7.9.20

गिद्ध मीडिया...!आलेख- सलिल समाधिया

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बस करो यार !! 
हद होती है किसी चीज की !
उस पर आरोप लगा है, वह दोषी सिद्ध नहीं हुई है अभी !
कानून अपना काम कर रहा है, उसके बाद न्यायालय अपना काम करेगा !
आपका काम मामले को उजागर करना था, कर दिया न !
अब बस करो,  हद होती है किसी चीज की !!
वह भी एक स्त्री है,उसकी भी अपनी निजता है, कुछ गरिमा है !!
टी.आर.पी के लिए कितना नीचे  गिरोगे !

यह ठीक है कि सुशांत के परिवार को न्याय मिलना चाहिए ! यह भी ठीक है कि अगर सुशांत की मृत्यु में कुछ Fowl play नज़र आता है तो उसकी जांच होनी चाहिए.. सो वो हो रही है !
देश की सबसे सक्षम जांच एजेंसियां आप अपना काम कर रही हैं !
जिम्मेदार मीडिया होने के नाते आप का काम उन तथ्यों को सामने लाना था.. जो संदेहास्पद थे ! वह काम आपने कर दिया ! आपको धन्यवाद,  अब बस कीजिए !!!
 अन्य मसले भी हैं देश में!
NCRB (National Crime Records Bureau) के अनुसार भारत में प्रतिवर्ष लगभग 1,20,000 से अधिक आत्म हत्याएं होती हैं ! साल 2019 में 1,39, 123 आत्महत्याएं रजिस्टर हुई हैं !
Crime against women की संख्या 3,59,849 है !(October 21, 2019 NCRB )
मादक पदार्थो, हत्याओं, दलित उत्पीड़न, भ्रष्टाचार आदि की बात ही मत पूछिए !  चूंकि आंकड़े बताना बोरिंग काम है.. इसलिए उनका जिक्र नहीं कर रहा हूं !
किंतु इन अपराधों के सामाजिक-आर्थिक कारणों की तहकीकात भी मीडिया द्वारा की जानी चाहिए कि नहीं ?? 
 हजार मसले हैं इस देश में - शिक्षा भी,  रोजगार भी,  स्वास्थ्य भी !
 हजार घटनाएं रोज घटती हैं.. अच्छी भी,  बुरी भी!
मगर उनसे टीआरपी नहीं मिलती इसलिए कोई न्यूज़ चैनल, उन्हें नहीं दिखाता !
एक संवाददाता नहीं झांकता उन गांव और गलियों में... जहां ब्रूटल रेप और नृशंस हत्याएँ हो जाती हैं.. और पीड़ित परिवार भय से चुप्पी साधे रह जाता है !
... इसी तरह उन अच्छी खबरों पर भी कोई झांकने नहीं जाता.. जहां गरीबी और अभावों के बीच भी.. कोई प्रतिभा का फूल खिलता है !

 मगर 2 ग्राम, 10 ग्राम गांजा खरीदने वाला, शौविक राष्ट्रीय न्यूज़ बन जाता है!!
आए दिन अनेक शहरों में लाखों रुपयों की ब्राउन शुगर, हशीश, कोकेन, एलएसडी पकड़ी जाती है... और चार ठुल्लों के साथ लोकल अखबार के किसी कोने में न्यूज़ छप जाती है !
लेकिन कोई NCB की बड़ी जाँच नही होती.. किसी माफिया, किसी नेक्सस का पर्दाफ़ाश नही होता ! 
.. किसी न्यूज़ चैनल के लिए ये अपराध, न्यूज़ नहीं बनते.. क्योंकि इनसे टीआरपी नहीं मिलती !
 
लेकिन अकेले मीडिया को ही क्यों गुनाहगार ठहराया जाए !!!
हम लोग भी क्या कम हैं.. जो चस्के ले लेकर  इन 'मनोहर कहानियों' को देखते हैं !
 दो टके की, सड़ियल सी खबर की लाश पर.. गिद्धों से मंडराते संवाददाता और कैमरामैन...., 
 और उन्हें  टीवी पर टकटकी लगाए देखतीं.. हमारी जिगुप्सा भरी, रसोन्मादी, क्रूर ऑंखें  !!
.. और फिर मोबाइल के कीपैड से बरसती नफरतें, शर्मसार कर देने वाली अश्लील फब्तियां और फूहड़ मज़ाक़ !!
...अगर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया लाशखोर गिद्ध है.. तो हम भी, मौका मिलते ही बोटी खींच निकालने वाले हिंसक भेड़ियों से कम नहीं है !!
 यही वजह है कि सत्तर दिन से अधिक हो गए हैं.. मगर शौविक, रिया और मिरांडा की "सत्य-कथाएं" हर न्यूज़ चैनल के स्टॉल पर अब भी, बेस्ट सेलर बनी बिक रही हैं !!
मीडिया की छोड़िए,  जरा आत्म निरीक्षण कीजिए कि हम क्या देख रहे हैं, क्यों देख रहे हैं, कितना देख रहे हैं... और कब तक देखेंगे ?? 
 हद होती है किसी चीज की !!
"रिया" को खूब देख लिया, अब ज़रा अपना "जिया" भी देख लें !

