28.8.20
एक हथे पूरन दद्दा जू...
26.8.20
*धर्मयुद्ध : क्रूसेड्स, ज़ेहाद, महाभारत एवम लंका-विजय..!*
25.8.20
disability : only a matter of perception.” by Humans of Bombay
24.8.20
बिटक्वाइन के कारण मुझे हुआ ₹ 872,871.30..?
15.8.20
महाकौशल की वीरांगना अवन्तिबाई का स्वतन्त्रता आंदोलन में योगदान
11.8.20
आओ....खुद से मिलवाता हूँ..!! भाग 03
आओ....खुद से मिलवाता हूँ..!! भाग 03
जन्म से आगे के 3 साल में भी जन्म से 12 माह की अवधि सबसे महत्वपूर्ण होतीं हैं ।
यही शैशवावस्था सम्पूर्ण विकास
का आधार है । किन्तु दक्षिण एशिया में इसे सबसे उपेक्षित रखा गया था आज़ादी के पूर्व से आज़ादी के 20 साल बाद तक । जन्म से लेकर 3 वर्ष की उम्र में शिशु को जिस श्रेणी की देखभाल की ज़रूरत होती है, उन मुद्दों पर किसी का ध्यान ही न था।
1 किशोरावस्था में बालिकाओं की उपेक्षा
2 अपरिपक्व आयु में विवाह
3 प्रसव पूर्व उचित देखभाल न होना
4 प्रसव की घटना को गम्भीरता से न लेना
5 जन्म के घण्टे भर में माँ का दूध न पिलाना
ये सब उस देश में होना जारी था जहां शेर के दांत बालक ने गिने थे, जी हाँ जहाँ का बालक नाग नाथ देता है और न जाने कितनी कथाएं बाल साहस की उपलब्धियों से भरी
पड़ीं हों.... मित्रों एवम सुधिजन आज से जन्माष्टमी का पर्व मनाए जाने की शुरुआत हो जावेगी ऐसा माहौल तत्कालीन भारत में भी था पर जन्मे अजन्मे बच्चों पर कोई नज़र न थी । इसे प्राकृतिक घटना और भगवान के भरोसे होने वाली घटना मानके होने दिया जाता रहा है । पर यहाँ एक बात बहुत आवश्यक है बताना कि भारत में बच्चों के जन्म के लिए ऐसा न था । मध्यकालीन युग में जब हिंसक परिस्थितियों ने भारत को विचलित किया तब से भारतीय परंपरागत व्यवस्थाएं बुरी तरह ध्वस्त हो गईं । वरना भारतीय संस्कृति में जन्म को एक महान घटना ही माना जाता रहा था । गर्भवती स्त्रीयों के प्रति सम्मान के भाव थे । इसका प्रमाण गर्भवती महिलाओं को प्रसव के पूर्व से ही शिशु के जन्म तक विशेष ध्यान देते हुए पुंसवन संस्कार से लेकर प्रसव तक बेहद प्रभावी नियम बने थे । जैसे पौराणिक कथाओं में गर्भवती स्त्रियों के लिए भोजन उसको आध्यात्मिक विषयो से जोड़े रखना तथा उसको मायके भेज कर उन्मुक्तता युक्त वातावरण देना । पर कालांतर में यह सब जैसे रुक सा गया । आर्थिक सामाजिक परिवर्तन के कारणों से गृहस्थ मुखिया ऐसा नहीं कर सकते थे । लोगों को सौ साल पहले जीवन को बचाने की संघर्ष करने होते थे । जिसका प्रभाव सामाजिक जीवन पर तेज़ी से पड़ा ।
इसका जिक्र इस आत्मकथा में क्यों कर रहा हूँ सोच रहे हैं न आप ?
