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बुधवार, अगस्त 26, 2020

*धर्मयुद्ध : क्रूसेड्स, ज़ेहाद, महाभारत एवम लंका-विजय..!*

बाबूजी ने बताया था कि उनकी टेक्स्ट बुक में *एथेंस के सत्यार्थी* शीर्षक से एक पाठ था । उनके अनुसार एथेंस के सत्यार्थी तिमिर से प्रकाश की कल्पना करते हुए ज्योतिर्मय होना चाहते थे । जबकि सनातनी दर्शन में हम प्रकाश से महाप्रकाश में विलीन हो जाना चाहते हैं ! 
अब्राहम धर्मों के लोग कहते हैं - अल्लाह सबका है हर चीज पर उसका अधिकार है ! 
हम कहतें हैं - सबमें ब्रह्म है । परस्पर विरोधी विचार होने के बावज़ूद दौनों ही विचार युद्ध से विमुख करते हैं । 
ईसा मसीह कभी हिंसा पर भरोसा नहीं करते थे । तो फिर 
फिर क्रूसेट क्यों हुए थे ?
अथवा फिर ज़ेहाद क्यों होते हैं ?
इसके अलावा सनातन आर्यावर्त्य के धर्मयुद्ध लंका-विजय एवम महाभारत हैं आइये सबसे पहले जानते हैं कि- 
*धर्मयुद्ध क्या है ?* 
क्रुसेड्स एवम ज़ेहाद से भिन्न हैं आर्यावर्त्य के धर्मयुद्ध । 
रामायण और महाभारत पढ़कर भी अगर हम यह नहीं जान सके की सनातन में धर्म युद्ध क्यों हुए थे अथवा धर्मयुद्ध क्या हैं ? तो इस परिभाषा को जानिए ....
*"धर्मयुद्ध का अर्थ न्याय के समर्थन में किये गए युद्ध । जो भूमि सत्ता एवम कमज़ोर लोगों को धमकाने के लिए न किए गए हों ।*
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ईसा ने युध्द का समर्थन नहीं किया, क्योंकि ऐसा नहीं चाहते थे कि हिंसा के आधार पर ईसाई विचारधारा चले ! परन्तु सन 1000 के बाद एक फ्रांसीसी नागरिक स्टेफा के मन में ऐसे विचार ने जन्म लिया जो यरूशलम पर हक़ साबित करने से संबंधित था । उसने लोगों को प्रेरित किया । 
यहूदियों और मुस्लिमों के विरुद्ध उनके (करुनानिधान ईसा ) के अनुयाईयों ने युद्ध में सक्रियता दिखाई । क्योंकि वे चाहते थे, कि -"युद्ध के जरिए यरूशलम पर से इस्लामिक मतावलंबियों से कब्जा वापस प्राप्त किया जाए"
उन्होंने नौ बार यह कोशिश की, कि वह यरूशलम की पवित्र धरती को अपने अधिकार में प्राप्त कर लें । पहला धर्म युद्ध अर्थात क्रुसेड 1095 के लगभग शुरू होकर 4-5 साल तक चला और येरुशलम पर ईसाइयों ने भौतिक कब्जा भी हासिल कर लिया । शेष क्रुसेड्स लगभग 250 साल से 300 अर्थात 12वीं सदी के अंत तक चले ।
दूसरा युद्ध पवित्र येरुशलम पर कब्ज़ा पाने ज़ेहाद के रूप में हुआ । साफ है कि जब मुस्लिम आक्रमण करते थे तो ज़ेहाद होता था जब ईसाई लोग आक्रमण करते थे तो उसे क्रूसेड कहते थे । मुद्दा केवल येरुशलम की पवित्र भूमि पर अधिकार लेना मात्र था । 
यरूशलम को लेकर तीनों अब्राहिम धर्मों की स्थिति आज भी यथावत है । पर सभ्यता के विकास के साथ साथ युद्ध बहुत दिनों से सुनाई नहीं दे रहे हैं परंतु वैमनस्यता कहीं ना कहीं लोगों के हृदय में पल जरूर रही है और नज़र भी आ जाती है। क्रूसेड-ज़िहाद के दौर में कहा जाता है कि लाखों लोग मारे गए । यहूदी ईसाई मुस्लिम इनकी संख्या इतनी थी के आज तक कोरोनावायरस की वजह से इतनी अप्रत्याशित मौत नहीं हुई है । मरने वालों आम जनता की संख्या अधिक थी । 
यह दोनों प्रकार के धर्मयुद्ध यानी ज़ेहाद और क्रूसेड एक साथ हुए अर्थात आपसी वार-प्रतिवार थे । 
*सनातन व्यवस्था के अंतर्गत भी दो धर्मयुद्ध हुए हैं*
सनातन व्यवस्था में भी दो धर्मयुद्धों का स्मारक विवरण दर्ज है । 
*एक - लंका विजय*
*दो - महाभारत*
एक:- लंका विजय पर मैंने पूर्व में अपने एक लेख में स्पष्ट कर दिया है कि एक ब्राह्मण राजा को भगवान राम ने क्यों मारा ? 
