10.9.20

आओ....खुद से मिलवाता हूँ..!! भाग 04


गंदगी स्वच्छता और ज्ञान का अभाव कुछ ऐसा प्रसव पूर्व और दशक के बाद की सावधानियाँ उच्च मध्यम वर्ग तक को नहीं मालूम थी और वह काल भारत सरकार के लिए भी संकट का काल था ।
मेरे जन्म के समय का भारत टीनएजर भारत था । तब का भारत कैसा था मुझसे ज्यादा तो उन्हें मालूम होगा जो भारत में 1947 से 1955 के बीच 5 या 6 वर्ष के रहे होंगे । 
 उस दशक के बारे में इससे ज्यादा कुछ लिखने के लिए मेरे पास बहुत कुछ नहीं है इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं  पूरी कहानियां जिसे पढ़कर लगता है कि तब का मध्यम वर्ग आज के निम्न वर्ग के समान ही रहा होगा ऐसा मेरा मानना है हो सकता है मैं गलत ही हूं या गलत भी हूँ । 

    मेरे मुंबई वाले काका जिनका नाम रमेशचंद्र बिल्लोरे है की शादी इटारसी के ऐन पहले गुर्रा नाम की स्टेशन में पिताजी पदस्थ थे से संपन्न हुई। और मैं पहली बार बरात में गया अपने काका की शादी में। बहुत कम उम्र थी। पर आश्चर्य होता था कि जो भी मुझे देखता मेरे विषय में बात करता था। कहते हैं कि मैं बहुत सुंदर दिखता था परंतु खड़ा नहीं हो पाता था मुझे कोई ना कोई गोद में ले जाकर एक जगह से दूसरी जगह पर रख देता था। और वह मेरे लिए काफी देर तक बैठे रहने के लिए अड्डा बन जाता था।
    तब तक ईश्वरी चाचा ने मेरे लिए कोई बैसाखी ईजाद नहीं की थी। जिन चाची को लेने हम बारात लेकर गए थे उनकी एक बहन नेत्र दिव्यांग थीं । और उन्हें देखकर मुझे आश्चर्य हुआ मैंने उनसे पूछा कि आप को दिखता नहीं है क्या ?
उन्होंने कहा- हां मुझे नहीं दिखता ।
      यह रिश्ता तो मुझे मालूम था कि वे मेरी मौसी हैं मैंने कहा मौसी दिखता है मुझे लेकिन मैं वहां तक जा नहीं सकता !
मौसी ने पूछा तुम जा क्यों नहीं सकते जाओ देखो मंडप में क्या काम हो रहा है ?
मैंने कहा मौसी मैं चल नहीं सकता और घुटने के बल अगर जाऊंगा तो मेरे पैरों में और घुटने में  मिट्टी रेट कंकड़ लगेंगे ।
मैंने पहली बार ज्योति विहीन आंखों में आंसू देखे थे उनके । वे मुझे देख कर द्रवित और करूणा से भर गईं । पर मैं समझ नहीं पाया था । 
भाव शून्य  हो कर उनको देखता रहा मुझे लगा कि उनको कोई और तकलीफ होगी जिससे वे रो रहीं हैं ।
  ऐसा नहीं कि मेरा ध्यान कोई नहीं रखता था सभी रखते थे विशेष रूप से रखते थे। 
     मेरे पिताजी का एक बहुत बड़ा परिवार है पिता के परिवार में सात भाई और चार बहनें हुआ करती थीं । आजा स्वर्गीय गंगा विशन बिल्लोरे कृषक और मकड़ाई रियासत के पटवारी थे बाद में वे रियासत के रैवेन्यू इंस्पेक्टर भी हुए । उनकी पोस्टिंग उनके गृह ग्राम सिराली में ही थी ।
