे ज्यादा कष्ट तो हमारे पूर्वज भोग चुके हैं हो सकता है हमारे मां-बाप भी यही भोग चुके हैं तभी तो ऐसी रिवायत चली आ रही है...!
और फिर हम शांत हो जाते । रईसजादों से दोस्ती करना वर्जित विषय था। हां मध्यमवर्गीय और हमसे लोअर क्लास के बच्चों से मित्रता में कोई रुकावट की योजना नहीं थी । और यहीं से शुरू होता है समाज की प्रगतिशील का आरंभ क्योंकि जातिभेद से परे ले जाता यह दृष्टिकोण माता पिता की आदर्श भावना को परिभाषित करता था। उनका यह कहना होता था कि बाहर से जब घर आओ तो हाथ पैर अवश्य धो लिया करो।
 आठवीं क्लास में जाकर फुल पैंट नसीब हुई उसकी वजह थी की फुल पैंट बनवाने में ज्यादा खर्च लगता है। फुल पेंट से याद आया कि गुप्ता जी के बच्चे बिल्लोरे जी के बच्चे शुक्ला जी के बच्चे जैन साहब के बच्चे अलग अलग पहचान में आ जाते थे।  शर्ट के मामले में तो कम से कम यह कहा जा सकता था कि -" लगता है बच्चों को थान पर लिटा कर बापू जी ने दर्जी से कपड़ा कटवा दिया।
 पेंट तो सामान्यतः काली या डार्क कलर की होती थी और शर्ट जिसे बुश शर्ट कहते थे वह हर परिवार के अलग-अलग रंग के रहते थे। गुप्ता जी के बच्चे स्लेटी कलर के कपड़े पहनते थे तो बाकी अन्य बच्चों के रोज पहने जाने वाले कपड़े अलग-अलग रंगों के परिवार के मुखिया के डिसीजन पर आधारित से हुआ करते थे। 
        कल ही इंजीनियर वरिष्ठ मित्र संजय त्रिपाठी बता रहे थे पिताजी कपड़ों को ढीला बनवाते थे और अगर दादाजी आ गए तो कुछ ढीला और करवा देते थे खास तौर पर शर्ट की बाहें पेंट की कमर पेंट की लंबाई आदि आदि। अब फुल साइज की लंबे बाहों का उपयोग बांह ढांकने के लिए तो होता ही था, पर सर्दियों में बड़ी लाभकारी सिद्ध होती थी । अब आप समझदार हैं रुमाल तो तब हुआ नहीं करते थे वैकल्पिक रुमाल के रूप में आस्तीन से बेहतर और क्या हो सकता था ?
  मजेदार बात यह हुई की एक हुनरमंद टेलर ने हमसे हमारी पुरानी हाफ पेंट मंगाई मामला गोसलपुर का है। एक पेंट का पीछे वाला हिस्सा खराब था जिसे आप दक्षिणावर्त्य कह सकते हैं वैसे हम उसे अपनी सुविधा के लिए अंग्रेजी में साउथ एवेन्यू मॉल कहते हैं। 
  तो सुनिए उस कलाकार टेलर मास्टर ने दोनों पेंट के बेकार हिस्सों को अलग अलग कर दिया और सुरक्षित बचे हिस्सों को एक साथ जोड़ दिया और यह कपड़ों के मामले में मेरी जिंदगी का अनूठा इन्वेंशन था। और जब मित्रों ने पूछा है ऐसा क्यों..!
हमने बता दिया यह फैशन आने वाली है और हमारे टेलर मास्टर ने बताया है कि भविष्य में राजेश खन्ना ऐसे ही कपड़ों में नजर आएंगे। बात आई गई हो गई ना तो राजेश खन्ना उस तरह की पैंट पहन कर आए ना ही पेंटल जूनियर महमूद ने कभी दो रंग वाली वैसी पैंट पहनी। टेलर मास्टर का इन्वेंशन उसी डिजाइन के बाद समाधि में विलीन हो गई।
        उस समय बच्चे जूते नहीं पहनते थे। उन दिनों केवल में दो  आर्थिक स्तर होते थे एक गरीब और एक अमीर । इस तरह बच्चे भी दो भाग में विभक्त थे ।
    गरीब बच्चे सामान्य स्लीपर जिसे आप हवाई चप्पल कहते हैं कहते हैं और जिनके मां बाप थोड़ा आर्थिक स्थिति से मजबूत थे उनके बच्चे करोना या बाटा के स्लीपर पहनते थे। घड़ी तो घर में दो थी एक अलार्म घड़ी जो रेडियो के ऊपर रखी रहती थी ।  दूसरी रिस्टवाच जो हमारे पिताजी के हाथ में जो शायद किसी को बाद में देनी पड़ी थी। परिवार की ही एक सदस्या ने भैया से कहा था- तुम्हारे तो #फादरअली के पास भी टाइम पास नहीं है । उस दिन बाबूजी , बाबू जी से फादरअली हो गए शब्द तो मजेदार था लेकिन जिस मुंह ने उसे व्यक्त किया  वह मुंह मसूर की दाल की भी काबिल नहीं है । जुबान से निकली बात न वो वापस ग्रहण कर पाई और ना हमने ऐसा होने दिया।उस दिन हमने तय कर लिया था कि अब हम वह हासिल करेंगे जो तुम यानी अपमानित करने वाले लोग जिंदगी भर हासिल नहीं कर सकते। 
    तब हमें पता चला की जिंदगी में किसी भी तरह का कन्फ्यूजन नहीं होना चाहिए।
कुछ बड़ा होने पर एक शब्द गूंजता था पार्थ युद्ध करो जीवन का हर पल युद्ध है, जीवन युद्ध है जो दुनिया रूपी इस कुरुक्षेत्र से होता रहता है  किससे कोई नहीं बचता। जीवन के इस कुरुक्षेत्र में वही विजेता होता है जो अहर्निश युद्ध करता है ऐसा युद्ध जो रक्त नहीं बहाता परंतु युद्ध रत पार्थों का जीवन उजला बनाता है। 
     