##सलिल##

6.9.20

भीष्म पितामह के तर्पण के बिना श्राद्ध कर्म अधूरा क्यों ?

     
गंगा और शांतनु के पुत्र देवव्रत ने शपथ ली कि मुझे आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करना है तो यह पूछा कि उसे कोई आशीर्वाद मिले . हस्तिनापुर की राजवंश की रक्षा अर्थात संपूर्ण राष्ट्र की रक्षा का दायित्व लेकर ब्रह्मचारी भीष्म पितामह के नाम से प्रसिद्ध हुए इस पर बहुत अधिक विवरण देने की जरूरत नहीं है। आप सभी इस तथ्य से परिचित ही है .
 
      भीष्म पितामह को श्राद्ध पक्ष में याद क्यों किया जाता है यह महत्वपूर्ण सवाल है ?
     सुधि पाठक आप जानते हैं कि महाभारत धर्म युद्ध होने के एक कौटुंबिक युद्ध भी था ! क्योंकि इसमें पारिवारिक विरासत का राज्य एवं भूमि विवाद शामिल था। ध्यान से देखें तो हस्तिनापुर पर दावा तो पांडव कब का छोड़ चुके थे। महायोगी कृष्ण के संपर्क में आकर उन्होंने मात्र 5 गांव मांगे थे। परंतु कुटुंब में युद्ध सभी होते हैं जबकि अन्याय सर चढ़कर बोलता है। विधि व्यवसाय से जुड़े विद्वान जानते हैं कि सर्वाधिक सिविल मामले न्यायालयों में आज भी  रहते हैं। महाभारत का स्मरण दिला कर हमारे  पुराणों के रचनाकारों ने यह बताने की कोशिश की है कि कौटुंबिक अन्याय हमारे पूर्वजों पर ही भारी पड़ता है। हमें अन्याय नहीं करना चाहिए ना ही उस अन्याय में भागीदारी देनी चाहिए। पारिवारिक की सा प्रतिस्पर्धा निंदा अच्छा या बुरा होने की निरंतर समीक्षा भेद की दृष्टि अर्थात अपने और अन्यों के पुत्रों में पुत्रियों में अंतर स्थापित करने की प्रक्रिया और घर में बैठकर अपने बच्चों को यह सामने पूर्वजों या समकालीन रिश्तेदारों को पूछने की प्रक्रिया आज के दौर में महाभारत को जन्म देती है। विद्वान ऋषि मुनि जान  चुके थे कि द्वापर के बाद कलयुग में यह स्थिति चरम पर होगी। पिता अपनी संतानों को श्रेष्ठ साबित करेंगे और सदा केवल उन्हीं के पक्ष में बोलेंगे, कई बार तो असंतुष्ट पिता और माताएं संतानों में ही भेद की दृष्टि अपनाने लगेगी । चाचा बाबा दादा काका बुआ भतीजे केवल आत्ममुग्ध होकर सामुदायिक न्याय से विमुख होंगे, संपदा एवं अस्तित्व की लड़ाई होगी सब परिजन अदृश्य रूप से युद्ध रत होंगी और वह युद्ध महाभारत का होगा। ऐसे युद्ध की परिणीति का स्वरुप होगा कि घर का कोई ना कोई बुजुर्ग जीत या हार के  परिणाम के बावजूद  सर-शैया पर लेटा हुआ नजर आएगा है ।
     जहाँ तक भीष्म के पास  इच्छा मृत्यु का वरदान था ।  मिला या उन्होंने मांग लिया था ये अलग मुद्दा है । वे चाहते थे कि जब सूर्य दक्षिणायन हो तब उनकी आत्मा शरीर को छोड़ें। वे सूर्य के उत्तरायण होने की प्रतीक्षा करते हुए वह मृत्यु की प्रतीक्षा करते रहे। अगर मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से हम समझे तो पाते हैं कि भीष्म पितामह पीड़ा की उस शैया पर लेटे लेटे मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे थे जो शैया उन्हें चुप रही थी ।
यह शैया कैसे बनी थी ?
  जी हां यह बनी थी उन परिजनों की मर जाने के दुखों से ....!
  हजारों हजार रिश्तेदार मारे गए थे और यह महा शोक पल-पल उन्हें चुभ रहा था !
    इतना बड़ा विशाल लेकर मरने वाली भीष्म पितामह की आत्मा को शांति मिले इसलिए पुराणों में कहानियों में पितृपक्ष के दौरान भीष्म पितामह के लिए भी अपना परिजन मानते हुए तर्पण किया जाता है ।
   बिना भीष्म पितामह को अंजुरी जल दिए श्राद्धकर्म अपूर्ण है । और यह तर्पण इसलिए किया जाता है कि हम याद रखें कि हम कौटुंबिक युद्ध में अपने कुटुंब को ना जो झोंके। हम सत्ता पद प्रतिष्ठा यश और  नाम की लालच में पक्षद्रोही ना होकर और सदा अपने कुटुंब के साथ ही रहें ।
भीष्म पितामह का तर्पण यही संदेश देता है।

