गंदगी स्वच्छता और ज्ञान का अभाव कुछ ऐसा प्रसव पूर्व और दशक के बाद की सावधानियाँ उच्च मध्यम वर्ग तक को नहीं मालूम थी और वह काल भारत सरकार के लिए भी संकट का काल था ।
मेरे जन्म के समय का भारत टीनएजर भारत था । तब का भारत कैसा था मुझसे ज्यादा तो उन्हें मालूम होगा जो भारत में 1947 से 1955 के बीच 5 या 6 वर्ष के रहे होंगे ।
उस दशक के बारे में इससे ज्यादा कुछ लिखने के लिए मेरे पास बहुत कुछ नहीं है इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं पूरी कहानियां जिसे पढ़कर लगता है कि तब का मध्यम वर्ग आज के निम्न वर्ग के समान ही रहा होगा ऐसा मेरा मानना है हो सकता है मैं गलत ही हूं या गलत भी हूँ ।
मेरे मुंबई वाले काका जिनका नाम रमेशचंद्र बिल्लोरे है की शादी इटारसी के ऐन पहले गुर्रा नाम की स्टेशन में पिताजी पदस्थ थे से संपन्न हुई। और मैं पहली बार बरात में गया अपने काका की शादी में। बहुत कम उम्र थी। पर आश्चर्य होता था कि जो भी मुझे देखता मेरे विषय में बात करता था। कहते हैं कि मैं बहुत सुंदर दिखता था परंतु खड़ा नहीं हो पाता था मुझे कोई ना कोई गोद में ले जाकर एक जगह से दूसरी जगह पर रख देता था। और वह मेरे लिए काफी देर तक बैठे रहने के लिए अड्डा बन जाता था।
तब तक ईश्वरी चाचा ने मेरे लिए कोई बैसाखी ईजाद नहीं की थी। जिन चाची को लेने हम बारात लेकर गए थे उनकी एक बहन नेत्र दिव्यांग थीं । और उन्हें देखकर मुझे आश्चर्य हुआ मैंने उनसे पूछा कि आप को दिखता नहीं है क्या ?
उन्होंने कहा- हां मुझे नहीं दिखता ।
यह रिश्ता तो मुझे मालूम था कि वे मेरी मौसी हैं मैंने कहा मौसी दिखता है मुझे लेकिन मैं वहां तक जा नहीं सकता !
मौसी ने पूछा तुम जा क्यों नहीं सकते जाओ देखो मंडप में क्या काम हो रहा है ?
मैंने कहा मौसी मैं चल नहीं सकता और घुटने के बल अगर जाऊंगा तो मेरे पैरों में और घुटने में मिट्टी रेट कंकड़ लगेंगे ।
मैंने पहली बार ज्योति विहीन आंखों में आंसू देखे थे उनके । वे मुझे देख कर द्रवित और करूणा से भर गईं । पर मैं समझ नहीं पाया था ।
यह रिश्ता तो मुझे मालूम था कि वे मेरी मौसी हैं मैंने कहा मौसी दिखता है मुझे लेकिन मैं वहां तक जा नहीं सकता !
मौसी ने पूछा तुम जा क्यों नहीं सकते जाओ देखो मंडप में क्या काम हो रहा है ?