*गिरीश बिल्लोरे मुकुल*

9.1.21

अंग्रेज़ भारत से क्यों भागे.? लेखक :- श्रीमन प्रशांत पोळ

 

*मुंबई का नौसेना आंदोलन* 
-   प्रशांत पोळ 
द्वितीय विश्वयुध्द के बाद की परिस्थिति सभी के लिए कठिन थी. ब्रिटन के तत्कालीन प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल भारत को स्वतंत्रता देने के पक्ष में नहीं थे. वे अपनी युवावस्था में भारत में रह चुके थे. ब्रिटीश आर्मी में सेकेंड लेफ्टिनंट के नाते वे मुंबई, बंगलोर, कलकत्ता, हैदराबाद आदि स्थानों तैनात थे. नॉर्थ वेस्ट फ्रंटियर प्रॉविंस में उन्होंने अफगान पठानों के विरोध में युद्ध भी लडा था. १८९६ और १८९७ ये दो वर्ष उन्होंने भारत में गुजारे. भारत की समृद्धि, यहां के राजे - रजवाडे, यहां के लोगों का स्वभाव… यह सब उन्होंने देखा था. यह देखकर उन्हें लगता था कि अंग्रेज भारत पर राज करने के लिये ही पैदा हुए हैं. इसलिये द्वितीय विश्वयुद्ध के समय विंस्टन चर्चिल की ओर से सर स्टेफोर्ड किप्स को भारतियों का सहयोग प्राप्त करने के लिए भारत भेजा गया. इस क्रिप्स मिशन ने भारतीय नेताओं को यह आश्वासन दिया गया की युद्ध समाप्त होते ही भारत को सीमित स्वतंत्रता दी जाएगी. 

इस आश्वासन को देने के बाद भी चर्चिल, भारत से अंग्रेजी सत्ता को निकालना नहीं चाहते थे. किंतू २६ जुलाई १९४५ में, ब्रिटन में आम चुनाव हुए और इस चुनाव में चर्चिल की पार्टी परास्त हुई. क्लेमेंट एटली के नेतृत्व में लेबर पार्टी चुनाव जीत गई. 

*लेबर पार्टी ने भी चुनाव जीतने के पश्चात भारत को स्वतंत्रता देने की घोषणा नहीं की. किंतू २६ जुलाई १९४५ और १८ जुलाई १९४७ (जब स्वतंत्र भारत के बिल को ब्रिटन की संसद ने और राजघराने ने स्वीकृति दी), इन दो वर्षों में तीन बडी घटनाएँ घटी, जिनके कारण अंग्रेजों को यह निर्णय लेने के लिये बाध्य होना पडा.* 

इनमे से पहली घटना थी, १९४६ के प्रारंभ में ‘शाही वायुसेना’ में ‘विद्रोह’. 