4.9.20

पूज्य गुरुदेव ब्रह्मलीन स्वामी शुद्धानंद नाथ का जीवन सूत्र 27 सितम्बर 1960


पूज्य गुरुदेव ब्रह्मलीन स्वामी शुद्धानंद नाथ का जीवन सूत्र 27 सितम्बर 1960 श्रीधाम आश्रम सतना*
अपने मन से झूठे मत बनो। कितना भी बड़ा दुष्कर्म मन से या तन से हुआ हो उसे मंजूर करो , उसे दूसरा रंग मत दो, उसका दोस्त दूसरों पर ना करो । जो भी होता है वह अपनी ही भूल के कारण होता है। इसलिए अपने मन से और मन में भूल को मत छुपाओ, भूल की छानबीन करो। अपनी मम्मत्व भावना अपने को  निष्पक्ष विचार करने से रोकती है । इसलिए हम तो भाव को त्याग करके विचार करने का प्रयत्न करो।
   जीवन के सरल से सरल पद पर रहना ही अध्यात्म कहा जाता है। जीवन में प्राप्त और अब प्राप्त वस्तुओं की प्रीति और वियोग में ही चित्र का विकास होता है। विकास की प्रक्रिया ही अध्यात्मिक साधना का अंतरंग है। इस प्रक्रिया से सिद्धि हेतु वातावरण का निर्माण अनुकूलता की रचना तथा प्रतिकूलता के साथ युद्ध करने का सामर्थ्य उत्पन्न करना होता है।
   इस सामर्थ्य के के लिए बहुत सी बहिरंग साधनाएं करनी पड़ती हैं । धारणा के योग्य मनस्वी गुरु जन इस प्रकार का आदेश देते हैं। आज से आपके जीवन में एक नया जागरण होने जा रहा है ।
#शुद्धानंद

3.9.20

गिरीश के दोहे

*गिरीश के दोहे*
फूटा कलसा देख तू, भय का बीन बजाय ?
टूटे घड़े कुम्हार के, वंश कहां रुक जाए ।
हर कण क्षण नश्वर सखि, देह होय कै शान !
चेतन पथ तैं दौड़ जा, तेहि पथ पै भगवान
कुंठा तर्क-कुतर्क से, जीत न सकि हौ आप
ब्रह्म अनावृत होत ह्वै, जीव जो करै जब ताप
कान्हा तोड़ें दधि कलश, गोपिन मन में भाग
कंस वधिक श्रीकृष्ण ने, खोले जन जन भाग ।।
*गिरीश बिल्लोरे मुकुल*
कंस वधिक श्रीकिशन ने, खोले सबके भाग
गिरीश बिल्लोरे मुकुल

1.9.20

विघ्नहर्ता को विदा एवम उत्तम क्षमा

*मान्यवर एवम महोदया*
आपका एक एक शब्द विनम्रता और महानता का सूचक बन गया है। आप सब  मेरे जीवन के लिए  आईकॉनिक व्यक्तियों की तरह ही हैं ।
सभी तीर्थंकरों को नमन करते हुए उत्तम क्षमा पर्व पर्यूषण पर्व एवं बुद्धि विनायक  गणेश विसर्जन पर्व पर आप सबको को शत-शत नमन करता हूं ।  
मुझसे जाने अनजाने में अगर कोई ऐसी अभिव्यक्ति हो गई हो जो आपके सम्मान और मानसिक भाव के लिए अनुचित हो इसलिए मैं बिना किसी संकोच क्षमा प्रार्थी हूं .

*गिरीश बिल्लोरे मुकुल*
संचालक बालभवन जबलपुर

28.8.20

एक हथे पूरन दद्दा जू...

      आसौं बून्देली दिवस पै कछू होय नै होय हमौरे उनखौं भूलबे को पाप या नैं करबी ..! 
  जबलपुर सै बुंदेली की अलख जगाबे वारे कक्का जी के लानें विवेक भैया का लिख रय हैं तन्नक ध्यान से पढ़ियो ...
 बुंदेली और स्व डॉ पूरनचंद श्रीवास्तव जी जैसे बुंदेली विद्वानो की सुप्रतिष्ठा जरूरी  
 .. विवेक रंजन श्रीवास्तव , शिला कुंज , नयागांव ,जबलपुर ४८२००८