मैंने कहा मौसी मैं चल नहीं सकता और घुटने के बल अगर जाऊंगा तो मेरे पैरों में और घुटने में मिट्टी रेट कंकड़ लगेंगे ।
मैंने पहली बार ज्योति विहीन आंखों में आंसू देखे थे उनके । वे मुझे देख कर द्रवित और करूणा से भर गईं । पर मैं समझ नहीं पाया था ।
भाव शून्य हो कर उनको देखता रहा मुझे लगा कि उनको कोई और तकलीफ होगी जिससे वे रो रहीं हैं ।
ऐसा नहीं कि मेरा ध्यान कोई नहीं रखता था सभी रखते थे विशेष रूप से रखते थे।
ऐसा नहीं कि मेरा ध्यान कोई नहीं रखता था सभी रखते थे विशेष रूप से रखते थे।
मेरे पिताजी का एक बहुत बड़ा परिवार है पिता के परिवार में सात भाई और चार बहनें हुआ करती थीं । आजा स्वर्गीय गंगा विशन बिल्लोरे कृषक और मकड़ाई रियासत के पटवारी थे बाद में वे रियासत के रैवेन्यू इंस्पेक्टर भी हुए । उनकी पोस्टिंग उनके गृह ग्राम सिराली में ही थी ।
मेरे जन्म के पूर्व ही उनका निधन हो चुका था । दादी का नाम था गंगा तुल्य रामप्यारी देवी । दादी बड़ी जीवट महिला थी । ब्रिटिश इंडिया के किसान की भार्या को कुशल गृह प्रबंधन का दायित्व निर्वाहन करना हमारी पर पितामहि ने सिखाया गया।
मेरी दादी के सर पर जब भी हाथ फेरता तो पूछता बड़ी बाई आप बाल क्यों कटवा लेती हो और कब ? अच्छा नहीं लगता था दादी को शायद यह सवाल । वे अक्सर टाल जाया करती और इधर उधर की बातें किया करती थीं । दादी अधिकतर सफेद साड़ी पहना करती थीं पर सूरज के 7 अश्वों (मेरे ताऊ पिता और काका जी लोगों ) को ये ना पसन्द था । चैक वाली सुनहली पतली बॉर्डर वाली साड़ियां उनके पास नज़र आने लगीं थीं। मुझे उनके बारे में कुछ याद हो ना हो दादी की खुशबू आज तक याद है । पता नहीं आजकल बच्चे महसूस कर पाते हैं या नहीं पर मुझे मेरी दादी की खुशबू भुलाए नहीं भूलती ।
मेरे जन्म के पूर्व ही उनका निधन हो चुका था । दादी का नाम था गंगा तुल्य रामप्यारी देवी । दादी बड़ी जीवट महिला थी । ब्रिटिश इंडिया के किसान की भार्या को कुशल गृह प्रबंधन का दायित्व निर्वाहन करना हमारी पर पितामहि ने सिखाया गया।
मेरी दादी के सर पर जब भी हाथ फेरता तो पूछता बड़ी बाई आप बाल क्यों कटवा लेती हो और कब ? अच्छा नहीं लगता था दादी को शायद यह सवाल । वे अक्सर टाल जाया करती और इधर उधर की बातें किया करती थीं । दादी अधिकतर सफेद साड़ी पहना करती थीं पर सूरज के 7 अश्वों (मेरे ताऊ पिता और काका जी लोगों ) को ये ना पसन्द था । चैक वाली सुनहली पतली बॉर्डर वाली साड़ियां उनके पास नज़र आने लगीं थीं। मुझे उनके बारे में कुछ याद हो ना हो दादी की खुशबू आज तक याद है । पता नहीं आजकल बच्चे महसूस कर पाते हैं या नहीं पर मुझे मेरी दादी की खुशबू भुलाए नहीं भूलती ।
बुआ विधवा हो गईं थीं वे भी बेचारी सफेद धोती पहनतीं थीं पर प्रगतिशील परिवार ने उनको भी कलर्ड साड़ियाँ पहनवानी शुरू कर दीं । सफेद चमकदार बाल बुआ की पहचान थी। गलती करने पर बुआ तर्जनी और अंगूठे से इस कदर चमड़ी मसल देतीं थीं कि उफ़ हालत खराब । बुआ की बेटी ब्याह दी गई थी ।