जनवरी १९४६ मे, ‘रॉयल एयर फोर्स’, जो आर ए एफ के नाम से जानी जाती थी, के जवानों ने असंतोष के चलते जो आंदोलन छेड़ा, उसमे वायुसेना के ६० अड्डों (एयर स्टेशन्स) में स्थित ५०,००० लोग शामिल थे.

इस आंदोलन की शुरुआत हुई ब्रह्मरौली, अलाहाबाद से. आंदोलन (हड़ताल) के इस समाचार के मिलतेही, कराची के मौरिपुर एयर स्टेशन के २,१०० वायुसैनिक और कलकत्ता के डमडम एयर स्टेशन के १,२०० जवान इस आंदोलन के साथ जुड़ गए. इसके बाद यह आंदोलन वायुसेना के अन्य अड्डों पर, अर्थात कानपुर, पालम (दिल्ली), विशाखापटनम, पुणे, लाहौर आदि स्थानों पर फैलता गया. कुछ स्थानों पर यह आंदोलन कुछ घंटों में समाप्त हुआ, तो अलाहाबाद, कलकत्ता आदि स्थानों पर इसे समाप्त होने में चार दिन लगे.   

*दूसरी घटना थी फरवरी १९४६ का ‘नौसेना विद्रोह..!’*

घटना के पहले अनेक दिनों से, भारतीय नौसेना में बेचैनी थी. इसके अनेक कारण थे. विश्वयुद्ध समाप्त हुआ था. ब्रिटन की हालत बहुत खराब हो गई थी. आर्थिक व्यवस्था चरमरा गई थी. इस कारण अपनी नौकरी रहेगी या नहीं यह शंका नौसेनिकों के मन में आना स्वाभाविक था. अधिकारियों तक यह बात पँहुची भी थी. किंतू ब्रिटिश नौसेना से या ब्रिटिश सरकार से, इस बारे में स्पष्ट दिशा निर्देश नहीं दिये गए थे. और न हीं कोई टिप्पणी की गई थी. नौसैनिकों के वेतन में असमानता, सुविधाओं का अभाव ये कारण भी थे. लेकिन इससे भी बड़ा कारण था, आजाद हिन्द सेना के अधिकारियों पर दिल्ली के लाल किले में चल रहा कोर्ट मार्शल. इससे पहले भी ब्रिटिश सेना ने कलकत्ता में आजाद हिन्द सेना के अधिकारियों को मृत्युदंड दिया था. *भारतीय सैनिकों की सहानुभूति आजाद हिन्द सेना के सेनानियों के साथ थी.*   

इस सभी बातों का विस्फोट हुआ १८ फरवरी १९४६ को, मुंबई की ‘गोदी’ में, जब किनारे पर खडी एचएमआईएस (हिज मॅजेस्टिज इंडियन शिप) ‘तलवार’ के नौसैनिकों ने निकृष्ट दर्जे के भोजन और नस्लीय भेदभाव के विरोध में आंदोलन छेड दिया. उस समय नौसेना के २२ जहाज मुंबई बंदरगाह पर खडे थे. उन सभी जहाजों को यह संदेश गया और उन सभी जहाजों पर आंदोलन का शंखनाद हुआ. ब्रिटिश अधिकारियों को उनके बॅरेक्स में बंद कर दिया गया. और नेताजी सुभाषचंद्र बोस का बडा सा चित्र लेकर, हजारों की संख्या में इन नौसैनिकों ने एक ‘केंद्रिय नौसेना आंदोलन समिती’ बनाई और इस आंदोलन की आग फैलने लगी. 

वरिष्ठ पेटी ऑफिसर मदन सिंह और वरिष्ठ सिग्नल मॅन एम एस खान, सर्वानुमती से इस आंदोलन के नेता चुने गए. दूसरे दिन १९ फरवरी को इन नौसैनिकों के समर्थन में मुंबई बंद रही. कराची और मद्रास के नौसैनिकों ने भी आंदोलन में शामिल होने की घोषणा की. ‘केंद्रीय नौसेना आंदोलन समिती’ के द्वारा एक मांगपत्र जारी किया गया, जिसमें प्रमुख मांगें थी : 

_१. इंडियन नॅशनल आर्मी (INA) और अन्य राजनैतिक बंदियों को रिहा किया जाए._
_२. इंडोनेशिया से भारतीय सैनिकों को हटाया जाए._ 
_३. अफसरों के पद पर केवल भारतीय अधिकारी ही रहे. अंग्रेज नहीं._ 

नौसैनिकों का आंदोलन यह सारे ब्रिटिश आस्थापनाओं में, जहां जहां भारतीय सैनिक तैनात थे, वहां फैलने लगा. एडन और बहारीन के भारतीय नौसैनिकों ने भी आंदोलन की घोषणा की. एचएमआईएस तलवार पर उपलब्ध दूरसंचार उपकरणों की सहायता से आंदोलन का यह संदेश सभी नौसैनिक अड्डों पर और जहाजों पर पँहुचाया जा रहा था. 

