10.1.21

कन्फ्यूज़्ड बचपन (हास्य व्यंग्य)

*1960 से 1980 तक जन्मे*
इस श्रेणी के बच्चे कन्फ्यूजन की सीमाओं से आगे तक कन्फ्यूज़ड थे। पिटने के बाद पता चलता था कि हम क्यों पीटे गए थे । हमारे गाल पिटते पिटते *गलवान* तथा पीठ  पिटते पिटते *शक्ति पीठ* बन गईं हैं ।
हमाये शरीर मैं भगवान ने सुनने के लिए कान दिए हैं। लेकिन हमारे पेरेंट्स ने इन्हें दवा दबाकर विकासशील बना दिया है अभी तक पूर्ण विकसित नहीं हो पाए हैं।
गदेलियां तो मास्साब ने छड़ी पड़े छम छम विद्या एक घमघम  के सूत्र वाक्य को प्रूफ करने में प्रयोग में लाई गई । हम 1960 से लेकर 1980 तक की पैदाइशें पप्पू गुड्डू टिंकू मुन्ना छोटे गुड्डू बड़े गुड्डू छोटा पप्पू बड़ा पप्पू आदि नाम से अलंकृत हो जाते थे । 
  कई बार तो भ्रम होता था हम मनुष्य प्रजाति में हैं या गधा प्रजाति के प्राणी है क्योंकि जिसे देखो वह हमें गधा घोषित करने पर पूरी ताकत लगा देता था।
    हमारे दौर में ट्यूशन सिर्फ गधे बच्चे पढ़ने जाते थे। अपने आप को होशियार बताने के चक्कर में 19 का पहाड़ा आज तक याद नहीं कर पाए पर रट्टा बकायदा मारा करते थे।
  हमारी एक बुआ जी थी उन्हें तो ऐलान कर दिया था कि पढ़ेगा लिखेगा नहीं तो इसकी शादी भैंस से कर देंगे । अब भैंस से शादी ना हो इस डर से रट्टा जोर से मारते थे । 
  कंचा भंवरा गपनी  और बेवजह आवारागर्दी करते अगर बाबूजी ने देख लिया तो समझो कयामत का दिन वही था। बाद में जाकर पता चला कि कयामत का दिन इतनी जल्दी नहीं आने वाला। कयामत का दिन अल्लाह ताला डिसाइड करेंगे। असलम ने बताया था तब फिर अपन थोड़ा निडर होने लगे।
   हम क्या देखेंगे क्या नहीं देखेंगे हमें क्या करना है हमें क्या खाना है इसका डिसीजन हमें नहीं करना चाहिए यह हमें सख्त हिदायत थी। फिर भी हमने बड़े भाई साहब कहानी को बड़े ध्यान से पढ़ा अरे हां वही कहानी जिसमें बड़े भाई साहब बाद में कनकव्वा उड़ाने चल पड़ते हैं। कहानी पढ़ने के बाद हमने महसूस किया कि हमसे ज्यादा कष्ट तो हमारे पूर्वज भोग चुके हैं हो सकता है हमारे मां-बाप भी यही भोग चुके हैं तभी तो ऐसी रिवायत चली आ रही है...!
और फिर हम शांत हो जाते । रईसजादों से दोस्ती करना वर्जित विषय था। हां मध्यमवर्गीय और हमसे लोअर क्लास के बच्चों से मित्रता में कोई रुकावट की योजना नहीं थी । और यहीं से शुरू होता है समाज की प्रगतिशील का आरंभ क्योंकि जातिभेद से परे ले जाता यह दृष्टिकोण माता पिता की आदर्श भावना को परिभाषित करता था। उनका यह कहना होता था कि बाहर से जब घर आओ तो हाथ पैर अवश्य धो लिया करो।
 आठवीं क्लास में जाकर फुल पैंट नसीब हुई उसकी वजह थी की फुल पैंट बनवाने में ज्यादा खर्च लगता है। फुल पेंट से याद आया कि गुप्ता जी के बच्चे बिल्लोरे जी के बच्चे शुक्ला जी के बच्चे जैन साहब के बच्चे अलग अलग पहचान में आ जाते थे।  शर्ट के मामले में तो कम से कम यह कहा जा सकता था कि -" लगता है बच्चों को थान पर लिटा कर बापू जी ने दर्जी से कपड़ा कटवा दिया।
 पेंट तो सामान्यतः काली या डार्क कलर की होती थी और शर्ट जिसे बुश शर्ट कहते थे वह हर परिवार के अलग-अलग रंग के रहते थे। गुप्ता जी के बच्चे स्लेटी कलर के कपड़े पहनते थे तो बाकी अन्य बच्चों के रोज पहने जाने वाले कपड़े अलग-अलग रंगों के परिवार के मुखिया के डिसीजन पर आधारित से हुआ करते थे। 