   मेरे जन्म के पूर्व ही उनका निधन हो चुका था । दादी का नाम था गंगा तुल्य रामप्यारी देवी । दादी बड़ी जीवट महिला थी । ब्रिटिश इंडिया के किसान की भार्या को कुशल गृह प्रबंधन का दायित्व निर्वाहन करना हमारी पर पितामहि ने सिखाया गया।
    मेरी दादी के सर पर जब भी हाथ फेरता तो पूछता बड़ी बाई आप बाल क्यों कटवा लेती हो और कब ? अच्छा नहीं लगता था दादी को शायद यह सवाल । वे  अक्सर टाल जाया करती और इधर उधर की बातें किया करती थीं ।  दादी अधिकतर सफेद साड़ी पहना करती थीं पर सूरज के 7 अश्वों (मेरे ताऊ पिता और काका जी लोगों ) को ये ना पसन्द था  । चैक वाली सुनहली पतली बॉर्डर वाली साड़ियां उनके पास नज़र आने लगीं थीं।  मुझे उनके बारे में कुछ याद हो ना हो दादी की खुशबू आज तक याद है । पता नहीं आजकल बच्चे महसूस कर पाते हैं या नहीं पर मुझे मेरी दादी की खुशबू भुलाए नहीं भूलती । 
 बुआ विधवा हो गईं थीं वे भी बेचारी सफेद धोती पहनतीं थीं पर प्रगतिशील परिवार  ने उनको भी कलर्ड साड़ियाँ पहनवानी शुरू कर दीं ।  सफेद चमकदार बाल बुआ की पहचान थी। गलती करने पर बुआ तर्जनी और अंगूठे से इस कदर चमड़ी मसल देतीं थीं कि उफ़ हालत खराब । बुआ की बेटी ब्याह दी गई थी । 
     मेरी एक और बुआ जी का निधन मेरी जन्म के पूर्व ही हो गया था परंतु फूफा जी की दूसरी शादी हुई और उनकी जो नई पत्नी थी उनको मेरे पिताजी के सभी भाई और उनकी पत्नियां यानी मेरी ताई जी काकी जी सभी बिल्लोरे परिवार की सदस्य ही मानती हैं ।  आज तक हम यह महसूस नहीं कर पा रहे कि इन की संताने हमारी वंश की नहीं हैं । हमें बहुत बाद में पता चला कि हमारे फूफाजी डीएन जैन कॉलेज में क्लर्कशिप करते हैं। जिनकी पत्नी यानी हमारी बुआ किसी और परिवार की बेटी हैं । अदभुत रिश्ते जिनको बनाना भी सहज और सम्हालना तो और भी सरल था ।  
   गर्व का अनुभव होता है कि भारत में यह व्यवस्था हर एक परिवार में जीवंत है अब है कि नहीं यह तो मुझे नहीं मालूम परंतु हमने इसे महसूस किया है ।
  जीवन में पीछे मुड़के जब देखो तो पता चलता है कि हम कितने गरीब किंतु रिश्तों से कितने धनी लोग हुआ करते थे।
  हमारी सबसे बड़े पिताजी श्री पुरुषोत्तम जी जो रेलवे में फायरमैन हुआ करते थे और गंभीर रूप से अस्वस्थ होने के कारण उन्होंने रेलवे की नौकरी छोड़ दी और वह कालांतर में तहसील में क्लर्कशिप करने लगी थी। उन्हें पूरा परिवार पिताजी के नाम से जानता था। उनसे छोटे वाले भाई श्री शिवचरण जी को बप्पा, एडवोकेट श्री ताराचंद्र प्रकाश जी को काका साहब की पारिवारिक उपाधि दी गई थी। उनके बाद चौथे  ताऊ जी राम शंकर जी को भैया जी के नाम से पुकारा जाता रहा । पूज्य बाबूजी को पूरा कुटुंब भैया साहब और उमेश नारायण जी को छोटा भाई तथा जिनको मैं अब तक मुंबई वाले काका कहकर संबोधित करता रहा उनका वास्तविक नाम रमेश नारायण जी है, उनको कुटुंब में नाना भाई के नाम से संबोधित किया जाता है ।