ईसुरी बुंदेलखंड के सुप्रसिद्ध लोक कवि हैं ,उनकी रचनाओं में ग्राम्य संस्कृति एवं सौंदर्य का चित्रण है। उनकी ख्‍याति फाग के रूप में लिखी गई रचनाओं के लिए सर्वाधिक है,  उनकी रचनाओं में बुन्देली लोक जीवन की सरसता, मादकता और सरलता और रागयुक्त संस्कृति की रसीली रागिनी से जन मानस को मदमस्त करने की क्षमता है।
बुंदेली बुन्देलखण्ड में बोली जाती है। यह कहना कठिन है कि बुंदेली कितनी पुरानी बोली हैं लेकिन ठेठ बुंदेली के शब्द अनूठे हैं जो सादियों से आज तक प्रयोग में आ रहे हैं। बुंदेलखंडी के ढेरों शब्दों के अर्थ बंगला तथा मैथिली बोलने वाले आसानी से बता सकते हैं। प्राचीन काल में राजाओ के परस्पर व्यवहार में  बुंदेली में पत्र व्यवहार, संदेश, बीजक, राजपत्र, मैत्री संधियों के अभिलेख तक सुलभ  है। बुंदेली में वैविध्य है, इसमें बांदा का अक्खड़पन है और नरसिंहपुर की मधुरता भी है। वर्तमान बुंदेलखंड क्षेत्र में अनेक जनजातियां निवास करती थीं। इनमें कोल, निषाद, पुलिंद, किराद, नाग, सभी की अपनी स्वतंत्र भाषाएं थी, जो विचारों अभिव्यक्तियों की माध्यम थीं। भरतमुनि के नाट्य शास्‍त्र में भी बुंदेली बोली का उल्लेख मिलता है .  सन एक हजार ईस्वी में बुंदेली पूर्व अपभ्रंश के उदाहरण प्राप्त होते हैं। जिसमें देशज शब्दों की बहुलता थी। पं॰ किशोरी लाल वाजपेयी, लिखित हिंदी शब्दानुशासन के अनुसार हिंदी एक स्वतंत्र भाषा है, उसकी प्रकृति संस्कृत तथा अपभ्रंश से भिन्न है। बुंदेली प्राकृत शौरसेनी तथा संस्कृत जन्य है।  बुंदेली की अपनी चाल,  प्रकृति तथा वाक्य विन्यास की अपनी मौलिक शैली है। भवभूति उत्तर रामचरित के ग्रामीणों की भाषा विंध्‍येली प्राचीन बुंदेली ही थी। आशय मात्र यह है कि बुंदेली एक प्राचीन , संपन्न , बोली ही नही परिपूर्ण लोकभाषा है . आज भी बुंदेलखण्ड क्षेत्र में घरो में बुंदेली खूब बोली जाती है . क्षेत्रीय आकाशवाणी केंद्रो ने इसकी मिठास संजोई हुयी हैं .
ऐसी लोकभाषा के उत्थान , संरक्षण व नव प्रवर्तन का कार्य तभी हो सकता है जब क्षेत्रीय विश्वविद्यालयों ,संस्थाओ , पढ़े लिखे विद्वानो के  द्वारा बुंदेली में नया रचा जावे . बुंदेली में कार्यक्रम हों . जनमानस में बुंदेली के प्रति किसी तरह की हीन भावना न पनपने दी जावे , वरन उन्हें अपनी माटी की इस सोंधी गंध , अपनापन ली हुई भाषा के प्रति गर्व की अनुभूति हो . प्रसन्नता है कि बुंदेली भाषा परिषद , गुंजन कला सदन , वर्तिका जैसी संस्थाओ ने यह जिम्मेदारी उठाई हुई है . प्रति वर्ष १ सितम्बर को स्व डा पूरन चंद श्रीवास्तव जी के जन्म दिवस के सु अवसर पर बुंदेली पर केंद्रित अनेक आयोजन गुंजन कला सदन के माध्यम से होते हैं .
आवश्यक है कि बुंदेली के विद्वान लेखक , कवि , शिक्षाविद स्व पूरन चंद श्रीवास्तव जी के व्यक्तित्व , विशाल कृतित्व से नई पीढ़ी को परिचय कराया जाते रहे . जमाना इंटरनेट का है . इस कोरोना काल में सास्कृतिक  आयोजन तक यू ट्यूब , व्हाट्सअप ग्रुप्स व फेसबुक के माध्यम से हो रहे हैं , किंतु बुंदेली के विषय में , उसके लेकको , कवियों , साहित्य के संदर्भ में इंटरनेट पर जानकारी नगण्य है .
स्व पूरन चंद श्रीवास्तव जी का जन्म १ सितम्बर १९१६ को ग्राम रिपटहा , तत्कालीन जिला जबलपुर अब कटनी में हुआ था . कायस्थ परिवारों में शिक्षा के महत्व को हमेशा से महत्व दिया जाता रहा है , उन्होने अनवरत अपनी शिक्षा जारी रखी , और पी एच डी की उपाधि अर्जित की .वे हितकारिणी महाविद्यालय जबलपुर से जुड़े रहे और विभिन्न पदोन्तियां प्रापत करते हुये प्राचार्य पद से १९७६ में सेवानिवृत हुये . यह उनका छोटा सा आजीविका पक्ष था . पर इस सबसे अधिक वे मन से बहुत बड़ साहित्यकार थे . बुंदेली लोक भाषा उनकी अभिरुचि का प्रिय विषय था . उन्होंने बुंदेली में और बुंदेली के विषय में खूब लिखा . रानी दुर्गावती बुंदेलखण्ड का गौरव हैं . वे संभवतः विश्व की पहली महिला योद्धा हैं जिनने रण भूमि में स्वयं के प्राण न्यौछावर किये हैं . रानी दुर्गावती पर श्रीवास्तव जी का खण्ड काव्य बहु चर्चित महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ है . भोंरहा पीपर उनका एक और बुंदेली काव्य संग्रह है . भूगोल उनका अति प्रिय विषय था और उन्होने भूगोल की आधा दर्जन पुस्तके लिखि , जो शालाओ में पढ़ाई जाती रही हैं . इसके सिवाय अपनी लम्बी रचना यात्रा में पर्यावरण , शिक्षा पर भी उनकी किताबें तथा विभिन्न साहित्यिक विषयों पर स्फुट शोध लेख , साक्षात्कार , अनेक प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओ में प्रकाशन आकाशवाणी से प्रसारण तथा संगोष्ठियो में सक्रिय भागीदारी उनके व्यक्तित्व के हिस्से रहे हैं . मिलन , गुंजन कला सदन , बुंदेली साहित्य परिषद , आंचलिक साहित्य परिषद जैसी अनेकानेक संस्थायें उन्हें सम्मानित कर स्वयं गौरवांवित होती रही हैं . वे उस युग के यात्री रहे हैं जब आत्म प्रशंसा और स्वप्रचार श्रेयस्कर नही माना जाता था , एक शिक्षक के रूप में उनके संपर्क में जाने कितने लोग आते गये और वे पारस की तरह सबको संस्कार देते हुये मौन साधक बने रहे .
उनके कुछ चर्चित बुंदेली  गीत उधृत कर रहा हूं ...