एचएमआईएस तलवार के कमांडर एफ. एम. किंग ने, इन आंदोलन करने वाले सैनिकों को ‘सन्स ऑफ कुलीज एंज बिचेस’ कहा, जिसने इन आंदोलन की आग में घी डाला. लगभग बीस हजार नौसैनिक कराची, मद्रास, कलकत्ता, मंडपम, विशाखापट्टनम, अंदमान - निकोबार आदि स्थानों से शामिल हुए. 

आंदोलन प्रारंभ होने के दूसरे ही दिन, अर्थात १९ फरवरी को कराची में भी आंदोलन की ज्वालाएं धधक उठी. कराची बंदरगाह मे, मनोरा द्वीप पर ‘एचएमआईएस हिंदुस्तान’ खड़ी थी. आंदोलनकारियों ने उस पर कब्जा कर लिया. बाद में पास में खड़ी ‘एचएमआईएस बहादुर’ इस जलपोत को भी अपने अधिकार में ले लिया. इन जहाजों से अंग्रेज़ अधिकारियों को उतारने के बाद, ये नौसैनिक मनोरा की सड़कों पर अंग्रेजों के विरोध में नारे लगाते हुए घूमने लगे. मनोरा के स्थानिक रहिवासी भी बड़ी संख्या में इस जुलूस में शामिल हो गए. 

वहाँ के स्थानिक आर्मी कमांडर ने, बलूच सैनिकों की एक प्लाटून, इस तथाकथित ‘विद्रोह’ को कुचलने के लिए मैदान में उतारी. परंतु बलूच सैनिकों ने गोली चलाने से इंकार किया. बाद में अंग्रेजों के विश्वासपात्र, गोरखा सैनिकों को इन आंदोलनकारी सैनिकों के सामने लाया गया. लेकिन गोरखा सैनिकों ने भी गोली चलाने से मना किया. 

अंततः संपूर्ण ब्रिटिश सैनिकों की प्लाटून को लाकर, इन आंदोलनकारियों को घेरा गया. ब्रिटिश सैनिकों ने इन आंदोलनकारी सैनिकों पर निर्ममता पूर्वक गोली चलाई. जवाब में नौसैनिकों ने भी गोलीबारी की. लगभग चार घंटे यह युध्द चलता रहा. छह सैनिकों की मृत्यु हुई और तीस घायल हुए. यह समाचार कराची शहर में हवा की गति से फैला. तुरंत श्रमिक संगठनों ने ‘बंद’ की घोषणा की. कराची शहर ठप्प हो गया. शहर के ईदगाह में ३५,००० से ज्यादा लोग इकठ्ठा हुए और अंग्रेजों के विरोध में घोषणाएँ देने लगे. 

इससे पहले भी, १९४५ में कलकत्ता में नौसेना के सैनिकों में असंतोष पनपा था, जिसका कारण था, नेताजी सुभाष चंद्र बोस के साथ जाने वाले सैनिकों पर किया गया कोर्ट मार्शल. मुंबई के आंदोलन से कुछ पहले, कलकत्ता में ही रशीद अली को मृत्युदंड देने के कारण नौसैनिकों में बेचैनी थी, जो मुंबई आंदोलन के माध्यम से बाहर निकली. 

इन सैनिकों को ‘रेटिंग्स’ (Ratings) कहा जाता था. आंदोलन के दुसरे और तिसरे दिन ये सैनिक पूरी मुंबई में लॉरियों में भरकर घूम रहे थे. रास्ते में जो भी अंग्रेज दिखा, उसे पकडने का भी प्रयास हुआ. *१९ और २० फरवरी को मुंबई, कलकत्ता और कराची पूरी तरह से ठप हुए थे. सब कुछ बंद था. पूरे देश में, अनेक शहरों में छात्रों ने इन नौसैनिकों के समर्थन में कक्षाओं का बहिष्कार किया.*

किनारों पर खड़े कुल ७८ जहाज, नौसेना के २० बडे तल (नौसैनिक अड्डे) और लगभग २० हजार नौसैनिक इस आंदोलन में शामिल थे. 