   सूरज के सातों घोड़े स्वयं स्फूर्त स्वयं  ऊर्जावान और स्वयम में संस्कारों के प्रकाश के साथ जीवन संघर्ष के लिए आज से 80 वर्ष पूर्व हरदा और जबलपुर में आ गए । मध्य प्रदेश का पंजाब कहलाने वाला हरदा जिला होशंगाबाद ज़िला हुआ करता था । खेती किसानी नुकसान होना सामान्य सी बात हुआ करती थी ।
सिराली में हमारी जमीन की उपज़  भरपूर थी परंतु एक बहुत बड़े कल को ध्यान में रखते हुए हमारे पूर्वज श्री गंगा विशन जी ने यह निर्णय लिया कि सारे बच्चे गांव में नहीं  बल्कि क्रमशः हरदा और पहले वाले की जहां जॉब होगी सारे भाई उनके पास रहकर ही पढ़ेंगे और सरकारी नौकरियों में जाएंगे। हुआ भी यही परिवार के सातों सितारे कहीं ना कहीं सामान्य से सुरक्षित जीवन की कामना से जबलपुर आ गए ।  तब गांव से हरदा तक आना जाना भी बहुत मुश्किल होता था या तो आप पैदल आइए या बैलगाड़ी से आए या फिर फौजदार साहब की बस में आए । मकड़ाई स्टेट में चलने वाली बसों में आज की ड्राइवर के पीछे की सीट पर स्टेट के राज परिवार के लिए स्थान सुरक्षित रहता है अब फौजदार साहब की संताने परंपरा निभातीं हैं कि नहीं इसका हमें ज्ञान नहीं है । पर शाह परिवार के राजा साहब के प्रति उनकी रियाया , और उनके वंशजों में सम्मान जरूर है।
   राज्य सेवा में उस परिवार के 2 सदस्य तो मेरे साथ ही हैं ।
    सिराली से हरदा होते हुए जबलपुर तक की 80 बरस पुरानी यात्रा ने इस वंश को बहुत कुछ दिया है। आप सोचते होंगे कि मैं आत्मकथा लिख रहा हूं या समकालीन सामाजिक परिस्थितियों तो कभी वंशावली से परिचित कराने की कोशिश कर रहा हूं । सुधी पाठकों लेखन एक प्रवाह है और आत्मकथा लिखना तो सबसे बड़ा कठिन कार्य है ।
लेखक के मानस में विचार आते हैं और उतरते जाते हैं अक्षर बनकर ! इस प्रवाह को रोकना मेरे बस में नहीं है अतः क्षमा कीजिए परंतु जरूरी इसलिए भी है कि आप परिचित हो जाएं कि हमारी वंश में और कौन-कौन है.. तो जानिए कि जब हम पूरे परिवार के लोग एकत्र हो जाते हैं तो हमें बहुत बड़ी व्यवस्था सुनिश्चित करनी होती है ।  हमारी तरह की ऐसे सैकड़ों परिवार होंगी जो परंपराओं के साथ रिश्तों  को बड़े उल्लास के साथ जीवंत बनाए रखते हैं ।
  लेखन में काल्पनिकता से ज्यादा वास्तविकता का समावेश करना जरूरी है वरना भविष्य में अदालतों में सिद्ध होता है कि राम कहां पैदा हुए !
    हमारे कवियों लेखकों एवं विचारकों ने राम की कहानी कुछ इतनी काल्पनिक लिख दी जिसका फायदा उठाकर लोगों ने उसे मिथक मान लिया इसलिए पाठकों को यह संदेश देना जरूरी है वह किताब में बिल्कुल प्रमोट ना की जाए जिनमें यथार्थ को भविष्य में शक नजरिए से देखा जाए ।
जीवन पर गहरा प्रभाव छोड़ने वाले इन सातों के बारे में आगे फिर कभी
( क्रमशः भाग 5 में जारी )