मेरी एक और बुआ जी का निधन मेरी जन्म के पूर्व ही हो गया था परंतु फूफा जी की दूसरी शादी हुई और उनकी जो नई पत्नी थी उनको मेरे पिताजी के सभी भाई और उनकी पत्नियां यानी मेरी ताई जी काकी जी सभी बिल्लोरे परिवार की सदस्य ही मानती हैं । आज तक हम यह महसूस नहीं कर पा रहे कि इन की संताने हमारी वंश की नहीं हैं । हमें बहुत बाद में पता चला कि हमारे फूफाजी डीएन जैन कॉलेज में क्लर्कशिप करते हैं। जिनकी पत्नी यानी हमारी बुआ किसी और परिवार की बेटी हैं । अदभुत रिश्ते जिनको बनाना भी सहज और सम्हालना तो और भी सरल था ।
मेरी एक और बुआ जी का निधन मेरी जन्म के पूर्व ही हो गया था परंतु फूफा जी की दूसरी शादी हुई और उनकी जो नई पत्नी थी उनको मेरे पिताजी के सभी भाई और उनकी पत्नियां यानी मेरी ताई जी काकी जी सभी बिल्लोरे परिवार की सदस्य ही मानती हैं । आज तक हम यह महसूस नहीं कर पा रहे कि इन की संताने हमारी वंश की नहीं हैं । हमें बहुत बाद में पता चला कि हमारे फूफाजी डीएन जैन कॉलेज में क्लर्कशिप करते हैं। जिनकी पत्नी यानी हमारी बुआ किसी और परिवार की बेटी हैं । अदभुत रिश्ते जिनको बनाना भी सहज और सम्हालना तो और भी सरल था ।
गर्व का अनुभव होता है कि भारत में यह व्यवस्था हर एक परिवार में जीवंत है अब है कि नहीं यह तो मुझे नहीं मालूम परंतु हमने इसे महसूस किया है ।
जीवन में पीछे मुड़के जब देखो तो पता चलता है कि हम कितने गरीब किंतु रिश्तों से कितने धनी लोग हुआ करते थे।
हमारी सबसे बड़े पिताजी श्री पुरुषोत्तम जी जो रेलवे में फायरमैन हुआ करते थे और गंभीर रूप से अस्वस्थ होने के कारण उन्होंने रेलवे की नौकरी छोड़ दी और वह कालांतर में तहसील में क्लर्कशिप करने लगी थी। उन्हें पूरा परिवार पिताजी के नाम से जानता था। उनसे छोटे वाले भाई श्री शिवचरण जी को बप्पा, एडवोकेट श्री ताराचंद्र प्रकाश जी को काका साहब की पारिवारिक उपाधि दी गई थी। उनके बाद चौथे ताऊ जी राम शंकर जी को भैया जी के नाम से पुकारा जाता रहा । पूज्य बाबूजी को पूरा कुटुंब भैया साहब और उमेश नारायण जी को छोटा भाई तथा जिनको मैं अब तक मुंबई वाले काका कहकर संबोधित करता रहा उनका वास्तविक नाम रमेश नारायण जी है, उनको कुटुंब में नाना भाई के नाम से संबोधित किया जाता है ।
सूरज के सातों घोड़े स्वयं स्फूर्त स्वयं ऊर्जावान और स्वयम में संस्कारों के प्रकाश के साथ जीवन संघर्ष के लिए आज से 80 वर्ष पूर्व हरदा और जबलपुर में आ गए । मध्य प्रदेश का पंजाब कहलाने वाला हरदा जिला होशंगाबाद ज़िला हुआ करता था । खेती किसानी नुकसान होना सामान्य सी बात हुआ करती थी ।