कारी बदरिया उनआई....... ️
 कारी बदरिया उनआई,  हां काजर की झलकार ।
सोंधी सोंधी धरती हो गई,  हरियारी मन भाई,खितहारे के रोम रोम में,  हरख-हिलोर समाई ।ऊम झूम सर सर-सर बरसै,  झिम्मर झिमक झिमकियाँ ।लपक-झपक बीजुरिया मारै,  चिहुकन भरी मिलकियां ।रेला-मेला निरख छबीली-  टटिया टार दुवार,कारी बदरिया उनआई,हां काजर की झलकार ।
औंटा बैठ बजावै बनसी,  लहरी सुरमत छोरा ।  अटक-मटक गौनहरी झूलैं,  अमुवा परो हिंडोरा ।खुटलैया बारिन पै लहकी,  त्योरैया गन्नाई ।खोल किवरियाँ ओ महाराजा  सावन की झर आई  ऊँचे सुर गा अरी बुझाले,  प्रानन लगी दमार,कारी बदरिया उनआई,  हां काजर की झलकार ।
मेंहदी रुचनियाँ केसरिया,  देवैं गोरी हाँतन ।हाल-फूल बिछुआ ठमकावैं  भादों कारी रातन ।माती फुहार झिंझरी सें झमकै  लूमै लेय बलैयाँ-घुंचुअंन दबक दंदा कें चिहुंकें,  प्यारी लाल मुनैयाँ ।हुलक-मलक नैनूँ होले री,  चटको परत कुँवार,कारी बदरिया उनआई,  हाँ काजर की झलकार ।
इस बुंदेली गीत के माध्यम से उनका पर्यावरण प्रेम स्पष्ट परिलक्षित होता है .
इसी तरह उनकी  एक बुन्देली कविता में जो दृश्य उनहोंने प्रस्तुत किया है वह सजीव दिखता है .
बिसराम घरी भर कर लो जू...-------------
बिसराम घरी भर कर लो जू, झपरे महुआ की छैंयां,ढील ढाल हर धरौ धरी पर,  पोंछौ माथ पसीना ।तपी दुफरिया देह झांवरी,  कर्रो क्वांर महीना ।भैंसें परीं डबरियन लोरें,   नदी तीर गई गैयाँ ।बिसराम घरी भर कर लो जू,  झपरे महुआ की छैंयां ।
सतगजरा की सोंधी रोटीं,  मिरच हरीरी मेवा ।खटुवा के पातन की चटनी,  रुच को बनों कलेवा ।करहा नारे को नीर डाभको,  औगुन पेट पचैयाँ ।बिसराम घरी भर कर लो जू,  झपरे महुआ की छैंयां ।
लखिया-बिंदिया के पांउन उरझें,  एजू डीम-डिगलियां ।हफरा चलत प्यास के मारें,  बात बड़ी अलभलियां ।दया करो निज पै बैलों पै,  मोरे राम गुसैंयां ।बिसराम घरी भर कर लो जू,  झपरे महुआ की छैंयां ।
 वे बुन्देली लोकसाहित्य एवं भाषा विज्ञान के विद्वान थे . सीता हरण के बाद श्रीराम की मनः स्थिति को दर्शाता उनका एक बुन्देली गीत यह स्पष्ट करने के लिये पर्याप्त है कि राम चरित मानस के वे कितने गहरे अध्येता थे .
अकल-विकल हैं प्रान राम के----------------
अकल-विकल हैं प्रान राम के  बिन संगिनि बिन गुँइयाँ ।फिरैं नाँय से माँय बिसूरत,  करें झाँवरी मुइयाँ ।
पूछत फिरैं सिंसुपा साल्हें,  बरसज साज बहेरा ।धवा सिहारू महुआ-कहुआ,  पाकर बाँस लमेरा ।
वन तुलसी वनहास माबरी,  देखी री कहुँ सीता ।दूब छिछलनूं बरियारी ओ,  हिन्नी-मिरगी भीता ।
खाई खंदक टुंघ टौरियाँ,   नादिया नारे बोलौ ।घिरनपरेई पंडुक गलगल,  कंठ - पिटक तौ खोलौ  ।ओ बिरछन की छापक छंइयाँ,  कित है जनक-मुनइयाँ ?अकल-विकल हैं प्रान राम के  बिन संगिनि बिन गुँइयाँ ।
उपटा खांय टिहुनिया जावें,  चलत कमर कर धारें ।थके-बिदाने बैठ सिला पै,  अपलक नजर पसारें ।
मनी उतारें लखनलाल जू,  डूबे घुन्न-घुनीता ।रचिये कौन उपाय पाइये,  कैसें म्यारुल सीता ।
आसमान फट परो थीगरा,  कैसे कौन लगावै ।संभु त्रिलोचन बसी भवानी,  का विध कौन जगावै ।कौन काप-पसगैयत हेरें,  हे धरनी महि भुंइयाँ ।अकल-विकल हैं प्रान राम के  बिन संगिनि बिन गुँइयाँ ।