9.9.20

जन्मपर्व की बधाई आशा ताई

जन्म पर्व की हार्दिक बधाई आशा ताई
आशा भोसले (जन्म: 8 सितम्बर 1933) हिन्दी फ़िल्मों की मशहूर पार्श्वगायिका हैं। लता मंगेशकर की छोटी बहन और दिनानाथ मंगेशकर की पुत्री आशा ने फिल्मी और गैर फिल्मी लगभग 16 हजार गाने गाये हैं और इनकी आवाज़ के प्रशंसक पूरी दुनिया में फैले हुए हैं। हिंदी के अलावा उन्होंने मराठी, बंगाली, गुजराती, पंजाबी, भोजपुरी, तमिल, मलयालम, अंग्रेजी और रूसी भाषा के भी अनेक गीत गाए हैं। आशा भोंसले ने अपना पहला गीत वर्ष 1948 में सावन आया फिल्म चुनरिया में गाया। 
  लता जी आशा जी  सहित सभी गायकों के बारे में बहुत कुछ इंटरनेट पर   विकिपीडिया पर मौजूद है । आप देख सकते हैं परंतु मेरे नज़रिए से  से मैंने आशा जी  की आवाज को एक्सप्लेन कर रहा हूं । 
आशा जी की दिलकश आवाज युवाओं की दिल धड़काने के लिए काफी होती थी हमारे दौर में इश्क और मोहब्बत सबसे बड़ा वर्जित विषय था परंतु मुकेश का गीत याद ही होगा हर दिल जो प्यार करेगा वह गाना गाएगा । जिसे आज क्रश कहा जाता है तब भी हुआ करता था, और उसे अभिव्यक्त करने के लिए आशा जी सुमन कल्याणपुर  और लता ताई के सुर पर्याप्त हुआ करते थे । आज आशा जी के जन्म पर्व पर मैं उनके चरणों में नमन करता हूं। आप लोग चाहे तो रिया सुशांत सीबीआई की जांच वाले चैनलों से छुट्टी लेकर आज आशा जी के गीतों को सुनिए आपके इस सेल फोन पर पूरसुकून देने वाले यह बॉलीवुड नगमे मौजूद है
  उनका यह दौर 60 के दशक से हम जैसे संगीत प्रेमियों की दिल पर छाप छोड़े जा रहा था । 
उस दौर में आशा जी की तुलना जब लता जी से की जाती थी तब अपने साथियों को मैं समझाता था की आने वाली पीढ़ियां इससे भी फास्ट गीतों को पसंद करेंगी । अब तो न शब्द और ना ही वह हुनरमंद गायक या गायिकाएं  जिनकी आवाज हमारे दिलों पर कुछ इस तरह हावी हो जाएगी नाचने को दिल करने लगे । आशा जी का तो इस कदर दीवाना हो गया कि मेरी बेटी जब संगीत की ओर झुकती नजर आई तो ढेरों सीडी आशा जी के  गीतों वाली मालवीय चौक से खरीदने में मुझे कोई मुश्किल ना हुई। उन दिनों इंटरनेट की स्पीड भी बहुत कम थी शायद यूट्यूब के बारे में भी मुझे खास जानकारी नहीं थी। हां कंप्यूटर था स्पीकर थे  और गीतों को सुनने की संगीत में डूब जाने की लालच हुआ करती थी । फेवीक्विक से कैसेटस जोड़ते जोड़ते पागल हो जाने वाले हम अब कंपैक्ट डिस्क के मुरीद हो गए । थ्री इन वन फिलिप्स का वीडियो रिकॉर्डर और कैसेट प्लेयर बार-बार परेशान भी तो करने लगा था खैर जब जब जो जो होना है तब तक सो सो होता है। अभी भी बेहतरीन कलेक्शन हमारे पास मौजूद है पर आशा जी के गीतों के सीडी पनाह मांग रहे हैं। आशा जी और लता जी के दौर को वापस लाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी है। परंतु यह बच्चे उस दौर को वापस ला सकते हैं तो आइए सुनते हैं शांभवी पंड्या और इशिता तिवारी स्वरों में दो गीत यद्यपि वर्तमान दौर की चुनिंदा गीत ही मुझे पसंद है उस दौर के गीतों को कौन भुलाएगा ..! यह वह दौर था जब हम नए-नए कथित रूप से बड़े हुए थे चार लोग क्या कहेंगे इस बात का भी हमें दर्द बना रहता था। अब वह चार लोग पता नहीं है भी कि नहीं इस दुनिया में होते तो भी हम कमसिनी के दौर में पसंद आई गीतों को ख्यालों को और उस दौर की रूमानियत को भी अपने जेहन से अलग नहीं कर सकते

7.9.20

गिद्ध मीडिया...!आलेख- सलिल समाधिया

 !
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बस करो यार !! 
हद होती है किसी चीज की !
उस पर आरोप लगा है, वह दोषी सिद्ध नहीं हुई है अभी !
कानून अपना काम कर रहा है, उसके बाद न्यायालय अपना काम करेगा !
आपका काम मामले को उजागर करना था, कर दिया न !
अब बस करो,  हद होती है किसी चीज की !!
वह भी एक स्त्री है,उसकी भी अपनी निजता है, कुछ गरिमा है !!
टी.आर.पी के लिए कितना नीचे  गिरोगे !