तो जानिए मेरे जैसे स्वतंत्रता के बाद जन्में लोगों के लिए न तो सफलता पूर्वक जन्म लेने की अनुकूलता थी और न ही संसाधन । मेरा एक ममेरा भाई है । उसका जन्म के समय दाई ने जिस प्रकार नाड़ा काटा उससे उसके शरीर से अत्यधिक मात्रा में रक्त स्राव हुआ । और उससे उसका जीवन बहुत प्रभावित रहा है । इसे उसका दुर्भाग्य नहीं मानता हूँ वरन सामयिक परिस्थितियों को दोष देकर मुझे कोई शर्म महसूस नहीं हो रही है ।
मेरे जन्म के पूर्व के 50 साल तो और अधिक भयावह थे जब स्त्रियां बच्चे के रोने पर उसे अफीम दे दिया करतीं थीं ! ताकि बच्चा सोता रहे और वह घरेलू दायित्व का निर्वहन करती रहे । ये सत्य है क्योंकि यह माँ ने बताया था । और माँ झूठ नहीं बोलती ।
खैर छोड़िए यह सब आप तो जानिए कि आगे क्या हुआ । मेरे खयाल से मेरे जीवन में इससे आगे क्या हुआ इस बात को भाग 04 में बताना ही उचित होगा । तब तक आप अपने बच्चों के जन्म से उसके शैशव काल, बाल्यकाल में आपके अपने दायित्वों का निर्वहन की समीक्षा कर लीजिए । कुछ ग़लत लिखा हो तो बताइए अवश्य ।
( शेष जारी भाग 4 में.....)
10.8.20
आओ....खुद से मिलवाता हूँ..!! भाग 02
आओ....खुद से मिलवाता हूँ..!! भाग 02
जब बीते क्षण याद आएं तब
चेहरे तैरा करते हैं ज़ेहन में ।
कुछ ध्वनियाँ भी गूंजा करतीं -
बन गीत मेरे आकुल मन में ।।
माँ, मौसी ने माना कान्हा मुझको
जब चंचल हो कर मुस्काता हूँ ।।
सालीचौका में मुझे एक रेलवे वाला गैंगमेन बहुत स्नेह करता था तब मेरी उम्र कोई एक बरस की होगी नाम था - हरि ।
माँ ने बताया हरि कुछ दिनों के लिए अपने गांव गया तो मैं बीमार पड़ गया । कौन था हरि ? ज़रूर उससे कोई सम्बंध होगा पूर्व जन्म का ऐसा सब कहते थे । पर बाद में आदि गुरु के बारे में सुना घर में सत्संग से कुछ समझा तो पता लगा कि- हरि सबके होते हैं सबमें होते हैं । यही है अद्वैत..! हरि कोई निर्देशक नहीं उससे डरो मत वो भयावह नहीं न वो किसी को दण्ड देता है न किसी को मारता है न ही ऐसा कोई फैसला करेगा या करता है कि तुम स्वर्ग जाओगे वो नर्क जाएगा । क्योंकि न स्वर्ग है न नर्क । न अप्सराएँ हैं न देवता न गन्धर्व ये प्रतीक-संज्ञा हैं जैसे कुबेर धन का देवता न कुबेर तो इकोनामी है । गन्धर्व वे हैं जो कला के संवाहक हैं । अप्सराएँ वो मनोदशा है जो लोक रंजन के लिए प्रफुल्लित कर देतीं हैं अपनी थिरकन से । नवरस सात स्वर भाव चिंतन दर्शन लेखन पठन-पाठन सब स्वर्ग के संसाधन हैं । हम इनको संग्रहीत कर सकते हैं.. हाँ हम घर, मोहल्ले, गांव, नगर, देश और इस धरती को स्वर्ग बना सकते हैं । यही है हरि का परमादेश । वो कोई आज्ञा नहीं देता । तुम जैसा करोगे वैसा ही प्रतिफल पाओगे ये तय है है न SSSSS ?
ये बचपन में नहीं बाद में समझ सका बचपन तो बचपन था ।
क्षमा कीजिए कथा लिखते लिखते दार्शनिक आलेखन करने लगा था ...! क्या करूँ विचार प्रवाह कभी कभी भटका देता है ।
आगे क्या हुआ ?