बुंदेली भाषा का भविष्य नई पीढ़ी के हाथों में है , अब वैश्विक विस्तार के सूचना संसाधन कम्प्यूटर व मोबाईल में निहित हैं , समय की मांग है कि स्व डा पूरन चंद श्रीवास्तव जैसे बुंदेली के विद्वानो को उनका समुचित श्रेय व स्थान , प्रतिष्ठा मिले व बुंदेली भाषा की व्यापक समृद्धि हेतु और काम किया जावे .
     लेेेखक : विवेक रंजन श्रीवास्तव  

26.8.20

*धर्मयुद्ध : क्रूसेड्स, ज़ेहाद, महाभारत एवम लंका-विजय..!*

बाबूजी ने बताया था कि उनकी टेक्स्ट बुक में *एथेंस के सत्यार्थी* शीर्षक से एक पाठ था । उनके अनुसार एथेंस के सत्यार्थी तिमिर से प्रकाश की कल्पना करते हुए ज्योतिर्मय होना चाहते थे । जबकि सनातनी दर्शन में हम प्रकाश से महाप्रकाश में विलीन हो जाना चाहते हैं ! 
अब्राहम धर्मों के लोग कहते हैं - अल्लाह सबका है हर चीज पर उसका अधिकार है ! 
हम कहतें हैं - सबमें ब्रह्म है । परस्पर विरोधी विचार होने के बावज़ूद दौनों ही विचार युद्ध से विमुख करते हैं । 
ईसा मसीह कभी हिंसा पर भरोसा नहीं करते थे । तो फिर 
फिर क्रूसेट क्यों हुए थे ?
अथवा फिर ज़ेहाद क्यों होते हैं ?
इसके अलावा सनातन आर्यावर्त्य के धर्मयुद्ध लंका-विजय एवम महाभारत हैं आइये सबसे पहले जानते हैं कि- 
*धर्मयुद्ध क्या है ?* 
क्रुसेड्स एवम ज़ेहाद से भिन्न हैं आर्यावर्त्य के धर्मयुद्ध । 
रामायण और महाभारत पढ़कर भी अगर हम यह नहीं जान सके की सनातन में धर्म युद्ध क्यों हुए थे अथवा धर्मयुद्ध क्या हैं ? तो इस परिभाषा को जानिए ....
*"धर्मयुद्ध का अर्थ न्याय के समर्थन में किये गए युद्ध । जो भूमि सत्ता एवम कमज़ोर लोगों को धमकाने के लिए न किए गए हों ।*
💐💐💐💐
ईसा ने युध्द का समर्थन नहीं किया, क्योंकि ऐसा नहीं चाहते थे कि हिंसा के आधार पर ईसाई विचारधारा चले ! परन्तु सन 1000 के बाद एक फ्रांसीसी नागरिक स्टेफा के मन में ऐसे विचार ने जन्म लिया जो यरूशलम पर हक़ साबित करने से संबंधित था । उसने लोगों को प्रेरित किया । 
यहूदियों और मुस्लिमों के विरुद्ध उनके (करुनानिधान ईसा ) के अनुयाईयों ने युद्ध में सक्रियता दिखाई । क्योंकि वे चाहते थे, कि -"युद्ध के जरिए यरूशलम पर से इस्लामिक मतावलंबियों से कब्जा वापस प्राप्त किया जाए"
उन्होंने नौ बार यह कोशिश की, कि वह यरूशलम की पवित्र धरती को अपने अधिकार में प्राप्त कर लें । पहला धर्म युद्ध अर्थात क्रुसेड 1095 के लगभग शुरू होकर 4-5 साल तक चला और येरुशलम पर ईसाइयों ने भौतिक कब्जा भी हासिल कर लिया । शेष क्रुसेड्स लगभग 250 साल से 300 अर्थात 12वीं सदी के अंत तक चले ।
दूसरा युद्ध पवित्र येरुशलम पर कब्ज़ा पाने ज़ेहाद के रूप में हुआ । साफ है कि जब मुस्लिम आक्रमण करते थे तो ज़ेहाद होता था जब ईसाई लोग आक्रमण करते थे तो उसे क्रूसेड कहते थे । मुद्दा केवल येरुशलम की पवित्र भूमि पर अधिकार लेना मात्र था । 
यरूशलम को लेकर तीनों अब्राहिम धर्मों की स्थिति आज भी यथावत है । पर सभ्यता के विकास के साथ साथ युद्ध बहुत दिनों से सुनाई नहीं दे रहे हैं परंतु वैमनस्यता कहीं ना कहीं लोगों के हृदय में पल जरूर रही है और नज़र भी आ जाती है। क्रूसेड-ज़िहाद के दौर में कहा जाता है कि लाखों लोग मारे गए । यहूदी ईसाई मुस्लिम इनकी संख्या इतनी थी के आज तक कोरोनावायरस की वजह से इतनी अप्रत्याशित मौत नहीं हुई है । मरने वालों आम जनता की संख्या अधिक थी । 
यह दोनों प्रकार के धर्मयुद्ध यानी ज़ेहाद और क्रूसेड एक साथ हुए अर्थात आपसी वार-प्रतिवार थे । 
*सनातन व्यवस्था के अंतर्गत भी दो धर्मयुद्ध हुए हैं*
सनातन व्यवस्था में भी दो धर्मयुद्धों का स्मारक विवरण दर्ज है । 
*एक - लंका विजय*
*दो - महाभारत*
एक:- लंका विजय पर मैंने पूर्व में अपने एक लेख में स्पष्ट कर दिया है कि एक ब्राह्मण राजा को भगवान राम ने क्यों मारा ? 