सिराली में हमारी जमीन की उपज़ भरपूर थी परंतु एक बहुत बड़े कल को ध्यान में रखते हुए हमारे पूर्वज श्री गंगा विशन जी ने यह निर्णय लिया कि सारे बच्चे गांव में नहीं बल्कि क्रमशः हरदा और पहले वाले की जहां जॉब होगी सारे भाई उनके पास रहकर ही पढ़ेंगे और सरकारी नौकरियों में जाएंगे। हुआ भी यही परिवार के सातों सितारे कहीं ना कहीं सामान्य से सुरक्षित जीवन की कामना से जबलपुर आ गए । तब गांव से हरदा तक आना जाना भी बहुत मुश्किल होता था या तो आप पैदल आइए या बैलगाड़ी से आए या फिर फौजदार साहब की बस में आए । मकड़ाई स्टेट में चलने वाली बसों में आज की ड्राइवर के पीछे की सीट पर स्टेट के राज परिवार के लिए स्थान सुरक्षित रहता है अब फौजदार साहब की संताने परंपरा निभातीं हैं कि नहीं इसका हमें ज्ञान नहीं है । पर शाह परिवार के राजा साहब के प्रति उनकी रियाया , और उनके वंशजों में सम्मान जरूर है।
राज्य सेवा में उस परिवार के 2 सदस्य तो मेरे साथ ही हैं ।
सिराली से हरदा होते हुए जबलपुर तक की 80 बरस पुरानी यात्रा ने इस वंश को बहुत कुछ दिया है। आप सोचते होंगे कि मैं आत्मकथा लिख रहा हूं या समकालीन सामाजिक परिस्थितियों तो कभी वंशावली से परिचित कराने की कोशिश कर रहा हूं । सुधी पाठकों लेखन एक प्रवाह है और आत्मकथा लिखना तो सबसे बड़ा कठिन कार्य है ।
लेखक के मानस में विचार आते हैं और उतरते जाते हैं अक्षर बनकर ! इस प्रवाह को रोकना मेरे बस में नहीं है अतः क्षमा कीजिए परंतु जरूरी इसलिए भी है कि आप परिचित हो जाएं कि हमारी वंश में और कौन-कौन है.. तो जानिए कि जब हम पूरे परिवार के लोग एकत्र हो जाते हैं तो हमें बहुत बड़ी व्यवस्था सुनिश्चित करनी होती है । हमारी तरह की ऐसे सैकड़ों परिवार होंगी जो परंपराओं के साथ रिश्तों को बड़े उल्लास के साथ जीवंत बनाए रखते हैं ।
लेखन में काल्पनिकता से ज्यादा वास्तविकता का समावेश करना जरूरी है वरना भविष्य में अदालतों में सिद्ध होता है कि राम कहां पैदा हुए !
हमारे कवियों लेखकों एवं विचारकों ने राम की कहानी कुछ इतनी काल्पनिक लिख दी जिसका फायदा उठाकर लोगों ने उसे मिथक मान लिया इसलिए पाठकों को यह संदेश देना जरूरी है वह किताब में बिल्कुल प्रमोट ना की जाए जिनमें यथार्थ को भविष्य में शक नजरिए से देखा जाए ।
जीवन पर गहरा प्रभाव छोड़ने वाले इन सातों के बारे में आगे फिर कभी
( क्रमशः भाग 5 में जारी )
जीवन में पीछे मुड़के जब देखो तो पता चलता है कि हम कितने गरीब किंतु रिश्तों से कितने धनी लोग हुआ करते थे।
हमारी सबसे बड़े पिताजी श्री पुरुषोत्तम जी जो रेलवे में फायरमैन हुआ करते थे और गंभीर रूप से अस्वस्थ होने के कारण उन्होंने रेलवे की नौकरी छोड़ दी और वह कालांतर में तहसील में क्लर्कशिप करने लगी थी। उन्हें पूरा परिवार पिताजी के नाम से जानता था। उनसे छोटे वाले भाई श्री शिवचरण जी को बप्पा, एडवोकेट श्री ताराचंद्र प्रकाश जी को काका साहब की पारिवारिक उपाधि दी गई थी। उनके बाद चौथे ताऊ जी राम शंकर जी को भैया जी के नाम से पुकारा जाता रहा । पूज्य बाबूजी को पूरा कुटुंब भैया साहब और उमेश नारायण जी को छोटा भाई तथा जिनको मैं अब तक मुंबई वाले काका कहकर संबोधित करता रहा उनका वास्तविक नाम रमेश नारायण जी है, उनको कुटुंब में नाना भाई के नाम से संबोधित किया जाता है ।