        कल ही इंजीनियर वरिष्ठ मित्र संजय त्रिपाठी बता रहे थे पिताजी कपड़ों को ढीला बनवाते थे और अगर दादाजी आ गए तो कुछ ढीला और करवा देते थे खास तौर पर शर्ट की बाहें पेंट की कमर पेंट की लंबाई आदि आदि। अब फुल साइज की लंबे बाहों का उपयोग बांह ढांकने के लिए तो होता ही था, पर सर्दियों में बड़ी लाभकारी सिद्ध होती थी । अब आप समझदार हैं रुमाल तो तब हुआ नहीं करते थे वैकल्पिक रुमाल के रूप में आस्तीन से बेहतर और क्या हो सकता था ?
  मजेदार बात यह हुई की एक हुनरमंद टेलर ने हमसे हमारी पुरानी हाफ पेंट मंगाई मामला गोसलपुर का है। एक पेंट का पीछे वाला हिस्सा खराब था जिसे आप दक्षिणावर्त्य कह सकते हैं वैसे हम उसे अपनी सुविधा के लिए अंग्रेजी में साउथ एवेन्यू मॉल कहते हैं। 
  तो सुनिए उस कलाकार टेलर मास्टर ने दोनों पेंट के बेकार हिस्सों को अलग अलग कर दिया और सुरक्षित बचे हिस्सों को एक साथ जोड़ दिया और यह कपड़ों के मामले में मेरी जिंदगी का अनूठा इन्वेंशन था। और जब मित्रों ने पूछा है ऐसा क्यों..!
हमने बता दिया यह फैशन आने वाली है और हमारे टेलर मास्टर ने बताया है कि भविष्य में राजेश खन्ना ऐसे ही कपड़ों में नजर आएंगे। बात आई गई हो गई ना तो राजेश खन्ना उस तरह की पैंट पहन कर आए ना ही पेंटल जूनियर महमूद ने कभी दो रंग वाली वैसी पैंट पहनी। टेलर मास्टर का इन्वेंशन उसी डिजाइन के बाद समाधि में विलीन हो गई।
        उस समय बच्चे जूते नहीं पहनते थे। उन दिनों केवल में दो  आर्थिक स्तर होते थे एक गरीब और एक अमीर । इस तरह बच्चे भी दो भाग में विभक्त थे ।
    गरीब बच्चे सामान्य स्लीपर जिसे आप हवाई चप्पल कहते हैं कहते हैं और जिनके मां बाप थोड़ा आर्थिक स्थिति से मजबूत थे उनके बच्चे करोना या बाटा के स्लीपर पहनते थे। घड़ी तो घर में दो थी एक अलार्म घड़ी जो रेडियो के ऊपर रखी रहती थी ।  दूसरी रिस्टवाच जो हमारे पिताजी के हाथ में जो शायद किसी को बाद में देनी पड़ी थी। परिवार की ही एक सदस्या ने भैया से कहा था- तुम्हारे तो #फादरअली के पास भी टाइम पास नहीं है । उस दिन बाबूजी , बाबू जी से फादरअली हो गए शब्द तो मजेदार था लेकिन जिस मुंह ने उसे व्यक्त किया  वह मुंह मसूर की दाल की भी काबिल नहीं है । जुबान से निकली बात न वो वापस ग्रहण कर पाई और ना हमने ऐसा होने दिया।उस दिन हमने तय कर लिया था कि अब हम वह हासिल करेंगे जो तुम यानी अपमानित करने वाले लोग जिंदगी भर हासिल नहीं कर सकते। 
    तब हमें पता चला की जिंदगी में किसी भी तरह का कन्फ्यूजन नहीं होना चाहिए।
कुछ बड़ा होने पर एक शब्द गूंजता था पार्थ युद्ध करो जीवन का हर पल युद्ध है, जीवन युद्ध है जो दुनिया रूपी इस कुरुक्षेत्र से होता रहता है  किससे कोई नहीं बचता। जीवन के इस कुरुक्षेत्र में वही विजेता होता है जो अहर्निश युद्ध करता है ऐसा युद्ध जो रक्त नहीं बहाता परंतु युद्ध रत पार्थों का जीवन उजला बनाता है। 
     
*गिरीश बिल्लोरे मुकुल*

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