अक्सर रेलवे वालों के आपसी सम्बन्ध चाचा चाची , दादा जी , मामाजी मामी जी वाले बन जाते थे । वो दौर प्रेम विश्वास और स्नेह का सागर इधर उधर विस्तारित करने का दौर है । घरों के आपसी रिश्ते आज तक जिंदा हैं । कितना मारोगे अमर हैं मरते ही नहीं । बाबूजी ने सालीचौका के एक रईस को बिना टिकिट पकड़ा और फिर कहा था -'साले तुम अगली बार से बिना टिकट नहीं आओगे वरना हम तुम्हारा चार्ज कर देंगे ।
पता नहीं बाबूजी ने किस तरह आत्मीयता से डांटा कि उसने बाबूजी को चैलेंज कर दिया - 'सुनो, बाबूजी साला कहा है न तो पीछे मत हटना रिश्ता आप भी निभाना समझे ! पैर छूकर चौकसे जी निकल गए और पूरे चौकसे जायसवाल हमारे मामा जी बन गए । हमारे घर की हर शादी में सिवनी मालवा, सालीचौका, से ममेरा (निमाड़ी/भुवाणी) अर्थात चीकट (बुंदेली) लेकर हमारे मामा आया करते थे । उधर गुरुदेव के जितने भी साधक परिवार थे सबसे चाचा चाची ताऊ ताई वाले रिश्ते बनें । हम सबको ननिहाल, ददिहाल वाले के खून के रिश्तों का और इन रिश्तों के फ़र्क़ बहुत देर से यानी किशोरावस्था में पता लग पाए ।
माँ मुझे काजल लगा के डिठौना लगाना नहीं भूलती । शायद माँ की गोद वाला कोई ऐसा फोटो मुम्बई वाले काकाजी (श्री आर एन जी बिल्लोरे ) के पास देखा था । इस फोटो में मेरा चेहरा बहुत खूबसूरत है । माँ की गोद वाला फोटो एकदम मरफ़ी मुन्ने की तरह लगता था ऐसा कभी मौसी जी ने बताया था कि जब तुम ढेड़ साल के थे तब पोलियो का शिकार हो गए वरना तुमसे सुंदर कोई बच्चा न था घर में । पोलियो के कारण शरीर का दायां भाग प्रभावित हुआ और दवाओं के कारण तुम वैसे न रह गए जो इस बीमारी के बाद हुए ।
मुझे अक्सर लगता था कि मैं सामान्य हूँ क्योंकि मेरे सामने कोई ऐसी बातें नहीं होतीं थी जिससे मुझे यह महसूस हो कि अन्य बच्चों से अलग हूँ । अगर बालसुलभ गलतियां हुईं तो समान रुप से दण्ड का भागीदार होता था । यानी परिवार ने मुझे एक्स्ट्रा आर्डिनरी नहीं वरन एक सामान्य बच्चे की तरह पाला पोसा ।
हाल के वर्षों में जब बालभवन में किसी दिव्यांग बच्चे की माँ उसके एडमिशन के लिए आईं बहुत उदास थीं । आखिर माँ जो थीं ।
उनको समझाता हूँ .. माँ तुम नहीं जानती कि ये सन्तान ईश्वर है जो तुम्हासे अपनी सेवा कराना चाहते हैं । तुम उसको बोझ तो नहीं
हो !
न बोझ नहीं समझती ।
तब ठीक है उसकी सेवा करो , यही ईश्वर की पूजा है । और एक बात पूछूं सही सही बताना ?
जी , पूछिए सर..!
जब ईश्वर की पूजा करती हो तो रोती हो क्या ?
नहीं कभी नहीं !
तो इस बच्चे की सेवा एक पूजा है । और न तो पूजा बोझ होती है जो आप रोएं .... रोते हुए की गई पूजा ईश्वर को भी स्वीकार्य नहीं होती ।
ऐसे शब्द केवल वोही बोल सकता है जिसने उसे महसूस किया हो !माँ ने ये सब मुझे पहले ही महसूस करता दिया था । तभी तो किसी को दौड़ता देख खुद में हीनभावना महसूस नहीं की ।
क्रमशः जारी
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