२२ फरवरी को मुंबई में  यह आंदोलन चरम सीमा तक पँहुचा. मुंबई का कामगार वर्ग, इन नौसैनिकों के समर्थन में आगे आया. पुन: मुंबई बंद हुई. सारे दैनिक व्यवहार ठप्प हुए. लोकल्स को आग लगाई गई. 

जब ब्रिटिश सेना ने, वायुसेना को मुंबई भेजना चाहा, तो अनेक सैनिकों ने मना कर दिया. फिर आर्मी की एक बटालियन को मुंबई में उतारा गया. तीन दिन तक आंदोलन की यह आग फैलती रही. अंग्रेजी शासन ने इन आंदोलनकारी नौसैनिकों से वार्तालाप करने के लिये वल्लभभाई पटेल और जिन्ना से अनुरोध किया. इन दोनों के आश्वासन पर २३ फरवरी १९४६ को, आंदोलन करने वाले नौसैनिकों ने आत्मसमर्पण किया और १८ फरवरी से प्रारंभ हुआ यह नौसेना का आंदोलन शांत हुआ. 

*काँग्रेस और मुस्लिम लीग ने इस आंदोलन का विरोध किया था.* 

इस आंदोलन में ग्यारह नौसैनिक और एक अफसर मारा गया था. सौ से ज्यादा नौसैनिक और ब्रिटिश सोल्जर्स जखमी हुए थे. 

इस आंदोलन के थमने के बाद ब्रिटिश अधिकारियों ने इन आंदोलनकारी सैनिकों पर कडाई के साथ कोर्ट मार्शल की कार्यवाही की. ४७६ सैनिकों की ‘पे एंड पेंशन’ समाप्त की. *दुर्भाग्य से, देढ वर्ष के बाद जब भारत स्वतंत्र हुआ, तब इन निलंबित सैनिकों को भारतीय नौसेना में नहीं लिया गया. इनका अपराध इतना ही था, कि आंदोलन करते समय इन सैनिकों ने नेताजी सुभाषचंद्र बोस के चित्र लहराए थे !*
-   प्रशांत पोळ 
#स्वराज्य@75; #Swarajya@75; #स्वराज्य75 ; #Swarajya75 क्रमश:......

7.1.21

इसरो विज्ञानी तपन मिश्रा और वैज्ञानिकों की सुरक्षा की प्रासंगिकता

इसरो के वैज्ञानिक तपन मिश्रा
ने दावा किया है कि उनको मारने की कोशिश की गई । आप उन स्थितियों को स्मरण कीजिए जब हमारे देश के महान वैज्ञानिक संदिग्ध परिस्थितियों में मृत पाए गए । जी हां स्वर्गीय विक्रम साराभाई जी । आजतक की एक रिपोर्ट के अनुसार ..चार साल में देश के 11 परमाणु वैज्ञानिकों की रहस्यमय मौत 2009 से 2013 तक कि अवधि में हुई ।
  मित्रो अब सरकार को इन वैज्ञानिकों की सम्पूर्ण सुरक्षा अवश्य ही कर लेनी चाहिए । 
उम्मीद है इस नैरेटिव को एक जुट होकर स्थापित करने की ज़रूरत है । 