यह ठीक है कि सुशांत के परिवार को न्याय मिलना चाहिए ! यह भी ठीक है कि अगर सुशांत की मृत्यु में कुछ Fowl play नज़र आता है तो उसकी जांच होनी चाहिए.. सो वो हो रही है !
देश की सबसे सक्षम जांच एजेंसियां आप अपना काम कर रही हैं !
जिम्मेदार मीडिया होने के नाते आप का काम उन तथ्यों को सामने लाना था.. जो संदेहास्पद थे ! वह काम आपने कर दिया ! आपको धन्यवाद,  अब बस कीजिए !!!
 अन्य मसले भी हैं देश में!
NCRB (National Crime Records Bureau) के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष लगभग 1,20,000 से अधिक आत्म हत्याएं होती हैं ! साल 2019 में 1,39, 123 आत्महत्याएं रजिस्टर हुई हैं !
Crime against women की संख्या 3,59,849 है !(October 21, 2019 NCRB )
मादक पदार्थो, हत्याओं, दलित उत्पीड़न, भ्रष्टाचार आदि की बात ही मत पूछिए !  चूंकि आंकड़े बताना बोरिंग काम है.. इसलिए उनका जिक्र नहीं कर रहा हूं !
किंतु इन अपराधों के सामाजिक-आर्थिक कारणों की तहकीकात भी मीडिया द्वारा की जानी चाहिए कि नहीं ?? 
 हजार मसले हैं इस देश में - शिक्षा भी,  रोजगार भी,  स्वास्थ्य भी !
 हजार घटनाएं रोज घटती हैं.. अच्छी भी,  बुरी भी!
मगर उनसे टीआरपी नहीं मिलती इसलिए कोई न्यूज़ चैनल, उन्हें नहीं दिखाता !
एक संवाददाता नहीं झांकता उन गांव और गलियों में... जहां ब्रूटल रेप और नृशंस हत्याएँ हो जाती हैं.. और पीड़ित परिवार भय से चुप्पी साधे रह जाता है !
... इसी तरह उन अच्छी खबरों पर भी कोई झांकने नहीं जाता.. जहां गरीबी और अभावों के बीच भी.. कोई प्रतिभा का फूल खिलता है !

 मगर 2 ग्राम, 10 ग्राम गांजा खरीदने वाला, शौविक राष्ट्रीय न्यूज़ बन जाता है!!
आए दिन अनेक शहरों में लाखों रुपयों की ब्राउन शुगर, हशीश, कोकेन, एलएसडी पकड़ी जाती है... और चार ठुल्लों के साथ लोकल अखबार के किसी कोने में न्यूज़ छप जाती है !
लेकिन कोई NCB की बड़ी जाँच नही होती.. किसी माफिया, किसी नेक्सस का पर्दाफ़ाश नही होता ! 
.. किसी न्यूज़ चैनल के लिए ये अपराध, न्यूज़ नहीं बनते.. क्योंकि इनसे टीआरपी नहीं मिलती !
 
लेकिन अकेले मीडिया को ही क्यों गुनाहगार ठहराया जाए !!!
हम लोग भी क्या कम हैं.. जो चस्के ले लेकर  इन 'मनोहर कहानियों' को देखते हैं !
 दो टके की, सड़ियल सी खबर की लाश पर.. गिद्धों से मंडराते संवाददाता और कैमरामैन...., 
 और उन्हें  टीवी पर टकटकी लगाए देखतीं.. हमारी जिगुप्सा भरी, रसोन्मादी, क्रूर ऑंखें  !!
.. और फिर मोबाइल के कीपैड से बरसती नफरतें, शर्मसार कर देने वाली अश्लील फब्तियां और फूहड़ मज़ाक़ !!
...अगर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया लाशखोर गिद्ध है.. तो हम भी, मौका मिलते ही बोटी खींच निकालने वाले हिंसक भेड़ियों से कम नहीं है !!
 यही वजह है कि सत्तर दिन से अधिक हो गए हैं.. मगर शौविक, रिया और मिरांडा की "सत्य-कथाएं" हर न्यूज़ चैनल के स्टॉल पर अब भी, बेस्ट सेलर बनी बिक रही हैं !!
मीडिया की छोड़िए,  जरा आत्म निरीक्षण कीजिए कि हम क्या देख रहे हैं, क्यों देख रहे हैं, कितना देख रहे हैं... और कब तक देखेंगे ?? 
 हद होती है किसी चीज की !!
"रिया" को खूब देख लिया, अब ज़रा अपना "जिया" भी देख लें !

##सलिल##

6.9.20

भीष्म पितामह के तर्पण के बिना श्राद्ध कर्म अधूरा क्यों ?