इसका कारण यह है कि रावण एक ऐसा राजा था जिसने- आर्यावर्त्य की भूमि के लिए तो कभी युद्ध बिल्कुल कभी नहीं किया । ऐसा कोई भी प्रसंग हम-आपको देखने सुनने में नहीं मिला होगा जब रावण ने भारत में आकर किसी राजधानी या बड़े नगर को खत्म किया हो और उधर अपना ध्वज फहराया हो !
राम ने रावण को इसलिए मारा क्योंकि वह- जंगलों में साधनारत लोगों अर्थात ऋषियों मुनियों को अपहरण कर अपने देश में ले जाता था । और उनसे सिर्फ अपने देश के लिए कार्य कराता था । अर्थात वह बौद्धिक सम्पदाओं का अपहर्ता एवं विनाशक था । 
राम ने रावण के साथ युद्ध किया और उसे पराजित कर उचित उत्तराधिकारी को राज्य सौंप दिया । राज्य सौंप कर वे लंका से वापस आ गए । यह वास्तविक धर्म युद्ध था । इस युद्ध के ज़रिए राम ने विश्व को अवगत कराया कि- *"किसी राज्य की बौद्धिक संपदा पर बलात कब्ज़ा कर लेना बड़ा अपराध है ।"*
रक्ष-संस्कृति का समूल विनाश कर राम ने न केवल सीता को मुक्त कराया वरन उन समस्त ऋषियों मुनियों एवम विद्वानों को मुक्त कराया जो रावण के गुलाम थे । 
*(नोट- कोई विद्वान पाठक अगर यह मानते हैं कि रावण ने आर्यावर्त पर एक इंच भी भूमि अधिकार में ली हो तो कृपया संदर्भ सहित बताने की कृपा कीजिए । )*
दो:- पांडवों ने कौरवों के साथ जो कि धर्मयुद्ध था । जिसमें कृष्ण ही नायक थे पर परोक्ष रूप से । यह युद्ध 5 गांवों के लिए था । कौरवों की अंतिम मांग यही थी न । अगर दुर्योधन और उसके पिता धृतराष्ट्र इस बिंदु पर न्याय पूर्ण निर्णय ले लेते तो महाभारत नहीं होता । यह धर्मयुद्ध एक सबक भी है उन बलिष्ठ लोगों के लिए जो पैतृक संपत्ति के अधिकार से अपने अन्य कमज़ोर भाईयों (अब बहनों को भी) को वंचित रखते हैं । सिविल अदालतों में ये युद्ध आज भी जीवित नज़र आ जाते हैं । कभी भी जानते या अनजाने में किसी कमज़ोर सहोदरों के साथ अन्याय करते ही धर्मयुद्ध की संभावना बलवती रहती है । यदि कमज़ोर सहोदर या सहोदरी प्रतिकार न भी करे तो जान लीजिए वह व्यक्ति जो शोषण करता है कृष्ण के शाप का शिकार अवश्य ही होता है । ऐसे प्रकरण हम-आप अक्सर भौतिक जीवन में देखा करते हैं । 
महाभारत के बाद कृष्ण भी द्वारका वासी हुए। वे युद्ध नहीं चाहते थे । चाहते तो वे हस्तिनापुर के सिंहासन पर बैठ जाते पर वे एक ग़लत नीति के विरोध के लिए पांडवों के साथ थे । वे जानते थे कि उनकी भूमिका कहां तक सीमित है । वे अपनी भूमिका निभा कर मुक्त हो गए । 