4.1.21

देहदान : की उच्चतम अनुकरणीय पहल

जबलपुर की चिंतनधारा शिक्षा, सँस्कृति, सामाजिक-सरोकारों में गहरी रुचि के तत्व मौज़ूद हैं । वे उन लोगों के लिए अत्यंत भावात्मक रूप से संवेदनशील हैं जो त्याग के लिए ततपरता प्रदर्शित करते हैं । श्रीमती अर्चना और श्री विकास खंडेलवाल ने 2021 के पहले दिन देहदान का संकल्प लिया । कलेक्टर जबलपुर श्री शर्मा  ने देहदान करने वाले परिवारों के बीच मनाया !
      नया वर्ष बारह दिन में 15 लोगों ने किया देहदान जबलपुर - नए साल में समाज के लिए कुछ करने के उद्देश्य से जिले में देहदान अभियान के सूत्रधार एवं प्रणेता कलेक्टर  श्री कर्मवीर शर्मा की पहल से प्रेरित होकर जवाहर गंज गढाफाटक  निवासी विकास खंडेलवाल एवं उनकी पत्नी अर्चना खंडेलवाल, द्वारका नगर निवासी पुष्पराज और हाथी ताल निवासी श्रीमती रेखा हिरानी ने अपने परिवार के साथ आज कलेक्टर के समक्ष मरणोपरांत शरीर दान करने का इच्छा पत्र सौपा। 
 जिले में देहदान अभियान के सूत्रधार एवं प्रणेता कलेक्टर कर्मवीर शर्मा की पहल से प्रेरित होकर अब तक 15 लोगों ने देहदान करने की सहमति का फॉर्म भर कर दिया है। जिनमें  श्रीमती अर्चना एवम विकास खंडेलवाल के अलावा  न्यू शास्त्री नगर निवासी पत्रकार अनिल जैन कलेक्टर कार्यालय के चौकीदार राजेश गौड, चेरीताल निवासी श्रीमती सावित्री गुप्ता, शंकर शाह नगर निवासी अनिल मरावी, कांटी बेलखेड़ा निवासी एडवोकेट राकेश दुबे, आदिवासी विकास से रिटायर क्षेत्र संयोजक अरुण कुमार तिवारी, आधारताल निवासी विजय कुमार सेन, जवाहर गंज निवासी सुशील कुमार तिवारी, गोपाल बाग निवासी डी के शर्मा, श्रीमती माधुरी शुक्ला और श्री मधुसूदन शुक्ला शक्ति नगर निवासी के हैं ।
देहदान का संकल्प लेने वाले विकास खंडेलवाल ने कहा की मानव का शरीर जीते जी तो उपयोगी रहता है और मृत्यु के पश्चात शरीर के प्रमुख अंग दूसरों के काम भी आते हैं। श्री खंडेलवाल ने कहा कि कलेक्टर श्री शर्मा की प्रेरणा से मैं और मेरी पत्नी आज नए वर्ष में दान देकर बहुत ही खुशी महसूस कर रहे हैं कि उनका शरीर मरने के बाद लोगों के काम आयेगा।
इस अवसर पर कलेक्टर श्री कर्मवीर शर्मा ने नये वर्ष पर देहदान का संकल्प लेने वाले सभी लोगों की तारीफ की। उन्होंने बताया कि 12 दिनों में 15 लोगों ने देहदान का संकल्प फॉर्म भरकर दिया है। उन्होंने आम जनता से अपील की है कि इच्छुक व्यक्ति अपनी पासपोर्ट फोटो और आधार कार्ड की फोटो कॉपी के साथ  कलेक्ट्रेट कंट्रोल रूम कक्ष-9 पर पहुंच कर निर्धारित फॉर्म भर कर जमा कर सकते हैं

जन्मदिन पर करूंगी देहदान
आज नव वर्ष पर अपने माता पिता के साथ आई गढाफाटक निवासी श्रेया 18 वर्ष से कम उम्र की होने के कारण देहदान का  फॉर्म नहीं भर पाई। श्रेया ने कलेक्टर श्री कर्मवीर शर्मा से मुलाकात करके कहा कि आपने यह बहुत अच्छा अभियान छेड़ा है। अब मैं 13 अगस्त को अपना 18 वां जन्मदिन पर आकर देहदान का संकल्प पत्र सौंपूंगी।

अविष्कारक लुइस ब्रेल को मृत्यु के 100 साल बाद राजकीय सम्मान

4 जनवरी 1809 में जन्मे ब्रेल जन्म से नेत्र दिव्यांग नहीं थे बल्कि दुर्घटना बस अपनी आंखों की रोशनी खो बैठे और फिर जानते ही हैं आप सब की आवश्यकता आविष्कार की जननी है उन्होंने एक अद्भुत अन्वेषण किया और स्पर्श प्रणाली से शब्दों को अक्षरों को पढ़ना सहज हो सके इसलिए ब्रेल लिपि का विकास किया और इससे विश्व के हर एक व्यक्ति को जो नेत्र दिव्यांग है एक नई दिशा मिली । लुइस ब्रेल 6 जनवरी 1852 में इस दुनिया को छोड़ कर चले गए ।
फ्रांस की सरकार ने लुईस ब्रेल के कार्य को अत्यधिक गौरवपूर्ण निरूपित करने के लिए सांकेतिक रूप से सम्मानित करने एवं यह तथ्य स्थापित करने के लिए कि-" किसी कार्य के लिए किसी को सम्मान देना सर्वोपरि है, उनके शव को कब्रगाह से निकालकर पुन: राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया । 
फ्रांसीसी अन्वेषक लुइस ब्रेल को शत शत नमन आज उनका जन्म दिवस है और 6 जनवरी 1852 को महाप्रस्थान...!

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