     
गंगा और शांतनु के पुत्र देवव्रत ने शपथ ली कि मुझे आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करना है तो यह पूछा कि उसे कोई आशीर्वाद मिले . हस्तिनापुर की राजवंश की रक्षा अर्थात संपूर्ण राष्ट्र की रक्षा का दायित्व लेकर ब्रह्मचारी भीष्म पितामह के नाम से प्रसिद्ध हुए इस पर बहुत अधिक विवरण देने की जरूरत नहीं है। आप सभी इस तथ्य से परिचित ही है .
 
      भीष्म पितामह को श्राद्ध पक्ष में याद क्यों किया जाता है यह महत्वपूर्ण सवाल है ?
     सुधि पाठक आप जानते हैं कि महाभारत धर्म युद्ध होने के एक कौटुंबिक युद्ध भी था ! क्योंकि इसमें पारिवारिक विरासत का राज्य एवं भूमि विवाद शामिल था। ध्यान से देखें तो हस्तिनापुर पर दावा तो पांडव कब का छोड़ चुके थे। महायोगी कृष्ण के संपर्क में आकर उन्होंने मात्र 5 गांव मांगे थे। परंतु कुटुंब में युद्ध सभी होते हैं जबकि अन्याय सर चढ़कर बोलता है। विधि व्यवसाय से जुड़े विद्वान जानते हैं कि सर्वाधिक सिविल मामले न्यायालयों में आज भी  रहते हैं। महाभारत का स्मरण दिला कर हमारे  पुराणों के रचनाकारों ने यह बताने की कोशिश की है कि कौटुंबिक अन्याय हमारे पूर्वजों पर ही भारी पड़ता है। हमें अन्याय नहीं करना चाहिए ना ही उस अन्याय में भागीदारी देनी चाहिए। पारिवारिक की सा प्रतिस्पर्धा निंदा अच्छा या बुरा होने की निरंतर समीक्षा भेद की दृष्टि अर्थात अपने और अन्यों के पुत्रों में पुत्रियों में अंतर स्थापित करने की प्रक्रिया और घर में बैठकर अपने बच्चों को यह सामने पूर्वजों या समकालीन रिश्तेदारों को पूछने की प्रक्रिया आज के दौर में महाभारत को जन्म देती है। विद्वान ऋषि मुनि जान  चुके थे कि द्वापर के बाद कलयुग में यह स्थिति चरम पर होगी। पिता अपनी संतानों को श्रेष्ठ साबित करेंगे और सदा केवल उन्हीं के पक्ष में बोलेंगे, कई बार तो असंतुष्ट पिता और माताएं संतानों में ही भेद की दृष्टि अपनाने लगेगी । चाचा बाबा दादा काका बुआ भतीजे केवल आत्ममुग्ध होकर सामुदायिक न्याय से विमुख होंगे, संपदा एवं अस्तित्व की लड़ाई होगी सब परिजन अदृश्य रूप से युद्ध रत होंगी और वह युद्ध महाभारत का होगा। ऐसे युद्ध की परिणीति का स्वरुप होगा कि घर का कोई ना कोई बुजुर्ग जीत या हार के  परिणाम के बावजूद  सर-शैया पर लेटा हुआ नजर आएगा है ।
     जहाँ तक भीष्म के पास  इच्छा मृत्यु का वरदान था ।  मिला या उन्होंने मांग लिया था ये अलग मुद्दा है । वे चाहते थे कि जब सूर्य दक्षिणायन हो तब उनकी आत्मा शरीर को छोड़ें। वे सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा करते हुए वह मृत्यु की प्रतीक्षा करते रहे। अगर मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से हम समझे तो पाते हैं कि भीष्म पितामह पीड़ा की उस शैया पर लेटे लेटे मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे जो शैया उन्हें चुप रही थी ।
यह शैया कैसे बनी थी ?
  जी हां यह बनी थी उन परिजनों की मर जाने के दुखों से ....!
  हजारों हजार रिश्तेदार मारे गए थे और यह महा शोक पल-पल उन्हें चुभ रहा था !
    इतना बड़ा विशाल लेकर मरने वाली भीष्म पितामह की आत्मा को शांति मिले इसलिए पुराणों में कहानियों में पितृपक्ष के दौरान भीष्म पितामह के लिए भी अपना परिजन मानते हुए तर्पण किया जाता है ।
   बिना भीष्म पितामह को अंजुरी जल दिए श्राद्धकर्म अपूर्ण है । और यह तर्पण इसलिए किया जाता है कि हम याद रखें कि हम कौटुंबिक युद्ध में अपने कुटुंब को ना जो झोंके। हम सत्ता पद प्रतिष्ठा यश और  नाम की लालच में पक्षद्रोही ना होकर और सदा अपने कुटुंब के साथ ही रहें ।
भीष्म पितामह का तर्पण यही संदेश देता है।