सनातन व्यवस्था में आर्यावर्त्य में सम्पन्न युद्ध ही धर्मयुद्ध कहे जा सकते हैं । 
शेष अर्थात वर्तमान कलयुग के क्रुसेड्स एवम ज़ेहाद को लेखक के रूप में निर्भीक होकर धर्मयुद्ध नहीं. मानता . ऐसे युद्ध केवल भूमि अतिक्रमण की वजह से उत्प्रेरित विस्तार वादी युद्ध मात्र हैं । 
युद्ध मत करो.. युद्ध को धर्मयुद्ध का मुलम्मा मत चढ़ाओ । युद्ध मानवता का दुश्मन है । युद्ध के लिए उकसाया न जावे । 
इन दिनों मीडिया युद्ध के लिए तुरही वादक के रूप में तैनात रहता है । रोज़ शाम को टेलीविजन पर युद्धोन्माद भरी बहस चलतीं हैं । अब तो टीवी चैनलों को देखना बन्द कर दिया । आप अनचाहे ही योद्धाओं सरीखे बन जाते हैं । विश्व में केवल यही सब चल रहा है । रोको इस अभियान को ।
एक विचाधारा भोले भाले लोगों के खिलाफ षड्यंत्र कर उनको भड़काती है नक्सलवादी बनाती है । अक्सर देखा कि कुछ लोग एक समूह में विद्वेष पैदा करते हैं उसे दो भागों में बांटते हैं फिर उनमें वैमनस्यता के बीज बोते हैं। यही कारण है कि भारत में कई आयातित विचारक सफल हो रहे हैं । जैसे ही यह विचारधारा सत्ता के शीर्ष पर बैठाती है तो जनाधिकार समाप्त होने लगते हैं । चीन इसका सर्व सुलभ उदाहरण है । 

*आज के दौर में क्षद्मयुद्ध से कैसे बचें...?*
हम घर में बच्चों के सामने बैठकर रिश्तेदारों अडोस पड़ोस के वाशिंदों की निंदा करते हैं । क्योंकि हम युद्धोन्मादी हैं । वैचारिक मतभेद को भी शत्रुता का पर्याय बना देते हैं । 
*अपनी बात स्वीकार्य न होने पर निर्लज्ज, धूर्त, कायर, जैसे अपशब्दों का प्रयोग तक कर देतें हैं । सत्ता कभी किसी के पाशबन्धन में नहीं रहती । सत्ता केवल ईश्वर की ही होती है उसके यशगान में समय लगाना ही आज के दौर में विसंगतियों से धर्मयुद्ध करो अर्थात तपस्यारत हो जाओ ।*
*तपस्या* ऊर्जा (एनर्जी ) एवम प्रकाश का सात्विक स्वरूप है । तपस्यारत योगी केवल सन्यासी हो ऐसा नहीं है । वो गृहस्थ भी होता है । सनातन परंपरा का यही उदघोष है । सनातन दर्शन भी यही कहता है कि आत्म मंथन करो खुद में व्याप्त अहंकार से लड़ो दूसरे से लड़ने में क्या मिलेगा ? जब मुझमें ईर्ष्या, रागद्वेष, उपेक्षा, वासना, हिंसा, अहंकार, पद लालसा , जैसे शत्रु मौज़ूद हैं तो तपस्या नामक धर्मयुद्ध का सहारा लेना चाहिए । मेरे तपते ही ये सभी शत्रु सब सहज रूप खत्म हो सकते हैं । 
*सुप्रभात नर्मदे हर*

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