इसका कारण यह है कि रावण एक ऐसा राजा था जिसने- आर्यावर्त्य की भूमि के लिए तो कभी युद्ध बिल्कुल कभी नहीं किया । ऐसा कोई भी प्रसंग हम-आपको देखने सुनने में नहीं मिला होगा जब रावण ने भारत में आकर किसी राजधानी या बड़े नगर को खत्म किया हो और उधर अपना ध्वज फहराया हो !
राम ने रावण को इसलिए मारा क्योंकि वह- जंगलों में साधनारत लोगों अर्थात ऋषियों मुनियों को अपहरण कर अपने देश में ले जाता था । और उनसे सिर्फ अपने देश के लिए कार्य कराता था । अर्थात वह बौद्धिक सम्पदाओं का अपहर्ता एवं विनाशक था । 
राम ने रावण के साथ युद्ध किया और उसे पराजित कर उचित उत्तराधिकारी को राज्य सौंप दिया । राज्य सौंप कर वे लंका से वापस आ गए । यह वास्तविक धर्म युद्ध था । इस युद्ध के ज़रिए राम ने विश्व को अवगत कराया कि- *"किसी राज्य की बौद्धिक संपदा पर बलात कब्ज़ा कर लेना बड़ा अपराध है ।"*
रक्ष-संस्कृति का समूल विनाश कर राम ने न केवल सीता को मुक्त कराया वरन उन समस्त ऋषियों मुनियों एवम विद्वानों को मुक्त कराया जो रावण के गुलाम थे । 
*(नोट- कोई विद्वान पाठक अगर यह मानते हैं कि रावण ने आर्यावर्त पर एक इंच भी भूमि अधिकार में ली हो तो कृपया संदर्भ सहित बताने की कृपा कीजिए । )*
दो:- पांडवों ने कौरवों के साथ जो कि धर्मयुद्ध था । जिसमें कृष्ण ही नायक थे पर परोक्ष रूप से । यह युद्ध 5 गांवों के लिए था । कौरवों की अंतिम मांग यही थी न । अगर दुर्योधन और उसके पिता धृतराष्ट्र इस बिंदु पर न्याय पूर्ण निर्णय ले लेते तो महाभारत नहीं होता । यह धर्मयुद्ध एक सबक भी है उन बलिष्ठ लोगों के लिए जो पैतृक संपत्ति के अधिकार से अपने अन्य कमज़ोर भाईयों (अब बहनों को भी) को वंचित रखते हैं । सिविल अदालतों में ये युद्ध आज भी जीवित नज़र आ जाते हैं । कभी भी जानते या अनजाने में किसी कमज़ोर सहोदरों के साथ अन्याय करते ही धर्मयुद्ध की संभावना बलवती रहती है । यदि कमज़ोर सहोदर या सहोदरी प्रतिकार न भी करे तो जान लीजिए वह व्यक्ति जो शोषण करता है कृष्ण के शाप का शिकार अवश्य ही होता है । ऐसे प्रकरण हम-आप अक्सर भौतिक जीवन में देखा करते हैं । 
महाभारत के बाद कृष्ण भी द्वारका वासी हुए। वे युद्ध नहीं चाहते थे । चाहते तो वे हस्तिनापुर के सिंहासन पर बैठ जाते पर वे एक ग़लत नीति के विरोध के लिए पांडवों के साथ थे । वे जानते थे कि उनकी भूमिका कहां तक सीमित है । वे अपनी भूमिका निभा कर मुक्त हो गए । 
सनातन व्यवस्था में आर्यावर्त्य में सम्पन्न युद्ध ही धर्मयुद्ध कहे जा सकते हैं । 
शेष अर्थात वर्तमान कलयुग के क्रुसेड्स एवम ज़ेहाद को लेखक के रूप में निर्भीक होकर धर्मयुद्ध नहीं. मानता . ऐसे युद्ध केवल भूमि अतिक्रमण की वजह से उत्प्रेरित विस्तार वादी युद्ध मात्र हैं । 
युद्ध मत करो.. युद्ध को धर्मयुद्ध का मुलम्मा मत चढ़ाओ । युद्ध मानवता का दुश्मन है । युद्ध के लिए उकसाया न जावे । 
इन दिनों मीडिया युद्ध के लिए तुरही वादक के रूप में तैनात रहता है । रोज़ शाम को टेलीविजन पर युद्धोन्माद भरी बहस चलतीं हैं । अब तो टीवी चैनलों को देखना बन्द कर दिया । आप अनचाहे ही योद्धाओं सरीखे बन जाते हैं । विश्व में केवल यही सब चल रहा है । रोको इस अभियान को ।
एक विचाधारा भोले भाले लोगों के खिलाफ षड्यंत्र कर उनको भड़काती है नक्सलवादी बनाती है । अक्सर देखा कि कुछ लोग एक समूह में विद्वेष पैदा करते हैं उसे दो भागों में बांटते हैं फिर उनमें वैमनस्यता के बीज बोते हैं। यही कारण है कि भारत में कई आयातित विचारक सफल हो रहे हैं । जैसे ही यह विचारधारा सत्ता के शीर्ष पर बैठाती है तो जनाधिकार समाप्त होने लगते हैं । चीन इसका सर्व सुलभ उदाहरण है । 