सूरज के सातों घोड़े स्वयं स्फूर्त स्वयं ऊर्जावान और स्वयम में संस्कारों के प्रकाश के साथ जीवन संघर्ष के लिए आज से 80 वर्ष पूर्व हरदा और जबलपुर में आ गए । मध्य प्रदेश का पंजाब कहलाने वाला हरदा जिला होशंगाबाद ज़िला हुआ करता था । खेती किसानी नुकसान होना सामान्य सी बात हुआ करती थी ।
सिराली में हमारी जमीन की उपज़ भरपूर थी परंतु एक बहुत बड़े कल को ध्यान में रखते हुए हमारे पूर्वज श्री गंगा विशन जी ने यह निर्णय लिया कि सारे बच्चे गांव में नहीं बल्कि क्रमशः हरदा और पहले वाले की जहां जॉब होगी सारे भाई उनके पास रहकर ही पढ़ेंगे और सरकारी नौकरियों में जाएंगे। हुआ भी यही परिवार के सातों सितारे कहीं ना कहीं सामान्य से सुरक्षित जीवन की कामना से जबलपुर आ गए । तब गांव से हरदा तक आना जाना भी बहुत मुश्किल होता था या तो आप पैदल आइए या बैलगाड़ी से आए या फिर फौजदार साहब की बस में आए । मकड़ाई स्टेट में चलने वाली बसों में आज की ड्राइवर के पीछे की सीट पर स्टेट के राज परिवार के लिए स्थान सुरक्षित रहता है अब फौजदार साहब की संताने परंपरा निभातीं हैं कि नहीं इसका हमें ज्ञान नहीं है । पर शाह परिवार के राजा साहब के प्रति उनकी रियाया , और उनके वंशजों में सम्मान जरूर है।
राज्य सेवा में उस परिवार के 2 सदस्य तो मेरे साथ ही हैं ।
सिराली से हरदा होते हुए जबलपुर तक की 80 बरस पुरानी यात्रा ने इस वंश को बहुत कुछ दिया है। आप सोचते होंगे कि मैं आत्मकथा लिख रहा हूं या समकालीन सामाजिक परिस्थितियों तो कभी वंशावली से परिचित कराने की कोशिश कर रहा हूं । सुधी पाठकों लेखन एक प्रवाह है और आत्मकथा लिखना तो सबसे बड़ा कठिन कार्य है ।
लेखक के मानस में विचार आते हैं और उतरते जाते हैं अक्षर बनकर ! इस प्रवाह को रोकना मेरे बस में नहीं है अतः क्षमा कीजिए परंतु जरूरी इसलिए भी है कि आप परिचित हो जाएं कि हमारी वंश में और कौन-कौन है.. तो जानिए कि जब हम पूरे परिवार के लोग एकत्र हो जाते हैं तो हमें बहुत बड़ी व्यवस्था सुनिश्चित करनी होती है । हमारी तरह की ऐसे सैकड़ों परिवार होंगी जो परंपराओं के साथ रिश्तों को बड़े उल्लास के साथ जीवंत बनाए रखते हैं ।
लेखन में काल्पनिकता से ज्यादा वास्तविकता का समावेश करना जरूरी है वरना भविष्य में अदालतों में सिद्ध होता है कि राम कहां पैदा हुए !
हमारे कवियों लेखकों एवं विचारकों ने राम की कहानी कुछ इतनी काल्पनिक लिख दी जिसका फायदा उठाकर लोगों ने उसे मिथक मान लिया इसलिए पाठकों को यह संदेश देना जरूरी है वह किताब में बिल्कुल प्रमोट ना की जाए जिनमें यथार्थ को भविष्य में शक नजरिए से देखा जाए ।
जीवन पर गहरा प्रभाव छोड़ने वाले इन सातों के बारे में आगे फिर कभी
( क्रमशः भाग 5 में जारी )