4.9.20

पूज्य गुरुदेव ब्रह्मलीन स्वामी शुद्धानंद नाथ का जीवन सूत्र 27 सितम्बर 1960


पूज्य गुरुदेव ब्रह्मलीन स्वामी शुद्धानंद नाथ का जीवन सूत्र 27 सितम्बर 1960 श्रीधाम आश्रम सतना*
अपने मन से झूठे मत बनो। कितना भी बड़ा दुष्कर्म मन से या तन से हुआ हो उसे मंजूर करो , उसे दूसरा रंग मत दो, उसका दोस्त दूसरों पर ना करो । जो भी होता है वह अपनी ही भूल के कारण होता है। इसलिए अपने मन से और मन में भूल को मत छुपाओ, भूल की छानबीन करो। अपनी मम्मत्व भावना अपने को  निष्पक्ष विचार करने से रोकती है । इसलिए हम तो भाव को त्याग करके विचार करने का प्रयत्न करो।
   जीवन के सरल से सरल पद पर रहना ही अध्यात्म कहा जाता है। जीवन में प्राप्त और अब प्राप्त वस्तुओं की प्रीति और वियोग में ही चित्र का विकास होता है। विकास की प्रक्रिया ही अध्यात्मिक साधना का अंतरंग है। इस प्रक्रिया से सिद्धि हेतु वातावरण का निर्माण अनुकूलता की रचना तथा प्रतिकूलता के साथ युद्ध करने का सामर्थ्य उत्पन्न करना होता है।
   इस सामर्थ्य के के लिए बहुत सी बहिरंग साधनाएं करनी पड़ती हैं । धारणा के योग्य मनस्वी गुरु जन इस प्रकार का आदेश देते हैं। आज से आपके जीवन में एक नया जागरण होने जा रहा है ।
#शुद्धानंद

3.9.20

गिरीश के दोहे

*गिरीश के दोहे*
फूटा कलसा देख तू, भय का बीन बजाय ?
टूटे घड़े कुम्हार के, वंश कहां रुक जाए ।
हर कण क्षण नश्वर सखि, देह होय कै शान !
चेतन पथ तैं दौड़ जा, तेहि पथ पै भगवान
कुंठा तर्क-कुतर्क से, जीत न सकि हौ आप
ब्रह्म अनावृत होत ह्वै, जीव जो करै जब ताप
कान्हा तोड़ें दधि कलश, गोपिन मन में भाग
कंस वधिक श्रीकृष्ण ने, खोले जन जन भाग ।।
*गिरीश बिल्लोरे मुकुल*
कंस वधिक श्रीकिशन ने, खोले सबके भाग
गिरीश बिल्लोरे मुकुल

1.9.20

विघ्नहर्ता को विदा एवम उत्तम क्षमा

*मान्यवर एवम महोदया*
आपका एक एक शब्द विनम्रता और महानता का सूचक बन गया है। आप सब  मेरे जीवन के लिए  आईकॉनिक व्यक्तियों की तरह ही हैं ।
सभी तीर्थंकरों को नमन करते हुए उत्तम क्षमा पर्व पर्यूषण पर्व एवं बुद्धि विनायक  गणेश विसर्जन पर्व पर आप सबको को शत-शत नमन करता हूं ।  
मुझसे जाने अनजाने में अगर कोई ऐसी अभिव्यक्ति हो गई हो जो आपके सम्मान और मानसिक भाव के लिए अनुचित हो इसलिए मैं बिना किसी संकोच क्षमा प्रार्थी हूं .

*गिरीश बिल्लोरे मुकुल*
संचालक बालभवन जबलपुर

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विश्व का सबसे खतरनाक बुजुर्ग : जॉर्ज सोरोस

                जॉर्ज सोरोस (जॉर्ज सोरस पर आरोप है कि वह भारत में धार्मिक वैमनस्यता फैलाने में सबसे आगे है इसके लिए उसने कुछ फंड...