*आज के दौर में क्षद्मयुद्ध से कैसे बचें...?*
हम घर में बच्चों के सामने बैठकर रिश्तेदारों अडोस पड़ोस के वाशिंदों की निंदा करते हैं । क्योंकि हम युद्धोन्मादी हैं । वैचारिक मतभेद को भी शत्रुता का पर्याय बना देते हैं । 
*अपनी बात स्वीकार्य न होने पर निर्लज्ज, धूर्त, कायर, जैसे अपशब्दों का प्रयोग तक कर देतें हैं । सत्ता कभी किसी के पाशबन्धन में नहीं रहती । सत्ता केवल ईश्वर की ही होती है उसके यशगान में समय लगाना ही आज के दौर में विसंगतियों से धर्मयुद्ध करो अर्थात तपस्यारत हो जाओ ।*
*तपस्या* ऊर्जा (एनर्जी ) एवम प्रकाश का सात्विक स्वरूप है । तपस्यारत योगी केवल सन्यासी हो ऐसा नहीं है । वो गृहस्थ भी होता है । सनातन परंपरा का यही उदघोष है । सनातन दर्शन भी यही कहता है कि आत्म मंथन करो खुद में व्याप्त अहंकार से लड़ो दूसरे से लड़ने में क्या मिलेगा ? जब मुझमें ईर्ष्या, रागद्वेष, उपेक्षा, वासना, हिंसा, अहंकार, पद लालसा , जैसे शत्रु मौज़ूद हैं तो तपस्या नामक धर्मयुद्ध का सहारा लेना चाहिए । मेरे तपते ही ये सभी शत्रु सब सहज रूप खत्म हो सकते हैं । 
*सुप्रभात नर्मदे हर*

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